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केंद्रीय विद्यालय संगठन की मनमानी का शिकार हुए हजारों अभ्यर्थी

डॉ. राजेन्द्र कृष्ण अग्रवाल, मथुरा.

गत दिनों 10 और 12 अप्रैल 2017 को दिल्ली के जे एन यू कैंपस में केंद्रीय विद्यालय संगठन के संगीत शिक्षक-शिक्षिकाओं के हेतु हुए साक्षात्कार में लिखित परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने बाद मेरिट के आधार पर जिन अभ्यर्थियों को आमन्त्रित किया गया था, उनके साथ जिस तरीके की बदसलूकी की गयी, उससे संगठन की नीयत पर सवालिया निशान लग गया है। प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद से संगीत प्रभाकर अथवा प्राचीन कला केन्द्र, चंडीगढ से संगीत विशारद के बी.ए. के समकक्ष सर्टिफिकेट कोर्स किए हुए अभ्यर्थियों को केंद्रीय विद्यालय संगठन ने पहले अनुमति देने के बाद और लिखित परीक्षा में भी अनुमति देने के बाद जिस प्रकार परेशान किया, उससे केंद्रीय विद्यालय संगठन की रीति-नीति पर प्रश्न-चिह्न लग गया है। ज्ञातव्य है कि प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद, जिसकी स्थापना सन् 1926 में हुई और प्राचीन कला केंद्र, चंडीगढ़, जिसकी स्थापना 1956 में हुई, इन जैसी संस्थाओं के कारण आज भारतीय संगीत विश्वभर में जैसा प्रचारित-प्रसारित हुआ है, वह किसी से छिपा नहीं है। अगर इन अति प्रतिष्ठित संस्थानों की परीक्षाओं पर ही प्रश्न-चिह्न लगा दिया जाएगा तो भारतीय संगीत के उन पुरोधाओं की आत्मा तो कराह ही उठेगी, जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत को प्रचारित-प्रसारित करने हेतु इन संस्थानों को खड़ा किया। साक्षात्कार हेतु आये सैकड़ों अभ्यर्थी, देश के सुदूर अंचलों तक से अपना साक्षात्कार देने के लिए उपस्थित हुए, उन्हें जिस प्रकार की जिल्लत झेलनी पड़ी उसकी कल्पना मात्र से ही मैं सिहर उठा। मेरे पास इंटरव्यू के पहले दिन ही कई अभ्यर्थियों के फोन आए जिन्होंने मुझसे शिकायत की कि हम अब क्या करें ? पहले दिन मेरे यहां उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी, लखनऊ की ओर से होने वाली शास्त्रीय संगीत गायन-वादन और नृत्य की प्रतियोगिता में जजमेंट के लिए फैजाबाद से श्रीमती कल्पना एस. बर्मन को आना था। उसी दिन यानि 10 अप्रैल को उनकी सुपुत्री का भी केंद्रीय विद्यालय संगठन में साक्षात्कार था। वह मुझसे फोन पर बार-बार कहती रहीं कि भैया ! पता नहीं क्यों मेरी बेटी का न तो प्रभाकर का सर्टिफिकेट मान्य कर रहे हैं और ना ही विश्वविद्यालय की बी.ए. की परीक्षा को मान्य कर रहे हैं। मेरी सुपुत्री संगीत विषय से बी.ए. भी है, प्रभाकर भी है और उसने बी.एड. भी किया है। मैं क्या करूं ? ऐसी स्थिति में मेरा और मेरी बेटी का दिल्ली तक आना भी बिल्कुल बेकार हो जायेगा।
मैंने कल्पना जी को सुझाव देते हुए कहा कि यदि वह साक्षात्कार लेने से मना कर रहे हैं तो आप उनसे लिखवाकर ले लीजिए कि ये परीक्षाएं मान्य नहीं हैं, साथ ही यह भी कहें कि यदि ये परीक्षाएं मान्य नहीं हैं तो मेरी बेटी को पहले रिटेन एग्जाम में बैठने की और उसे क्लियर करने के बाद में कॉल लेटर भेजने की क्या आवश्यकता थी ? आपको रिटेन एग्जाम से पहले ही उन परीक्षाओं पर आपत्ति लगानी थी। खैर ! थोड़ी देर बाद उन्होंने मुझे फोन पर बताया कि बहुत जद्दोजहद करने के बाद मेरी बेटी को इंटरव्यू देने की अनुमति क्च.श्वस्र. भी किये होने के कारण मिल गयी है और मैं उसका इंटरव्यू खत्म कराते ही मथुरा पहुंच रही हूँ।
यह तो केवल उस दिन परेशान होने वाले लोगों में से एक नमूना पेश किया है मैंने। मैंने दिल्ली में अपने परिचित कई मित्रों को इस बावत जानकारी दी और जो पत्रकार भी थे, उनसे इस मामले को अखबार के माध्यम से भी जनता के बीच पहुँचाने का आग्रह किया। प्रयाग संगीत समिति और प्राचीन कला केन्द्र के लोगों सहित देश की सर्वाधिक प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका संगीत के प्रधान सम्पादक डॉ. लक्ष्मी नारायण गर्ग जी को भी अभ्यर्थियों को हो रही परेशानी से अवगत कराया।
