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अकेले चीन ही नहीं पश्चिमी देशों के कुकर्मों का परिणाम भी है कोरोना वायरस का संकट

दुनिया को बाज़ार बना कर लूटने के पश्चिमी देशों के षड्यंत्रों का पिछले 500 बर्षो से दुनिया गवाह रही है। तीसरी दुनिया का हर नागरिक इस दर्द की पीड़ा की जानता है। आज कोरोना वायरस का प्रकोप दुनिया के 200 देशों तक फैल चुका है। दुनिया इसके लिए चीन को दोषी ठहरा रही है मगर उसके साथ पश्चिमी देश भी उतने ही दोषी है। इसके लिए पिछले कुछ दशकों के दुनिया के घटनाक्रमो को समझना होगा।

1) इसमें पहला चरण एशिया, अफ्रीका व लेटिन अमेरिकी देशों को गुलाम बनाकर लूटने का रहा जो इन देशो में पिछले 100 सालों में आयी जनजागृति के कारण आजादी के आंदोलनों में बदल गया और अंततः इन देशों को मुक्त करना पड़ा। मगर आजादी देने से पूर्व ” ड्रेन ऑफ वेल्थ” की रणनीति पर अमल करते हुए 400 बर्षो तक इन देशों का यथासंभव शोषण व लूट के खेल चलते रहे। विकसित देशों की प्रचुर दौलत व शानदार इंफ्रास्ट्रक्चर के पीछे यही लूट का माल है। जितने भी पिछली पीढ़ी के प्रवासी नागरिक आज इन देशों में है वे सब पुराने समय मे गुलामों के रूप में लाये गए लोग ही हैं।

2) बाज़ार के विस्तार व प्रचुर लाभ के लालच में इन देशों ने तीसरी दुनिया के देशों पर परोक्ष नियंत्रण के लिए “जैसा अन्न, वैसा तन और वैसा ही मन ” जो किसी भी मानव के विकास का मूल मंत्र है, पर नियंत्रण की चाल खेली। यानि मानसिक गुलाम बनाकर व अपनी संस्कृति व जीवन शैली थोपकर इन देशों पर नियंत्रण। बाजारवादी पश्चिमी ताकतों ने सुदृढ़ तन व समृद्ध मस्तिष्क वाले एशिया, अफ्रीका व दक्षिण अमेरिका के लोगों को क्रमिक रूप से बदलने के लिए “अन्न” बदलने का खेल खेला। पोषक तत्वों से भरपूर जैविक कृषि से उत्पादित अनाज कब हरित क्रांति के नाम पर मशीनीकरण, खाद, केमिकल व वसा युक्त हो कई गुना होने लगा पता ही न चला। किंतु साथ लाया एशिया में सीमित बुद्धि व कमजोर इम्यून सिस्टम व शरीर वाली अपार जनसंख्या यानि जनसंख्या विस्फोट। इससे अमेरिका, यूरोप व अन्य विकसित देशों को कई फायदे हुए। एक तो सस्ती लेबर व मेन पावर उपलब्ध हुई दूसरा अपनी फैक्ट्रियों के लिए बहुत बड़ा बाजार मिल गया। अपनी अय्याश जीवन शैली को बनाए रखने के लिए उनको यही चाहिए था भी। दुनिया भर में नारीवादी आंदोलन के पीछे भी यही बाजारू ताकते रही जिनको यही दो लालच थे – सस्ता श्रम व नया बाजार। नारी को काम धंधों में लगाकर एक कर जहाँ उनको लेबर व मैनपावर की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में मिलने लगी वहीं उसकी कीमत भी कम रही और बाद उपभोक्ता वर्ग भी मिल गया। इस कारण उनकी कंपनियों को प्रचुर लाभ की। संभावनाएं बनी रही। एशिया के देशों में पिछले 50 बर्षो में यूरोप व अमेरिकी कंपनियों ने प्रचुर मात्रा में उद्योग लगाए। जापान को पीछे छोड़ चीन तो ” विश्व की फैक्ट्री” के रूप में ही उभर कर सामने आया, तो दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, यूएई व भारत आदि भी एशिया में बड़े खिलाड़ी बनकर उभरे। अपने देशों को पर्यावरण के प्रदूषण से बचाने कर लिए भी अय्याश पश्चिम ने एशिया, दक्षिण अमेरिका व अफ्रीका का उपयोग किया। किंतु इन देशों पर नियंत्रण रखने के लिए इनके आपसी विवादों व आंतरिक अशांति को बढ़ावा देते रहे व सुलह सफाई और मध्यस्थता के नाम पर यूएनओ और नाटो की आड़ में समस्त दुनिया मे अपने सैनिक अड्डे बना नियंत्रण करते रहे । पश्चिमी एशिया में इजरायल अरब संघर्ष व दक्षिण एशिया में भारत पाक संघर्ष भी इसी खेल का हिस्सा है। नाटो देशो ने अमेरिका के नेतृत्व में पूरी दुनिया की नोसेनाओ द्वारा व परमाणु हथियारों द्वारा भी नोकाबन्दी की हुई है व अंतरिक्ष से निगहबानी व नियंत्रण भी। मगर इसकी आड़ में जो हथियारों व सैन्य सामानों जो बाज़ार खड़ा कर दुनिया को नृशंस तरीके से लूटा गया वो अलग ही कहानी है।

