कुछ दिनों पूर्व गृहमंत्री श्री अमित शाहने कह दिया एक देश, एक भाषा और यह एक विवादका विषय बन गया। मुझे लगा कि इस पूरी चर्चामेंतकनीकीकी भूमिका भी है, उसकी चर्चा करूँ। यह है संगणकीय (कम्प्युटर) तकनीक। संयोगसे यह विषय भी शाहके गृहमंत्रालयका हिस्सा है।
हम एक राष्ट्र, एक भाषाका नारा क्यों लगाते हैं? क्योंकि एक स्वतंत्र राष्ट्रके रूपमें आज भी हम विश्वको यह नही बता पाते कि हमारी राष्ट्रभाषाकौनसी है? फिर वैश्विक समाज अंग्रेजीको हमारे देशकी de facto भाषा मानने लगता है। उनकी इस अवधारणाकी पुष्टि हम भारतीय ही करते हैं।जब दो भारतीय व्यक्ति विदेशमें एक दूसरेसे मिलते हैं तब भी अंगरेजीमे बात करते है। देशके अंदर भी कितने ही माता- पिता जब अपने बच्चोंकेसाथ कहीं घूमने जा रहे होते हैं तब उनके साथ अंगरेजीमें ही बोलते हैं। ये बातें देशके गृहमंत्रीको अखर जायें और वह सोचे कि काश हमारे देशकीएक घोषित राष्ट्रभाषा होती, तो यह स्वाभाविक भी है और उचित भी। अंग्रेजीको अपनी संपर्क भाषा बनानेके कारण हमारी जगहंसाई तो होती हीहै, हमारा आत्मगौरव भी घटता है।
तो जब तक हिंदीको राष्ट्रभाषा नही घोषित किया जाता तबतक विश्वके भाषाई इतिहासमें यही लिखा जायगा कि विश्वके किसी भी देशकीराष्ट्रभाषाके रूपमें हिंदीकी प्रतिष्ठा नही है। स्मरण रहे कि हमसे छोटे छोटे देशोंकी भाषाओंको भी राष्ट्रभाषाका सम्मान प्राप्त है, यथानेपाली, बांग्ला, ऊर्दू, फिनिश, हंगेरियन इत्यादि। जब हम कह सकेंगे कि हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी है, तब विश्व कहेगा कि यह १३० करोडवालेलोकतंत्रकी भाषा है। वर्तमानमें हिंदीका विवरण ऐसा नही दिया जा सकता, केवल यह कहा जाता है कि भारतमें लगभग साठ करोड नागरिकोंकीभाषा हिंदी है। इस प्रकार वैश्विक बाजारमें संख्याबलसे मिलनेवाला लाभ ना तो देश ले पाता है ना हिंदी भाषा।
इसी कारण मैं इस बातका पूरा समर्थन करती हूँ कि हमें शीघ्रातिशीघ्र हिंदीको राष्ट्रभाषा घोषित करना चाहिये। इस मर्यादित अर्थमें अमितशाहका नारा एक राष्ट्र, एक भाषा मुझे पूरी तरह मान्य है।
परंतु जिस प्रकार हमारे राष्ट्रकी अस्मिताका प्रश्न महत्वपूर्ण है, उसी प्रकार हमारी हर भाषाका, हर बोलीका, हर लिपीका प्रश्न महत्वपूर्ण है। इसमहत्वको समझानेके लिये एक खूबसुरत उदाहरण देती हूँ। महाराष्ट्रकी राजभाषा मराठी है। इसके तीन जिलोंमे एक बोलीभाषा है, अहिराणी। यहाँकेएक तहसिलदारने एक दिन मुझे बोलकर सुनाया कि कैसे चोपडा तहसिलकी अहिराणी अलग है, और धडगावकी अलग, पाचोराकी अलगहै, धुलेकी अलग, शिरपूरकी अलग, जलगावकी अलग। अर्थात पांच पांच कोसपर भाषा कैसे बदलती है, इसका बेजोड नमूना वह मुझे दिखा रहाथा। मेरा भी अनुभव है कि पटनाकी भोजपूरी अलग सुनाई देती है और जौनपुरकी अलग। मेरी दृष्टिमें यह भाषाका सामर्थ्य है कि वह कितनीलचीली हो सकती है।
