17 वीं लोकसभा के चुनाव में करारी शिकस्त मिलने के बाद ही मात्र दिखावे भर के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने पद से इस्तीफे की पेशकश करने का नाटक किया। पर जैसी कि कांग्रेस में वंशवाद की संस्कृति बनी हुई है, उनके इस्तीफे को अस्वीकार करने का नाटक भी किया जा रहा है। कम से कम ऐसा मीडिया को कहा जा रहा है। उन्हें कांग्रेस के वयोवृद्ध होते नेताओं जैसे मनमोहन सिंह और ए.के.एंटनी से पद पर बने रहने के लिए आग्रह करवाने का ढोंग कृत्य संपन्न किया जा रहा है । हारे हुए सेनापति राहुल को कांग्रेस के लिए अपरिहार्य बताया जा रहा है। सच में राहुल गांधी को अपने इस्तीफे को वापस लेने का दबाव डालने वालों ने या ढोंग करने वालों ने 125 बरस पुरानी कही जाने वाली पार्टी को तबाह करके ही रख दिया है। इन्हीं लोगों ने कांग्रेस के भीतर चमचागिरी की हद करते हुए जवाबदेही की संस्कृति को कभी भी पनपने ही नहीं दिया। दुर्भाग्यवश इन्होंने कांग्रेस को “नेहरु-गांधी परिवार” का पर्याय ही मान लिया। राहुल गांधी ने 2017 में कांग्रेस की कमान संभाली थी। तब से कांग्रेस को देश लगातार खारिज ही करता जा रहा है। पर मजाल है कि कोई उनके नेतृत्व पर जरा सा सवाल भी पूछ ले । कांग्रेस में जवाबदेही नाम की कोई चीज बची ही नहीं रह गई है। कांग्रेस से ही फूट कर निकली तृणमूल कांग्रेस की नेत्री ममता बनर्जी ने भी लोकसभा चुनाव में तगड़े झटके खाने के बाद भी कांग्रेस की तर्ज पर ही इस्तीफे का नाटक किया। दिल्ली की तरह कोलकाता में उनका इस्तीफा भी नामंजूर करने का नाटक कर दिया गया। यानी सब जगहों पर राजनीतिक नाटक पर नाटक ही खेले जा रहे हैं।
मुझे यह कहने के लिए क्षमा कीजिए पर कांग्रेस में स्थापित लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने में महात्मा गांधी जी की भी एक हद तक भूमिका रही ही थी। यह कुछ हद तक नेहरु प्रेम और नेहरु के आलोचकों के तिरस्कार के रूप में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। याद कीजिए कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए 1939 में हुआ चुनाव। तब गांधी जी खुलकर नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के खिलाफ मैदान में उतरे पट्टाभि सीतारामैया के साथ खड़े थे। क्योंकि, सीतारमैया ने नेहरु जी के यानि खुद उनके द्वारा समर्थित उम्मीदवार थे । फिर भी नेताजी भारी बहुमत से चुनाव जीते। इससे गांधी जी इतने विचलित हुए कि उन्होंने इस हार को अपनी हार कह डाला। बापू के इस रुख के कारण नेता जी को मजबूर होकर अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा और कांग्रेस छोड़ कर फारवर्ड ब्लॉक का गठन करना पड़ा और बाद में रास बिहारी बोस के कहने पर आजाद हिन्द फ़ौज की कमान संभाल कर अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए एक सशस्त्र आक्रमण का रास्ता अपनाते हुए देश भर में अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण का निर्माण करना पड़ा।
यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि जब नेताजी ने कांग्रेस छोड़ा तब वे अकेलापन महसूस कर रहे थे। 1940 के जून महीने में फारवर्ड ब्लाक का अधिवेशन महाराष्ट्र के वर्धा में आयोजित था। नेताजी ने नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ केशव बलीराम हेडगेवार से मिलने का समय माँगा। डॉ. हेडगेवार बीमार चल रहे थे। उन्होंने 20 जून का समयदिया। जब नेताजी नागपुर संघ कार्यालय पहुंचे डॉ. हेडगेवार “कोमा” में थे। नेताजी दो तीन घंटे रुके और वर्धा चले गये। वहां जाते ही उन्हें पता चला की डॉ. हेडगेवार की मृत्यु हो गई है। नेता जी ने अपने ड्राइवर को कहा, “तुरंत वापस चलो।”वह नागपुर की ओर जाने लगा। नेताजी ने कहा, “मेरा मार्गदर्शन करने वाले दो ही व्यक्ति देश में बचे थे, एक डॉ. हेडगेवारजी तो चले गये। अब एक विनायक दामोदर सावरकर जी ही बचे हैं। जल्दी से मुंबई चलो। नेताजी 22 जून की सुबह वीर सावरकर के निवास पर पहुंचे। पूरे दिन उन दोनों की लम्बी एकाकी वार्ता हुई और उसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। लेकिन, 20 जून 1940 से 22 जून 1940 के प्रकरण को वामपंथी इतिहासकारों ने दुष्टतापूर्ण तरीके से छुपा लिया।