3) साम्यवादी व समाजवादी सोच व सरकार वाले विस्तारवादी सोवियत संघ और चीन को अपने लिए खतरा समझ इनके विरुद्ध बाजारवादी पश्चिमी देशों ने लगातार प्रत्यक्ष व प्रोक्सी वॉर छेड़े रखी और अंततः सन1980 से 1990 के बीच जहाँ वे चीन को बाज़ारबादी समाजवाद की ओर मोड़ ले गए वहीं सोवियत संघ को टूटने पर मजबूर कर उसे व उसके खेमे के देशों को भी अपने बाजारवादी तंत्र में शामिल कर लिया। साम्यवादी क्रांति को रोकने के लिए दुनिया मे इस्लामिक आतंकवाद व कट्टरपंथी बहाबी इस्लाम को पैदा करने व बढ़ाबा देने के पीछे यही पश्चिमी बाज़ारबादी ताकते है , जिसके दंश पूरा विश्व व स्वयं पश्चिमी देश आज भी झेल रहे हैं। इस खेल पर अपना नियंत्रण रखने के लिए नाटो देश शेयर बाजार, विश्व बैंक व आईएमएफ को तो हथियार के रूप में प्रयोग करते ही है , मगर उनका सबसे बड़ा हथियार है करेंसी वार। दूसरे देशों के उत्पादन को खरीदने से पहले उनकी शर्त होती है कि लेनदेन डॉलर , पोंड य यूरो में ही कियस जायेगा। ये करेंसी का खेल उनको कई गुने फायदे बिना कुछ करे धरे ही दिलवा देता है।

4) पश्चिम का नियंत्रण अब दुनिया की सोच, जीवन शैली, उपभोग के साथ शिक्षा व स्वास्थ्य पर भी हो चुका है। अरब देशों के साथ मिलकर जहाँ इन्होंने इस्लामी आतंकवाद को बढ़ावा दिया वहीं ” तेल के खेल” खेले। पूरी दुनिया को उपभोक्तावादी बना ऑटोमोबाइल के आकर्षण में फंसा दिया और दुनिया मे यातायात के साधनों का अंबार लग गया। पश्चिमी बाज़ारबादी ताकतों ने रोटी, कपड़ा, मकान जैसी मानव की बुनियादी आवश्यकताओं के साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य व न्याय जैसी बुनियादी आवश्यकताओ को भी उपभोग व बाज़ार का हिस्सा बना दिया और दुनिया के लोग इनको पाने के चक्कर में ही अपना जीवन उलझा बैठे। बाजार नित नए लूट के चमक दमक भरे खेल इन उपभोक्ताओं के सामने फेंकता रहता है और दुनिया उनके भ्रम जाल में चकरघिन्नी बनी रहती है।

