राजधानी की सड़कें एक बार फिर देशभर से आए किसानों के नारों से गूंजती रहीं। लेकिन प्रश्न यह है कि विभिन्न राजनीतिक दलों, कृषक समूहों और समाजसेवी संगठनों की पहल पर दिल्ली आए किसानों को एकत्र करने का मकसद अपनी राजनीति चमकाना है या ईमानदारी से किसानों के दर्द को दूर करना? यह ठीक नहीं कि राजनीतिक-सामाजिक संगठन अपने हितों की पूर्ति के लिए किसानों का इस्तेमाल करें। किसान देश का असली निर्माता है, वह केवल खेती ही नहीं करता, बल्कि अपने तप से एक उन्नत राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति को भी रचता है, तभी ‘जय जवान जय किसान’ का उद्घोष दिया गया है। राष्ट्र की इस बुनियाद के दर्द पर राजनीति करना दुर्भाग्यपूर्ण है। कर्ज माफी और फसलों के उचित दाम के अलावा उनकी एक प्रमुख मांग किसानों के मसले पर संसद का विशेष सत्र बुलाना भी है। इसके लिए उन्होंने देश की सबसे बड़ी पंचायत तक पैदल मार्च भी किया। कथित किसान हितैषी नेताओं ने जिस तरह कर्ज माफी पर नए सिरे से जोर दिया उससे यही रेखांकित हुआ कि उनके पास किसानों की समस्याओं के समाधान का कोई ठोस उपाय नहीं, बल्कि वे किसानों को ठगने एवं गुमराह करने का षड़यंत्र कर रहे हैं।
बार-बार देखने में आ रहा है कि किसानों को गुमराह कर या उनके नाम पर अपनी राजनीति चमकाने की कुचेष्टाएं हो रही है। हाल के समय में यह तीसरी-चैथी बार है जब किसानों को दिल्ली लाया गया। इसके पहले उन्हें इसी तरह मुंबई भी ले जाया चुका है। समझना कठिन है कि परेशानी एवं त्रासद स्थितियों को झेल रहे किसानों को बार-बार दिल्ली या मुंबई में जमा करने से उनकी समस्याओं का समाधान कैसे हो जाएगा? जो राजनीतिक दल यह मांग लेकर सामने आए हैं कि किसानों की समस्याओं पर विचार करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए, उन्हें बताना चाहिए कि बीते साढ़े चार सालों में संसद सत्र के दौरान उन्होंने यह मांग क्यों नहीं सामने रखी? सवाल यह भी है कि किसानों की समस्याओं के बहाने अडाणी-अंबानी, नोटबंदी-जीएसटी, दुर्योधन-दुशासन, राफेल सौदे, राम मंदिर- बाबरी मस्जिद आदि का जिक्र करने का क्या मतलब यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि आगामी आम चुनाव के चलते विपक्षी नेता किसान-हित के बहाने अपने पक्ष में माहौल बनाने में लगे हुए हैं।
मजबूरी का नाम गांधी नहीं, किसान है। यानि मजबूरी आदर्श या आदर्श की मजबूरी। दोनों ही स्थितियां विडम्बनापूर्ण हैं। पर कुछ लोग किसी कोने में आदर्श की स्थापना होते देखकर अपने बनाए समानान्तर आदर्शों की वकालत करते हैं। यानी स्वस्थ परम्परा का मात्र अभिनय। प्रवंचना का ओछा प्रदर्शन। सत्ताविहीन असंतुष्टों की तरह आदर्शविहीन असंतुष्टों की भी एक लम्बी पंक्ति है जो दिखाई नहीं देती पर खतरे उतने ही उत्पन्न कर रही है। किसानों के हितैषी बनने वाले, उनकी समस्याओं पर घडियाली आंसू बनाने वाले, असल में उनके दुख-दर्द एवं परेशानी के नाम पर अपने राजनीतिक हितों की रोटियां सेक रहे हैं। सब चाहते हैं कि हम आलोचना करें पर काम नहीं करें। हम गलतियां निकालें पर दायित्व स्वीकार नहीं करें। ऐसा वर्ग आज बहुमत में है और यही वर्ग किसान हितवाहक होने का स्वांग रच रहा है।
