Shadow

आईने में अक्स देखने का वक्त

 
    लेखक : अरुण तिवारी 
अपने नये पंचायती राज की उम्र 24 साल हो गई है। आगे की दिशा निश्चित करने के लिए जरूरी है कि पंचायती राज के अभिभावक, आकलन करें। बतौर मानक, तीन कहानियां हमारे सामने हैं: केरल के सरपंच इलिंगों की कहानी, अलगू चैधरी व जुम्मन मियां की कहानी तथा राजस्थान के जिला अलवर में बनी अरवरी नदी के 70 गांवों की संसद की कहानी। ये तीन कहानियां, हमारे सामने क्रमशः तीन आईने रखती हैं: पहला, 73वां संविधान संशोधन का आईना और दूसरा, भारत की पारम्परिक पंच-परमेश्वरी अवधारणा का आइना और तीसरा, महात्मा गांधी से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी तक दिए बयानों का आईना।

श्रेष्ठ केरल: श्रेष्ठ बंगाल
यदि 73वें संशोधन द्वारा प्रदत पंचायती राज प्रावधानों को सामने रखें, तो केरल और पश्चिम बंगाल के पंचायतीराज अधिनियमों को क्रमशः एक व दो स्थान पर रखा जा सकता है। इन्होने, 1996 में सेन समिति द्वारा की संस्तुतियों को काफी हद तक लागू किया है। केरल में लाइसंेस, कराधान तथा ग्रामीण विकास संबंधी अधिकारी तथा एजेंसियां, पंचायतों के नियंत्रण मंे कर दी गई हैं। एकीकृत अभियांत्रिकी संवर्ग है। अपीलीय प्राधिकरण है। सरकारी अधिकारियों पर पंचायत का अधिकार है। पंचायतें कम्पयुटरीकृत हैं। निर्वाचित प्रतिनिधियों को दूरस्थ शिक्षा प्रणाली से शिक्षित किया जाता है। ग्रामसभाओं को पंचायतों की समीक्षा और तद्नुसार निर्णय लेने के काफी अधिकार हैं। केन्द्र प्रायोजित सभी ग्राम विकास योजनायें, पंचायती राज प्रणाली द्वारा ही क्रियान्वित की जाती हैं।
व्यवहार की दृष्टि से पश्चिम बंगाल को अभी काफी सुधार करना है, किंतु अधिनियम के मोर्चे पर प. बंगाल काफी कुछ सिखाने लायक है। प. बंगाल मंे ग्राम पंचायत, ग्राम संसद के नाम व रूप में संचालित की जाती है। ग्राम संसद की सिफारिशों मानना, एक तरह की अनिवार्यता है। प्रत्येक ग्राम संसद, गांव के विकास के लिए ग्राम उन्नयन समिति का गठन करती है। यह समिति अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। सभी समितियों के पास वित्तीय अधिकार हैं। वित्त समिति में विपक्ष का नेता भी सदस्य होता है। भू-राजस्व का अधिकार भी पंचायत के पास ही है।
ग्रामसभा और पंचायतों को पर्याप्त विधायी अधिकार देने के बारे में आप नवगठित राज्य झारखण्ड की भी तारीफ कर सकते है। कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब आदि को आप संतोषजनक श्रेणी में  रख सकते हैं। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड से आप निराश हो सकते हैं। राज्यवार आकलन एक लंबे संर्वेक्षण व शोध का विषय है, किंतु कुछ निष्कर्ष ऐसे हैं, जो पूरे भारत में पंचायती राज की जमीनी हकीकत सामने रख देते हैं। कहने को आप कह सकते हैं कि 73वें संविधान संशोधन ने गांवों में सत्त्ता का नया जोश भरा। कितने जनप्रतिनिधि, ग्रामप्रधानी का सिरा पकङकर केन्द्र की राजनीति में पहुंचे। नारी शक्ति को सहज ही एक अवसर सुलभ हुआ। इसके कारण खासकर, स्वयं सहायता समूहों का प्रयोग कई जगह सफल रहा है। आज पंचायतों के पास धन की कोई कमी नहीं है। कितने ही कम अधिकार हों, लेकिन फिर भी पंचायतों के पास कुछ न कुछ विकास के अवसर हैं। कई पंचायतों ने सचमुच अच्छा कर दिखाया है, किंतु क्या संतुष्ट होने के लिए इतना भर काफी है ?