तो जब अस्मिताकी बात करते है तब इस खूबसुरतीकी सराहना भी होनी चाहिये और सुरक्षा भी। जैसे राष्ट्रीय अस्मिताके लिये हिंदीको राष्ट्रभाषाघोषित किया जाना सही है वैसे ही मराठीकी अस्मिताको बनाये रखनेका प्रयास भी उसी गृहमंत्रालयको करना होगा। अहिराणीकी अस्मिता बनायेरखनेका प्रयास केंद्रके साथ महाराष्ट्रकी सरकार और जनताको करना होगा जबकि अलग अलग तहसिलोंमें बोली जानेवाली अलग अलगअहिराणियोंको संभालने हेतु सरकारके साथ वहाँ वहाँके लोगोंको आगे आना होगा। लेकिन इस संभालनेकी प्रक्रियामें अन्य भाषाकी भिन्नताकेप्रति विद्वेष या वैरकी भावना नही होनी चाहिये। अर्थात इनकी आन्तरिक एकात्मताको समझकर उसका सम्मान होना चाहिये, और उससे लाभउठाना चाहिये इतना सिद्धान्त तो सबकी समझनेमें आता है।
क्या इस सिद्धान्तका कोई व्यावहारिक पक्ष है, विशेषकर ऐसा जिसमें गृहमंत्रालयके लिये कोई जिम्मेदारी है। जी हाँ, है। जितनी अधिक तेजीसेऔर कुशलतासे गृहमंत्रालय उसे निभायेगा, उतनी ही तेजीसे हम अपने देशके भाषाई एकात्मको निभा पायेंगे।
इस दिशामें मेरे कुछ तकनीकी सुझाव हैं जो आयटी क्षेत्रसे संबंधित होनेके कारण वे भी गृहमंत्रालयकी कार्यकक्षामे है।
यहाँ थोडासा संगणकके (कम्प्यूटरके) इतिहासमें झांककर देखना होगा। १९९० आते आते सरकारी संगणकीय संस्थान सीडॅकके एक संगणकशास्त्रज्ञ श्री मोहन तांबेने एक संगणक सॉफ्टवेयरकी रचना की जिसका इनस्क्रिप्ट नामक कीबोर्ड लेआउट भारतीय वर्णमालाके अक्षरोंके क्रमानुसारतथा आठ उंगालियोंसे टाइपिंग करने हेतु अत्यंत सरल व सुविधाजनक है। इसका प्रयोग सारी भारतीय लिपियोंसहितसिंहली,भूटानी, तिब्बती, थाई आदिके लिये एक जैसा ही है। यह जो सॉफ्टवेयर बना उसका नाम था लीप-ऑफिस। इसके लिये सीडॅकने जेजेस्कूल ऑफ आर्टके डीन श्री जोशीकी सहायतासे करीब बीस अलग- अलग फॉण्टसेट भी बनवाये। कदाचित आज भी किसी किसीके स्मरणमें उनकेनाम होंगे यथा सुरेख, वसुंधरा, योगेश इत्यादि। हिंदीके साथ साथ प्रत्येक भारतीय लिपीके लिये भी १०-२० फॉन्टसेट बनाये गये। एक तरहसे कहाजा सकता है कि तांबेजी व जोशीजीने पद्मश्री मिलने जैसा काम किया था। इनके माध्यमसे किसी भी एक लिपीमें लिखा गया आलेख एक हीक्लिकसे दूसरी लिपीमें और मनचाहे फॉण्टमें बदला जा सकता था ( देखें वीडिये लिंक Inscript-part-2 — मराठी हिन्दी धपाधप लेखन हेतू — https://www.youtube.com/watch?v=0YspgTEi1xI&feature=user&gl=GB&hl=en-GB )
श्री तांबेने १९९१ में ही इस इनस्र्किप्ट की-बोर्ड लेआउटको तथा संगणककी प्रोसेसर चिपमें स्टोरेज हेतु किये जानेवाले एनकोडिंगको ब्यूरो ऑफइण्डियन स्टॅण्डर्डसे भारतीय प्रमाणके रूपमें घोषित भी करवा लिया जिसका बडा लाभ आगे चलकर हुआ जब १९९५ में इंटरनेटका युग आया।
१९९५ से २००५ तकका सीडॅकका इतिहास एक विफलताका इतिहास है और मैं यहाँ उसे दोहराना नही चाहती। उसका एक आयाम यह था किलीप ऑफिसको देशकी लिपीयोंके सुगठित प्रचारहेतु समर्पित करनेकी जगह साडॅक उसे १५००० में बेचती थी। इतना कहना पर्याप्त है कि इस दौरानश्री तांबे सीडॅकसे बाहर हुए और इंटरनेटके साथ कम्पॅटिबल न होनेके कारण सीडॅकने अन्ततोगत्वा लीप-ऑफिसको भी डंप कर दिया। इस बीचइंटरनेट तथा नई १६- बिटवाली संगणकीय प्रणालीमें पुराना युरोपीय स्टॅण्डर्ड ASCII अपर्याप्त होनेके कारण एक नया विश्वव्यापी स्टॅण्डर्ड बनने लगायुनीकोड। इसे बनानेवाले युनीकोड कन्सोर्शियमने अर्थात अंतर्राष्ट्रीय संगठनने श्री तांबेद्वारा प्रमाणित करवाये स्टॅण्डर्डको ही भारतीय भाषाओंकेस्टॅण्डर्ड हेतु स्वीकार किया। यही कारण है कि लीप-ऑफिसका पूरा सॉफ्टवेयर ना सही, परन्तु इनस्क्रिप्ट की-बोर्ड लेआऊटके साथ तांबेका बनायास्टोरेज एनकोडिंग हो तो वह लेखन इंटरनेटपर टिकाऊ रहता है, जंक नही होता।