प्राचीन कला केन्द्र, चंडीगढ के सेक्रेटरी श्री सजल कौसर ने तो व्हाट्स एप पर मेरा मैसेज पढते के साथ ही कई बार फोन पर इस मसले पर चर्चा की। उन्होंने यह भी कहा कि हाई कोर्ट में हमने रिट भी दाखिल की हुई है। केन्द्रीय विद्यालय संगठन जिस प्रकार का व्यवहार कर रहा है, हम सब भी उससे बहुत आहत हैं। आप भी इस नेक कार्य में नि:स्वार्थ भाव से जो योगदान कर रहे हैं, उसके लिये ये संस्थाएँ आपकी सदा आभारी रहेंगी।
डॉ. लक्ष्मी नारायण गर्ग जी को भी बेहद आश्चर्य हुआ कि जिन संस्थाओं का संगीत के क्षेत्र में अवर्णनीय योगदान रहा है, उन संस्थाओं से परीक्षाएँ उत्तीर्ण छात्रों के साथ ऐसा भेदभाव निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण है।
थोड़ी देर बाद ही मुझे एक सज्जन ने फोन करके बताया कि यहाँ काफी लोगों ने शोर-शराबा भी किया है और संगठन के खिलाफ नारेबाजी की है।
मैं भी यहीं नहीं रुका। 12 अप्रैल को होने वाले साक्षात्कार की असलियत जानने के लिये मैंने अपने बेटे को भी भेजा। कैम्पस के पास ही अपनी कार खड़ी कर वह वहाँ की हर परिस्थिति से मुझे अवगत कराता रहा। उस दिन भी 10 अप्रैल जैसी ही मुसीबत से अभ्यर्थी दो-चार हो रहे थे। 2-3 घण्टे बाद मेरे बेटे ने फोन पर बताया कि सभी से बेहद अभद्रता की जा रही है। एक महिला अधिकारी तो बेहद ही बत्तमीजी से पेश आ रही है सबके साथ। कुछ ही देर बाद वहाँ हुए हो-हल्ला और नारेबाजी की भी उसने जानकारी दी। सड़क के बाहर हो रहे प्रदर्शन और नारेबाजी से भी उसने अवगत कराया।
मुझे यह भी बताया गया कि संगठन ने तो पहले से ही ऐसे संगीत संस्थानों की परीक्षा को अमान्य कर दिया है। उसने बाकायदा विज्ञप्ति में भी ऐसा लिख दिया था। यदि ऐसा था भी तो ऐसे अभ्यर्थियों के आवेदन-पत्र पहले ही क्यों नहीं रद्द किये। यही नहीं, ऐसे अभ्यर्थियों को लिखित परीक्षा भी क्यों देने दी और जो उसमें पास होकर मेरिट में आ रहे थे , उनको इंटरव्यू के लिये कॉल लैटर भी क्यों भेज दिये गये ? क्या यह केन्द्रीय विद्यालय संगठन की गलती नहीं थी ? निश्चय ही संगठन ने ऐसे अभ्यर्थियों के साथ ऐसा बेहूदा व्यवहार करके अच्छा नहीं किया।
उनका ऐसा व्यवहार माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री एस. सी. अग्रवाल द्वारा 2001 में दिये गये उस निर्णय की भी अवहेलना है, जिसमें प्रयाग संगीत समिति की प्रभाकर और प्रवीण परीक्षाओं और प्राचीन कला केन्द्र की विशारद एवं भास्कर की परीक्षाओं को विश्वविद्यालयों की बी. ए. और एम. ए. परीक्षाओं के समकक्ष माने जाने का आदेश प्रदान किया है।
संगठन के अधिकारियों को इस विवाद को तूल न देते हुए ठंडे दिमाग से निर्णय लेने की आवश्यकता है। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिये कि जब स्कूल और कॉलेजों में संगीत नहीं था, तब इन्हीं संस्थाओं ने देश को एक-से-एक दिग्गज कलाकार भी दिये और लेञ्चचरर्स- प्रोफेसर्स भी। रही स्टैण्डर्ड की बात, तो आज भी प्रभाकर या प्रवीण और विशारद या भास्कर किये विद्यार्थी कुछेक विश्वविद्यालयों की बात छोड़ दें तो अधिकांश विश्वविद्यालयों के बी.ए. और एम.ए. पास विद्यार्थियों से कहीं बेहतर हैं।
अगर बी. ए. का विश्वविद्यालयों में त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम होना आड़े आ रहा है तो भी उसका समाधान निकाला जा सकता है, किन्तु जिन अभ्यर्थियों ने इन संस्थानों के कोर्सेज कर रखे हैं, आखिर वे कहाँ जाएँ ?
मेरा केन्द्र सरकार और विशेष रूप से मानव संसाधन विकास मन्त्रालय से अनुरोध है कि वह इस समस्या का शीघ्राति शीघ्र समाधान इस प्रकार से करे ताकि इन अभ्यर्थियों को भी परेशानी न हो और संगीत की महनीय सेवा कर रही इन संस्थाओं की गरिमा को भी क्षति न पहुँचे अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब संगीत के सच्चे साधक तो उपाधियों के लिये तरस जाएँगे और विश्वविद्यालयों के थोथे उपाधिधारक संगीत के सर्वेसर्वा बन बैठेंगे। यही नहीं, जिन संगीत-संस्थाओं के कारण आज संगीत अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंचा है, उनका अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा। ठ्ठ

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