हर घर में शौचालय हो; गांव-गांव सफाई हो; सभी को स्वच्छ-सुरक्षित पीने का पानी मिले; हर शहर में ठोस-द्रव अपशिष्ट निपटान की व्यवस्था हो – इन्ही उद्देश्यों को लेकर दो अक्तूबर, 2014 को स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की गई थी। कहा गया कि जब दो अक्तूबर, 2019 को महात्मा गांधी जी का 150वां जन्म दिवस मनाया जाये, तब तक स्वच्छ भारत अभियान अपना लक्ष्य हासिल कर ले; राष्ट्रपिता को राष्ट्र की ओर यही सबसे अच्छी और सच्ची श्रृद्धांजलि होगी। इस लक्ष्य प्राप्ति के लिए 62,009 करोड़ का पंचवर्षीय अनुमानित बजट भी तय किया गया था। अब हम मार्च, 2017 मंे हैं। अभियान की शुरुआत हुए ढाई वर्ष यानी आधा समय बीत चुका है। लक्ष्य का आधा हासिल हो जाना चाहिए था। खर्च तो आधे से अधिक का आंकड़ा पार करता दिखाई दे रहा है। कितने करोड़ तो विज्ञापन पर ही खर्च हो गये। हमारी सरकारें अभी सिर्फ शौचालयों की गिनती बढ़ाने में लगी है। सफाई के असल पैमाने पर हम आगेे बढ़े हों; इसकी कोई हलचल देश में दिखाई नहीं दे रही।
स्वच्छता को संस्कार की दरकार
सरकार अब हर सोसाइटी में कंपोस्ट खाद बनाने का विज्ञापन लेकर आई है। पेश विज्ञापन में एक मशीन दिखाई गई है, जिसमें कचरा डालकर कंपोस्ट खाद बनाई जा सकती है। यह विज्ञापन सामाजिक पहल की मांग करती है। हम भी जानते हैं कि सामाजिक पहल के बगैर स्वच्छता असंभव है; किंतु क्या समाज स्वयं पहल करने को तैयार हैै ? हम अभी भी यही सोचते हैं कि साफ-सफाई कराना तो म्युनिसपलिटी अथवा ज़िला पंचायतों का काम है। नगरनिगम, पालिकाओं और ज़िला पंचायतों के पास रोने के लिए कर्मचारियों की कमी, उपकरण की अनुपलब्धता और कम बजट का आंकड़ा है। क्या करें ? यदि सामाजिक पक्ष की बात करें, तो हकीकत में स्वच्छता को न किसी बडे़ बजट की ज़रूरत है और न ही किसी क़ानून की; स्वच्छता, असल में संस्कार का विषय है। जिसे सफाई की आदत होती है, वह कहीं भी गंदगी अथवा बेतरतीब फैली वस्तुओं को बर्दाश्त नहीं कर सकता। सलीका, स्वभाव बन जाता है। यह स्वभाव देखना हो, तो कभी आप सिक्किम और मेघालय की सैर करें।
सबसे स्वच्छ मावलिन्नांग
सिक्किम की राजधानी गंगटोक को सबसे स्वच्छ हिल स्टेशन का रुतबा हासिल है। स्वच्छता के संस्कार की गंगटोक से भी बेहतर मिसाल,मेघालय का गांव मावलिन्नांग है। मावलिन्नांग को एशिया के सबसे स्वच्छ गांव का दर्जा प्राप्त है। मावलिन्नांग की हवा में ही नहीं, लोगों के दिलों में भी स्वच्छता है। मावलिन्नांग – 95 खासी जनजातीय परिवारों में करीब 500 की आबादी वाला एक छोटा सा गांव है। मेघालय की राजधानी शिलांग से दो घंटे के ड्राइव पर बसा है यह गांव। मावलिन्नांग में पाॅलीथीन पर प्रतिबंध है; थूकना मना है। रास्तों पर कूड़े का नामों-निशां नहीं मिलता। कूड़ा फेंकने के लिए बांस के बने कूड़ेदान हैं। रास्ते के दोनो ओर फूल-पौधे हैं। स्वच्छता का निर्देश देते बोर्ड हैं। गांव के पेड़ पर बने एक घर से गांव की स्वच्छता का नजारा आप एक साथ देख सकते हैं। बाहर ही नहीं, घर के भीतर और दैनिक कार्यों में स्वच्छता और सुंदरता के दर्शन यहां सहज सुलभ हैं।
