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महाकवि कालिदास कृत महाकाव्य कुमारसम्भव में शिवजी द्वारा विवाह पूर्व पार्वती की परीक्षा

महाकवि कालिदास कृत महाकाव्य कुमारसम्भव में शिवजी द्वारा विवाह पूर्व पार्वती की परीक्षा
पार्वती जन्मजन्मांतर से शिवजी को पति रूप में प्राप्त करना चाहती थी। दक्ष प्रजापति के घर सतीरूप में जन्म लिया था। एक बार दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में शंकर तथा सती को निमन्त्रित नहीं किया। आकाश मार्ग से सती ने देवताओं के विमानों को जाते देखा तो शंकरजी से इसका कारण पूछा। शंकरजी से सती को ज्ञात हुआ कि दक्ष प्रजापति ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया है और तुम्हें निमंत्रित नहीं किया है। सती ने शिवजी से आग्रह किया कि वह पिता के घर जाना चाहती है तो शिवजी ने उन्हें समझाया कि हमें निमन्त्रित नहीं किया है। अत: वहाँ जाना उचित नहीं है, किन्तु सती फिर भी पिता के घर गई। उन्होंने यज्ञ में शंकरजी का भाग नहीं देखा। सती के पारिवारिक सदस्यों ने भी उनसे सम्मानपूर्वक चर्चा नहीं की। यह देखकर सती ने अपने आपको योगाग्नि में समर्पित कर दिया। यज्ञ मंडप में शिवगणों ने हाहाकार मचा दिया। यज्ञ का विध्वंस कर दिया। शंकर भी मानसिक रूप से विचलित हो गए। दक्ष प्रजापति का धड़ से सिर अलग कर दिया। शंकरजी सती के शव को लेकर जगह-जगह घूमें। स्थान-स्थान पर सती के अंग गिरते गए। उन जगहों पर शक्ति पीठ की स्थापना की गई।
सती ने मैना तथा हिमवान के घर एक सुन्दर कन्या के रूप में जन्म लिया। उनका नाम, पर्वत की पुत्री होने से पार्वती रखा गया। पार्वती तो जन्म जन्मान्तर से शंकर को पति रूप में स्वीकार कर चुकी थी। जब वह विवाह योग्य हुई तो सखियों के साथ निर्जन घने वन में जाकर शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या करने लगी। उनकी माता ने उन्हें बहुत समझाया कि घर पर रह कर भी तपस्या की जा सकती है क्योंकि वन्य पशुओं का भय वन में रहता है। पार्वती सखियों के साथ वन प्रदेश में तपस्या रत थीं। शिवजी ने जब इस बात की चर्चा सुनी तो वे तपस्यारत पार्वती की उनके प्रति प्रेम की परीक्षा लेने एक ब्रह्मचारी का वेष धारण कर वन प्रदेश में पहुँचे। वे वहाँ पार्वती को शंकर के सम्बन्ध में भला-बुरा कहने लगे। जिसे सुनकर अपने निर्णय पर अडिग पार्वती जरा भी विचलित नहीं हुई। महाकवि कालिदास द्वारा रचित महाकाव्य ”कुमारसंभवÓÓ के पंचम सर्ग में इस सम्पूर्ण घटनाक्रम का बड़ा ही रोचक वर्णन किया है-
अथाऽजिनाषाढ़धर: प्रगल्भवाग्ज्वलन्निव ब्रह्ममयेन तेजसा।
विवेश कश्चिज्जटिल स्तपोवनं शरीर बद्ध: प्रथमाश्रमोयथा।।३०।।