देशका दुर्भाग्य है कि उपरोक्त तकनीकी बारीकियाँ तथा अगले परिच्छेदोंमें वर्णित बारकियाँ भी गृहमंत्रालय या सीडँकके वरिष्ठ अधिकारियोंकोज्ञात ही नही हैं। उनसे चर्चा करनेपर वे इन्हें तुच्छ बताते हुए इस बातपर गर्व करते हैं कि वे इन बारीकियोंको अपने निम्नस्तरीय अधिकारियोंकोसौंपते हैं, स्वयं इनपर विचार नही करते। मेरा मानना है कि जब तक वे इन बातोंको ठीक तरह नही समझेंगे, तबतक वे भाषाई एकात्मताको बचानेया उसका लाभ उठानेमें सक्षम नही होंगे।
युनीकोड कन्सोर्शियमके द्वारा इंडियन स्टॅण्डर्ड स्वीकारे जानेके बाद भी सीडॅकने अपने लीपऑफिसको और खास तौरसे उसके फॉण्ट- सेटोंको देशीलिपियोंके लिये समर्पित नही किया बल्कि उसे डंप कर दिया। भारत सरकारने ऐसा होने दिया और २००५ में देशी भाषाओंको रोमनागरीमें लिखेजाने हेतु एक करोड सीडी फ्री बँटवाईं। कभी कभी मुझे यह भी शंका होती है कि शायद यह कोई प्लान था देशकी लिपियाँ समाप्त करनेका। इसीरोमनागरी सॉफ्टवेयरका बदला रूप आज हम गूगल-इनपुट टूलके रूपमें मार्केटमें छाया हुआ देखते हैं। लेकिन गृहमंत्रालय आज भी निर्देश देसकता है कि लीप ऑफिसके लिये बनवाये गये सभी लिपियोंके फॉण्ट ओपन डोमेनमें डाले जायें – अर्थात विनामूल्य उपलब्ध कराये जायें।
संगणकके इतिहासमें १९८० के दशकसे ही मायक्रोसॉफ्टकी ऑपरेटिंग सिस्टमका बोलबाला और एकाधिकार प्रस्थापित होने लगा था। लेकिनहमें नही भूलना चाहिये कि उन्हें भी एक मार्केटकी आवश्यकता होती है और वे ग्राहकको असंतुष्ट नही रख सकते। उनके दो बडे मार्केट थे — एकचीन जहाँ उनकी मनमानी नही चलती थी। इसीलिये चीन आग्रही रहा कि वहाँ संगणकके सारे आदेश चीनी लिपीमें ही दिखेंगे। दूसरा मार्केट हैभारत। लेकिन सीडॅक और भारत सरकारने बारबार यही रोना रोया है कि क्या करें, मायक्रोसॉफ्ट हमें भारतीय भाषाई सुविधा नही देता।बहरहाल,इंटरनेट आनेके बाद सीडॅकने यही रोना रोया कि बीआयएस एवं युनीकोड द्वारा मान्य एनकोडिंगको भारतीय लिपियोंमें लागू करनेके लियेमायक्रोसॉफ्ट सहयोग नही दे रहा।
तभी १९९६ में मायक्रोसॉफ्टको टक्कर देती हुई और अपना मंच पूरे विश्वके उपयोगके लिये फ्री रखनेका दावा करनेवाली लीनक्स ऑपरेटिंगसिस्टम मार्केटमें आई, उसने भारतीय लिपियोंके दो-दो तीन-तीन फॉण्ट बनवाये और सारी सुविधाऐँ फ्री डाऊनलोडसे देने लगे। तब जाकरमायक्रोसॉफ्टने भी प्रत्येक भारतीय लिपीके लिये एक-एक फॉण्ट बनवाकर अपना मार्केट बचाया। इस हेतु उन्हें भी अपना की-बोर्ड लेआउट वहीरखना पडा जो तांबेका बनाया था – लेकिन मायक्रोसॉफ्टके अधिकारियोंने भी कभी उनके श्रेयको नही स्वीकारा।