निराश करते निष्कर्ष
ग्रामसभा, पंचायती राज की आत्मा है और पंचायतें, उसका आवरण। आत्मा कभी मरती नहीं है, किंतु क्या वर्तमान पंचायती राज की आत्मा जिंदा है ? नहीं, ज्यादातर राज्यों में ग्रामसभाओं का कोई अता-पता नहीं है। विकास योजना बनाने वाली ग्रामसभाओं की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं। कितनी विडंबना है कि विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रम में पंचायतीराज को पढ़ने और पढ़ाने वाले भी ग्रामसभा की बैठकों में जाना जरूरी नहीं समझते ! मनरेगा ने ग्रामसभाओं को गांवांे की विकास योजना बनाने से लेकर काम के चयन व निगरानी तक की जिम्मेदारी व अधिकार दिए हैं, किंतु ग्रामसभा से लेकर जिला स्तरीय सभाओं के निष्क्रिय व दिखावटी होने के चलते, ज्यादातर जगह पंचायतें ही प्रमुख हो गई हैं। लिहाजा, प्रधान, ब्लाॅक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष के पद महत्वपूर्ण हो गयो हैं। परिणामस्वरूप, पंचायत चुनावों में सारा जोर, इन्ही पदों के आस-पास चिपक कर रह गया है। पंचायती चुनाव, गांव समाज के आपसी सामजस्य और सद्भाव को तोङने का सबसे नुकीला औजार बन गये हैं। सरकारी अनुदान आधारित पंचायती कार्यप्रणाली, सिर्फ पंचायत प्रतिनिधियों को ही नहीं, बल्कि गांव समाज के आखिरी आदमी को भी भ्रष्ट बनाने वाली साबित हुई है। यह तो अन्तोदय होने की बजाय, भ्रष्टोदय हो गया !!
सच यह भी है कि पंचायतें, आज सरकारी विकास कार्यक्रमों की क्रियान्वयन एजेंसी मात्र बनकर रह गई हैं। पंचायत प्रतिनिधियों ने भी जनता की बजाय, सरकारी अधिकारियों की एजेंट की भूमिका स्वीकार ली है। उनमें भी अपने अधिकार, कर्तव्य तथा पंचायती राज की कार्यप्रणाली व मंशा के बारे में साक्षरता, शुचिता, कौशल व जिज्ञासा का अभाव है। परिणामस्वरूप, वे किसी के अच्छे व सक्षम एजेंट नहीं बन सके; न शासन के, न प्रशासन के और न ही गांव समाज के। प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण की कोशिशें आज भी आधी-अधूरी ही हैं। लिहाजा, पंचायत के निर्णय, असल में नौकरशाही के निर्णय होकर रह गये हैं। हमारी ग्रामसभा और पंचायतें, ऊपरी तंत्र की बंधक बनकर रह गई हैं। वे जैसा नचाये, वैसा नाचती हैं; तो फिर स्वशासन की मंशा कहां पूरी हुई ? राज का विकास हुआ, पर पंचायती का तो ह्यस हो गया।
वर्तमान पंचायती राज, गांव समाज में स्थानीय सामुदाियक संसाधनों के प्रति स्वामित्व का भाव जगाने में असफल साबित हुआ है। महिला शक्तिकरण का दावे की पोल इसी से खुल जाती है कि ज्यादातर महिला प्रधानों के पति, न सिर्फ स्वयं का परिचय प्रधानपति कहकर देते हैं, बल्कि प्रधान के ज्यादातर कार्यों को अंजाम भी वही देते हैं। उत्तर प्रदेश के जिला और क्षेत्र पंचायत स्तरीय ताजा चुनाव को लेकर एक टी वी चैनल ने रिपोर्ट पेश की। ताज्जुब नहीं हुआ कि कितनी महिलाआंे को उस क्षेत्र का नाम ही नहीं पता था, जिसका प्रतिनिधित्व करने के लिए वे नामांकन दाखिल कर रही थी। सब, पति के कहने पर आई थीं।

