चुनावों के दौरान चलने वाला सस्पेन्स आम तौर पर परिणाम आने के बाद खत्म हो जाता है लेकिन कर्नाटक के चुनावी नतीजों ने सस्पेन्स की इस स्थिति को और लम्बा खींच दिया है। राज्य में जो नतीजे आए हैं और इसके परिणामस्वरूप जो स्थिति निर्मित हुई है और उससे जो बातें स्पष्ट हुई हैं आइए जरा उस पर गौर करें।
1.भाजपा जिसके पास पिछली विधानसभा में 40 सीटें थीं वो आज राज्य में 105 सीटों पर विजयी होकर सबसे बड़े राजनैतिक दल के रूप में उभर कर आती है।
2.कांग्रेस जो कि 122 सीटों के साथ सत्ता में थी,आज 78 सीटों तक सिमट कर रह जाती है।
3.उसके 10 निवर्तमान मंत्री चुनाव हार जाते हैं।
4. उसके निवर्तमान मुख्यमंत्री दो जगहों से चुनाव लड़ते हैं। जिसमें वे मात्र 1696 वोटों से अपनी बादामी सीट बचाने में कामयाब रहते हैं।
- लेकिन अपनी दूसरी चामुंडेश्वरी सीट पर उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ता है।
6. यहाँ यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि वे किससे हारे। तो जनाब वे अपनी इस प्रतिष्ठित सीट पर जेडीएस के जीटी देवेगौड़ा से 33622 वोटों से हार जाते हैं।
अपनी इस जीत के बाद जीटी देवेगौड़ा मीडिया से कहते हैं कि कांग्रेस और सिद्धारमैया को जनता ने खारिज कर दिया है।
7. और अब उसी जेडीएस को समर्थन की लिखित घोषणा के साथ कांग्रेस गठबंधन करके सरकार बनाने का दावा पेश करती है।
8.इससे इतना तो स्पष्ट ही है कि चुनाव से पहले और पूरे चुनाव प्रचार के दौरान एक दूसरे के विरोध में विष उगलने वाले दलों का नतीजों के बाद के गठबंधन के पीछे किसी प्रकार की त्याग की भावना नहीं बल्कि नतीजों से उपजे हालात, राजनैतिक महत्वाकांक्षाएँ और निजी स्वार्थ होते हैं।
9. जेडीएस जिसके पास पिछली विधानसभा में 40 विधायक थे वो अपनी दो सीटें खोकर अब 38 सीटों पर काबिज होती है।
तो क्या कहा जाए कि जनमत किसके पक्ष में है?
क्या जनता ने कांग्रेस को सत्ता पर काबिज होने के लिए वोट दिया है?
या फिर कांग्रेस को इन नतीजों ने सरकार बनाने का नैतिक अधिकार दे दिया है?
क्या 38 विधायकों वाली जेडीएस को जनता ने चुना है?
क्या इन दोनों दलों के गठबंधन की सरकार का बनना राज्य की जनता के साथ न्याय होगा?
10.अगर राजनीति की बात करें तो कांग्रेस के फार्मूले के अनुसार 222 सीटों वाली विधानसभा में मुख्यमंत्री 38 विधायकों वाली पार्टी (जेडीएस) का होगा जिस को 78 विधायकों वाली पार्टी (कांग्रेस) समर्थन देगी और 104 विधायकों वाली पार्टी (भाजपा) विपक्ष में बैठेगी।
11. जिस काँग्रेस के अध्यक्ष यह कहते हैं कि यदि उनकी पार्टी “सबसे बड़े दल” के रूप में उभरती है तो वे प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार हैं, वो अपने इस कथन से दो बातें स्पष्ट कर देते हैं,
पहली यह कि वे कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिलने की बात कल्पना में भी नहीं कर सकते इसलिए वे आगामी लोकसभा चुनाव में केवल कांग्रेस के “सबसे बड़े राजनैतिक दल” के रूप में उभर कर आने की स्थिति की बात कर रहे हैं।
दूसरी यह कि इस स्थिति में वे स्वयं को प्रधानमंत्री पद का एक सशक्त दावेदार मानते हैं।
तो फिर कर्नाटक जैसे राज्य में जेडीएस से 40 सीटें ज्यादा जीतने के बावजूद वे उसके मुख्यमंत्री को क्यों और कैसे स्वीकार कर रहे हैं?
12. साफ़ है कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए वो किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है।
13. जो कांग्रेस कल तक गोवा मणिपुर और मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी की सरकार न बनाए जाने देने को लोकतंत्र और संविधान की हत्या कह रही थी वही कांग्रेस आज सबसे बड़े दल की सरकार बनाए जाने पर भी लोकतंत्र और संविधान की हत्या की दुहाई देकर न्यायालय पहुँच गई है।
तो क्या लोकतंत्र और संविधान तब तब खतरे में आ जाते हैं जब जब कांग्रेस के हितों को नुकसान पहुंचता है?
सवाल तो बहुतेरे हैं लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि यह सवाल बार बार क्यों खड़े हो जाते हैं।
दरअसल खंडित जनादेश और इस प्रकार के त्रिशंकु चुनाव परिणामों की स्थिति में सरकार का गठन कैसे हो इसका संविधान के पास भी कोई जवाब नहीं होने से राजनैतिक दलों की मनमानी और राजनीती का यह कुरूप चेहरा देखने के लिए देश विवश है।
आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं। किसी भी एक दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण गठबंधन सरकारों ने एक दल की सरकार की जगह ले ली है। इसलिए अब समय आ गया है कि सभी राजनैतिक दल अपने निजी स्वार्थों को भूलकर देश के प्रति अपने कर्तव्यों को समझते हुए खंडित जनादेश की परिस्थिति में सरकार गठन के स्पष्ट दिशा निर्देश दे, नियम और कानून तय करे जिससे इस प्रकार के नतीजों के बाद जोड़ तोड़,खरीद फरोख्त,जैसी राजनैतिक गंदगी पर अंकुश लग सके और चुनाव पूर्व एक दूसरे के धुर विरोधी चुनाव परिणामों के बाद एक दूसरे के परस्पर सहयोगी बनकर गठबंधन की सरकार बनाकर जनता के साथ छल न कर सकें और सही मायनों में लोकतंत्र और संविधान की रक्षा हो पाए।
डॉ नीलम महेंद्र