जावेद अनीस
मध्य प्रदेश के लिये कुपोषण एक ऐसा कलंकहै जो पानी कि तरह पैसा बहा देने के बाद भी नहीं धुला है पिछले साल करीब एक दशक बाद कुपोषण की भयावह स्थिति एक बार फिर सुर्खियाँ बनीं थीं. विपक्षी दलों ने इसे राज्य सरकार की लापरवाही, भ्रष्टाचार और असफलता बताकर घेरा था राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी राज्य सरकार को नोटिस जारी कर इस मामले में जवाब माँगा था. जिसके बाद मध्यप्रदेश सरकार ने “कुपोषण की स्थिति” को लेकर श्वेत पत्र लाने की घोषणा कर दी थी. लेकिन अब ऐसा लगता है यह भी महज एक घोषणा ही थी और श्वेत पत्र का शिगूफा ध्यान बटाने और मुददे को शांत करने के लिये छोड़ा गया था.
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी सरकार के लोग यह दवा करते नहीं थकते हैं कि प्रदेश तरक्की की राह पर चलते हुए बीमारू राज्य के तमगे को काफी पीछे छोड़ चूका है, बताया जाता है कि राज्य का जीडीपी 10 प्रतिशत से ऊपर है और कृषि विकास दर 20 प्रतिशत को पार कर गई है. लेकिन अगर मानव विकास सूचकांकों को देखें तो आंकड़े कुछ और ही कहानी बयान कर रहे हैं. जमीनी हालत देखें तो मध्यप्रदेश आज भी बीमारू राज्य की श्रेणी में खड़ा नजर आता है आंकड़े चुगली कर रहे हैं कि पिछले 10 सालों में सूबे में करीब 11 लाख गरीब बढ़े हैं. पिछले साल एम.डी.जी. की रिपोर्ट आयी थी जिसके अनुसार मानव विकास सूचकांकों में प्रदेश के पिछड़े होने का प्रमुख कारण सरकार द्वारा सामाजिक क्षेत्र कि लगातार की गयी अनदेखी है राज्य सरकार स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण और अन्य सामाजिक क्षेत्रों में कम निवेश करती है, रिपोर्ट के अनुसार म.प्र सामाजिक क्षेत्रों में अपने बजट का 39 प्रतिशत हिस्सा ही खर्च करता है जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 42 प्रतिशत है.
शायद यही वजह है कि आज भी मध्यप्रदेश शिशु मृत्यु दर में पहले और कुपोषण में दूसरे नंबर पर बना हुआ है. कुपोषण का सबसे ज्यादा प्रभाव आदिवासी बाहुल्य जिलों में देखने को मिलता है इसकी वजह यह है कि आदिवासी समाज पर ही आधुनिक विकास कि मार सबसे ज्यादा पड़ती है वे लगातार अपने परम्परागत संसाधनों से दूर होते गए हैं. देश के अन्य भागों कि तरह मध्यप्रदेश के आदिवासी भी अपने इलाके में आ रही भीमकाय विकास परियोजनाओं, बड़े बांधों और वन्य-प्राणी अभ्यारण्यों कि रिजर्बों की वजह से व्यापक रूप से विस्थापन का दंश झेलने को मजबूर हुए हैं और लगातार गरीबी व भूख के दलदल में फंसते गये हैं. भारत सरकार द्वारा जारी ‘‘रिर्पोट आफ द हाई लेबल कमेटी आन सोशियो इकोनामिक, हैल्थ एंड एजुकेशनल स्टेटस आफ ट्राइबल कम्यूनिटी’’ 2014 के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर आदिवसी समुदाय में शिशु मृत्यु दर 88 है जबकि मध्यप्रदेश में यह दर 113 है, इसी तरह से राष्ट्रीय स्तर पर 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 129 है वही प्रदेश में यह दर 175 है, आदिवासी समुदाय में टीकाकरण की स्थिति चिंताजनक है. रिर्पोट के अनुसार देश में 12 से 23 माह के बच्चों के टीकाकरण की दर 45.5 है जबकि मध्यप्रदेश में यह दर 24.6 है. 2015 की कैग रिपोर्ट ने जिन आदिवासी बाहुल्य राज्यों की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगाये थे उसमें मध्यप्रदेश भी शामिल है. इस रिपोर्ट में मप्र के जनजातीय क्षेत्रों में कुपोषण पर प्रदेश सरकार के प्रयास नाकाफी बताए गए हैं.कैग रिपोर्ट के मुताबिक तेरह जिलों में आंगनवाड़ियों में पोषण आहार के बजट में गड़बडियां पायी गयी थी. रिर्पोट के अनुसार आदिवासी क्षेत्रों की आंगनवाड़ियां सुचारु रुप से संचालित नही हैं और वहां पोषण आहार का वितरण ठीक से नही हो रहा है.