(कुमारसंभव-पंचम सर्ग)
अर्थात – एक दिन कृष्णाजिन तथा पलाश दण्डधारी जटायुक्त कोई अपरिचित ब्रह्मचारी पार्वती के आश्रम में उपस्थित हुआ। उसकी आवाज गंभीर थी, और वह ब्रह्मतेज से पूर्ण था। ज्ञात होता था कि ब्रह्मचर्याश्रम स्वयं मूर्ति मान होकर तपोवन में मानो आविर्भूत हुआ है।
शास्त्रोक्त विधि से पार्वती ने उस ब्रह्मचारी का पूजन, सत्कार किया। उसने भी पार्वती से सघन वन में तपस्या करने का कारण पूछा। वन में किसी हवन द्रव्य साधन की न्यूनता तो नहीं है? स्वच्छ जल सुलभ है कि नहीं? शरीर की शक्ति के अनुसार ही तप करना और अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना क्योंकि, ”शरीर माद्यं खलु धर्मसाधनम्।ÓÓ यहाँ के वातावरण में, लता बेल के नव पल्लव से तथा उछल कूद करने वाले हरिण से तुम्हारा मन प्रसन्न तो हो रहा है ना? शिव कहते हैं कि तुम्हारा सद्व्यवहार ऋषि  मुनियों के लिए भी शिक्षा प्रद है। तुम्हारा चरित्र शीलवान है, जिससे तुमने मातृ-पितृ कुलों को पावन कर दिया है। हे पार्वती! सुनो-
अनेन धर्म: सविशेषमद्य मे त्रिवर्गसार: प्रतिभाति भाविनि।
त्वया मनोनिर्विषयाऽर्थकामया यदेक एव प्रतिगृह्य सेव्यते।।३८।।
(कुमारसंभव-पंचम सर्ग)
अर्थात – हे उदार हृदये! तुमने अपने पितृगृह में सुलभ अर्थ व काम के त्याग कर केवल धर्म में ही अपना चित्त स्थिर किया, तब यह बात तो सिद्ध है कि धर्म, अर्थ तथा काम इन तीनों में धर्म ही श्रेष्ठ है। शंकर जी पार्वती की मन की बात ज्ञात करने के लिए आगे कहते हैं-
अहो स्थिर: कोऽपि तवेप्सितो युवा चिराय कर्णोत्पल शून्यतांगते।
उपेक्षते य: श्लथलम्बिनीर्जटा कपोल देशे कलमाऽग्रपिंगला ।।४७।।
(कुमारसंभव-पंचम सर्ग)
अर्थात््- ”आश्चर्य की बात है कि तुम जिस युवक को चाहती हो, वह दम्भी युवक बहुत निर्दयी है, ऐसा ज्ञात होता है कि बहुत दिनों से कर्णाभूषण रहित कपोल पर लम्बवान इन जटाओं की उपेक्षा करता हैÓÓ। जिसे तुम अपना पति मान बैठी हो वह अपने सौन्दर्य के मद में घमण्डी है। यदि ऐसा न होता तो तुम्हारे कुटिल भौंह युक्त सुन्दर नयन के सामने वह सर्वदा के लिए अपने आपको विसर्जित कर देता।
शंकरजी कहते हैं कि पार्वती तुम अधिक तपस्या मत करो। मैंने ब्रह्मचर्याश्रम में रहकर अत्यधिक तपस्या की है। अपनी तपस्या का अर्द्ध भाग तुम्हें प्रदान करता हूँ, इससे तुम्हें अभीष्ट पति प्राप्त हो जाएगा। यह सुनकर पार्वती लज्जित हो गई। पार्वती ने सखी को इशारा कर कहा कि वह ब्रह्मचारी को अभीष्ट पति के बारे में बता दे। सखी ने ब्रह्मचारी से कहा-
इयं महेन्द्र प्रभृती नधिश्रियश्चतुर्दिगीशानवमत्य मानिनी।
अरुपहार्यं मदनस्य निग्रहात् पिनाकपाणिं पति माप्तुमिच्छति।।५३।।