तो आज भारतीय फॉण्ट-मार्केटकी स्थिती यह है कि लीप-ऑफिस, श्रीलिपी, कृतिदेव इत्यादि नामोंसे प्रत्येक भारतीय लिपीके जो चालीस पचासफॉण्टसेट्स भारतीय कंपनियोंके पास उपलब्ध है वे इंटरनेटपर जंक हो जाते हैं क्योंकि उनका एनकोडिंग बीआयएस स्टॅण्डर्ड या युनीकोडके अनुसारनही है। और जिस मायक्रोसॉफ्ट या लीनक्स ऑपरेटिंग सिस्टममें युनीकोडके अनुरूप भारतीय भाषाई सॉफ्टवेयर बनाया गया है, उनके पास दो-तीनसे अधिक फॉण्ट उपलब्ध नही हैं। इसका भारी नुकसान हमारी प्रकाशन संस्थाओंको उठाना पडता है क्योंकि फॉण्टफटीगसे बचने औरप्रकाशनकी सुंदरताके लिये उन्हें कई फॉण्ट्सकी आवश्यकता होती है।
यदि गृहमंत्रालयको अपनी सारी भाषाकों व लिपियोंको सम्मान एवं उपयोगिता बनाये रखनी है तो सीडॅकके पास जो लीप-ऑफिसके फॉण्टकचरेमें पडे हैं, उन्हें देशके लिये उपलब्ध कराया जा सकता है। भाषाई प्रकाशन गतिमान रहेगा तो भाषाई प्रगति भी तेजीसे हो सकेगी।
लेकिन उससे भी एक बडी व्यवस्था गृहमंत्रालयको करनी होगी। चूँकि सभी भारतीय लिपियोंकी वर्णमाला एक ही है, अतः युनिकोड प्रणालीमें जहाँआज उन्हें अलग अलग खानेमें रख्वाया गया है, उसकी बजाय एक ही खानेमें रखवाया जाय। इससे सारी लिपीयोंमें लिप्यंतरण करना सरल होगाऔर एकात्मताके लिये वह भी बडा संबल बनेगा। इसे एक उदाहरणसे समझा जा सकता है। मान लो कि गीता प्रेसने भगवद्गीताकी संस्कृत आवृत्तिदेवनागरीमें बनाई तो उसे तत्कालही अन्य लिपियोंमें भी बदला जा सकेगा। दूसरा फायदा भी है – किसीभी लिपीमें टाइप किया शब्द गूगल-सर्चपरसभी लिपियोंमें उपलब्ध होगा और यह शोधप्रकल्पोंमें अतीव उपयोगी रहेगा। ज्ञातव्य है कि अरेबिक वर्णमालाके आधारपर बनी सारी भाषाएँयुनीकोडने एकत्रित रखी है अतः उनकी शीघ्र लिप्यंतरण संभव है। इसी प्रकार चीनी वर्णमालासे चलनेवाली चीनी- जपानी- कोरियाई लिपियाँ भीएक ही खानेमें है। यही सुविधा भारतीय लिपियोंमें होनी चाहिये जैसी लीप ऑफिसमें थी। लेकिन इसके लिये गृहमंत्रालय व युनीकोडकन्सोर्शियमके बीच संवाद बनाना पडेगा।
प्रधान मंत्रीने हालमें ही इंगित किया है कि एक राज्यके स्कूली बच्चोंको दूसरे किसी राज्यकी भाषासे परिचित कराने के प्रयास हों। इसदिशामें अहमदाबादके एक प्रोफेसरकी बनाई साराणियोंका उल्लेख औचित्यपूर्ण है। एक बडे पोस्टर पर दस- दस शब्द संस्कृत, हिंदी सहितअलग- अलग भाषाओंमें, उनकी अपनी लिपी और देवनागरी लिपीके साथ लिखकर ये सारणियाँ बनाई हैं। ऐसे लगभग १५०० शब्द संकलित कियेहैं। ऐसे दस- दस पोस्टर स्कूलोमें लगाये जायें तो स्वयमेव बच्चोंमें अपने देशकी सभी भाषाओंके प्रति परिचय, अपनापन और उत्कंठा बढेगी जोभाषाई एकात्मताके लिये आवश्यक है।
दो अन्य कार्यक्रम गृहमंत्रालयको हाथमें लेने होंगे। एक है भारतीय भाषाओंके लिये अच्छा ओसीआर बनवाना ताकि भारतियोंके पास सैकडोंवर्षोंसे जमा पडे हस्तलिखित व पुस्तकें पढकर उन्हें डिजिटलाइज किया जा सके। जो भारत चांदपर जा सकता है वह एक अच्छा ओसीआर नहीबना सकता हो तो आजके वर्तमानमें यह कोई सुखद बात नही कही जा सकती।
