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कश्मीर-छतीसगढ़ में नहीं बचेंगे देश के दुश्मन

कश्मीर में हालात खराब भले ही दिख रहे हों, पर देश को कतई विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह से छतीसगढ़ में अब माओवादी बचेंगे नहीं। दोनों जगहों पर देश विरोधी ताकतों को सख्ती से और सफलतापूर्वक कुचला जाएगा। कश्मीर में मुठ्ठी भर स्कूली कन्याओं द्वारा सुरक्षा बलों पर पथराव करवाने के ड्रामे और छतीसगढ़ में शहीद हुए सीआरपीएफ के जवानों के शवों को देखकर देशभर में गुस्सा है। सारा देश इन ताकतों को सख्तीपूर्वक कुचलने की मांग कर रहा है। छतीसगढ़ में जिस कायरता से सीआरपीएफ के जवानों को शहीद किया गया, उसे देश याद रखेगा। अब माओवादियों के बचने का प्रश्न ही नहीं उठता है। और, अगर बात कश्मीर की करें तो भारतीय सेना किसी भी स्थिति से निपटने में पूर्णत सक्षम एवं समर्थ है। कश्मीरवादी के भीतरी इलाकों में ही नहीं, एलओसी पर भी सेना ने आतंकी मंसूबों को पूरी तरह नाकाम बनाते हुए कई नामी आतंकियों को मार गिराया है। पर सोशल मीडिया पर आतंकियों के लगातार वायरल हो रहे वीडियो व स्थानीय युवकों की आतंकी संगठनों में भर्ती को तत्काल रोकना भी जरूरी है।

नरमी नहीं

एक बात साफ है कि आतंकियों के प्रति कोई नरमी नहीं होगी। उन्हें मार गिराया जाएगा, लेकिन आम लोगों को किसी प्रकार का नुकसान न पहुंचे, यह भी सुनिश्चित किया जा रहा है। अब कश्मीर की जनता को भी राज्य में हालात सामान्य बनाए रखने के लिए सरकार और सेना का साथ देना होगा। क्योंकि, देश विरोधी तत्वों की हरकतों के कारण सामान्य कश्मीरी जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। राज्य में पर्यटन उद्योग बुरीतरह तबाह हो चुका है। कुटीर उद्योग और हस्तशिल्प के मशहूर काम-धंधे समाप्त हो रहे हैं। इससे आम कशमीरी तो बर्बाद हो चुका है। लेकिन, उन्हें अब इन देश विरोधी ताकतों से दुबक कर रहने की बजाय सामने आना ही होगा। इसी में उनकी भलाई है और इसी में उनका सुरक्षित और उज्जवल भविष्य भी है। कश्मीर में पाक प्रायोजित आतंकवाद ने तीन पीढियां तो बर्बाद कर ही दीं। आखिर, और कितनी पीढ़ियों का भविष्य कुर्बान होगा।

मरेंगे माओवादी

छतीसगढ़ में माओवादियों की मौत अब करीब आ चुकी है। उन्हें अब बख्शा नहीं जाएगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कह चुके हैं कि सुकमा में मारे गए जवानों की मौत का बदला लिया जाएगा। देश इन माओवादियों से पूछना चाहता है कि यह आपकी कौन सी किताब में लिखा है कि सड़क बनवा रहे या विकास कार्यों की निगरानी कर रहे बेगुनाह जवानों को डायनामाइट से उड़ा दिया जाए? अगर यही आपके मार्क्सवाद की भाषा है तो हमारी सेना और अर्धसैनिक बल आपको नेस्तनाबूद करने में सक्षम है। तैयार हो जाईए अब अपनी मौत के लिए भी।

अगर माओवादियों के साथ किसी भी स्तर पर कहीं भी अन्याय हुआ है, तो लोकतांत्रिक तरीके से अहिंसक आंदोलन करके अपनी मांगों को मनवा सकते हैं। सत्याग्रह का रास्ता अपना सकते हैं। इतना समझ लेना चाहिए कि अब चूंकि वे लोकतंत्र के रास्ते को पर चलने को राजी नहीं हैं तो उन्हें कठोर सजा मिलेगी जैसे किशी भी देशद्रोही को मिलती है। क्या ये भारत की राजसत्ता से लोहा लेंगे? पहले पैंट पर बेल्ट लगाना सीख लें, फिर बात करें। भारत की राजसत्ता का मतलब इन्हें समझना होगा। ये नहीं जानते कि तिब्बत के धार्मिक नेता दलाई लामा को वर्षों से भारत ने अपने यहां शरण दे रखी है और चीन लाल-पीला हो के भी कुछ नहीं कर पा रहा। बस कसमसा रहा है। इस राजसत्ता से ये माओवादी क्य़ा खाक टक्कर लेगें। ये सरेआम लूट, दादागीरी और हफ्ता वसूली का धंधा करते हैं। ठेकेदारों से विकास कार्यों के लेवी वसूलते हैं। उनके आकाओं को भी मालूम है कि वो भारत की राजसत्ता से लोहा नहीं ले सकते। पर भोले-भाले ग्रामीणों को अपने जाल में फंसाकर उनको जबरदस्ती सामने करके खूनी खेल खेलते रहते हैं।

कहां गए मानवाधिकारवादी?