(कुमारसंभव-पंचम सर्ग)
अर्थात् – ”यह पार्वती इन्द्राणी आदि से भी बढ़कर अपना सौभाग्य समझती हुई इन्द्र, यमादि दिक्पालों से भी श्रेष्ठ शिव को ही अपना पति वरण करना चाहती है। काम के दग्ध होने पर शिव प्राप्ति का उपायान्तर न देखकर इसने तपस्या करना प्रारंभ की।ÓÓ
कामबाण से पीड़ित पार्वती का कामज्वर हिमालय की शीत से तथा ललाट पर चंदन के लेपन से भी शान्त नहीं हुआ। विरह वेदना से पीड़ित रात्रि में निद्रावस्था में भी शंकर! तुम कहाँ हो- ऐसा चिल्लाने लगती थी। पिता की आज्ञा से यह वन में तपस्या करने आई है। यहाँ आने पर इसने जिन बीजों का रोपण किया था वे अब वृक्ष में परिणित होकर फल देने लगे हैं। परन्तु इसकी कामना पूर्ति होती अभी तक दिखाई नहीं दे रही है।Ó शंकरजी (ब्रह्मचारी) स्वयं पार्वती से पूछते हैं कि क्या तुम्हारी सखी का वचन सत्य है। तब पार्वती कहती है-
यदाश्रुतं वेदविदांवर! त्वया जनोऽमुच्यै पदलंघनोत्सुक:।
तप: किलेदंतदवाप्ति साधनं मनोरथानाम गतिर्नविद्यते।।६४।।
(कुमारसम्भवम्-पंचम सर्ग)
अर्थात्- हे वेद श्रेष्ठ आपने जो कुछ अभी सुना है वह सत्य है। शिव को यह अभागिन पति रूप में प्राप्त नहीं कर सकती है। यही इस तपस्या का कारण है। शंकरजी पार्वती से कहते हैं कि मैं उस महादेव को जानता हूँ। उसने तुम्हारे मनोरथ को भंग किया है। वह अमंगलचारी है। मैं तुम्हारे मन का अनुसरण नहीं कर सकता हूँ। तुम असार वस्तु में प्रेम रखने वाली हो। विवाह के मंगल सूत्र से भूषित यह हाथ शिव के सर्पभूषण युक्त का पाणि-ग्रहण कैसे करोगी? हंस के जोड़े की छाप वाला नवविवाहिता का वसन शंकर के गजासुर के चर्म से सम्पर्कित कैसे होगा। इस पर भी तुम जरा विचार करो। जन्म से तुम कुसुमाच्छादित भूभाग पर चलती रही हो, किन्तु अब तुम प्रेतों के आस-पास, भयंकर केशों को बिखेरे हुए, श्मशान भूमि पर लाक्षासर रंजित अपने चरणों को रखोगी। तुम्हारी ऐसी स्थिति कोई भी व्यक्ति चाहे वह शत्रु ही क्यों न हो स्वीकार नहीं कर सकता है।
इयं च तेऽन्या पुरतो विडम्बना यदूढयावारण राज हार्यया।
विलोक्य वृद्धोक्षमधिष्ठितं त्वया महाजन: स्मेरमुखोभविष्यति।।७०।।
(कुमारसम्भवम्-पंचम सर्ग)
अर्थात्- पितृ गृह से पति गृह को तुम हाथी पर जाने योग्य हो पर तुम तो वृद्ध वृषभ पर बैठकर वहाँ जाओगी। नगरवासी तुम्हें देखकर हँसेंगे। यह तो तुम्हारे लिए विडम्बना होगी। शंकर की अत्यधिक निन्दा करते हुए ब्राह्मण ब्रह्मचारी कहता है-
वपुर्विरुपाऽक्षमलक्ष्य जन्मता
दिगम्बरत्वेन निवेदितं वसु।
वरेषु यद् बाल मृगाऽक्षि! मृग्यते
तदस्ति किं व्यस्तमपि त्रिलोचने।।७२।।
कुमारसम्भव पंचम सर्ग-७२
