अगर जीत ही पैमाना है तो इन पांच राज्यों के चुनावों में 3-2 से कांग्रेस जीती है और ‘जो जीता वही सिकंदरÓ वाले अमित शाह के फॉर्मूले से छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व राजस्थान में कांग्रेस की सरकारें बन भी गयीं। कायदे व सही मायने में तो कांग्रेस छत्तीसगढ़ ही जीती और तेलंगाना व मिजोरम बुरी तरह हारी। मगर भाजपा मध्यप्रदेश व राजस्थान जीतते-जीतते हारी और छत्तीसगढ़ बुरी तरह हारी। अंतत: जीत जीत ही होती है और मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालती है। मध्य भारत मे कांग्रेस पार्टी की वापसी उसके लिए संजीवनी जैसी है मगर दक्षिण, उत्तर पूर्व व पूर्वी भारत से उसका सिकुडऩा या साफ होना लोकसभा चुनावों के लिहाज से बिल्कुल भी सही नहीं। भाजपा नेताओं के अभिमान के साथ ही विकास बनाम हिंदुत्व के भटकाव से गुस्साए समर्थकों ने राजस्थान व मध्यप्रदेश में ज़ोरदार झटका दिया जरूर है मगर यह लोकसभा चुनावों में भी भाजपा के खिलाफ जाए, यह जरूरी नहीं।
भाजपा का कोई और विकल्प न होने की मजबूरी में जनता ने कांग्रेस पार्टी को वोट दिया है, ऐसे में कांग्रेस पार्टी को कोई बड़ा गुमान नहीं होना चाहिए। भाजपा का आरोप अब सही लगता है कि छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व राजस्थान में कांग्रेस की जीत छल कपट व झूठ फैला कर वोट लूटने की जीत है और अगर नेशनल हेराल्ड व राफेल डील पर उच्चतम न्यायालय का फैसला चुनावों से पूर्व आ जाता तो कांग्रेस पार्टी बुरी तरह हार जाती। वैसे भी जिस दिन उसके तीनों मुख्यमंत्री शपथग्रहण कर रहे थे उसी दिन सन 1984 के सिख दंगों के आरोपी कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा सुना जीत का मजा ही खट्टा कर दिया। मध्यप्रदेश में जिन कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया वे भी इन दंगों के आरोपी हैं व सभी दल उनको बर्खास्त करने की मांग कर रहे हैं। दिल्ली विधानसभा ने तो इसीलिए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी, जिनके प्रधानमंत्री बनते ही सिखों के खिलाफ दंगे व कत्लेआम हुआ था, को दिए गए भारत रत्न को वापस लेने का प्रस्ताव ही पारित कर दिया है। ऐसे ही अनेक किस्से अशोक गहलोत व भूपेश बघेल के भी सामने आने लगे हैं जो कांग्रेस के लिए शुभ संकेत नहीं। मुख्यमंत्री कौन बनेगा इसके लिए जो सिरफुटौव्वल हुई उसका जनता में यही संदेश गया कि योग्यता की जगह गांधी परिवार की वफादारी को प्राथमिकता दी गयी। सरकार बनते ही किसानों के आधे-अधूरे ऋण माफ करने से न तो किसान खुश हो पाया बल्कि सबसे ईमानदारी से टैक्स देने वाला मध्यमवर्ग और नाराज हो गया। नेशनल हेराल्ड मामले में भी कोर्ट ने दो हफ्तों में दिल्ली की बिल्डिंग खाली करने का आदेश देकर सोनिया व राहुल पर बड़ी जालसाजी कर हज़ारों करोड़ रुपए की प्रॉपर्टी हड़पने के आरोपों की पुष्टि कर दी। ऑगस्टा वेस्टलैंड डील में भी सोनिया गांधी सिंडिकेट को मोटा कमीशन मिलने की पुष्टि जल्द होने जा रही है क्योंकि सौदे का दलाल क्रिश्चियन मिशेल अब सीबीआई के कब्जे में है। सेकुलर स्लीपर सेल की एक और कड़ी फिल्म अभिनेता नसरूद्दीन