मूल चूक 
कहना न होगा कि वर्तमान पंचायतीराज प्रणाली की सारी की सारी सफलता, पंचायत प्रतिनिधि व विकास अधिकारियों की जागृति, ईमानदारी, कुशलता, विवेक, मंशा और सरकारी अनुदान की रहमोकरम पर आकर टिक गई है; जबकि प्रणाली वह अच्छी मानी जाती है, जिसमें व्यक्ति कैसा भी हो, प्रणाली उसे ईमानदारी, कुशलता, अच्छी मंशा, सद्विवेक, सक्षमता व स्वावलंबन के साथ कार्य करने को बाध्य करती हो। कितने ताज्जुब की बात है कि पंचायती राज में गांवों को परिभाषित करने का अधिकार गांवों के पास न होकर, राज्यपाल के पास है! 73वें संविधान संशोधन का अनुच्छेद 243 ख का आशय यही है।
मेरा मानना है कि मूल चूक, पंचायती राज की वर्तमान प्रणाली में ही है। यह प्रणाली, हमारे गांवों को उस पंच-परमेश्वरी अवधारणा से दूर करती है, जिसकी मौजूदगी के कारण भारतीय गांवों के बारे में लाॅर्ड मेटकाॅफ (1830) ने लिखा -”वे ऐसी परिस्थितियों में भी टिके रहते हैं, जिनमे हर दूसरी वस्तु का अस्तित्व मिट जाता है।” गौर कीजिए कि वर्तमान पंचायती राज, गांवों को प्रशासनिक व क्रियान्वयन इकाई बनाने पर आमादा है, जबकि गांव, मूल रूप से एक सांस्कृतिक इकाई है।
पंचायती राज भूल गया है कि गांव, संबंधों की नींव पर बनते हैं  और शहर, सुविधा की नींव पर। भारतीय संस्कृति के दो मूलाधार तत्व हैं: सहजीवन और सहअस्तित्व। सहजीवन, परिवार का आधार है और सहअस्तित्व, पङोस का। इन दोनो तत्वों की जुगलबंदी से ही गांव बने और बसे। जब तक ये दो तत्व रहेंगे, गांव, गांव रहेगा; वरना् वह कुछ और हो जायेगा। क्या वर्तमान पंचायती राज प्रणाली, इन दो तत्वों की संरक्षक भूमिका में है ? नहीं, वह तो सुविधा देने वाली अक्षम क्रियान्वयन इकाइयों की निर्माता बनकर रह गई है। इस कारण भी हमारे गांवों का गांव बने रहना, दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। गांव ने शहरों की बुराइयां तो अपना ली हैं, लेकिन अपनी अच्छाइयों की रक्षा करने में अब वह असमर्थ सिद्ध हो रहा है; लिहाजा, मेरा मानना है कि पंचायती राज की मौजूदा प्रणाली को एक बार फिर सुधार की जरूरत है। आइये, हम अपना आईना बदलें।

आईना बदलने की जरूरत
सांस्कृतिक इकाई के रूप में गांव निर्माण को आईना बनाकर हम याद करें कि पंचायतें कैसे अस्तित्व में आईं ? जब किसी परिवार के सदस्यों का एक छत के नीचे साथ-साथ रहना संकट में पङा या पङोसियों के बीच एक-दूसरे के अस्तित्व में खलल डालने की मंशा से द्वंद पैदा हुआ अथवा साझी समृद्धि के कुछ सकारात्मक काम करने हुए; इन तीन स्थितियों में ही पंचायतों की असल जरूरत महसूस हुई। जिन्होने इन स्थितियों में नेतृत्व संभाला; जिन पर गांव ने भरोसा किया, वे पंच हो गये। उनसे सद् और सर्वकल्याणकारी बोध के साथ निर्णय लेने का भरोसा था, अतः उन्हे ईश्वर से भी ऊंचा यानी परमेश्वर माना गया। स्वानुशासन, प्रभुत्व का अभाव और सुशासन – इन तीन गुणों साथ ही कोई पंच, परमेश्वर का अपना दर्जा बनाये रख सका।
गौर करें कि पंचायतें, मूल रूप से कोई औपचारिक इकाई नहीं थी; पारम्परिक पंचायतें, एक जीवनशैली थीं। संवाद, सहमति, सहयोग, सहभाग और सहकार की प्रक्रिया, इस जीवनशैली के संचालक पांच सूत्र थे। क्या आज हमारी वर्तमान पंचायतें, इन सूत्रों और उक्त गुणों के साथ बनाई व चलाई जा रही है ? आईना यह हो।
राज और सत्ता, राजशाही के तत्व हैं। सत्ता, हमेशा से ही सुख, सुविधा, भोग, मद, हिंसा व वर्चस्व का दूसरा नाम है। ऐसे में यदि आज पंचायतों के प्रमुख पदों के लिए मार-काट है, तो ताज्जुब क्यों  ? लोकतंत्र में लोक और लोकप्रतिनिधि होते हैं। फिर भी हमने पंचायती इकाइयों को पंचायती राज संस्थान कहा। लोकप्रतिनिधियों को हम राजनेता कहते ही हैं। यदि एक राजा है, तो दूसरे प्रजा होंगे ही। ऐसे में यदि हमारी पंचायत, विधानमण्डल व संसद, लोक प्रतिनिधि सभा होने की बजाय, सत्ता का केन्द्र हो गईं हैं, तो इसमे ताज्जुब नहीं होना चाहिए।

