अमित त्यागी
शिक्षामित्र प्रकरण किसी चयनित सरकार के द्वारा वोट बैंक के लिये नागरिकों से खिलवाड़ का निकृष्टम उद्वारण है। बेचारे शिक्षामित्र अच्छा खासा काम कर रहे थे। उन्हे कोई ज़्यादा अपेक्षा भी नहीं थी। जितना वेतन था उसके अनुसार जीवन की जरूरतों कों उन्होने ढाल लिया था। पर अचानक भूचाल आ गया। उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार कों याद आया कि चुनाव के समय पीठासीन अधिकारी आदि अन्य चुनावी कार्यवाहियाँ तो शिक्षक करते हैं। अगर शिक्षामित्रों कों शिक्षक के रूप में समायोजित कर देंगे तो आगामी सभी चुनाव में यह लोग हमारे लिए काम करेंगे। बस इसी गंदी और घिनौनी सोच ने शिक्षा मित्रों की भावनाओं से खिलवाड़ कर दिया। समाजवादी सरकार ने एक गलत नीयत के साथ नियमों की अनदेखी करके शिक्षामित्रों कों समायोजित कर दिया। अब शिक्षामित्रों का वेतन बढ़ गया।
उनकी नयी जरूरतें नए वेतन के अनुसार ढल गईं। उन्होने ऋण लेकर वाहन ले लिए। आवास का निर्माण शुरू कर दिया। जीवन शैली का स्तर ऊंचा कर लिया। चूंकि, यह फैसला नियम विरुद्ध था इसलिए इस पर न्यायालय में अपील हुयी। पहले उच्च न्यायालय ने समायोजन रद्द किया और अब माननीय उच्चतम न्यायालय ने। शिक्षा मित्र, अर्श से फर्श पर आ गिरे। 40 हज़ार वेतन वाले व्यक्ति का वेतन अगर एक झटके में 4 हज़ार हो जाये तो उसका तो पूरा ताना बाना बिगड़ जाता है।
अब इन सभी से संवेदना व्यक्त की जा सकती है। इनके साथ खेली गयी गंदी राजनीति की भत्र्सना की जा सकती है किन्तु जो शिक्षा मित्र अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं उनकी वापसी कैसे हो सकती है। क्या इसके लिए पूर्व सरकार जिम्मेदार नहीं है? क्या नीतिगत फैसले लेते समय इस तरह के निर्णयों की जांच नहीं होनी चाहिए? जब 2012 से 2017 के बीच की भर्तियों की जांच सीबीआई कर सकती है तो क्या शिक्षा मित्र प्रकरण में वास्तविक दोषियों की जांच नहीं होनी चाहिए? जांच के बाद दोषियों के ऊपर मानसिक उत्पीडऩ, हत्या और हत्या के लिए उकसाने के गंभीर मामले बनते हैं।
यदि न्यायिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो शिक्षा मित्रों पर माननीय उच्चतम न्यायालय का फैसला समझदारी भरा फैसला है। न्यायालय ने मानवीय संवेदना दिखाते हुये शिक्षा मित्रों को ज़्यादा कठोर निर्णय नहीं सुनाया। उनको दो मौके दे दिये। हालांकि न्याय का तक़ाज़ा कहता था कि सीधा सपाट फैसला दिया जाये। या तो शिक्षामित्रों को रखा जाये या पद से बर्खास्त किया जाये। चूंकि, सीधे कठोर फैसला देने से बहुत से भारतीय नागरिक आत्महत्या आदि कृत्य कर सकते थे इसलिए न्यायालय ने मध्य मार्ग चुना। इसके साथ ही बेहतर होता अगर न्यायालय जांच के साथ ही दोषियों पर कठोर कार्यवाही का निर्देश भी दे देता। बहरहाल, समाजवादी सरकार के अपराध की सज़ा शिक्षामित्र भुगत रहे हैं। ठ्ठ
क्या है पूरा मामला
शिक्षा का अधिकार कानून 2009 के अनुसार अप्रशिक्षित शिक्षक स्कूलों में नहीं पढ़ा सकते। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (एनसीटीई) ने शिक्षकों के मानक तय किये हैं। इसमें प्रशिक्षित स्नातक को अध्यापक पात्रता परीक्षा (टीईटी) पास करने पर ही शिक्षक पद के योग्य माना जाएगा। पहले से पढ़ा रहे शिक्षकों के लिए भी प्रशिक्षण प्राप्त करना अनिवार्य होगा लेकिन उन्हें टीईटी से छूट दी जाएगी। शिक्षामित्रों को भी इसी नियम के तहत 2011 से दूरस्थ प्रणाली से दो वर्षीय प्रशिक्षण दिलवाया गया। 2014 में टीईटी से छूट देते हुए सहायक अध्यापक के पद पर नियुक्ति देने की प्रक्रिया शुरू की गई। यहीं पर नियमों से खेल हुआ क्योंकि नई नियुक्ति के लिए टीईटी अनिवार्य है। सहायक अध्यापक के पदों पर समायोजन के नाम पर शिक्षमित्रों को नई नियुक्ति दी गई। इसके बाद 12 सिंतबर 2015 को हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश के करीब 1.72 लाख शिक्षामित्रों का सहायक शिक्षक के तौर पर समायोजन को निरस्त कर दिया था। अब समायोजन पर निर्णय देते हुये माननीय उच्चतम न्यायालय ने शिक्षा मित्रों को राहत देने से इनकार कर दिया है। यह सभी एक लाख 38 हजार शिक्षा मित्र काम करते रहेंगे। इसके साथ ही टीईटी पास 72 हज़ार सहायक शिक्षकों कों शिक्षक बनाया गया था वह अपने पद पर रहेंगे। अब शिक्षामित्रों को 2 मौके मिलेंगे जिसमे उनको टीईटी पास करना है। शिक्षामित्रों को उम्र के नियमों में छूट मिलेगी।