भाषाई एकात्मता बढाने हेतू एक भाषासे दूसरी भाषामें भाषांतरका कार्यक्रम हाथमें लेना पडेगा। यह मानवी तरीकेसे और संगणकसे दोनों प्रकारसेकरना पडेगा। इसके लिये अंग्रजीको माध्यम भाषा बनानेका सीडॅकका पुराना तरीका गलत था जिस कारण उन्हें यह प्रोजेक्ट भी डंप करना पडा।आज गूगल भी अंग्रेजीको ही माध्यम बनाकर इसका प्रयास कर रहा है। इसके स्थान पर हमारे संगणक वैज्ञानिकोंको यदि संसाधन उपलब्ध करायेजायें और संस्कृतको माध्यम बनाते हुए भाषांतर करवाया जाय तो वह प्रयास तेजीसे सफल होंगे।
यह बार बार कहा जा रहा है, विशेषतया देशके बडे वैज्ञानिकोंद्वारा कहा जा रहा है कि जिन बच्चोंपर छठकीं कक्षातक अंग्रेजीका बोझ नही पडरहा वे मातृभाषाके माध्यमसे पढाईमें अच्छी प्रगति करते हैं। भविष्यकी आवश्यकताओंके लिये कभी भी अंगरेजी सीखी जा सकती है। लेकिनदेशमें अमीरोंसे आरंभकर गरीबोंतक यह भ्रम फैलाया गया है कि अंग्रेजी सीखकर व अंग्रेज बनकर ही हमारा कल्याण हो सकता है। जो अंगरेज नबने वह गँवार कहलाये और अपमानित होता रहे। इस मानसिकताको बदलनेके लिये देशके सभी स्कूलोंमें छठवीतक अंग्रेजीको हटाना और उस उसराज्यकी भाषाओंको अनिवार्य करना ही एकमेव उपाय है।
हमारे देशमें लगभग पांच-सात हजार बोलीभाषाएँ हैं और उनमें रचा-बसा मौखिक साहित्य हमारी एक बडी धरोहर है। इसे तत्काल रूपसे उसउस राज्यकी लिपियोंमें लिखकर संरक्षित करनेकी योजना बननी चाहिये। त्रिपुरा, कोंकण, असमकी कुछ बोलियाोंपर हो रहे कामको मैंने देखा है।एक एक अकेला स्कॉलर इसे कर रहा होता है। इन सबको गृहमंत्रालयकी ओरसे प्रोत्साहन तथा आर्थिक सुविधा देना आवश्यक है।
तत्काल रूपसे सभी सरकारी कार्यालयोंमें इनस्क्रिप्ट प्रणालीसे हिंदी व भाषाई लेखनको बढावा देना आवश्यक है। वरिष्ठोंको भी यह प्रणालीसीखनी चाहिये। जो रोमनागरी पद्धतीसे देवनागरी लिखते हों उनसे यह आशा नही की जा सकती कि वे भारतीय लिपियों व भाषाओंपर गहराने वालेसंकटको या समाधानकी बारीकियोंको समझें।
सरकारने प्रायः सभी स्कूलोंमें संगणक लॅब दिये हैे। सिद्धान्ततः चौथीसे दसवीं कक्षातक संगणक सीखनेकी सुविधा है। लेकिन वस्तुस्थिति है किप्रायः सत्तर प्रतिशत बच्चे दसवींसे पहलेही स्कूल छोड देते हैं। उन्हें रोमन पद्धतिसे सिखाकर क्या होगा – कमसे कम उनकी खातिर तो इनस्क्रिप्टपद्धतिसे लेखन-टंकण सिखानेका कार्यक्रम स्कूलोंमें होना चाहिये। इसके लिये उनके शिक्षकोंको भी तैयार किया जाना चाहिये।
सारांशमें कहना होगा कि यदि हम विश्व बाजारमें भारतकी साखको सदा वृद्धिंगत रखना चाहते हैं तो हिंदीको राष्ट्रभाषा घोषित करना सर्वोचित उपायहै। गृहमंत्रीका नारा एक राष्ट्र, एक भाषा इस अर्थमें सही है कि बाहरी देशोंके लिये हमारा फॉर्म्युला वयं पंचाधिकं शतं होना चहिये। यह वह सूत्र है जोयुधिष्ठिरने गंधर्वोंद्वारा बंदी बनाये गये दुर्योधनको छुडा लानेके लिये अन्य चार पांडवोंसे कहा था कि हम सारे कौरव एक सौ पांच है और परकीयलोगोंके सम्मुख हमारी यही पहचान होनी चाहिये। लेकिन देशके अंतर्गत हम ध्यान रखना होगा कि अन्य भाषाएं इसे अपनी अस्मिताका संकट नसमझें। तकनिकीके सहारे उनके इस संशयको दूर किया जा सकता है। यह तभी संभव है तब गृहमंत्रालय, डीओटी, राजभाषा आदि विभगोंकेवरिष्ठतम अधिकारी इन तकनीकी बारीकियोंको समझें, उन उन तकनीकोंको अपनायें और आत्मसात करें। गृहमंत्रीके लिये यह भी एक चुनौतीहोगी कि उनके अधिकारियोंकी मानसिकताको कैसे भाषाई एकताके पक्षमें मोडा जा सकता है।