अब वापस लौटते है कांग्रेस में लोकतांत्रिक मूल्यों की ओर जिसे हमेशा-हमेशा के लिए खत्म करने में अभूतपूर्व योगदान दिया राहुल गांधी की दादी श्रीमती इंदिरा गांधी ने। उन्होंने देश में 1969 में हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव के वक्त एक अजीबोगरीब खेल खेला। राष्टपति डा. जाकिर हुसैन का निधन हो जाने के कारण 1969 में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ था। उस चुनाव में कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार थे नीलम संजीव रेड्डी। लेकिन, विजय मिली वी.वी. गिरि को जिन्हें प्रधानमंत्री होते हुए भी इंदिरा गाँधी ने कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार के रूप में खड़ा कर अपनी “अंतरात्मा की आवाज”पर मत देने की अपील की थी। पर वह चुनाव इसलिए यादगार हो गया, क्योंकि; इंदिरा गांधी ने अपनी ही कांग्रेस पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को स्वयं पार्टी विरोधी कार्य करते हुए बुरी तरह पराजित करवा दिया था। इसके बाद ही कांग्रेस में दो फाड़ हो गया। दरअसल प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और कांग्रेस में उस समय के सर्व शक्तिमान सिंडिकेट के बीच खींचतान चल रही थी, जिसे राष्ट्रपति चुनाव के समय इसे सारे देश ने सिंडिकेट की बुरी तरह पराजय के रूप में सरेआम देखा। गिरि की जीत के पीछे इंदिरा गांधी की अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने की खुली अपील ही मुख्य कारण रहा। अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने की अपील का मतलब ही यह था कि देश भर में कांग्रेस सांसद व विधायक रेड्डी व वी.वी.गिरि दोनों में से किसी को वोट देने के लिए स्वतंत्र हैं। दूसरा परोक्ष मतलब यह था “अपनी (या इंदिरा जी की) अंतरात्मा की आवाज सुनिए और वी.वी. गिरी को ही वोट देकर जिताइए। यह कांग्रेस सिंडिकेट की सर्वशक्तिमान सत्ता के विरुद्ध खुली बगावत थी। सिंडिकेट संजीव रेड्डी की हार को पचा नहीं सका। आखिरकार कांग्रेस अध्यक्ष एस. निजिलिंगप्पा ने इंदिरा गांधी को पार्टी से अनुशासन हीनता के कारण निलंबित करना पड़ा । इसके बाद ही कांग्रेस दो भागों कांग्रेस (आई) और कांग्रेस (ओ) में विभाजित हो गई। इस तरह जो कांग्रेस आज अपने को 125 वर्ष पुरानी बताती है वह झूठ प्रचार करती है। वास्तव में वर्तमान कांग्रेस 1969 के राष्ट्रपति चुनाव के बाद ही पैदा हुई। कांग्रेस (ओ) यानि कांग्रेस (आर्गेनाइजेशन) या संगठन 1977 तक चली और बाद में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के नेतृत्व वाले जनता दल में विलीन हो गई। इस प्रकार देखें तो कांग्रेस को क्षति पहुंचाने का वास्तविक काम तो गांधी परिवार ने ही किया। इन्होंने इस कांग्रेस को नेहरु-गाँधी वंशवाद की एक प्राइवेट लिमिटेड़ कंपनी के रूप में तब्दील कर रख दिया। इन्होंने संभावनाओं से लबरेज कांग्रेसी युवा और उर्जावान नेताओं को कभी आगे बढ़ने ही नहीं दिया। अब राहुल गांधी अपनी करारी पराजय के बाद यह कह रहे हैं कि लोकसभा चुनाव में पी.चिदंबरम, अशोक गहलोत और कमलनाथ अपने पुत्रों को पार्टी टिकट देने की मांग कर रहे थे। कोई उनसे भी जरा सवाल करे कि अगर ये सब अपने पुत्रों के लिए टिकट की मांग कर रहे थे तो उन्हें फिर टिकट क्यों दे दी गई और मेरिट की अनदेखी क्यों हुई और किसने की ? जिम्मेदार तो आप ही स्वयं हैं न ? पिछले राजस्थान विधानसभा चुनावों में कांग्रेस विजयी रही थी । राजस्थान के उस विजय में सचिन पाय़लट का अहम रोल रहा था। पर राज्य का मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को बनाया दिया गया। राहुल जी ने ही बनाया न? हालांकि उस पद के सही हकदार और कांग्रेस कार्यकर्ताओं, खासकर युवा वर्ग के नेता तो पायलट ही थे। लेकिन, राहुल गाँधी को लगता है जैसे कि युवा नेता यदि आगे बढ़ेंगे तो उनके सामने चुनौती खड़ी हो जायेगी। वस्तुस्थिति तो यह है कि अब कांग्रेस में जन धड़कन पैदा करने वाला कोई नेता बचा ही नहीं है। वहां आज के दिन सबके सब हवा हवाई नेता हैं। ये खबरिया चैनलों पर अपने विचार व्यक्त करके ही अपनी सियासत चमकाने की कोशिश करते रहते हैं। इसी प्रकार, मध्य प्रदेश में तेजी से उभरते युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया की उपेक्षा कर राजीव गाँधी के मित्र रहे और 1984 के सिख दंगों के दागदार कमलनाथ को मध्य प्रदेश का मुखमंत्री बनाया गया। यह भी तो सोनिया-राहुल ने ही तो किया न ?
