उत्तराखंड में मतदान के बाद की स्थितियों से भाजपा की वापसी तय तो लग रही है किन्तु जितनी विराट सफलता की अपेक्षा भाजपा को थी शायद उससे कम सीटें भाजपा को मिल पाएंगी। भाजपा को 50-55 सीटें जीतने की आशा थी किन्तु मैदानी इलाकों में मायावती ने सेंध लगाकर यह आंकड़ा 40-45 तक सीमित कर दिया है। आधी कांग्रेस को अपने में समेटी भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनना तय मान रहे हैं विशेष संवाददाता अमित त्यागी
जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें से सिर्फ उत्तराखंड ही ऐसा राज्य है जहां भाजपा की पूर्ण बहुमत सरकार का बनना स्पष्ट दिख रहा है। इस बात में किसी को कोई शक नहीं है कि उत्तराखंड से कांग्रेस साफ होने जा रही है। मतदान के दिनों में जिस तरह का रुझान यहां के मतदाताओं ने दिखाया है उसके अनुसार यहां की जनता कांग्रेस के पांच साल के जर्जर कार्यकाल और बदलते मुख्यमंत्रियों से आजिज़ आ चुकी दिखी है। इस बार कांग्रेस और भाजपा को 32-31 सीटें देकर खंडित जनादेश नहीं देना चाहती है। वह चाहती है कि सरकार के लिए आवश्यक 36 का आंकड़ा पार होना चाहिए।
इस बात का रुझान इस बात से मिला कि पहाड़ी और मैदानी दोनों इलाकों में इस बार मत प्रतिशत काफी ज़्यादा रहा है। कुछ स्थानों पर तो 70 प्रतिशत के ऊपर भी मतदान हुआ है। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि इस बार पहाड़ के लोग मन बना चुके हैं। यहां के वोटर उत्तर प्रदेश और पंजाब की तरह साइलेंट वोटर नहीं हैं। वह खुल कर बता चुके हैं कि उनका रुझान किस ओर है। अब तक प्रदेश की 70 में से 69 सीटों पर ही मतदान हुआ है क्योंकि कर्णप्रयाग सीट पर 12 फरवरी को बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी कुलदीप कान्वासी की सड़क दुर्घटना में मृत्यु के कारण वहां चुनाव स्थगित हो गये थे। कर्णप्रयाग सीट पर मतदान के लिये चुनाव आयोग ने अब नौ मार्च की तारीख घोषित की है।
उत्तराखंड में ज्यादातर सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है। साथ ही साथ करीब एक दर्जन सीटों पर निर्दलीय के रूप में खड़े दोनों राजनीतिक दलों के बागी नेता अपने दलों के प्रत्याशियों के चुनावी गणित को खराब करने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। इस बार प्रदेश में 12 कांग्रेस विधायकों के दल-बदल कर भाजपा के टिकट पर चुनाव लडऩे और दो भाजपा विधायकों के कांग्रेस से चुनाव मैदान में होने से नतीजों के काफी रोचक होने की संभावना है। अपनी जीत के लिए हरीश रावत भी आश्वस्त नहीं थे इसलिए इस बार उन्होंने अपनी वर्तमान विधानसभा पिथौरागढ़ की धारचूला सीट के स्थान पर अन्य दो सीटों से लडऩे की योजना बनायी। वह दो मैदानी इलाकों की सीटें हरिद्वार (ग्रामीण) के अलावा उधमसिंह नगर जिले की किच्छा सीट से किस्मत आज़मा रहे हैं।
बसपा लगा रही है मैदानी इलाकों में सेंध
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में तो भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है किन्तु मैदानी इलाकों की सीटों पर बसपा भी मजबूत स्थिति में दिखाई दी है। बसपा ने ज़्यादातर इलाकों में कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध ज़्यादा लगाई है किन्तु भाजपा को भी कुछ सीटों पर हताश ज़रूर किया है। इसको समझने के लिए एक आंकड़े को समझते हैं। मैदानी इलाके के एक जि़ले उधम सिंह नगर की नौ सीटों में से 2012 में बसपा एक सीट पर नंबर दो पर रही थी। एक सीट पर नंबर चार पर रही थी। शेष सीटों पर बसपा तीसरे स्थान पर थी। इस जि़ले में बसपा ने सीटें तो प्राप्त नहीं कीं किन्तु 21 प्रतिशत मत प्राप्त किए। 21 प्रतिशत एक बड़ा मत प्रतिशत है जो किसी भी चुनाव में जीत हार का बड़ा अंतर पैदा करता है। इसी क्रम में हरिद्वार जि़ले की ग्यारह सीटों पर बसपा का मत प्रतिशत 29 प्रतिशत रहा। यहां बसपा ने सीटें भी जीतीं थीं। 2012 के इन चुनावों में अगर बसपा के पूरे सूबे में मत प्रतिशत की बात करें तो बसपा को 12.28 प्रतिशत मत ही मिले। यह आंकड़े इस बात को बताने के लिए काफी हैं कि मैदानी इलाकों की लगभग बीस पच्चीस सीटों पर बसपा कितनी प्रभावशाली है।