leena.mehendale@gmail.com; October 26, 2019
Hindii is soul of India —– sure it is, no doubt and English is death of India but——-
पढ़े लिखे अनपढ़, अंग्रेजी और अंग्रेज़ों के दास इसे दूषित कर रहे हैं ——तनिक पढ़िए —–
बार बार रस्सी रगड़ से पत्थर पर भी चिन्ह पढ़ जाता है ———
https://www.pravakta.com/Hindii-is-the-soul-of-india-2/
पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ ने मातृभाषा की एहमियत बताई । pushpendra kulshrestha latest speech
https://www.youtube.com/watch?v=whh_qUL4-wA
हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओंमें शीघ्रतासे टंकन सीखें
http://bhasha-hindi.blogspot.in/2010/09/blog-post_30.html
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हिन्दी–विरोध का मूल–हिन्दुत्व नहीं, मजहबी उसूल
मनोज ज्वाला भारत की राजभाषा हिन्दी का दक्षिण भारतीय प्रदेशों में विरोध का स्वर एक बार फिर सुनाई पड़ने लगा है। इस बार के विरोध का राग तो वही है, किन्तु रंग बदला हुआ है। हिन्दी थोपने का राग पहले भी आलापाजा रहा था, किन्तु इसे हिन्दुत्व का रंग पहली बार दिया जा रहा
https://www.pravakta.com/hindi-virodh-ka-mool-hindutva-nahin-majhabi-usool/
मनोज ज्वाला
भारत की राजभाषा हिन्दी का दक्षिण भारतीय प्रदेशों में विरोध का स्वर एक बार फिर सुनाई पड़ने लगा है। इस बार के विरोध का राग तो वही है, किन्तु रंग बदला हुआ है। हिन्दी थोपने का राग पहले भी आलापा जा रहा था, किन्तु इसे हिन्दुत्व का रंग पहलीबार दिया जा रहा है। बदले हुए रंग में यह विरोध हिन्दी को बढ़ावा देने सम्बन्धी केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बयान की प्रतिक्रिया के तौर पर हो रहा है। शाह ने देश में अंग्रेजी के बढ़ते अनावश्यक विस्तार को रोकने की दृष्टि से किसी भी भारतीय भाषा को कमतर आंकतेहुए हिन्दी को बेहतर नहीं बताया है, न ही इसे हिन्दुत्व से सम्बद्ध किया है। उन्होंने तो हिन्दी की सर्वस्वीकार्यता के कारण संविधान-सभा के द्वारा ही इसे राजभाषा घोषित किये जाने के आधार पर इसके संवर्द्धन की बात कही है। जो सर्वथा उचित ही है। बावजूद इसके, देशके दक्षिणी प्रदेशों में द्रमुक-अन्नाद्रमुक व एआईएमआईएम आदि राजनीतिक दलों के एमके स्टालिन व असद्दुदीन ओवैसी और उनके उतर-भारतीय सिपहसालारों द्वारा हिन्दी को अब ‘हिन्दुत्व’ से जोड़कर इसके विरोध का प्रलाप किया जा रहा है, तो इसके मूल में छिपेकारकों की पड़ताल आवश्यक है।यह विरोध केवल राजनीतिक वितण्डा मात्र नहीं है, बल्कि विभाजनकारी मजहबी योजनाओं के क्रियान्वयन का एक उपक्रम है। जो भारत के विखण्डन पर आमादा ईसाई-विस्तारवादी शक्तियों-समूहों के द्वारा एक षड्यंत्र के तहत समय-समय पर प्रायोजित किया जाता रहा है। इस हिन्दी-विरोध का मूल कारण भारत के दक्षिण में दुनिया के ‘पश्चिम’ का वह षड्यंत्रकारी उसूल कायम हो जाना है, जो अंग्रेजों की औपनिवेशिक सत्ता के सहारे चर्च मिशनरियों के सिपहसालार बुद्धिबाजों द्वारा गढ़ी गई है।