देश की आर्थिक स्थिति को लेकर मीडिया में चर्चाएं अचानक बढ़ गई हैं। पिछली तिमाही में कार और दो पहिया वाहनों की मांग में तेज़ी से आयी गिरावट के बाद तो कुछ ज्यादा ही चिंता जताई जाने लगी है। उधर विश्व में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भारत का ओहदा घट जाने की खबर ने भी ऐसी चर्चाओं को और हवा दे दी। अंदरूनी तौर पर वास्तविक स्थिति क्या है, इसका पता फ़ौरन नहीं चलता। हकीकत बाद में पता चलेगी। लेकिन फिलहाल सरकार उतनी चिंतित नहीं दिखाई देती। उसके पास कुछ तर्क भी हैं। मसलन जीएसटी से कर संग्रह पर असर पड़ा नहीं दिख रहा है। दूसरा तर्क यह कि अपने देश में उत्पादन में सुस्ती का एक कारण वैश्विक मंदी है। बहरहाल, आर्थिक हालत अभी उतनी बुरी न सही लेकिन आगे के लिए सतर्कता बरतना हमेशा ही जरूरी माना जाता है।
सकल घरेलू उत्पाद में आधा पौन फीसद की घटबढ़ एक रूझान तो हो सकता है लेकिन यह किसी आफत का लक्षण नहीं कहा जा सकता। इसी आंकड़े से देश की अर्थव्यवस्था का आकार तय होता है। हाल ही में हम विश्व में पांचवें से खिसककर सातवें पर भले ही आ गए हों लेकिन यह उतनी चिंताजनक बात है नहीं। बल्कि यह आंकड़ा हमें उत्पादक कामकाज में सुधार के लिए प्रेरित कर सकता है।
पिछली तिमाही में वाहनों की बिक्री में फिलहाल कमी ही दिखी है, ये उघोग खत्म नहीं हो गया है। विशेष प्रयासों से देश में आर्थिक गतिविधियां कभी भी बढ़ाई जा सकती हैं। देश में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ाने के कई उपाय किए जा सकते हैं और स्थिति को सुधारा जा सकता है। खबरें हैं कि वित्तमंत्री इस काम पर लग भी गई हैं। फिर भी सावधानी के तौर पर यह समय देश की माली हालत के कई पहलुओं पर गौर करने का जरूर है।
आर्थिक मामलों के जानकार बताते रहते हैं कि अपने देश की अर्थव्यवस्था तीन क्षेत्रों में वृद्धि से तय होती है। ये क्षेत्र हैं विनिर्माण, सेवा और कृषि। मौजूदा चिंता विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में सुस्ती से उपजी है। कृषि को कोई लेखे में नही ले रहा है। भले ही जीडीपी में कृषि का योगदान थोड़ा सा ही बचा हो लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि कृषि ही वह क्षेत्र है जो देश में आधी से ज्यादा आबादी को उत्पादक काम में लगाए हुए है। और यही वह क्षेत्र है जिसमें बेरोजगारी की समस्या ज्यादा बढ़ गई है। इसी क्षेत्र के लोगों को उत्पादक कार्यों में लगाने की गुंजाइश भी है और मौजूदा हालात से निपटने का मौका भी इसी क्षेत्र में बन सकता है।
कई विद्वानों की तरफ से सुझाव मिल रहा है कि देश में किसी भी तरह से मांग बढ़ाने की कोशिश होनी चाहिए। लेकिन मांग बढ़ाने के लिए क्या यह जरूरी नहीं कि लोगों की जेब में ज्यादा पैसा हो। सरकार ने किसानों के बैंक खातों में हर महीने पांच सौ रूपए डालने का फैसला किया था। इस योजना में सरकारी खजाने से हर साल 90 हजार करोड़ निकल कर किसानों की जेब में जाना है। कुछ विश्लेषकों ने अंदाजा लगाया था कि यह रकम देश में उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ा देगी और उत्पादन में सुस्ती कम होगी। लेकिन पिछले छह महीनों का अनुभव यह है कि इस योजना का ऐसा असर अभी दिखा नहीं है। हो सकता है कि इस कारण से न दिखा हो क्योंकि अभी यह रकम सभी किसानों के खातों में पहुंच नहीं पाई है। अगर वाकई देश में मांग घटने की समस्या बड़ी होती जा रही है तो किसानों को रकम भेजने का काम फौरन तेज किया जाना चाहिए। लोगों की जेबों में पैसा डालने के तरीके अपनाए जाने चाहिए।
सरकार के स्तर पर सतर्कता बरतने के लिए एक क्षेत्र और है। यह मामला भी कृषि क्षेत्र से जुड़ा है। वह ये है कि देश में बारिश के आंकड़े सामान्य नहीं हैं। बारिश के दो महीने से ज्यादा गुजरने के बाद भी देश में नौ फीसद वर्षा कम हुई है। आने वाले समय में अगर देश में औसत वर्षा की भरपाई न हुई तो कृषि उत्पादन पर भारी असर पड़ सकता है। वैसे यह अभी उतनी चिंता की बात नहीं है। फिर भी किसी ख़तरे की आशंका पर नजऱ तो रखनी ही पड़ेगी।
आर्थिक मंदी की सबसे ज़्यादा मार रोजगार पर पड़ती है। हम पहले से ही बेरोजगारी से परेशान हैं। इस तरह से वर्तमान परिस्थितियों में अगर सबसे ज्यादा सतर्कता की जरूरत है तो वह बेरोजग़ारी के मोर्चे पर चौकस रहने की है।
एक तबका महंगाई को लेकर परेशानी जता रहा है। हालांकि यह शिकायत खाने पीने की कुछ चीजों को लेकर है। लेकिन देश में महंगाई की चिंता का तुक बैठता नहीं है। जहां मंदी के लक्षण हो वहां शुरूआती तौर पर माल बिकने की ही परेशानी खड़ी होती है और दाम गिरते हैं। विद्वानों ने इस बात पर ज्यादा गौर नहीं किया है कि पिछला एक साल खाद्य महंगाई की दर ज्यादा नहीं बढऩे का रहा है। कृषि उत्पाद के दाम न बढऩे से किसान बहुत परेशान रहे हैं। देश में मौसम की गड़बड़ी उनको और ज्यादा चिंता में डाले है। कुल मिलाकर मंदी की आहट के इस दौर में सरकार को अगर किसी की चिंता करने की जरूरत है तो सबसे ज्यादा किसानों की चिंता करने की है।