देश का वातावरण इस हद तक विषाक्त हो चुका है कि अब संस्कृत भाषा को भी सांप्रदायिकता के चश्मे से देखा जा रहा है। अब केन्द्रीय विद्यालयों में प्रतिदिन सुबह होने वाली प्रार्थना पर भी निशाना साधा जा रहा है। कहा जा रहा है कि यह संस्कृत प्रार्थना धर्मनिरपेक्ष भारत में नहीं होनी चाहिए।
अब वो दिन दूर नहीं है जब केन्द्रीय विद्लाय के ध्येय वाक्य पर भी सवाल खड़े किए जाएंगे।
केन्द्रीय विद्यालयों की स्थापना तब हुई जब कि मोहम्मद करीम छागला देश के शिक्षा मंत्री थे। उन्होंने ईशावास्योपनिषद के श्लोक “हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्, तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये” से ही केन्द्रीय विद्यालयों का ध्ययेवाक्य“तत्वंपूषण अपावर्णु” को चुना जिसका अर्थ होता है सत्य जो अज्ञान के पर्दे से ढंका है उसपर से अज्ञान का पर्दा उठा दो।
इस प्रार्थना के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दाखिल हुई है। अब याचिकाकर्ता को कौन बताए कि इस्लामिक देश इंडोनेशिया की जलसेना का ध्येय वाक्य “जलेष्वेव जयामहे” यानी जल में ही जीतना चाहिए। जब उस इस्लामिक मुल्क को संस्कृत से परहेज नहीं है, तब भारत में संस्कृत की प्रार्थना पर बवाल किस खड़ा किया जा रहा है। भारतीय सेना के तीनों अंगों के ध्येय वाक्य भी संस्कृत में हैं। तो क्या ये सब सांप्रदायिक हैं?
कहना न होगा कि अब देश में जनता का सेक्यूलरिज़्म की ओवरडोज पिलाई जा रही है। हरेक चीज में मीनमेख निकालना कहां तक उचित माना जाएगा। देशभर में 1128 केंद्रीय विद्यालय हैं, जिनमें एक जैसी यूनिफॉर्म और एक जैसे ही पाठ्यक्रम होता है। इस तरह से ये दुनिया की सबसे बड़ीस्कूल चेन बन जाती है। रोज लगभग 12 लाख बच्चे यही प्रार्थना करते हैं। पिछले साढ़े पांच दशकों में करोड़ों छात्र केन्द्रीय विद्यालय से यही प्रार्थना करके निकले और देश और विदेशों में भी नाम कमा रहे हैंI वे भावनात्मक रूप से इस प्रार्थना से जुड़ें हुए हैंI क्या याचिकाकर्ता ने अपनी बेहूदी याचिका के माध्यम से भारत के करोड़ों नागरिकों की भावना पर ठेस नहीं पहुँचाया है? क्या उनपर राष्ट्रद्रोह का आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए? इन स्कूलों ने देश को एक से बढ़कर एक प्रतिभाएं दी हैं। इसे शुरू करने के मूल में विचार ही यह था ताकि केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के बच्चों को विशेषकर सेना, रेलवे, डाकघरों, संचार विभाग, अनुसन्धानशालाओं आदि में कार्यरत कर्मियों की ट्रांसफर की स्थिति में नए शहर में जाने पर केन्द्रीयविद्लाय में दाखिला आसानी से मिल जाए और हर केन्द्रीय विद्यालय का पाठ्यक्रम एक ही प्रकार का होने के कारण उनकी पढ़ाई में व्यवधान न उपस्थित हो।