अर्थात्- शिव विकृत लोचन है। उसके जन्म का भी कोई ठिकाना नहीं है और दिगम्बर है। पता चलता है कि यही इसकी सम्पत्ति है। वधू पक्ष के लोग वर में जो जो विशेषताएँ देखना चाहते हैं वे इसमें एक भी नहीं है।
अर्थात्- हे पार्वती! तुम इसे प्राप्त करने की इच्छा को त्याग दो। तुम एक सुलक्षणा कन्या हो, वह शंकर कई दोषों से युक्त है। जिस प्रकार वेदोक्त यज्ञ संस्कार श्मशान भूमि में नहीं हो सकता है, उसी प्रकार तुम जैसी सौभाग्यशाली महिला का विवाह श्मशानवासी शंकर से नहीं हो सकता है।
इस प्रकार शंकर के प्रति प्रतिकूल वार्ता सुनकर पार्वती क्रोधित हो गईं। उसके होंठ काँपने लगे। वह बोली-
इति द्विजातौ प्रतिकूल वादिनि
प्रवेपमानाऽधर लक्ष्य कोपया
विकुंचित भ्रूलतामाहिते तथा
विलोचने तिर्युगपान्त लोहिते।।७४।।
(कुमारसंभवम्-पंचम सर्ग)
अर्थात्- पार्वती ने जब ब्रह्मचारी के प्रतिकूल वचन सुने तो उनके ओष्ठ क्रोध से काँपने लगे। आँखें लाल हो गई, घृणा और क्रोध के भाव स्पष्ट दिखाई देने लगे। तिरछी दृष्टि से वे अनादरपूर्वक उस ब्रह्मचारी को देखने लगी। पार्वती पुन: बोली-
उवाच चैनं परमाऽर्थतो हरं,
न वेत्सि नूनं यत एवमात्थ माम्।
अलोक सामान्यमचिन्त्य हेतुकं,
द्विषन्ति मन्दाश्चरितं महात्मनाम्।।७५।।
(कुमारसम्भवम्-पंचम सर्ग)
अर्थात्- पार्वती कहने लगी कि तुम महेश को ठीक तरह से जानते नहीं हो। नहीं तो उनके विषय में मुझसे ऐसा न कहते। परमार्थ ज्ञान हीन मूर्ख लोग ही महान् व्यक्तियों को जानते नहीं है। वे दूसरों पर आक्षेप करते हैं।
शंकर कामवासना से रहित हैं। वे लोकत्रय के रक्षक हैं। उन्हें ऐश्वर्यादि मांगलिक पदार्थ में रुचि नहीं है। वे दरिद्र होने पर भी ऐश्वर्य के उत्पादक हैं। श्मशानवासी होने पर भी त्रिलोकीनाथ हैं। उनकी आकृति भयानक होने पर भी वे शान्त हैं।
तीनों लोकों में कोई भी उनके वास्तविक स्वरूप को जानने वाला नहीं है। शिव का शरीर सर्प से वेष्टित है या अलंकारों से भूषित है। उनका परिधान गजचर्म है या दुकूल है। वह कपालधारी है या चन्द्रशेखर है यह किसी को ज्ञात नहीं है। चिताभस्म भी महेश के शरीर को स्पर्श करने वाला हो जाता है। उनके ताण्डव नृत्य के समय जो भस्म उनके शरीर से गिरती है उस चिताभस्म को देवतागण बड़ी श्रद्धा से अपने सिर पर धारण करते हैं। ऐरावत हाथी भी वृषभारूढ़ हर के सामने किरीट सहित मस्तक झुकाते हैं तथा मन्दार वृक्ष के पुष्प रज से शिव के चरणों को हमेशा रंजित करते हैं। अपनी दोष दर्शन बुद्धि से हे ब्रह्मचारी तुमने कहा है कि वेद महेश्वर ब्रह्मा की भी सृष्टि करता है। ऐसे महेश्वर की उत्पत्ति हम कैसे जान सकते हैं। पार्वती कहती हैं-
अलं विवादेन यथा श्रुतस्त्वया तथा विधस्तावदशेष मस्तु स:।
ममाऽत्र भावैक रसं मन: स्थितं न कामवृत्तिर्वचनीय मीक्षते।।