यहां जन्मघूंटी में मिलती है स्वच्छता
कहते हैं कि 130 बरस पहले मावलिन्नांग में काॅलरा फैला था। काॅलरा पर नियंत्रण में स्वच्छता सहायक हुई। तभी से मावलिन्नांगवासियों ने स्वच्छता का सबक सीखा और इसे अपनी आदत बनाया। जानना अच्छा होगा कि गांव ने यह कैसे किया ? आप देखेंगे कि मावलिन्नांग में बच्चों को कक्षा एक-दो में पहुंचते-पहुचंते घर और अपने परिवेश को साफ रखने का काम दिया जाने लगता है। सफाई न करने पर खाना नहीं दिया जाता। इस तरह यहां पूरी कडाई के साथ स्वच्छता की जन्मघूंटी पिलाई जाती है। क्या यह आसान काम है ? संभव है कि इसमें मावलिन्नांग के समाज का मातृसत्तात्मक होना भी सहायक हुआ हो। मावलिन्नांग के निवासी कहते हैं कि कंक्रीट के मकान इनकी पसंद नहीं है। बांस के घंरौदे इनकी पहली पंसद हैं। मावलिन्नांगवासियों की इस पसंद का कारण, अपने पारम्परिक परिवेश पर गर्व और प्रेम भी हो सकता है; यह पसंद हिमालयी पर्यावरण के यह अनुकूल तो है ही।
लक्ष्मणरेखा ज़रूरी
वर्ष – 2003 से पहले मावलिन्नांग में कोई पर्यटक नहीं आता था। वर्ष – 2003 में जब गांव वालों ने अपने लिए खुद पहली सड़क बनाई, तो डिसकवर इंडिया पत्रिका का एक पत्रकार यहां आया। उसने मावलिंनांग की स्वच्छता को सबके सामने रखा। वर्ष – 2005 में बीबीसी ने इसे प्रचार दिया। बाद में प्रधानमंत्री श्री मोदी ने स्वयं अपने रेडियो प्रसारण में मावलिन्नांग गांव को सराहा। ग्रामवासियों का कहना है कि स्वच्छता का उनका संस्कार एक तरफ तो मावलिन्नांग की्र प्रसिद्धि का कारण बना है, लेकिन दूसरी ओर इसके कारण अब कई नई चुनौतियां पेश आ रही हैं। अब मावलिन्नांग देखने पर्यटकों की बाढ़ आती है। पर्यटक, स्वच्छता का नाम सुनकर आते हैं, लेकिन यहां आकर स्वच्छता का ख्याल नहीं रखते। कुछ पर्यटकों के रवैये के कारण सबसे स्वच्छ गांव के रुतबे को बरकरार रखने के लिए मावलिन्नांग गांव को अब सफाईकर्मी रखने पड़े हैं। बढ़े ध्वनि प्रदूषण से भी गांव चिन्तित है। मावलिन्नांग गांव को लगने लगा है कि पर्यटक बाढ़ की लक्ष्मणरेखा बनानी जरूरी है। एक स्वच्छ राष्ट्र कहलाने के लिए कचरे को लेकर क्या ऐसी ही कोई लक्ष्मणरेखा हम सभी को अपने-अपने स्तर पर नहीं बनानी चाहिए ? इसकी शुरुआत हमें खुद अपने मानस से करनी होगी; क्योंकि कोई भी कचरा पहले मानस में फैलता है, उसके बाद व्यवहार में।
अरुण तिवारी