केंद्रीय विद्यालयों में कराई जा रही प्रार्थनाएं वेदों और उपनिषदों से हैं। इसे पूरे विश्व में सभी ने स्वीकार किया है। हमारे मूल संविधान में भी रामायण, महाभारत और उपनिषदों के श्लोकों और चित्रों को ही समाहित तो किया गया है। इसको दोनों सदनों की लाइब्रेरी के अलावा इसे तीन मूर्ति भवन की लाइब्रेरी में भी देखा जा सकता है। मूल प्रति की कवर कमल के पुष्पों के कोलाज से बनी है। प्रथम पृष्ट पर मोहन जोदड़ों का रेखाचित्र है और प्रत्येक पृष्ट को प्रसिद्ध चित्रकार नन्दलाल बसु ने रामायण और महाभारत के प्रसंगों की चित्रकारी का हर पृष्ट के दोनों ओर के चौड़ें सुन्दर बोर्डर तैयार किए हैं।
ये अच्छी बात है कि बीजद के सांसद बी.मेहताब ने पिछले सप्ताह लोकसभा में पूछा कि क्या संस्कृत में कुछ बोलना सेक्युलर नहीं है? उन्होंने सभी केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत की प्रार्थना को अनिवार्य करने पर निचले सदन में कुछ लोगों के इसका विरोध करने के बाद यह मुद्दा उठाया।
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में कहा गया है कि केंद्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना हिंदुत्व को बढ़ावा देती है। मानकर चलिए अब वह दिन भी आने वाला है, जब केन्द्रीय विद्लाय के ध्येय वाक्य- ‘तत् त्वं पूषन् अपावृणु‘ (हे ईश्वर, आप ज्ञान पर छाए आवरण को कृपापूर्वक हटा दें) परभी प्रश्नचिन्ह लगने लगेंगे। वेदों को भी असंवैधानिक कह दिया जाय तो आश्चर्य नहीं हैI क्योंकि, यह ध्येय वाक्य संस्कृत में है, इसलिए इसमें भी धर्मनिरपेक्षता आड़े आती दिखने लगेगी।
देश के पहले प्रधानमंत्रीजवाहर लाल नेहरु के जीवन काल में ही 15 दिसम्बर 1963 को केन्द्रीय विद्लाय संगठन स्थापित हुआ थाI उस वक्त के शिक्षामंत्री भी महान शिक्षाविद् मोहम्मद करीम छागला थे I तब देशमें भाजपा या एनडीए की सरकारों का कहीं नामोनिशान भी नहीं थी। जिस प्रार्थना को सांप्रदायिक माना जा रहा है, उसे सन 1963 से देश और देश से बाहर चल रहे सभी केन्द्रीय विद्लायों में गाया जा रहा है। इसे गाते हुए किसी भी शिक्षक या विद्यार्थियों को तो कोई आपत्ति नहीं हुई। अब इस प्रार्थना को हिन्दुत्ववादी कहने की हिमाक्त की जा रही है। केन्द्रीय विद्लायों में गायी जानेवाली प्रार्थना है- “असतो मा सदगमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय”मृत्योर्मामृतमगमय। अर्थात् “(हमें) असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार सेप्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो॥” इस प्रार्थना मेंहिन्दू या हिन्दुत्व कहां से आ गया है? यह समझ नहीं आता।
केन्द्रीय विद्यालय के प्रतीक चिन्ह पर एक ध्येय वाक्य है, “ततत्व पूषण अपावृणु”I यह ध्येय वाक्य यजुवेद के ईशावास्योपनिषद के 15 वें श्लोक से लिया गया हैI जिस संगठन का ध्येय वाक्य ही सत्यदर्शन पर आधारित हो, उसे हिन्दुत्वादी कहने का अर्थ है कि बाकी सभी असत्यवादी है?