आज जरूरत ऐसा माहौल बनाने की है कि किसानों को अव्वल तो कर्ज लेने की जरूरत ही न पड़े, और अगर लें, तो पूंजीगत कर्ज लें। ऐसा कर्ज, जो उनकी अर्जन क्षमता बढ़ाए, किसानों को उन्नत खेती की ओर अग्रसर करें, आधुनिक तकनीक एवं संसाधन उपलब्ध कराएं। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। किसान प्राकृतिक आपदा एवं अभावों के भी शिकार होते हैं। बाढ़ या सूखे से उनकी फसलें तबाह हो जाती हैं। इसका मुआवजा देने की घोषणाएं सरकारें करती रही हैं। मजेदार कहानी यह है कि सरकारी खजाने से किसानों के नाम पर धन निकलता है मगर वह बीमा कम्पनियों के खातों के हवाले हो जाता है। क्या इससे बड़ा अपमान हम धरती के अन्नदाता का और कुछ कर सकते हैं कि उसकी खराब हुई फसल का मुआवजा उसे दो रुपये से लेकर बीस रुपये तक के चेकों में दें। बीमा कम्पनियों ने महाराष्ट्र में ऐसा ही किया। एक और विडम्बनापूर्ण स्थिति देखने में आती रही है कि किसान बार-बार कर्ज के जाल में फंसता रहा है। कुछ किसान तो सिर्फ कर्ज-माफी की सोचते हैं। उन्हें इसका लाभ मिलता भी है, क्योंकि चुनाव के समय राजनीतिक दल वोट बैंक को प्रभावित करने के लिये उदार भाव से कर्ज माफ करने की घोषणाएं करते हैं। पहले कर्ज-माफी केंद्र सरकार ही किया करती थी, लेकिन अब राज्य सरकारें भी इस ओर बढ़ चली हैं। इस कारण समय पर कर्ज चुकाने वाले ईमानदार किसान ठगे रह जाते हैं। राज्य का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह उन लोगों को प्रोत्साहित करे, जो वैधानिक तरीकों से ईमानदारीपूर्वक काम करते हों। मगर अब तो जिन किसानों ने जान-बूझकर कर्ज नहीं चुकाया, वही फायदे में रहते हैं। यह परंपरा भी वास्तविक किसानों के लिये बर्बादी का कारण बन रही है।
कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि में किसान की कर्ज माफी की योजनाएं नाकाम होने के बावजूद इस तरह की योजनाओं को किसानों की समस्याओं के समाधान का सशक्त माध्यम माना जा रहा है। पता नहीं क्यों इस बुनियादी बात को समझने से इन्कार किया जा रहा है कि किसान जब तक कर्ज लेने की स्थिति में बना रहेगा तब तक उसकी बदहाली दूर होने वाली नहीं? समय की मांग यही है कि विपक्ष दल किसानों को राजनीतिक मोहरा बनाना बंद कर कृषि संकट के समाधान के कुछ कारगार उपायों के साथ सामने आए। ऐसे उपायों की तलाश में मोदी सरकार को भी जुटना चाहिए, क्योंकि उसके तमाम प्रयासों के बाद भी किसान समस्या ग्रस्त हैं और फिलहाल उसकी आय बढ़ने एवं समस्याएं कम होने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है।
राजनीतिक दल दुर्गा बनना चाहते हैं, पर दुर्गा सामने नहीं देखना चाहते। वे चाहते हैं भगतसिंह पैदा हों, पर पड़ोस में। कारण भगतसिंह को जवानी में शहीद होना पड़ता है। वोट बैंक पर आधिपत्य का अर्थ है निरन्तर उन्नतिशील बने रहना एवं स्वस्थ शासन करना। जनता के दिलों पर शासन उस श्वेत वस्त्र के समान है, जिस पर एक भी धब्बा छिप नहीं सकता। जबकि भारतीय राजनीतिक उस मुकाम पर है जहां मुकाबला होता है उसका ”पोल्का डाॅट“ वाले वस्त्रधारी से, जिस पर एक और ”डाॅट“ लग जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता। कुछ ऐसे व्यक्ति सभी जगह होते हैं जिनसे हम असहमत हो सकते हैं, पर जिन्हें नजरअन्दाज करना मुश्किल होता है। चलते व्यक्ति के साथ कदम मिलाकर नहीं चलने की अपेक्षा उसे अडं़गी लगाते हैं। सांप तो काल आने पर काटता है पर राजनीतिक दुर्जनता तो पग-पग पर काटती है। यह निश्चित है कि सार्वजनिक जीवन में सभी एक विचारधारा, एक शैली व एक स्वभाव के व्यक्ति नहीं होते। अतः आवश्यकता है दायित्व के प्रति ईमानदारी के साथ-साथ आपसी तालमेल व एक-दूसरे के प्रति गहरी समझ की। अगर हम किसानों मंे आदर्श स्थापित करने के लिए उसकी जुझारू चेतना को विकसित कर सकें तो निश्चय ही आदर्शविहिन असंतुष्टों की पंक्ति को छोटा कर सकेंगे। ऐसा होने पर ही किसानों को कभी दिल्ली तो कभी मुम्बई में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने की एवं राजनीतिक दलों के स्वार्थों का मोहरा बनने की जरूरत नहीं पडे़गी। प्रेषक
(ललित गर्ग)