5) बाज़ार पर कब्जे की होड़ में पश्चिमी देशों व दुनिया की कंपनियों में भी जबरदस्त प्रतिस्पर्धा व गुटबाजी है। उपभोक्ताओं की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए माल बनाने व बेचने से यह दौड़ बहुत आगे निकल गयी है व गलाकाट होड़ में बदल गयी है। अब दुनिया के लोग या तो मानव संसाधन बन गए है या उपभोक्ता में बदल चुके है। अब बहुराष्ट्रीय कंपनियां इनको अपने मायाजाल में उलझाए रखने के लिए तरह तरह के उत्पादों के जाल में उलझाए रखने के खेल खेलती रहती हैं। इसके लिए ये दुनिया भर में सरकारों को कमीशन देती है, लॉबिंग करती है व अपने उत्पादों के लिए बाजार बनाने में लगी रहती हैं। इनके लाभ भी मूल लागत के दो से लेकर बीस गुने तक होते हैं। अधिकांश क्षेत्रों में कड़ी प्रतिस्पर्धा के बीच ऐसे क्षेत्र खोजे जाते है जिनमे अधिकतम लाभ कमाया जा सके। ” जीवन की रक्षा” एक ऐसा विषय है जिसपर दुनिया का कोई भी व्यक्ति कोई समझौता नहीं कर सकता। इसलिए स्वास्थ के क्षेत्र में कई गुने लाभ की हमेशा संभावना रहती है। अमेरिका व यूरोप की कंपनियों ने दवाओं, वैक्सीन व जीवन रक्षक उपकरणों, स्वास्थ्य शिक्षा व सेवाओं के नाम पर हमेशा बड़ी लूट मचाई है व अपरिमित लाभ कमाया है। इस खेल में वे अनेक देशों की सरकारों, स्वास्थ्य विभाग, चिकित्सक संघों व चिकित्सको के साथ विश्व स्वास्थ्य संगठन, शोध संस्थानों, मेडिकल कॉलेजों को भी नेटवर्क में रखती है। इसके अतिरिक्त अनेक देशों में नोकरशाही, न्यायपालिका, एनजीओ, बुद्धिजीवियों व मीडिया को भी मोटा पैसा दिया जाता है। यह कह सकते है कि यह “सामुहिक लूट” का एक विश्व्यापी सुनियोजित खेल है जिसमे हर विश्वसनीय संस्थान हिस्सेदार होता है।
6) स्वास्थ्य के क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा वायरस व बैक्टीरिया फैलाकर बीमारियों को पैदा करना व व फिर उनके जांच, इलाज व निदान के लिए किट, वैक्सीन व दवाई, सेवाएं व उपकरण बेचने का धंधा दुनिया मे आम है । अभी तक इस खेल में पश्चिमी जगत की कंपनियों का कब्जा था जो कोरोना वायरस के खेल में अब चीन के कब्जे में आ गया।

7) पिछले तीस वर्ष में चीन दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक राष्ट्र बन चुका है और महत्वाकांक्षी भी। उसके पास प्रचुर मात्रा में विदेशी मुद्रा विशेषकर डॉलर , पोंड व यूरो हैं, सबसे बड़ी व अत्याधुनिक हथियारों से लैस सेना है। चोट खाए रूस का साथ है और पश्चिमी देशों के शोषण, धूर्तता व लूट हज़ारों किस्सों की दर्द भरी कसक भी। अब वह महाशक्ति बनना चाहता है और सोवियत संघ के अवसान के बाद उभरे एक ध्रुवीय विश्व मे शक्ति संतुलन पुनः स्थापित करने की कोशिश में है। इसीलिए उसने एक वायरस ” कोरोना” को प्रयोगशाला में म्यूटेशन द्वारा घातक बनाकर और प्रसारित कर बाज़ार से माल कमाने के साथ ही पश्चिमी देशों को सबक सिखाने व अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए ” जैविक हथियार” के रूप में प्रयोग किया है। उसका यह प्रयोग सफ़ल होता हुआ दिखाई भी दे रहा है। आज यूरोप व अमेरिका बर्बादी की ओर बढ़ रहे हैं। रोज हज़ारों लोगों की मौत हो रही है, पूरी दुनिया लॉक डॉउन है, अर्थव्यवस्थाएं धराशायी हो रही हैं और इसके बाबजूद नाटो देशों के हथियार शांत है और वे घुटने पर हैं, वे खुलकर चीन को दोषी भी नहीं ठहरा पा रहे है उस पर हमला करना तो दूर की बात। इतना विवश पश्चिम शायद ही किसी ने देखा हो और इन सबके बीच चीन ही अकेला ऐसा देश है जो आगे बढ़ता मोह चिढ़ाता दिख रहा है मानो पश्चिम से कह रहा हो देख ” मियां की जूती मियां के सर”।

