अगले करीब एक दशक में काला अजार के प्रभावी उपचार के लिए एक नयी थेरेपी विकसित की जा सकती है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में शोध कर रहे वैज्ञानिकों ने काला अजार के इलाज लिए मौखिक दवा विकिसत करने से संबंधित घटकों के एक समृद्ध पोर्टफोलियो के आधार पर यह बात कही है।
दक्षिण एशिया समेत अंतरराष्ट्रीय स्तर के 30 से अधिक शोधकर्ताओं द्वारा तैयार किए गए ‘नेग्लेक्टेड डिजीजेस ऐंड इनोवेशन इन साउथ एशिया’ नामक एक नये संग्रह में यह बात सामने आयी है। इस संग्रह में लिंफैटिक फाइलेरिया, काला अजार और सर्पदंश जैसी उपेक्षित स्वास्थ्य समस्याओं के नियंत्रण तथा उन्मूलन से जुड़ी प्रगति का मूल्यांकन किया गया है। इसके अलावा, रोगाणुरोधी प्रतिरोध की बढ़ती चुनौती को भी इसमें रेखांकित किया गया है।
शोधकर्ताओं में शामिल बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के शोधकर्ता प्रोफेसर श्याम सुंदर के मुताबिक, “काला अजार से उबरने के बाद करीब 10 प्रतिशत मरीज गंभीर त्वचा रोग डर्मल लीश्मेनियेसिस के शिकार हो जाते हैं। यह स्थिति काला अजार के फैलने का एक प्रमुख कारण मानी जाती है। इस बीमारी से निपटने के लिए वैज्ञानिक काफी समय से नयी और संशोधित उपचार पद्धतियों की खोज में जुटे हुए हैं।”
उपेक्षित बीमारियों पर अनुसंधान एवं विकास संबंधी कार्य करने वाली संस्था ड्रग्स फॉर नेग्लेक्टेड डिजीजेस इनिशिएटिव (डीएनडीआई) और ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (बीएमजे) द्वारा यह संग्रह प्रकाशित किया गया है। इसका उद्देश्य उपेक्षित रोगियों के स्वास्थ्य में सुधार के लिए अनुसंधान प्राथमिकताएं तय करना और प्रभावी रणनीतियों की सिफारिश करना है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि काला अजार उन्मूलन के लिए नयी दवाएं और निदान के तरीकों के विकास के साथ-साथ रोगवाहकों के नियंत्रण और निगरानी से जुड़ी रणनीतियों में सुधार के लिए निवेश जरूरी है। काला अजार के अलावा, इस रिपोर्ट में लिंफैटिक फाइलेरिया, सर्पदंश, दवाओं के खिलाफ रोगाणुओं की बढ़ती प्रतिरोधक क्षमता और बच्चों में सेप्सिस रोग से संबंधित सिफारिशें भी की गई हैं।
इस अवसर पर मौजूद भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के महानिदेशक प्रोफेसर बलराम भार्गव ने कहा है कि “इस संग्रह का एकीकृत विषय निदान, उपचार और उपेक्षित रोगियों के लिए प्रभावी, प्रासंगिक, स्थानीय रूप से व्यवहार्य एवं टिकाऊ समाधान खोजने की आवश्यकता पर केंद्रित है। बीमारियों के बढ़ते बोझ और अपनी क्षेत्रीय विशेषज्ञता को देखते हुए दवाओं की खोज और नैदानिक अध्ययन से लेकर नियमन, निर्माण और वितरण समेत विभिन्न क्षेत्रों में भारत की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो सकती है।””
भारत में डीएनडीआई की प्रमुख डॉ सुमन रिजाल के मुताबिक, “यह संग्रह दक्षिण एशिया में उपेक्षित बीमारियों में सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों की उल्लेखनीय सफलताओं पर प्रकाश डालता है और उन क्षेत्रों की पहचान करता है, जहां भारत में नियंत्रण या उन्मूलन के लिए योजनाओं को बनाए रखने के लिए अनुसंधान और सहायक नीति की आवश्यकता है।”
लिंफैटिक फाइलेरिया से ग्रस्त दुनिया के 50 प्रतिशत लोग दक्षिण-पूर्वी एशिया में रहते हैं और इससे पीड़ित विश्व की 40 प्रतिशत आबादी भारत में है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि नयी दवाइयों और ट्रिपल थेरेपी जैसे तरीके लिंफैटिक फाइलेरिया के उन्मूलन से जुड़े प्रयासों को तेज कर सकते हैं।
सर्पदंश से होने वाली मौतों को कम करने के लिए भी इस रिपोर्ट में चिंता व्यक्त की गई है। समय पर उपचार न मिलने से सर्पदंश से विश्व में सर्वाधिक मौतें दक्षिण एशिया में होती हैं। इससे निपटने के लिए स्थानीय स्तर पर प्रचलित सांप प्रजातियों के खिलाफ नयी विषरोधी दवाओं के विकास, उत्पादन में सुधार और वितरण की सिफारिश भी रिपोर्ट में की गयी है।
दवाओं के खिलाफ रोगाणुओं की बढ़ती प्रतिरोधक क्षमता के कारण उपचार के विफल होने और टाइफाइड के इलाज के सीमित विकल्पों से जुड़ी चिंताएं भी संग्रह में शामिल हैं। हालांकि, वर्ष 2018 में स्वीकृत संयुक्त टीके को टाइफाइड नियंत्रण के प्रभावी साधन के रूप में भी देखा जा रहा है। शोधकर्ताओं के अनुसार, भारत में उपेक्षित बीमारियों पर एक व्यापक नीति बनाने की आवश्यकता है, जिससे स्वास्थ्य संबंधी शोध और रणनीतियों के विकास के नये रास्ते खुल सकते हैं। (इंडिया साइंस वायर)
उमाशंकर मिश्र