चार दशक पहले भारत में आयाराम-गयाराम का खेल शुरू हुआ था। जब हरियाणा में रातो-रात सरकार गिराकर विपक्ष ने इसी तरह सरकार बना ली थी। तब से आज तक देशभर में सैकडों बार विधायकों की खरीद-फरोख्त करके हर सत्तारूढ़ केंद्रीय दल ने प्रांतों की उन सरकरों को गिराया है, जहां उनके विरोधी दल की सरकारें थीं। इसमें कोई दल अपवाद नहीं है।
फिलहाल बैंगलूरू में जो हुआ, उसका भी एक लंबा इतिहास है। जिस समय रामकृष्णन हेगड़े ने कर्नाटक में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व किया था, उस समय उनके शासन की समस्त देशवासियों ने प्रशंसा की थी। श्री हेगड़े एक सुलझे हुए, काबिल और सद्व्यवहार वाले नेता थे। उन्हीं की कैबिनेट के एक मंत्री थे एच डी देवगौड़ा। जिन्होंने अपने ऐजेंडे को पूरा करने के लिए, विधायकों की एक समूह के साथ विद्रोह कर दिया और हेगड़े सरकार को गिराने में मुख्य भूमिका निभाई।
अबकी बार एस आर बोम्मई ने हेगड़े की जगह ली और कर्नाटक के मुख्यमंत्री बन गए। उन्होंने भी सुचारू रूप से व प्रभावी ढंग से राज्य पर शासन किया। श्री देवगौड़ा जोकि 20 विधायकों के नेता थे, उनके बल पर पुनः मंत्री मंडल में शामिल कर लिये गए। एक बार फिर बिना किसी कारण के उन्होंने असंतुष्ट गतिविधियां शुरू कर दीं और श्री बोम्मई की सरकार गिरा दी।
‘हवाला कांड’ के परिणामस्वरूप जब देश की जनता ने किसी भी एक राष्ट्रीय दल को बहुमत देना उचित नहीं समझा, तब देश में दर्जनों छोटे-बड़े दलों की मिलीजुली सरकार बनी। जिसका नेतृत्व उस समय श्री देवगौड़ा ने किया। वे भारत के प्रधानमंत्री बने। प्रधानमंत्री तो वे बन गए, पर कर्नाटक का मोह नहीं छोड़ सके। वे चाहते थे कि उनकी अनुपस्थिति में कर्नाटक मुख्यमंत्री उनका ही कोई व्यक्ति बने। पर ऐसा हो न सका। उस समय जे.पी. पटेल कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने। पर यह श्री देवगौड़ा को रास नहीं आया। नतीजतन बतौर प्रधानमंत्री के भी उन्होंने अपने अनुयायियों के माध्यम से श्री पटेल की सरकार को गिराने का भरसक प्रयास किया, लेकिन असफल रहे। क्योंकि श्री पटेल ने श्री देवगौड़ा की हर चाल को मात दे दी।
बाद के दौर में जब धरम सिंह कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने तो श्री सिद्दारमैया उनके उप मुख्यमंत्री बने। श्री देवगौड़ा के सुपुत्र कुमार स्वामी, जो पहली बार विधायक चुने गये थे, बीते दिनों की याद में बेचैन हो गये। उन्हें रातदिन यही उधेड़बुन रहती थी कि कैसे में धरम सिंह की सरका गिराऊ और स्वयं मुख्यमंत्री बनूं। कर्नाटक की राजनीति से जुड़े जानकारों का कहना है कि सत्ता की चाह के लिए कुमार स्वामी, धरम सिंह और सिद्दारमैया को लगातार मानसिक रूप से प्रताड़ित करते रहे। फिर वे ‘जेडीएस’ से अलग हो गये और फर्जी बहाना बनाकर धरम सिंह की सरकार से अपना समर्थन वापिस ले लिया और सरकार गिरा दी।
इसके बाद कुमार स्वामी ने अपने कट्टर प्रतिद्वंदियों के साथ हाथ मिला लिया। अब वे भाजपा के मात्र 30 विधायकों को साथ मिलाकर, सरकार बनाने में सफल हो गए। यह सरकार केवल 40 महीने तक ही काम कर पाई। समझौता यह हुआ था कि पहले 20 महीनों में कुमार स्वामी मुख्यमंत्री रहेंगे और बाद के 20 महीनों में भाजपा के येड्डीउरप्पा मुख्यमंत्री रहेंगे। श्री स्वामी ने कई बार जनता और धर्म गुरूओ के सामने यह वायदा भी किया था कि अपने 20 महीने के कार्यकाल को पूरा करके वे बिना शर्त भाजपा को कर्नाटक की कुर्सी सौप देंगे और भाजपा की सरकार समर्थन करेंगे। लेकिन सत्ता में अपने कार्यकाल का आंनद लेने के बाद कुमार स्वामी ने येड्डीउरप्पा को सत्ता सौंपने से इंकार कर दिया और सरकार गिरा दी।
अंततः, हर कोई यह इतिहास जानता है कि कुमार स्वामी एक बार फिर कर्नाटक के मुख्यमंत्री कैसे बने और किसी भी समय स्वेच्छा से अपना इस्तीफा देने की सार्वजनिक घोषणा करने के बावजूद उन्होंने क्या किया? पुरानी कहवत है कि, ‘जैसी करनी, वैसी भरनी’। अब अगर भाजपा ने कुमार स्वामी की सरकार, उनके विधायकों को लुभाकर या खरीदकर, गिरा दी, तो कुमार स्वामी को भाजपा से कोई शिकवा नहीं होना चाहिए। ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय’।
कहते हैं कि राजनीति, युद्ध और प्रेम में कुछ भी गलत या सही नहीं होता। इन परिस्थितियों में फंसे हुए पात्रों को साम,दाम, दंड व भेद जैसे सब हथकंडे अपनाकर अपना लक्ष्य हासिल करना जायज माना जाता है। पर लोकतंत्र के लिए यह बहुत ही कष्टप्रद स्थिति है। इससे स्पष्ट है कि जो भी विधायक, सांसद इस तरह सत्ता के लालच में दल बदल करते हैं या जो राष्ट्रीय दल इसे अंजाम देते हैं, वे सब मतदाताओं की निगाह में गुनहगार है। पर जब कुएं में ही भांग पड़ी हो, तो किसे दोष दें।
अब जब नये भारत के निर्माण का मोदी जी ने बीड़ा उठाया है, तो उन्हें इस ओर भी ध्यान देना चाहिए। सभी दलों की राय लेकर कानून में कुछ ऐसी व्यवस्थाऐं करें, जिससे ये आयाराम-गयाराम की सृंस्कृति पर हमेशा के लिए विराम लग सके। एक नियम तो अवश्य ही बनना चाहिए कि जो भी विधायक या सांसद जिस राजनैतिक दल की टिकट पर चुनाव जीते,यदि उसे छोड़े, तो उसके लिए विधानसभा या संसद से इस्तीफा देना अनिवार्य हो। इससे विधायकों और सांसदों की खरीद-फरोख्त पर विराम लग जायेगा। क्योंकि कोई भी जीता हुआ प्रत्याशी इतना बड़ा जोखिम मोल नहीं लेगा। क्योंकि उसे इस बात की कोई गारंटी नहीं होगी कि वह इतनी जल्दी दल बदलकर, फिर से चुनाव जीत जाएगा।
–विनीत नारायण