8) अब बात इस घटनाक्रम के दुनिया पर पड़ने वाले प्रभाव की। चोट खाया पश्चिम देर सवेर चीन से बदला लेने की कोशिश अवश्य करेगा। वह बाज़ार पर अपने कब्जे को नहीं छोड़ना चाहेगा व अमेरिका भी पुलिस मेन बने रहने की कोशिश करेगा। ऐसे में विश्वयुद्ध छिड़ने की पूरी संभावना है। जिसमें भहरी जनधन व संसाधनो की हानि होनी तय है। नयी टेक्नोलॉजी व पर्यावरण की बढ़ती समस्या अब बाज़ार की पुनर्परिभाषित करने की कोशिश कर रही है। आईटी व कृत्रिम बुद्धि के विकास ने अब उद्योग धंधों में मैनपावर की आवश्यकता को सीमित कर दिया है। उधर ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री भी तेल से बिजली पर जा रही है और लगातार बढ़ती प्राकृतिक आपदाएं संसाधनो के सीमित उपयोग पर जोर दे रही है। ऐसे में अब बहुराष्ट्रीय कंपनियो को अधिक व सस्ते मानव संसाधन नही चाहिए और न ही बड़ा उपभोक्ता बाजार। इसीलिए टेक्नोलॉजी आधारित विकसित जीवन शैली वाले व वर्तमान विश्व की जनसंख्या के एक तिहाई या आधे लोग ही इनके लिए पर्याप्त बाजार हो सकते हैं। इस लक्ष्य को हासिल करने लिए अब चीन व तीसरा विश्व युद्ध ही बाजार का नेता या हथियार हो सकते हैं। देखते है कब तक यह युद्ध चलेगा व क्या क्या व कौन कौन बचेगा ?

कोरोना वायरस नहीं तीसरे विश्वयुद्ध का सूर्यग्रहण

यह मेरी समझ से बाहर है कि क्यों अभी तक नाटो देशों ने औपचारिक रूप से नहीं घोषित किया कि तीसरा विश्वयुद्ध प्रारंभ हो चुका है। जबकि इसका आरंभ तो अमेरिका द्वारा उत्तरी कोरिया व ईरान के विरूद्ध उठाए गए कदमों के साथ ही हो चुका था। बुरी तरह उलझे अंतरराष्ट्रीय संबंधों में वस्तुतः एक ही बार मे यह समझ पाना मुश्किल होता है कि कौन सा देश किसके खेमे में है। किंतु कोरोना वायरस के विश्वव्यापी संक्रमण के खतरनाक रूप से शिकार विश्व में विभिन्न राष्ट्रों की प्रतिक्रिया व उठाए जा रहे कदमों से स्पष्ट हो चुका है कि दुनिया फिर से दो खेमों में बंटने जा रही है अमेरिकी व चीनी।