कश्मीर और छतीसगढ़ में एक बात समान नजर आ रही है। दोनों राज्यों में सेना या केन्द्रीय अर्धसैनिक बलों के जवानों के शहीद होने पर मानवाधिकार बिरादरी एकदम चुप है। मानो निर्दोष जवानों के मानवाधिकार न हों। इनकी किस्मत में पत्थर या गोली खाना ही लिखा हो। छतीसगढ़ में दो दर्जन से ज्यादा जवान शहीद हो गए पर दिल्ली के मंडी हाऊस से बोट क्लब के आसपास नजर आने वाले झोला छाप मानवाधिकारी वादी चुप रहे।

क्या उनपर लगने वाला आरोप सही नहीं है कि नक्सलियों की लेवी का एक अंश दिल्ली में जेएनयू में बैठे इनके आकाओं के माध्यम से प्रतिमाह इन झोलाधारी तथाकथित प्रगतिशील झोला छाप मानवाधिकारियों को मोटा लिफाफा पहुंचता है और इसी कारण जब कभी भी किसी सैनिक या आरएसएस कार्यकर्ता की निर्मम हत्या की जाती है तो ये राहुल ब्रांड सेना चुप्पी साध लेते हैं।

निश्चित रूप से भारत जैसे देश में हरेक नागरिक के मानवाधिकारों की रक्षा करना सरकार का दायित्व है। कहने की जरूरत नहीं है कि व्यक्ति चाहे अपराधी ही क्यों न हो, जीवित रहने का अधिकार उसे भी है, यही मानवाधिकारों का मूल सिद्धांत है। जो अधिकार अपराधियों के प्रति भी संवेदना दिखाने के हिमायती हों, वह आम नागरिकों के सम्मान और जीवन के तो रक्षक होंगे ही, पर कभी-कभी लगता है कि इस देश के पेशेवर मानवाधिकारों के रक्षक सिर्फ अपराधियों के प्रति ही संवेदनशील हैं, नागरिकों के प्रति नहीं। सुरक्षा बलों के हाथों कश्मीर से लेकर छतीसगढ़ में मारे गए सुरक्षा बलों के मारे जाने पर मानव अधिकारों के किसी पैरोकार ने संवेदना के दो शब्द भी नहीं बोले। देश ने पंजाब में पृथकतावादी आंदोलन के समय भी मानवाधिकारवादियों के दोगले चेहरे को साफतौर पर देखा था। तब भी ये उग्रवादियों के मारे जाने पर तो खूब हंगामा करते थे, पर आम नागरिकों या पुलिसकर्मियों के मारे जाने पर शांत रहते थे।

किसके साथ अंरुधति?

कश्मीर से लेकर छतीसगढ़ में देश विरोधी ताकतों का खुलकर साथ देती हैं अरुंधति राय। वो उन मसिजीवियों में शामिल हैं,जिनकी कलम देश को तोड़ने वाली शक्तियों के लिए ही चलती है। कभी वह छतीसगढ़ के दीन-हीन आदिवासियों का खून बहाने वाले माओवादियों के साथ खड़ी हो जाती हैं। तो कभी उन्हें कश्मीर के अलगाववादी नेताओं यासीन मलिक और इफ्तिखार गिलानी के समर्थन में लिखने में भी लज्जा नहीं आती। अरुंधति राय कश्मीर की आजादी की पैरोकार हैं। वो कश्मीर में सेना पर पथराव से लेकर छतीसगढ़ में जवानों के शहीद होने पर एक शब्द भी नहीं बोलीं।

अब तो अरुंधति राय भारतीय सेना पर खुलकर हमला बोल रही हैं। कह रही हैं कि 1947 से भारतीय सेना का देश की जनता के खिलाफ ही इस्तेमाल हो रहा है। इसी तरह का बयान जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्लाय छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार भी दे चुके हैं। उन्होंने कहा था कि “भारतीय सेना के जवान कश्मीर में रेप करने में सबसे आगे हैं।”यानी अपनी सियासत चमकाने के लिए सेना को भी नहीं छोड़ा जा रहा है। बुकर पुरस्कार मिलने के बाद अरुंधति राय ने सोच लिया है कि मानों उन्हें देश के खिलाफ बोलने का लाइसेंस सा मिल गया है।

