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उत्तराखंड की ठंडी और शांत वादियों में चुनावी शोर

देश में लोकसभा चुनाव का शंख बजने के बाद उत्तराखंड की ठंडी और शांत वादियों में चुनावी शोर ने भले ही अभी गति न पकड़ी हो पर प्रदेश की दोनों प्रमुख पार्टी बीजेपी और कांग्रेस में अंतरकलह की गर्माहट ने राजनीतिक माहौल को खासा गरमा रखा है। प्रदेश के 76.28 लाख मतदाता 11 अप्रैल को अपना मतदान कर सूबे की 5 लोकसभा सीटों पर किस दल को काबिज करने जा रहे हैं यह तो अभी नहीं कहा जा सकता पर राजनीति के रणनीतिककारों का मानना है कि इस बार सत्तारूढ़ बीजेपी और कांग्रेस दोनों की हालत चिकन सूप की तरह पतली बनी हुई है। एक ओर प्रदेश में कांग्रेस का अंतर्कलह का बीज फूट फूटकर आपसी कलह की नई पौध को जन्म देने पर तुला हुआ है तो वहीं दूसरी ओर बीजेपी के सिरमौर माने जाने वाले बड़े नेता वनवास की ओर रुख किये बैठे हैं जिसके चलते देश के इस सबसे बड़े उत्सव का रंग सूबे की जनता पर अभी तक नहीं चढ़ पाया है।

उत्तराखंड की पांचों लोकसभा सीटों में हरिद्वार, नैनीताल, टिहरी, पौड़ी, गढ़वाल और अल्मोड़ा सीट से यूं तो दोनों ही प्रमुख दल (बीजेपी-कांग्रेस) एक-एक बार एक दूसरे को क्लीन स्वीप कर चुके हैं, पर इस बार ऐसा होना नामुमकिन सा दिखता है क्योंकि जहां सूबे की सत्ताधारी भाजपा के पास जनता को भुनाने के लिए एक भी करिश्माई उपलब्धि खाते में नहीं है तो वहीं विपक्ष में बैठी कांग्रेस आपसी खींचतान के चलते ढाई साल के बड़े अन्तराल में विपक्षी दल की सही भूमिका तक ठीक से नहीं निभा पाई है। प्रदेश कांग्रेस पार्टी में स्व पंडित नारायण दत्त तिवारी के बाद सबसे बड़ा राजनीतिक कद पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत का माना जाता है जिसके फलस्वरूप वह राजनीतिक गलियारों में अक्सर अपनी डपली अपना राग बजाकर अपनी पार्टी के विरोधियों को पस्त भी करते रहे हैं। वहीं दूसरी ओर पार्टी की रीड़ मानी जाने वाली इंद्रा ह्रदेश, प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह व पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय वो कांग्रेस के बड़े नाम हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि यह असंतोष के चलते पार्टी की नीतियों पर कम अपनी नीतियों पर ज्यादा चलते हैं जिस कारण सूबे में कांग्रेस दल कई गुटों में बट चुका है। गुट चाहे किसी का भी हो, समय-समय पर एक दूसरे की टांग खींचने से भी गुरेज नहीं करता। ऐसे में आम चुनावों में किसी दिग्गज का भी जीत का परचम फहराना किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। इसके बावजूद आंकड़े एक तस्वीर यह भी सामने रखे हुए हैं कि अभी तक सूबे में जिस पार्टी की भी सरकार रही, लोकसभा चुनाव परिणाम उसके विपरीत रहे हैं। 2004 में सूबे में कांग्रेस की सरकार में हुए आम चुनाव में कांग्रेस को एक ही सीट से संतोष करना पड़ा तो वहीं 2009 आम चुनाव के दौरान प्रदेश में काबिज बीजेपी सरकार के हाथ एक भी सीट नहीं आई। बीते 2014 आम चुनाव के दौरान कांग्रेस सूबे पर काबिज रही तो बीजेपी ने पांचों सीट कब्जाकर कांग्रेस को क्लीन स्वीप कर दिया था। यदि इसको देखते हुए इतिहास खुद को दोहराता है तो ये माना जा सकता है कि पार्टी के हालत चाहे जो हो, इस बार परचम कांग्रेस का फहरेगा!

वहीं सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी में जिस तरह से असंतोष की ज्वाला सुलग रही है अगर समय रहते हाई कमान ने डेमेज कण्ट्रोल करते हुए इसपर पानी नहीं डाला तो नि:सन्देह इस बार बीजेपी को सूबे में बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी, विजय बहुगुणा, भुवन चंद्र खंडूरी सहित कद्दावर नेता सतपाल महाराज ये बीजेपी के वह नाम हैं जो प्रदेश में चुनावी दंगल जिताने व हराने का भरपूर माद्दा रखते हैं। सूत्रों द्वारा माना ये जा रहा है कि वर्तमान समय में ये सभी पार्टी दिल्ली हाई कमान से असंतुष्ट बने हुए हैं। नैनीताल लोकसभा से स्थानीय कार्यकर्ताओं और पार्टी हाई कमान के सबसे पसंदीदा प्रत्याशी होने के बावजूद जिस तरह से भगत दा ने स्वयं को इस बार चुनाव से दूर कर लिया है वह अपने आप में कई सवाल खड़े करता है। जानकारों का मानना है कि मोदी सरकार में जिम्मेदारी मिलने की आस नैनीताल सांसद भगत सिंह कोश्यारी को आखिरी समय तक रही पर ऐसा हो न सका, वहीं प्रदेश में कई ऐसे बाजी पलटने में माहिर बीजेपी के नेता पांच साल मलाई खाना तो दूर चख तक न पाने के मलाल के चलते चुनावी माहौल से निकल 14 दिन के वनवास पर जाने को तैयार दिखाई पड़ते हैं। इन सबसे साफ़ झलकाता है कि उत्तराखंड में बीजेपी और कांग्रेस की हालत चिकन सूप की तरह पतली बनी हुई है। देखना यह है कि दोनों ही प्रमुख दलों में से कौन अपने सूप को कितना गाढ़ा कर पाता है और कितनी सीटों पर काबिज हो पाता है।

 

रफ़ी खान

 

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