जरा गौर कीजिए कि केन्द्रीय विद्लायों में होने वाली प्रार्थना में हिन्दूत्व देखना या इसका संविधान सम्मत न मना जाना और साल 2005 में उठी मांग कि राष्ट्र गान से सिंध शब्द को निकाल देना चाहिए की मांगमें कोई फर्क नहीं है। सिंध शब्द के स्थान परराष्ट्रगान में कश्मीर को शामिल करने की मांग की गई थी। तर्क ये दिया गया था कि चूंकि सिंध अब भारत का हिस्सा नहीं रहा, तो इसे राष्ट्रगान में नहीं होना चाहिए। शायद ही संसार के किसी अन्य देश में राष्ट्रगान का इस तरह से अपमान होता हो, जैसा हमारे देश में होता आया है।
आपको याद होगा कि चंदेक बरस पहले प्रयाग से एक बेहद शर्मनाक मामला सामने आया था। वहां परएमए कॉन्वेंवट नामक स्कूल में राष्ट्र गान पर रोक थी। जब मामले ने तूलपकड़ा तो पुलिस ने स्कूल प्रबंधक जिया उल हक को गिरफ्तार कर लिया। क्या इस तरह का आपको उदाहरण किसी अन्य देश में मिलेंगे? कतई नहीं। स्कूल में राष्ट्रगान नहीं होने देने के पीछे प्रबंधक जिया उल हक का तर्क था कि राष्ट्रगान में “भारत भाग्य विधाता” शब्दों का गलत प्रयोग किया गया है। उन्हें इन शब्दों से घोर आपत्ति है। हक के अनुसार भारत में रहने वाले सभीलोगों के भाग्य का विधाता भारत कैसे हो सकता है। यह इस्लाम के विरुद्ध है। धर्मनिरपेक्ष के नाम पर ऐसी राष्ट्रविरोधी हरकतें हमारे देश के राष्ट्रभक्त नागरिक कबतक बर्दाश्त करते रहेंगे?
हमारे यहां पहले भी राष्ट्रगान में संशोधन की मांग उठती रही है। पर क्या राष्ट्रगान में संशोधन हो सकता है? क्या राष्ट्रगान में अधिनायक की जगह मंगल शब्द होना चाहिए? क्या राष्ट्रगान से सिंध शब्द के स्थान पर कोई और शब्द जोड़ा जाए? पहले भी सिंध शब्द को हटाने की मांग हुई थी, इस आधार पर की कि चूंकि सिंध अब भारत का भाग नहीं है, इसलिए इसे राष्ट्र गान से हटाना चाहिए। ऐसी बेहूदगी बात क्यों की जाती हैI अरबी लोग जब हिंदुस्तान आये तो सिन्धु नदी को पार कर आयेI अरबी में “स” को “ह” बोलते हैं इसलिए सिन्ध की जगह हिन्द कहकर उच्चारण किया।हिन्द के जगह सिंध कैसे नहीं होगा। साल 2005 में संजीव भटनागर नाम के एक सिरफिरे शख्स ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिकादायर की थी,जिसमें सिंध भारतीय प्रदेश न होने के आधार पर जन-गण-मन से निकालने की मांग की थी। इस याचिका को 13 मई2005 को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आर.सी. लाखोटी की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने सिर्फ खारिज ही नहीं किया था, बल्कि संजीव भटनागर की याचिका को “छिछली और बचकानी मुकदमेबाजी” मानते हुए उन पर दस हजार रुपए का दंड भी लगाया था।
इस बीच,केन्द्रीय केन्द्रीय विद्लायों की प्रार्थना पर जिस तरह से बवाल खड़ा किया जा रहा है, उससे साफ है कि देश में कुछ शक्तियां देश को खोखला करने कीदिशा में संलग्न हैं। इन्हें कभी भी माफ नहीं किया जा सकता। संस्कृत भारतीय उपमहाद्वीप की अति प्राचीन समृद्ध और महत्वपूर्ण भाषा है। यह विश्व की भी सबसे प्राचीन भाषा है। जैसा कि मैं ऊपर लिख चूका हूँ कि आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। बौद्ध धर्म (विशेषकर महायान) तथा जैन मत के भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गये हैं। इतनी समृद्ध भाषा को सांप्रदायिक कहने वाला इंसान सामान्य तो नहीं ही होगा।
आर.के.सिन्हा
(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)