शाह का बयान भी जनता को पसंद नहीं आया और उनकी बहुत भद्द पिटी और कांग्रेस एक बार फिर बदनाम हुई। कांग्रेस की सिख आतंकवाद को उभारने व पाकिस्तान प्रेम की कहानी उतावले नवजोत सिंह सिद्धू हाल ही में जगजाहिर कर ही चुके हैं। यकायक ही कांग्रेस पार्टी की पोल खोलते सैकड़ों किस्से सामने आने लगे हैं जिससे यह लगने लगा है कि इस पार्टी में पिछले पांच वर्षों में कोई बदलाव नहीं हुआ है और इसकी संस्कृति वही है जो सन 2014 से पूर्व थी जिसके कारण जनता ने उसे 44 सीटों तक धकेल दिया था। ऐसे में लग रहा है कि लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का दिया बुझ न जाए और तीन राज्यों की जीत बुझने से पहले भड़भड़ाते दिए की रोशनी मात्र ही है।
अगर बात भाजपा की हार की करें तो यह सभी को लग रहा था कि राजस्थान भाजपा हार रही है और जैसे-तैसे छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश बचा लेगी। मगर गलत रणनीति, कांटे की लड़ाई और आंतरिक गुटबाजी के साथ ही नाराज कार्यकर्ताओं व समर्थकों ने भाजपा को हार के किनारे ला पटका। पिछले एक वर्ष में जाति की राजनीति और अगड़ा-पिछड़ा, दलित का संघर्ष व हिंदुत्व से दूरी ने पार्टी के वोटबैंक को बांट दिया। चुनावों के अंतिम समय में राम मंदिर मुद्दे के बहाने जैसे-तैसे सबको जोडऩे की कोशिश भी की गई मगर उसका प्रभाव आधा अधूरा ही रहा और पार्टी हार गई। पार्टी की हार का एक बड़ा कारण पुरानी भाजपा के नेताओं व मोदी समर्थक लॉबी का आंतरिक टकराव रहा। संघ की एक बड़ी लॉबी मोदी के विरुद्ध खड़ी हो गयी है। ऐसा मोदी के संघ व पार्टी लाइन से बिखराव और संघ परिवार पर हावी होने की कोशिशों के कारण भी हुआ। कई जगह मोदी अति कर गए तो कई जगह संघ। इससे भी ज्यादा भाजपा के साथ ही अनेक संघ प्रचारकों में भी सत्ता का घमंड आना हार का प्रमुख कारण रहा। घमंड, पैसा कमाने की प्रवृत्ति, परिक्रमा करने वालों को पुरुस्कार, जमीनी कार्यकर्ताओ की उपेक्षा, विचारधारा से भटकाव आदि आदि। भाजपा की ओर से दावा किया जा रहा है कि यह हार उनके मुख्यमंत्रियों की है क्योंकि उनके खिलाफ ‘एंटी इंकम्बेन्सीÓ काम कर रही थी, यह जनमत मोदी सरकार के विरुद्ध कतई नहीं है और लोकसभा चुनावों पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा। किंतु ऐसा है नहीं। कहीं न कहीं कुछ दरका जरूर है। मोदी समर्थक निराश व हताश हुए हैं। कुछ राह भी बदल चुके हैं। विपक्ष एक होकर मजबूती से लडऩे की राह पर है और एनडीए में छटपटाहट अधिक है। पुराने समर्थकों, साथियों, दलों व हिंदू समाज को साथ जोड़े रखना नरेंद्र मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती है, वो भी ऐसे में जबकि विपक्ष झूठ बोलने, प्रपंच गढऩे व भ्रम फैलाने में माहिर है। निश्चित रूप से मोदी-शाह के तरकश में अभी बहुत सारे तीर हैं और वे समय के साथ छोड़े जाएंगे और यही कुछ विपक्षी भी करेंगे ही। जंग अब महाभारत जैसी हो चली है और थोड़ी थोड़ी खतरनाक भी। आम भारतीयों के सामने यक्ष प्रश्न है कि आगामी लोकसभा चुनावों में स्पष्ट बहुमत की सरकार बनेगी या मिलीजुली और इसका उत्तर भी उसे ही तलाशना है।
By Editor
Anuj Agarwal