कुछ सुझाव
यदि हम पंचायतों को सही मायने में लोकप्रतिनिधि इकाई के तौर पर देखना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमे भारतीय संविधान के दस्तावेज से राज और सत्ता, इन दो शब्दों और इनका आभास कराने वाले प्रावधानों को निकाल फेंकना होगा। राज की जगह, लोक और सत्ता की जगह, प्रतिनिधि सभा का प्रयोग करना होगा। पंचायती प्रणाली को सुविधा से ज्यादा, संबंध सुधारने वाली सद्विवेकी, स्वावलंबी व सर्वकल्याणकारी सांस्कृतिक प्रणाली के रूप मंे तब्दील करें। प्रणाली ऐसी हो, जिसमें ग्रामसभा की उपस्थिति, अधिकतम तथा पंचायत की उपस्थिति, न्यूनतम महसूस हो।
आवश्यक है कि ग्रामसभा को भूमि समेत अपने सभी स्थानीय संसाधनों के प्रबंधन, उन्नयन, विवाद निपटारा, क्रय-विक्रय, कर वसूली तथा अर्जित संसाधनों के ग्रामोपयोग के निर्णायक अधिकार सौंप दिया जाये। पंचायत, शासन व प्रशासन की भूमिका सिर्फ सहयोगी की हो। आवश्यक है कि ग्रामसभा, प्रति माह कम से कम एक बार तो साथ बैठे ही। गांव योजना बनाना तथा पैसे व काम का अंकेक्षण करना जैसे काम प्रत्येक ग्रामसभा के लिए आवश्यक हों। सरकारी अनुदान की स्थिति में गांव का अंशदान आवश्यक हो। आर्थिक स्थितिनुसार अंशदान प्रतिशत तय करने का अधिकार ग्रामसभा, पंचायत व प्रशासन का साझा हो। यह अंशदान, श्रम, सामग्री तथा नकरात्मक गुणों से मुक्ति के रूप में देने की छूट हो। अनुदान राशि व सामग्री की मात्रा, ग्रामयोजना की आवश्यकतानुसार हो। वह सीधे ग्रामसभा के कोष में पहंुचे। इसके लिए ग्रामसभा को किसी के चक्कर न लगाने पङें। हर पिछले वर्ष के अनुपात में अगले वर्ष बेहतर स्वावलंबन, बेहतर स्वयं सहायता समूह गतिविधि, बेहतर शिक्षा, बेहतर कौशल विकास, सार्वजनिक रकबे व संसाधनों के बेहतर प्रबंधन, बेहतर स्वच्छता, बेहतर स्वास्थ्य प्रदर्शन, जैविक खेती का ज्यादा रकबा, ज्यादा जलसंचयन व ज्यादा आय करने वाली ग्रामसभाओं को तद्नुसार संबंधित मद में प्रोत्साहन राशि/सामग्री प्राप्त होने का अधिकार हो। इसी तरह गत् वर्ष के अनुपात में कम कर्ज, कम खपत, कम अपराध, कम प्रथम सूचना रिपोर्ट, कम मुकदमे वाली ग्रामसभाओं को अधिक अनुदान प्राप्त करने का अधिकार दिया जाये।
हरियाणा सरकार द्वारा पंचायतों में चुनाव हेतु न्यूनतम शैक्षिक योग्यता के प्रावधान को सर्वोच्च न्यायालय नेे यह कहकर खारिज कर दिया कि जब संसद के चुनाव के लिए ही कोई न्यूनतम शैक्षिक योग्यता नहीं है, तो पंचायत के लिए क्यूं ? जरूरी है कि न्यूनतम शिक्षा, न्यूनतम नैतिकता और शून्य आपराधिक रिकाॅर्ड सभी स्तर के चुनावों में उम्मीदवारी की न्यूनतम अर्हता बने। ये सिर्फ कुछ सुझाव हैं। सार्थकता की दृष्टि से इनमें से प्रत्येक बिंदु, गंभीर बहस का विषय हो सकता हैं, किंतु अरवरी नदी संसद की सार्थकता पर कोई बहस नहीं है। गांवों के बारे में सीखने के लिए ग्राम गुरु से अच्छा कोई गुरु नहीं। अरवरी नदी संसद, ग्राम गुरु है। इसके बारे में अवश्य जानें, देखें और सीखें; ताकि पंचायती का विकास हो, पर राज करने का भाव गायब हो जाये।

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