जी हां !पश्चिम की, अर्थात यूरोप-अमेरिका की ईसाई-विस्तारवादी शक्तियां भारत राष्ट्र के विखण्डन हेतु पिछले 100-150 वर्षों से एक षड्यंत्र के तहत अनेकानेक विखण्डनकारी योजनाओं को भाषा, साहित्य व शिक्षा विषयक विविध हथकण्डों के माध्यम से अंजाम देने में लगी हुईहैं। इस बाबत उन मजहबी शक्तियों से सम्बद्ध बुद्धिबाजों ने अत्यन्त चतुराई से अपने प्रायोजित भाषा-विज्ञान व इतिहास-अनुसंधान सम्बन्धी बे-सिर- पैर के विधान रचते हुए तरह-तरह की संगतियां-विसंगतियां उठा-बैठा कर दक्षिण भारत की दो प्रमुख भाषाओं ‘तमिल’और ‘तेलगू’ को जबरन ही ‘संस्कृत भाषा-परिवार’ से बाहर की ‘हिब्रू’ से मिलती-जुलती भाषा प्रतिपादित कर उसे इस कदर प्रचारित कर दिया है कि अब वहां के शिक्षण-संस्थानों में भी कमोवेश यही तथ्य स्थापित हो चुका है। जबकि यह निर्विवादित सत्य है कि भारत कीसमस्त भाषायें संस्कृत से निकली हुई एक ही भाषा-परिवार की हैं। किन्तु, विलियम जोन्स और मैक्समूलर आदि मिशनरी षड्यंत्रकारी भाषाविदों ने उतर भारतीय लोगों को संस्कृत-भाषी ‘आर्य’ और दक्षिण भारत के लोगों को उन आर्यों से शोषित-विजित ‘द्रविड़’ नामदेकर एक ही मूल भाषा- संस्कृत एवं एक ही मूल संस्कृति (सनातन-वैदिक) से समरस बृहतर भारतीय समाज के बीच शोषक-शोषित की जो विभाजक-रेखा खींच रखी है, आज भी उनके पश्चिम-परस्त भारतीय राजनेताओं की कृपा से कायम है।चर्च-मिशनरियों की मजहबीनीतियों से निर्देशित शैक्षिक संस्थाओं द्वारा इस आधारहीन विभाजक उसूल को अपने प्रायोजित भाषा-विज्ञान और नस्ल-विज्ञान के सहारे इतनी हवा दी जा चुकी है कि यह ‘सफेद झूठ’ ही सच के रूप में स्थापित होकर भारत की राजभाषा हिन्दी को नकारने का उत्प्रेरक बनाहुआ है। दक्षिण में ‘पश्चिम’ का यह उसूल स्थापित करने की शुरुआत भारत पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का राजपाट स्थापित हो जाने के बाद उस औपनिवेशिक शासन का औचित्य सिद्ध करने की बाबत पश्चिमी विद्वानों द्वारा ‘भाषा-विज्ञान’ व ‘नस्ल-विज्ञान’ नामक हथकण्डाखड़ा किये जाने के साथ ही शुरू हो गई थी। किन्तु, ‘द्रविड़’ नस्ल गढ़ने एवं उसके आधार पर संस्कृत और संस्कृत से निःसृत हिन्दी के विरोध का षड्यंत्र सन 1856 में कैथोलिक चर्च के एक पादरी ने क्रियान्वित किया। रॉबर्ट कॉल्डवेल नामक वह पादरी ऐंग्लिकन चर्च के‘सोसायटी फॉर द प्रोपेगेशन ऑफ द गास्पल’ से सम्बद्ध मद्रास-स्थित तिरुनेलवेली चर्च का बिशप था। इस षड्यंत्र को अंजाम देने के लिए पहले उसने सन 1881 में ‘कम्परेटिव ग्रामर ऑफ द ड्रैवेडियन रेश’ नामक एक पुस्तक लिखकर ‘द्रविड़’ शब्द के अर्थ का अनर्थ करतेहुए यह प्रस्तावित किया कि भारत के मूलवासी द्रविड़ थे, जिनकी मातृभाषा- तमिल संस्कृत-परिवार से बाहर की भाषा है।