(कुमारसम्भव-पंचम सर्ग-८२)
अर्थात्- कलह का क्या प्रयोजन है? तुमने जिस प्रकार हर को प्रमाणित किया है, यदि हर ऐसा भी हो तो भी मेरा हृदय उन्हीं पर निश्चल है। स्वच्छन्द कभी लोकोपवाद से नहीं डरता है। यह सुनकर ब्रह्मचारी के ओष्ठ स्फुरित होने लगे तो पार्वती बोली-
निवार्यतामालि! किमप्ययं बटु:
पुनर्विवक्षु: स्फुरतोत्तराऽधर:।
न केवलं यो महत्तोऽपभाषते,
श्रृणोति तस्मादपि य: स पापभाक्।।८३।।
(कुमारसम्भव-पंचम सर्ग)
अर्थात्- हे सखि! इसके ओष्ठ स्फुरित देखकर ज्ञात होता है कि यह वाचाल अभी और कुछ कहना चाहता है। अत: इसको बाहर निकाल दो। महाजनों की निन्दा करने वाला स्वयं पापी नहीं होता है वरन् जो उस निन्दा को सुनता है वह भी पाप का भागी हो जाता है। आगे पार्वती कहती हैं-
इतो गमिष्याम्यथवेति वादिनी,
चचाल बाला स्तनभिन्न वल्कला।
स्वरूपमास्थाय च तां कृतस्मित:
समाललम्बे वृष राज केतन:।।८४।।
(कुमार सम्भव-पंचम सर्ग)
अर्थात्- मैं ही इस वाचाल ब्राह्मण के सामने से दूर चली जाती हूँ क्योंकि यह लगातार शंकर की निन्दा किए जा रहा है। पार्वती का उत्तरीय अपने स्थान से हट गया। पार्वती जब जाने लगी तो ब्रह्मचारी ने अपना वेष त्याग कर स्वाभाविक स्वरूप में आकर पार्वती को पकड़ लिया। तब पार्वती की स्थिति ऐसी हो गई-
तं वीक्ष्य वेपथुमती सरसांऽगयष्टि
निक्षेपणाय पदमुद्धृतमुद्वहन्ती।
मार्गाचल व्यतिकराऽऽकुलितेव सिन्धु:
शैलाधिराज तनया न ययौ न तस्थौ।।८५।।
(कुमारसम्भव-पंचम सर्ग)
अर्थात्- पार्वती महेश्वर को साक्षात् देखकर, प्रियदर्शन से काँपने लगी। उन्हें पसीना आ गया। जाने के लिए उन्होंने जैसे ही अपना पैर आगे बढ़ाया तो जिस प्रकार नदी के प्रवाह वेग को पर्वत रोक लेता है वैसे ही पार्वती का पैर आगे नहीं बढ़ रहा था। वह चलने से रूक रहा था। तब ब्रह्मचारी वेष में शंकरजी बोले-
अद्य प्रभत्य वनतांऽगि! तवास्मि दास:,
क्रीतस्तपोभिरिति वादिनि चन्द्रमौली।
अन्हाय सानियमजंल्कममुत्ससर्ज
क्लेश: फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते।। ८६।।
(कुमारसम्भव – पंचम सर्ग)
अर्थात्- हे विनीत पार्वती! आज से मैं तुम्हारा तप से क्रीत दास हूँ, इस प्रकार शंकर का वचन सुनकर पार्वती उसी समय तपस्या के क्लेश से विरत हो गई। कार्य सिद्ध होने पर कष्ट प्रतीत नहीं होता है।
इस प्रकार शंकरजी ने विवाह पूर्व पार्वती की परीक्षा ली और वे इसमें सफल हुईं। आज भी कन्याएँ उत्तम वर प्राप्ति के लिए शिव पार्वती पूजन बड़ी श्रद्धा भक्ति से करती हैं। हरतालिका तीज, गणगौर तीज तथा शिवरात्रि उत्तम व्रत प्राप्ति के लिए ही व्रत उपवास है।

प्रेषक
डॉ. शारदा मेहता

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