आंकड़ों की बाजीगरी क्या होती है, इसकी सटीक मिसाल हैं बिहार के कोरोना के आंकड़े!
-अभिरंजन कुमार-
पिछले एक महीने के दौरान बिहार में कोरोना तेज़ी से फैला है, लेकिन वहां मृत्यु दर काफी कम “दिखाई दे रही” है। अगर यह वास्तविकता होती, तो मुझे बहुत खुशी होती, लेकिन वास्तविकता यह है कि सरकार और जनता दोनों कोरोना से होने वाली मौतों को बड़े पैमाने पर छिपा रही है।
सरकार इसलिए छिपा रही है कि अपना टेटर कौन दिखाना चाहता है? ऊपर से अक्टूबर-नवंबर में राज्य में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं और सरकार बहादुर चुनाव कराने के लिए तड़प भी रहे हैं। शायद किसी ज्योतिषी ने बताया है कि अक्टूबर-नवंबर में चुनाव हो गए, तो वापसी पक्की है, लेकिन यदि चुनाव टल गए तो फिर भगवान ही मालिक है।
इसलिए कोरोना से मौतों को बिहार की सरकार क्यों छिपा रही/कम दिखा रही है, यह तो आप समझ ही सकते हैं, लेकिन जनता क्यों छिपा रही है, ज़रा इसे भी ठीक से समझ लीजिए। दरअसल जनता को न तो सरकार पर भरोसा है, न ही सरकारी हेल्थ सिस्टम पर भरोसा है। और बिहार में प्राइवेट हेल्थ सिस्टम को पॉकेटमारी करनी तो आती है, लेकिन इलाज करना नहीं आता है।
मुझे मिल रही जानकारी के मुताबिक, बिहार में ज़्यादातर लोगों ने मान लिया है कि चाहे जीना है या मरना है, अपने ही भरोसे रहना है, इसलिए सरकार और प्रशासन के चक्कर में पड़कर फालतू परेशान नहीं होना है। इसलिए बुजुर्गों और पहले से बीमार लोगों के मामलों में अधिकांश परिवारों ने यह पॉलिसी अपना ली है कि यदि उनकी मौत हो जाए, तो इसे सामान्य मौत या अन्य कारणों से मौत बताया जाए। ऐसी पॉलिसी अपनाने से उन्हें चार प्रकार की राहत मिल जाती है-
1. जांच और इलाज की सड़ी-गली व्यवस्था का शिकार होकर परेशान होने से वे बच जाते हैं।
2. लूटतंत्र का शिकार होकर पैसे और समय की बर्बादी करने से भी वे बच जाते हैं।
3. मरीज की मृत्यु की स्थिति में पुलिस और प्रशासन से होने वाली परेशानियों से भी वे बच जाते हैं।
4. मरीज की मृत्यु के बाद वे सम्मानजनक तरीके से उनकी अंत्येष्टि और सामाजिक रीति-रिवाजों का पालन करते हुए भोज-भात आदि भी कर पा रहे।
इसलिए बिहार में अब ज़्यादातर लोगों ने खुद को मानसिक रूप से तैयार कर लिया है कि
1. केवल संदेह के आधार पर कोरोना की जांच नहीं करानी है।
2. लक्षण के आधार पर घर में ही रहकर इलाज करना है।
3. जब घर या नज़दीकी डॉक्टर के इलाज से समस्या ठीक नहीं हो, तभी कोरोना की जांच करानी है, वह भी यदि मरीज युवा हो तो।
4. बुजुर्ग और पहले से बीमार मरीजों को सरकारी सिस्टम में डालकर अधिक परेशान न करना है, न होना है।
5. आर्थिक रूप से सक्षम हैं, तो स्टेटस सिंबल के लिए प्राइवेट स्वास्थ्य माफिया की शरण जाना है, वरना वहाँ भी नहीं जाना है।
इसलिए आश्चर्य नहीं कि अब तक 86 हज़ार से अधिक लोगों के संक्रमित होने के बावजूद बिहार में मौत के आंकड़े महज 400 के आसपास ही क्यों हैं? सच्चाई यह है कि
1. इन 86 हज़ार लोगों में अनेक लोग संक्रमित थे ही नहीं।
2. जो हज़ारों लोग संक्रमित थे, उनकी जांच हुई ही नहीं।
3. जो अनेक संक्रमित लोग मारे गए, उन्हें रिकॉर्ड में दर्ज किया ही नहीं गया।
4. जिन अनेक संक्रमित मृतकों को अस्पतालों में जगह ही नहीं मिल सकी, उन्हें भी आंकड़ों में शामिल नहीं किया गया।
5. इधर जो अनेक “सामान्य” मौतें हुई हैं, उनमें कई के पीछे कोरोना हो सकता है, इसपर किसी का ध्यान ही नहीं है।
कुल मिलाकर, आंकड़ों की बाजीगरी क्या होती है, इसे समझने के लिए बिहार मॉडल से ज़्यादा सटीक इस वक़्त और कोई दूसरा मॉडल नहीं। देखा जाए, तो कोरोना को नियंत्रित दिखाने का यह मॉडल पाकिस्तान और बांग्लादेश के मॉडल से भी ज़्यादा स्मार्ट है, जहां भारत जितना भी असर नहीं “दिखाई” दे रहा कोरोना का।
तो बिहार ने जब पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी अधिक प्रभावी “जानकारी छिपाओ मॉडल” अपना लिया है, तो चिंता की क्या बात है? सब मिलकर जश्न मनाइए, क्योंकि बिहार में सब चकाचक है। वहाँ कोरोना खांस रहा है, क्योंकि पूरी दुनिया में 5% और पूरे भारत में 3% संक्रमितों की जान लेने वाला कोरोना बिहार में केवल 0.7 संक्रमितों पर अपना असर “दिखा पा रहा” है।
बिहार सरकार चाहे तो पाकिस्तान और बांग्लादेश की जगह चीन वाला मॉडल अपना ले, ताकि वहां कोरोना और भी अधिक नियंत्रित और बेअसर दिखाई दे।