– आचार्य डाॅ.लोकेशमुनि-
जैन संस्कृति में जितने भी पर्व व त्योहारों मनाये जाते हैं लगभग सभी में तप एवं साधना का विशेष महत्व है। जैनों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व है पयुर्षण पर्व । यह पर्व ग्रंथियों को खोलने की सीख देता है और आत्मशुद्धि का वातावरण निर्मित करता है। इस आध्यात्मिक पर्व के दौरान कोशिश यह की जाती है कि जैन कहलाने वाला हर व्यक्ति अपने जीवन को इतना मांज ले कि वर्ष भर की जो भी ज्ञात-अज्ञात त्रुटियां हुई हैं, आत्मा पर किसी तरह का मैल चढ़ा है वह सब धुल जाए। संस्कारों को सुदृढ़ बनाने और अपसंस्कारों को तिलांजलि देने का यह अपूर्व एवं अलौकिक अवसर है। इस पर्व के आठ दिन इतने महत्वपूर्ण हैं कि इनमें व्यक्ति स्वयं के द्वारा स्वयं को देखने का प्रयत्न करता है। ये आठ दिन नैतिकता और चरित्र की चैकसी एवं उसकी प्रयोगशाला का काम करते हैं और व्यक्ति को प्रेरित करते हैं वे भौतिक और सांसारिक जीवन जीते हुए भी आध्यात्मिकता को जीवन का हिस्सा बनाएं।
भगवान महावीर की अनुभूतियों से जन्मा सच है-‘धम्मो शुद्धस्य चिट्ठई’ धर्म शुद्धात्मा में ठहरता है और शुद्धात्मा का दूसरा नाम है अपने स्वभाव में रमण करना, स्वयं के द्वारा स्वयं को देखना, अहिंसा, पवित्रता एवं नैतिकता को जीना। धर्म दिखावा नहीं है, आडम्बर नहीं है, बल्कि यह नितांत वैयक्तिक विकास की क्रांति है। जीवन की सफलता-असफलता का जिम्मेदार व्यक्ति स्वयं और उसके कृत्य हैं। इन कृत्यों को एवं जीवन के आचरणों को आदर्श रूप में जीना और उनकी नैतिकता-अनैतिकता, उनकी अच्छाई-बुराई आदि को स्वयं के द्वारा विश्लेषित करना, यही पर्युषण पर्व का मूल स्वरूप है।
आत्मोत्थान तथा आत्मा को उत्कर्ष की ओर ले जाने वाले इस महापर्व की आयोजना प्रतिवर्ष चातुर्मास के दौरान भाद्रव मास के शुक्ल पक्ष में की जाती है। इस महापर्व मंे निरंतर धर्माराधना करने का प्रावधान है। इन दिनों जैन श्वेतांबर मतावलंबी पर्युषण पर्व के रूप में आठ दिनों तक ध्यान, स्वाध्याय, जप, तप, सामायिक, उपवास, क्षमा आदि विविध प्रयोगों द्वारा आत्म-मंथन करते हैं। दिगंबर मतावलंबी दशलक्षण पर्व के रूप मंे दस दिनों तक इस उत्सव की आराधना करते हैं। क्षमा, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग तथा ब्रह्मचर्य इन दस धर्माें के द्वारा अंतर्मुखी बनने का प्रयास करते हैं।
पर्युषण की आराधना के इन दिनों मंे व्यक्ति अपने आपको शोधन एवं आत्मचिंतन के द्वारा वर्षभर के क्रिया-कलापों का प्रतिक्रमण प्रतिलेखन करता है। विगत वर्ष में हुई भूलों को भूलकर चित्तशुद्धि का उपाय करता है। सभी व्यक्ति एक दूसरे से क्षमा का आदान-प्रदान करते हैं, जिससे मनोमालिन्य दूर होता है और सहजता, सरलता, कोमलता, सहिष्णुता के भाव विकसित होते हैं। कोरोना महाव्याधि के दौरान पर्युषण पर्व की उपयोगिता एवं प्रासंगिकता अधिक है, क्योंकि इसकी साधना एवं जीवन उपक्रम रोग-प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करने के सशक्त माध्यम है।
पर्युषण पर्व के आठ दिनों में प्रतिदिन एक विशेष आयोजन निश्चित है। इन आठों दिन के आयोजनों के साथ मुख्य रूप से तप और मंत्र साधना को जोड़ा गया है। संयम, सादगी, सहिष्णुता, अहिंसा, हृदय की पवित्रता से हर व्यक्ति अपने को जुड़ा हुआ पाता है और यही वे दिन हैं जब व्यक्ति घर और मंदिर दोनों में एक सा हो जाता है। छोटे-छोटे बालक-बालिकाओं का उत्साह दर्शनीय होता है। आहार-संयम, उपवास एवं अठाई तप के द्वारा इस महापर्व को मनाते हंै। इस अवसर पर जैन मंदिरों, स्थानकों, उपासना स्थलों, जिनालयों की रौनक बढ़ जाती है। संपूर्ण जैन समाज में साधु-साध्वियों, उपासकों, विद्वत्जनों के प्रवचनों के द्वारा धर्म की विशेष आराधना होती है। श्रावक-श्राविकाएं