मध्य प्रदेश शिशु मृत्युदर और कुपोषण के मामले में शीर्ष पर है इसके बावजूद सूबे का सरकारी अमला इस तल्ख हकीकत को स्वीकार करके उसका हल खोजने के बजाये आंकड़ों की बाजीगरी या कुतर्कों से जमीनी स्थिति को झुठलाने में ज्यादा रूचि लेता है पूरा जोर इस बात पर रहता है कि कैसे आंकड़ों के जरिए कुपोषण की स्थिति को कमतर दिखाया जाये. एक हालिया उदाहरण इसी मार्च महीने का है जब विधानसभा में मंत्री अर्चना चिटनीस ने कहा था कि सूबे में हर रोज 80 बच्चे अपनी जान गवां देते हैं लेकिन यह जो मौतें हुई हैं उसमें पहले बच्चे अन्य बीमारियों के शिकार हुये बाद में कुपोषण के. श्योपुर जिले में हुई मौतों के बाद हाईकोर्ट के नोटिस के जवाब में भी ठीक इसी तरह का तर्क दिया था जिसमें शासन ने कोर्ट को बताया था कि श्योपुर जिले में 166 बच्चों की मौत कुपोषण नहीं बल्कि अन्य बीमारी से हुई थी.
मध्यप्रदेश में कुपोषण के आकंड़ों को लेकर बहुत भ्रम की स्थिति है. पिछले साल बच्चों में कुपोषण को लेकर दो तरह के आंकड़े सामने आए थे मध्यप्रदेश सरकार द्वारा जारी जनवरी 2016 के मासिक प्रतिवेदन में बताया गया था कि 17 प्रतिशत बच्चे सामान्य से कम वज़न के हैं जबकि केन्द्र सरकार द्वारा जारी “नेशनल फैमली हेल्थ सर्वे-4” के रिर्पोट के अनुसार सूबे के 42.8 प्रतिशत बच्चे कम वज़न के पाये गए. प्रदेश में कुपोषित बच्चों की ‘वृद्धि निगरानी’ की विश्वसनीयता पर लगातार सवाल खड़े होते रहे हैं यह काम आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के हवाले हैं जमीनी स्तर पर काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को ऊपर से निर्देश होता है कि हालात चाहे जो भी हों आंगनवाड़ी केंद्रों में कुपोषित बच्चों की बढ़ी हुई संख्या सामने नहीं आनी चाहिए.
साल 2005-6 में जारी तीसरे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में मध्यप्रदेश 60 फीसदी बच्चे काम वजन के पाये गए थे और अब ऐसा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (एनएफएचएस -2015-16) के अनुसार यहाँ अभी भी 42.8 प्रतिशत प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं. एनुअल हेल्थ सर्वे 2014 के अनुसार शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) के मामले में मध्यप्रदेश पूरे देश में पहले स्थान पर है जहाँ 1000 नवजातों में से 52 अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते हैं. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर आधा यानी 26 ही है. यह हाल तब है जब कि इस अभिशाप से मुक्ति के लिए पिछले 12 सालों से पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है , पिछले पांच सालों में ही कुपोषण मिटाने के लिये 2089 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं. सवाल उठता है कि इतनी बड़ी राशि खर्च करने के बाद भी हालात सुधर क्यों नहीं रहे हैं? पिछले 12 साल में 7800 करोड़ रूपये मूल्य का पोषण आहार बांटा गया लेकिन फिर भी शिशु मृत्युदर में मध्यप्रदेश टॉप है ऐसे में सवाल उठाना लाजिमी है.