अरुधंति राय ने कुछ समय पहले एक तमिल पुस्तक के विमोचन पर कहा कि ‘भारतीय सेना कश्मीर, नगालैंड, मिजोरम वगैरह में अपने लोगों पर अत्याचार करती रही है।’ अरुंधति राय का नजरिया पूर्णतः भारत विरोधी है। मैं मानता हूं कि सरकार की नीतियों का विरोध देश के हरेक नागरिक का अधिकार है। इसमें कोई बुराई नहीं है कि आप सरकार की किसी नीति से सहमत या असहमत हों। लेकिन माओवादियों के खेमे में जाकर बैठी इस मोहतरमा को बेनकाब किया जाना चाहिए। सबसे दुखद और चिंताजनक पक्ष ये है कि अरुंधति राय सरीखे देश-विरोधी तत्वों के कुछ चाहने वाले इनके लेखों-बयानों के लिंक्स को सोशल मीडिया परशेयर करके अपने कर्तव्य का निर्वाह भी करते हैं। इन्हें ये सब करने में बड़ा आनंद आता है। मुझे आश्चर्य है की भारत सरकार ऐसे देशद्रोही मानवाधिकारियों पर “राष्ट्रद्रोह” का मुकदमा क्यों नहीं चलती। अरुंधति राय उन कथित लेखकों के समूह का नेतृत्व करती हैं,जिन्हें भारत विरोध प्रिय है। लेखकों की यह जमात घोर सुविधाभोगी है। ये वही लेखक हैं,जो दादरी कांड के बाद अभिव्यक्ति की आजादी का कथित तौर पर गला घोंटे जाने के बाद अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा रहे थे। भारतीय सेना पर कठोर टिप्पणी करने वाली अरुंधति राय से पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने क्यों कभी सेना के कश्मीर से लेकर चेन्नई की बाढ़ राहत कार्यों को अंजाम देने पर लिखना पसंद नहीं किया?

यासीन मलिक के साथ

अरुंधति राय की यासीन मलिक के साथ हाथ में हाथ डाले फोटो देखिए गूगल सर्च करके। यासीन मलिक इस्लामाबाद में भारतीय हाई कमीशन के बाहर धरना देते है, मुंबई हमलों के मास्टरमाइंड हाफि़ज सईद के साथ बैठकर। अब जरा अंदाजा लगा लीजिए कि किस तरह के आस्तीन के सांप इस देश में पल रहे हैं। क्या अरुंधति राय भूल गई है कि सन 2008 में पाकिस्तान से आए आतंकियों ने मुंबई में करीब 200 लोगों का खून बहाया था? उस सारे अभियान के अगुवा थे हाफिज सईद। अरुंधति राय से मैं जानना चाहता हूं कि उन्होने कौन सी कालजयी पुस्तक लिखी है? क्या उनके लेखन से देश का आम-जन वाकिफ है?जवाब होगा कि कतई नहीं। और यही उनकी सबसे बड़ी असफलता है। क्या किसी भी आम-आदमी ने ख़रीद कर अरुंधति राय की एक भी पुस्तक पढ़ी? यह रोना व्यर्थ होगा कि अब लोगों की पढ़ने की आदत ख़त्म हो गयी है। अमीश त्रिपाठी और चेतन भगत जैसे लेखकों की रचनाएँ लांच होने से पहले कैसे बिक जाती हैं? ये क़लम की कथित सिपाही अपने लेखन से जन-जागरण करने के बजाय देश विरोधी ताकतों की मोहरा बन कर ख़ुश हैं। देश विरोध का टेंडर उठा चुकी अरुंधति राय ने गोधरा कांड में मारे गए साठ से ज्यादा मासूमों को लेकर कभी एक लेख या निबंध नहीं लिखा।

अरुंधति राय ने तब एक शब्द भी नहीं बोला था जब 1989 में भागलपुर में मुसलमानों का कत्लेआम हुआ था। जरा वह बता दें कि तब उन्होंने किस तरह से विरोध जताया था?

पंजाब में आतंकवाद के दौर में आतंकियों के खिलाफ आपकी कलम क्यों थमी? आतंकवाद के दौर में आप दुबकी रही आतंकियों के भय से। और अब आप सेना के रोल पर सवालिया निशान खड़े कर रही हैं।

कश्मीर से लेकर छतीसगढ़ तक देश के सामने एक ही चुनौती है। निश्चित रूप से देश के सुरक्षा बल देश को तोड़ने की मंशा रखने वालों को धूल में मिला देंगे। पर देश अरुंधति राय जैसे तत्वों से कैसे निबटेगा? देश की आम जनता को इस सवाल का जवाब खोजना होगा?
आर.के. सिन्हा
(लेखक राज्यसभा सांसद एवं हिदुस्थान समाचार बहुभाषीय संवाद एजेंसी के अध्यक्ष हैं)

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