बसपा के वोट बैंक में दलित और अल्पसंख्यक प्रमुख हैं। यह दोनों ही कांग्रेस का वोट बैंक भी माने जाते हैं। 2012 के चुनावों के बाद त्रिशंकु विधानसभा बनने के बाद बसपा ने कांग्रेस का साथ देकर सत्ता की मलाई खाई थी इसलिए कांग्रेस के गुनाहों की भागीदार वह भी है। जनता नाराज़ कांग्रेस से है तो बसपा से भी किन्तु बसपा के वोट बैंक की एक खास बात यह है कि वह सिर्फ और सिर्फ अपनी पार्टी का वोट बैंक है। वह शिफ्टिंग वोट बैंक नहीं है।
मोदी के सिर्फ एक बयान से बैक फुट पर आ गयी कांग्रेस
प्रधानमंत्री मोदी के एक बयान ने उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में कांग्रेस को काफी नुकसान पहुंचाया। मोदी ने जब पहाडिय़ों को याद दिलाया कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने उस सपा से हाथ मिलाया है जिसने रामपुर तिराहा कांड में गोलियां चलवाईं थीं। माताओं और बहनों के साथ बलात्कार किया था। आंदोलनकारियों पर ज़ुल्म करने वाली सपा की गोद में बैठकर कांग्रेस ने उत्तराखंड निवासियों का अपमान किया है। इसके साथ ही कांग्रेस के मुख्यमंत्री तो स्वयं उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के विरोधी थे। मोदी का यह बयान पहाड़ पर कांग्रेस की कई दुखती रगों को दबा गया। इसके द्वारा पहाड़ों के कुछ स्थानों पर कमजोर भाजपा की तरफ वोटों का रुझान भी देखने को मिला है।
इस तरह से उत्तराखंड के चुनाव परिणामों में कुछ भी रॉकेट साइन्स नहीं दिख रही है। भाजपा का सरकार बनाना तय दिख रहा है। अब सरकार बनने की स्थिति में कितनी सीटें भाजपा जीतेगी यह एक बड़ा प्रश्न है। यदि सब कुछ आंकलन के अनुरूप रहा तो शायद भाजपा दो तिहाई का आंकड़ा भी छू सकती है।
क्षेत्रीय नहीं राष्ट्रीय मुद्दे छाये रहे चुनावी घोषणा पत्रों में
उत्तराखंड में दोनों बड़े दल कांग्रेस और भाजपा के घोषणा पत्रों में एक खास समानता रही है। दोनों के घोषणा पत्रों में इस बार स्थानीय से ज़्यादा राष्ट्रीय मुद्दे तरजीह पाते रहे। प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस दोनों की सरकारें रही हैं। दोनों के समय काल में संसाधनों की लूट और भ्रष्टाचार प्रमुख मुद्दा रहा है। इसलिए दोनों ही दलों ने इस बार इन मुद्दों से दूरी बनाये रखी है। संसाधनों के नियंत्रित दोहन पर सभी दल चुप हैं। पलायन और रोजगार पर कोई ठोस योजना अभी तक किसी ने पेश नहीं की है। आपदा प्रबंधन जिसमें भूकंप और भू-स्खलन जैसी समस्याएं शामिल हैं, पर प्रशासन और शासन दोनों के पास कोई स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं है। उत्तराखंड में एक खास बात यह है कि यहां विधायक को तो जनता चुनती है किन्तु इन विधायकों का नेता दिल्ली से तय होता है। ऐसा भाजपा और कांग्रेस दोनों के कार्यकाल में होता आया है। दोनों की सरकारों के मुख्यमंत्री पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं करते बल्कि बीच में ही हाईकमान के आदेश से बदल दिये जाते रहे हैं। चुनावी घोषणा पत्रों में स्थानीय और क्षेत्रीय मुद्दों के स्थान पर राष्ट्रीय मुद्दों को तरजीह देना भी इस बात का स्पष्ट संकेत है कि यह बदलाव तो इस बार भी नहीं होने जा रहा है।