इसके जवाब को पोषण आहार में हो रहे खेल से समझा जा सकता है. पिछले साल सूबे के महिला बाल विकास विभाग कि ओर से यह दावा किया गया था कि 2015-16 में 1.05 करोड़ बच्चों को पोषाहार बांटा गया जबकि पूरे मध्यप्रदेश की आबादी ही करीब सात करोड़ है अगर विभाग के दावे को सही माना जाए तो राज्य का हर सातवां शख्स पोषाहार पा रहा है. राज्य में आंगनवाड़ियों के जरिए कुपोषित बच्चों और गर्भवती महिलाओं को दी जाने वाली पोषणाहार व्यवस्था को लेकर लम्बे समय से सवाल उठते रहे हैं. दरअसल 12 सौ करोड़ रुपए बजट वाले इस व्यवस्था पर तीन कंपनियों-एमपी एग्रो न्यूट्री फूड प्रा.लि., एम.पी. एग्रोटॉनिक्स लिमिटेड और एमपी एग्रो फूड इंडस्ट्रीज का कब्जा रहा है. जबकि 2004 में ही सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि आंगनवाड़ियों में पोषण आहार स्थानीय स्वंय सहायता समूहों द्वारा ही वितरित किया जाये. सुप्रीमकोर्ट द्वारा इस व्यवस्था को लागू करने की जिम्मेदारी मुख्य सचिव और गुणवत्ता पर निगरानी की जिम्मेदारी ग्राम सभाओं को दी गई थी. लेकिन कंपनियों को लाभ पहुचाने के फेर में इस व्यवस्था को लागू नही किया गया. कैग द्वारा पिछले 12 सालों में कम से कम 3 बार मध्यप्रदेश में पोषण आहार व्यस्था में व्यापक भ्रष्टाचार होने की बात सामने रखी जा चुकी है लेकिन सरकार द्वारा उसे हर बार नकार दिया गया है. कैग ने अपनी रिपोर्टों में 32 फीसदी बच्चों तक पोषण आहार ना पहुचने, आगंनबाड़ी केन्द्रों में बड़ी संख्या में दर्ज बच्चों के फर्जी होने और पोषण आहार की गुणवत्ता खराब होने जैसे गंभीर कमियों को उजागर किया गया है. पिछले साल 6 सितंबर को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान द्वारा पोषण आहार का काम कम्पनियों के बजाय स्वंय सहायता समूहों को दिये जाने की घोषणा की गई थी और यह कहा गया था कि 1 अप्रैल 2017 से पोषण आहार की नई विकेंद्रीकृत व्यवस्था लागू हो जायेगी. लेकिन बाद में यह मामला हाईकोर्ट चला गया जहाँ से आहार सप्लाय करने वाली संस्थाओं को स्टे मिल गया जिसके बाद सरकार ने पूरक पोषण आहार की मौजूदा व्यवस्था को जून 2017 तक लागू रखने का निर्णय लिया है.
अधिवक्ता एस.के. शर्मा द्वारा श्योपुर में कुपोषण से हुई मौतों को लेकर 2016 में ग्वालियर खंडपीठ में एक जनहित याचिका दायर की गयी थी. इस याचिका पर सुनवाई के दौरान केन्द्र सरकार ने जवाब पेश करते हुए कहा है कि कुपोषण से होने वाले मौतों कि जिम्मेदारी राज्य सरकार की है उसका काम तो फंड उपलब्ध कराना है. सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार के प्रतिनिधि द्वारा बताया गया कि कुपोषण मिटाने के लिए भारत सरकार द्वारा राज्य सरकार को वित्त वर्ष 2013-14 में 42386 लाख रुपए ,2014-15 में 48462 लाख रुपए,2015-16 में 57366 लाख रुपए ओर 2016-17 में 55779 लाख रुपए आवंटित किए गए थे.
जाहिर है तमाम योजनाओं,कार्यक्रमों और पानी की तरह पैसा खर्च करने के बावजूद दस साल पहले और आज की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. “कुपोषण की स्थिति” पर मध्यप्रदेश सरकार ने श्वेतपत्र लाने कि जो घोषणा की थी उसका भी कुछ आता-पता नहीं है. 10 मार्च 2017 को विधायक बाला बच्चन द्वारा विधानसभा में पूछे गए सवाल का जवाब देते हुए महिला एवं बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनिस ने कहा था कि श्वेत पत्र पर काम चल रहा है लेकिन श्वेत पत्र कब लाया जाएगा इस बारे में उन्होंने कुछ स्पष्ट नहीं किया था.