भी अपना धार्मिक दायित्व समझकर अध्यात्म की ओर प्रयाण करते हैं। अनेक स्थानों पर इन दिनों व्यापारिक गतिविधियां सीमित हो जाती हैं। कई प्रतिष्ठान विशेष दिनों के आयोजन पर अवकाश भी रखते हैं। श्रेष्ठीजन अपने कर्मचारियों को भी धर्माराधना हेतु प्रेरित करते हैं। पयुर्षण पर्व मेें क्षमा, मैत्री, करुणा, तप, मंत्र साधना आदि पर विशेष बल दिया जाता है। क्षमा का सर्वाधिक महत्व इस पर्व के साथ जुड़ा है- मैं सब जीवों कोे क्षमा करता हूं, सब जीव मुझे क्षमा करते हैं। मेरी सब प्राणियों से मित्रता है, किसी से मेरा वैर-भाव नहीं है। प्रभु महावीर के इस मैत्री मंत्र के साथ सामूहिक क्षमापना-क्षमावाणी दिवस को समूचा जैन समाज विश्व मैत्री दिवस के रूप में मनाता है।
पर्युषण पर्व प्रतिक्रमण का प्रयोग है। पीछे मुड़कर स्वयं को देखने का ईमानदार प्रयत्न है। वर्तमान की आंख से अतीत और भविष्य को देखते हुए कल क्या थे और कल क्या होना है इसका विवेकी निर्णय लेकर एक नये सफर की शुरुआत की जाती है। पर्युषण आत्मा में रमण का पर्व है, आत्मशोधन व आत्मोत्थान का पर्व है। यह पर्व अहंकार और ममकार का विसर्जन करने का पर्व है। यह पर्व अहिंसा की आराधना का पर्व है। आज पूरे विश्व को कोरोना महाप्रकोप के कारण सबसे ज्यादा जरूरत है अहिंसा की, मैत्री की, संयम की, सादगी एवं अनुशासन की। यह पर्व अहिंसा, अनुशासन, संयम और मैत्री का पर्व है। अहिंसा और मैत्री के द्वारा ही शांति मिल सकती है तो संयम एवं अनुशासन से ही स्वस्थ बना जा सकता है। आज जो हिंसा, आतंक, आपसी-द्वेष, कोरोना महामारी जैसी ज्वलंत समस्याएं न केवल देश के लिए बल्कि दुनिया के लिए चिंता का बड़ा कारण बनी हुई है और सभी कोई इन समस्याओं का समाधान चाहते हैं। उन लोगों के लिए पर्युषण पर्व एक प्रेरणा है, पाथेय है, मार्गदर्शन है और अहिंसक जीवन शैली का प्रयोग है। पर्युषण पर्व एवं उसकी साधना जीवन में अच्छाई को जीने एवं पाने का माध्यम है। यह पर्व जीवन की दिशा और दशा निर्धारित करता है। लेकिन जैन लोगों ने पर्युषण को केवल मस्तिष्क से समझा, आत्मा से समझने का प्रयत्न नहीं किया है। यही कारण है कि आज भौतिकता की चकाचैंध में, भागती जिंदगी की अंधी दौड़ में इस पर्व की प्रासंगिकता बनाये रखना ज्यादा जरूरी हो गया है। इसके लिए जैन समाज संवेदनशील बने विशेषतः युवा पीढ़ी पर्युषण पर्व की मूल्यवत्ता से परिचित हो और वे सामायिक, मौन, जप, ध्यान, स्वाध्याय, आहार संयम, इन्द्रिय निग्रह, जीवदया आदि के माध्यम से आत्मचेतना को जगाने वाले इन दुर्लभ क्षणों से स्वयं लाभान्वित हो और जन-जन के सम्मुख एक आदर्श प्रस्तुत करे। पर्युषण महापर्व मात्र जैनों का पर्व नहीं है, यह एक सार्वभौम पर्व है। पूरे विश्व के लिए यह एक उत्तम और उत्कृष्ट पर्व है, क्योंकि इसमंे आत्मा की उपासना की जाती है। संपूर्ण संसार में यही एक ऐसा उत्सव या पर्व है जिसमें आत्मरत होकर व्यक्ति आत्मार्थी बनता है व अलौकिक, आध्यात्मिक आनंद एवं निरोगता के शिखर पर आरोहण करता हुआ मोक्षगामी होने का सद्प्रयास करता है। पर्युषण पर्व की साधना को उसके वास्तविक स्वरूप में एकाग्रता से करने वाले व्यक्ति को ही महसूस हो सकता है कि जीवन तो बहुमूल्य है, श्रेष्ठ हैं, आनंदमय है और आदर्श है। मनुष्य के लिए यह जरूरी है कि वह सोचे-‘मैं जो कुछ हूं उसे स्वीकृति दूं, जो नहीं हूं उसका अहम न पालूं। आखिर स्वयं को स्वयं से ज्यादा और कौन जान सकता है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने धर्म के महत्व को उजागर करते हुए कहा था कि धर्म वह वस्तु है जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है।’ इस दृष्टि से पर्युषण पर्व हर इंसान के लिये मोक्ष एवं परम की प्राप्ति का मार्ग है।प्रेषक- आचार्य लोकेश आश्रम,