अब कांग्रेस को किसानों, मजदूरों,औरतों वगैरह के सवालों पर सड़कों पर आकर आंदोलन किए हुए भी एक लम्बा अरसा हो गया है। इनके शरीर पर इतनी चर्बी चढ़ गई है कि उसे अब साफ करना जरूरी हो चुका है। पर सवाल वही उठता है कि कांग्रेस में अब फिर से कौन जान डालेगा? वंशवाद से मुक्ति पाए बिना तो यह संभव दिखता ही नहीं है। वंशवाद से मुक्ति दिलायेगा कौन ?
पिछले दिनों सारे देश ने कांग्रेस कार्य समिति की बैठक के चित्र अखबारों में छपे देखे। उसमें वही वंशवाद के चिरपरिचित समर्पित सेवक पुराने चेहरे बैठे हुए थे। कुछेक को छोड़कर सब के सब अब भूतपूर्व सांसद या मंत्री भी हैं। कुछ वर्तमान भी बाख गये हैं। पर इन सबका रोम-रोम गांधी परिवार से कृतज्ञ हैं। गांधी परिवार इन्हें हमेशा से ही कोई पद देकर रेवड़ियां बांटता रहता है। इनके जमीर अब मर गए हैं। ये गांधी परिवार के आगे सदैव दंडवत की अवस्था में ही बने रहते हैं। जाहिर है कि गांधी परिवार को इसी तरह के कमजोऱ और चापलूस नेता ही सदैब पसंद आते हैं।
सच्ची बात तो यह है कि कांग्रेस ने उसी दिन अपनी कब्र खोद ली थी जिस दिन हर प्रकार से योग्य और अनुभवी नेता प्रणव कुमार मुखर्जी को नजरअंदाज कर मनमोहन सिंह को देश का प्रधानमंत्री बना दिया गया था। डा. मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री जरूर थे, पर उनमें वे गुण नहीं थे जिसकी एक प्रधानमंत्री पद पर आसीन नेता को जरूरत होती है। वे तो सारे फैसले सोनिया गांधी के सरकारी आवास में जाकर ही लेते थे। बिना 10 जनपथ की आज्ञा से कोई फाइल ही नहीं साइन करते थे। कुछ बोलने के पहले तक पूछते ही थे।
कांग्रेस ने अपने बेहतरीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की भी सदैव अनदेखी की। नरसिंह राव एक विद्वान और संसदीय कार्यों में निपुण कांग्रेसी नेता थे । वे मधुर पर कुशल प्रशासक थे। विडंबना देखिए कि आज कांग्रेस का कोई नेता नरसिंह राव का नाम तक लेना नहीं चाहता है। उन्होंने ही देश में आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत की थी जिसके फल को आज देश खा रहा है। आज उदारीकरण की जब भी चर्चा होती है तो नरसिंह राव की नहीं होती, बल्कि उनके परम आज्ञाकारी सहयोगी मनमोहन सिंह का ही नाम लेते हैं।
कांग्रेस ने जीते जी ही राव से किनारा कर लिया था तो अब उनके स्वर्गवासी होने के बाद उन्हें कौन याद करेगा। नरसिंह राव को आखिरी दिनों में बेहद एकाकी जिंदगी बितानी पड़ी। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि कांग्रेस को सिर्फ गांधी-नेहरु परिवार पसंद है। गाँधी या उन्हें ऐसे नेता को ही पसंद करना होता है जो गाँधी परिवार को पसंद है । इसी कारण तो कांग्रेस अब अपनी अंतिम सांसें गिन रही है।
आर.के. सिन्हा
(लेखक राज्यसभा सदस्य एवं हिन्दुस्थान समाचार न्यूज़ एजेंसी के अध्यक्ष हैं)