अंग्रेजों की विभेदकारी नीति के अनुसार कॉल्डवेल ने भारतीय लोगों को भाषा और धर्म के आधार पर दो भागों में विभाजित करने तथा तमिल-भारतीयों को ईसाइयत के ढांचे में बैठाने के उद्देश्य से दक्षिण भारत के एक स्थान-विशेष के तथाकथित इतिहास की एक पुस्तक लिखी थी- ‘ए पॉलिटिकल एण्ड जेनरल हिस्ट्री ऑफ द डिस्ट्रिक्ट ऑफ तिरुनेलवेली’ जिसे सन 1881 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की मद्रासप्रेसिडेन्सी ने प्रकाशित कराया था। उस पुस्तक में तिरुनेलवेली के उस कैथोलिक चर्च बिशप ने आसेतु हिमाचल व्याप्त बहुसंख्य बृहतर भारतीय धर्म-समाज में दरार पैदा करने तथा द्रविड़ नस्ल की सांस्कृतिक व भाषिक पृथकता प्रस्तुत करने और उस द्रविड़ता कोईसाइयत के नजदीक ले जाने का जो काम किया, उससे अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन और चर्च के विस्तारवादी कार्यक्रम, दोनों को आगे चलकर बहुत लाभ मिला।’एशिया में निवासियों की पहचान’ पर कथित रुप से शोध करने वाले टिमोथी ब्रूक और आन्द्रे स्मिथ केअनुसार ‘कॉल्डवेल ने व्यवस्थित रूप से द्रविड़ विचारधारा की बुनियाद रखी और…..उसने दक्षिण भारत की संस्कृत-भाषी आबादी व गैर-संस्कृत-भाषी आबादी के बीच भाषिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व नस्ली विभेद खड़ा कर असंस्कृत-भाषी तमिलों को ‘द्रविड़’ घोषित करउनके पुनरुद्धार की परियोजना प्रस्तुत की।’ इसी कारण बाद में अंग्रेज प्रशासकों ने मद्रास के मरीना समुद्र-तट पर बिशप काल्ड्वेल की एक प्रतिमा स्थापित कर दी, जो आज के चेन्नई शहर का एक ऐतिहासिक स्मारक बना हुआ है। इतना ही नहीं, उस षड्यंत्रकारीकाल्ड्वेल के ऐसे काले कारनामों को ही अंग्रेज हुक्मरानों द्वारा और बाद में उनके हस्तकों द्वारा दक्षिण भारत का इतिहास बना दिया गया। फिर उसी विकृत इतिहास के आधार पर न केवल वहां के समाज-धर्म-संस्कृति को विकृत करने का एक अभियान-सा चल पड़ा, बल्किहिन्दी को उतर भारतीय भाषा बताकर उसके विरोध का राजनीतिक वितण्डा भी खड़ा कर दिया गया।सन 1916 में उन्हीं चर्च-मिशनरियों ने ‘जस्टिस पार्टी’ नाम से एक राजनीतिक दल का गठन किया-कराया, जिसने सन 1944 में एक पृथक ‘द्रविड़स्तान’ देश की मांग करडाली थी। उसी जस्टिस पार्टी का नया संस्करण ‘द्रविड़ मुनेत्र कड्गम’ है, जिसका हिन्दी अर्थ ‘द्रविड़ोत्थान संघ’ है। बताना जरूरी है कि अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड्गम इसी का प्रतिद्वंदी राजनीतिक दल है।दक्षिण भारत में हिन्दी का विरोध किये जाने के पीछे इन्हीं पश्चिमी तत्वोंका विभाजनकारी उसूल सक्रिय रहता है। तमिल-तेलंगाना आदि दक्षिणी प्रदेशों में यूरोप-अमेरिका की चर्च मिशनरियों के साथ उनसे सम्बद्ध अनेक एनजीओ भी भाषिक-अलगाववाद फैलाने के बाबत इस कदर सक्रिय हैं कि तमिलनाडु में उपरोक्त जिन दो प्रमुखराजनीतिक दलों- द्रमुक और अन्ना द्रमुक की सरकार हुआ करती है, वे दोनों भी द्रविड़वाद और हिन्दी-विरोध की ही राजनीति करते हैं। ऐसे में स्पष्ट है कि केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह द्वारा हिन्दी के संवर्द्धन की हिमायत किए जाने का ‘हिन्दुत्व’ से कोई लेना-देना कतई नहींहै, किन्तु हिन्दी के विरोध की यह सियासत मजहबी सोच से ग्रसित अवश्य है।