सन 1989 तक विश्व जिसमें बाज़ारबादी अमेरिका व साम्यवादी सोवियत संघ के दो खेमें थे , वे 1989 में अमेरिका द्वारा सोवियत संघ के बिखराब व अवसान के बाद समाप्त हो चुके थे व सन 1990 से सन 2019 तक अमेरिका दुनिया की एक मात्र महाशक्ति था। किंतु अब यह समीकरण बदल चुका है व चीन ने सोवियत संघ की जगह ले ली है और रूस , उत्तरी कोरिया व ईरान उसके साथ हैं।
पूरी दुनिया के निर्माण की फैक्ट्री चीन ने अब दुनिया की एक मात्र महाशक्ति बनने की ठानी है और इसके लिए उसने अपनी लेबोरेट्री में कृत्रिम रूप से म्यूटेशन की प्रक्रिया द्वारा ( जेनेटिकली मोडीफाईड।) विकसित कोरोना वायरस का सोची समझी रणनीति बना पूरी दुनिया में प्रसार कर दिया जिसके कारण रोजाना हजारों मौत हो रही है व वायरस के कुचक्र से घबराई हुई दुनिया लॉकडॉउन हो गयी है। अमेरिका, इंग्लैंड, इटली व स्पेन जैसी महाशक्तियां व बड़ी अर्थव्यवस्थाएं असहाय व बर्बादी के कगार पर हैं तो बाकी दुनिया की क्या बिसात। इस अत्याधुनिक तकनीक से सुसज्जित जैविक, आर्थिक व मानसिक महायुद्ध से चीन ने नाटो देशों की कमर तोड़ दी है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद कि विश्व व्यवस्था जिसको अमेरिका के नेतृत्व में बना संगठन नार्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन ( नाटो) अब बिखरने के कगार पर है। दुनिया भर के शेयर बाजार क्रेश हो चुके है , बड़ी बड़ी कंपनिया दिवालियेपन की ओर है। पूरी दुनिया के उद्योग व व्यापार ठप्प हैं। कोई दवा, उपाय व तकनीक काम नहीं आ रही। अगले 60 दिनों तक इस स्थिति में कोई बड़ा बदलाव होने की उम्मीद भी कम ही है।
चीन जिसके वुहान शहर से यह वायरस पूरी दुनिया मे फैला अब सामान्य होता जा रहा है व अप्रैल तक पूरा चीन पुनः व्यवस्थित होकर पुराने स्वरूप में आ जाएगा व बड़ी मात्रा में उत्पादन शुरू कर देगा। एक ओर जहाँ कहीं पूरी दुनिया के कोरोना से त्रस्त देशों को इलाज, तकनीकी, आर्थिक सहायता, व वैक्सीन आदि देकर मदद पहुंचा अपने पाले में करने की कोशिश करेगा वहीं फार्च्यून 500 कंपनियों पर अपने कब्जे करता जाएगा। आने वाला अप्रैल का महीना ढहते हुए अमेरिकी वर्चस्व व बिखरते हुए नाटो संगठन की कहानी सुनाएगा, वही तेल के धरातल पर आए दामो के बीच अरब व इस्लामिक राष्ट्रों के धराशायी होने की भी। ऐसे में अंततः अमेरिका अपने वर्चस्व की वापसी के लिए अपने परमाणु व जैविक हथियारों, युद्धक विमानों, पोतों व अंतरिक्ष मे स्थित सेटेलाईटस को भी मैदान में उतारेगा और पूरी पृथ्वी भीषण तबाही की गवाह बन सकती है।
याद रखो मित्रों, पहला विश्वयुद्ध 4 बर्ष चला था और दूसरा 6 बर्ष , किंतु तीसरा कुछ ही महीनों में सब कुछ बर्बाद कर देगा। इतनी बर्बादी कि मानव जाति का अंत न हो जाए कहीं।
भारत की इस पूरे खेल में वहुत विचित्र स्थिति है। वह औपचारिक रूप से नाटो संगठन का एसोसिएट मेंबर है और अमेरिका का पिट्ठू है , किंतु चीन से बड़ी मात्रा में आयात करता है। रूस से भी भारत के संबंध संतुलित है और वीटो पावर वाले अन्य दो देशों इंग्लैंड व फ्रांस से भी। शीत युद्ध तक भारत व 100 से अधिक देश अमेरिका व सोवियत खेमों से बराबर की दूरी बना ” गुटनिरपेक्ष” बने रहे किंतु अब ऐसा करना बहुत ही मुश्किल है। टैब यह भी यक्ष प्रश्न होगा कि हम किसके साथ खड़े होंगे अमेरिका के या चीन के?
टूटती, बिखरती व आत्मघाती इस वर्चस्व की जंग में कोई बड़ी व निर्णायक भूमिका निभा पाना भारत के लिए मुश्किल ही है। अपने लोगों व हितों की कम से कम हानि वो करवा पाया तो यही अपने आप मे बड़ी बात होगी।हाँ, पाकिस्तान भारत के लिए कोई चुनौती शायद ही रह पाए इस महायुद्ध के बाद।किंतु इस सब के बीच भुखमरी, महामारी, बेरोजगारी, बेकारी, लूट, दंगे व बर्बादी के नित नए मंजरों से साक्षात्कार करने की नियति हमें शक्ति दे बस यही प्रार्थना है।

अनुज अग्रवाल
संपादक, डायलाग इंडिया

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