Shadow

क्या कानून की शक्ल अख्तियार करेगा तीन तलाक का बिल

तीन तलाक का कान्सैप्ट इस्लाम में जायज़ है। इसकी व्याख्या पर पुनर्विचार होना चाहिए। देखने वाली बात यह है कि इस्लाम में शराब पीना हराम है। पर मुस्लिम पी रहे हैं। शराब के नशे में घर आते हैं और पी पर गुस्सा करते हैं। बेखुदी की हालत में तलाक तलाक तलाक कहकर एक औरत को बेदखल कर देते हैं। चूंकि मुस्लिम धर्म में गुजारा भत्ता देने का कोई प्रावधान नहीं है इसलिए वह लाचार और मजबूर औरत सड़क पर आ जाती है। अब अगर अगली सुबह पति को अपनी गलती का एहसास भी होता है तो भी वह अपनी रात की गलती पर अफसोस नहीं कर सकता है। उसके पास विकल्प ही नहीं है। जो विकल्प है वह और भी भयावह है। पहले स्त्री को किसी अन्य मर्द के साथ निकाह करना होगा। वह तलाक देगा और तब वह पुन: अपने पूर्व पति के पास जा पाएगी। इस प्रक्रिया को हलाला कहा जाता है। तीन तलाक का बिल कानून बनने की स्थिति में मुस्लिम महिलाओं के पास पुरुष की गलती की सज़ा दिलवाने एवं गुजाराभत्ता पाने का अधिकार होगा।

अमित त्यागी
मुस्लिम महिलाओं को एक बार में तीन तलाक की प्रथा से मुक्ति दिलाने का प्रयास मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में आरंभ हुआ था जब उच्चतम न्यायालय ने तीन तलाक को अवैध घोषित कर दिया था। इसके बाद सरकार पर इसके लिए कानून बनाने की जि़म्मेदारी आ गयी। सरकार द्वारा लोकसभा में इसे पास करा लिया गया था किन्तु राज्यसभा में बहुमत न होने के कारण यह कानून की शक्ल न ले सका। छह महीने की निर्धारित सीमा बीत जाने के कारण यह विधेयक लेप्स हो गया। मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में आते ही इसे 17वी लोकसभा में अपने पहले बिल के रूप में पेश किया। ‘मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक 2019Ó के नाम से पेश यह बिल अब लोकसभा ने पास कर दिया है। एक तरफ हिन्दू विवाह को संस्कार माना गया है वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम निकाह प्रख्यात मुस्लिम जानकार मुल्ला (अब्दुल कादिर बनाम सलीमा वाद ) के अनुसार एक सिविल संविदा है। इसमें दो पक्ष होते हैं और दोनों पक्षों के बीच कुछ निश्चित शर्तों पर करार होता है। निकाह के बाद दोनों पक्षकारों के अधिकार एवं दायित्व उसी संविदा से उत्पन्न होते हैं। किसी एक पक्ष के शर्तों का उल्लंघन करने से संविदा की शर्तें शून्य हो जाती हैं। इसमें उसी तरह के प्रावधान होते हैं जैसे भारतीय संविदा विधि में वर्णित किए गए हैं।
मुस्लिम महिलाओं के अधिकार का ऐतिहासिक पुनरावलोकन
संविधान का अनु0-44 सभी नागरिकों के लिये समान आचार संहिता की बात भी करता है। 1995 में सर्वोच्च न्यायालय ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव को निर्देशित किया था कि वह अनु.-44 पर एक बार नये दृष्टिकोण से विचार करें। यह निर्देश ‘सरला मुदगल वादÓ में दिया गया था और इसमें उच्चतम न्यायालय ने समान नागरिक संहिता को देश की एकता और अखंडता के लिये आवश्यक बताते हुये सरकार से कहा कि आप न्यायालय को बतायें कि सरकार ने इस तरफ कौन कौन से कदम उठाए हैं। उस समय नरसिंह राव इतनी इच्छा शक्ति नहीं जुटा सकें कि राष्ट्रहित में उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर देशहित में फैसला कर सकें। रामपुर के उलेमा सम्मेलन में उनका भाषण समान नागरिक संहिता पर सरकार के कदम को पीछे कर गया। मुस्लिम वोट बैंक खोने के डर ने उस समय की कांग्रेस सरकार को लाचार बना कर रख दिया। सिर्फ नरसिंह राव ही नहीं इसके पहले 1986 में राजीव गांधी भी शाहबानो प्रकरण के समय माननीय उच्चतम न्यायालय के फैसले को बदलने के लिए मुस्लिम उलेमाओं के दवाब में आ गए थे। गौरतलब है कि 1985 में सर्वोच्च न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा-125 के तहत फैसला दिया था कि शाहबानो को उसके पति द्वारा गुजारा भत्ता प्राप्त करने का अधिकार है। जब तरक्कीपसंद मुस्लिम उस समय न्यायालय के इस फैसले को एक नयी और सकारात्मक सुधार का आधार मान रहे थे तब इच्छाविहीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी कट्टरपंथियों के दबाव में टूट गये। न्यायालय के फैसले को सुपरसीड करने के लिये उन्होंने संसद के द्वारा नया कानून पास करा दिया। द मुस्लिम वूमेन (प्रोटेक्शन एंड राइट आन डायवोर्स) एक्ट 1986 के प्रभाव में आने से सर्वोच्च न्यायालय का फैसला रद्द हो गया। यह तरक्कीपसंद मुस्लिमों पर कट्टरपंथियों के हावी होने की शुरुआत थी।
तीन तलाक के प्रारूप एवं मुस्लिम परिपाटियां
भारत में जो तलाक का प्रारूप चल रहा है उसे तो इस्लामिक देशों ने भी खारिज कर दिया है। मुस्लिम धर्म में तलाक को दो भागों में बांटा गया है। तलाक उल सुन्नत और तलाक उल बिददत। ‘तलाक उल सुन्नतÓ वह तलाक माना जाता है जिसमें तीन बार तलाक कहने के बाद पति के पास अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने का हक़ होता है। यदि वह बाद में चाहे तो अपने निर्णय को वापस भी ले सकता है। तलाक के इस प्रारूप का समर्थन मुहम्मद साहब ने भी किया था। इस्लामिक ग्रन्थों के अनुसार तलाक उल सुन्नत को हसन और एहसन दो भागों में वर्गीकृत किया गया है। हसन और एहसन तलाक की अलग अलग विधियां हैं। पर इन दोनों विधियों में तुहर के समय को महत्वपूर्ण माना गया है। तुहर किसी स्त्री के दो मासिक धर्मों के बीच का समय होता है जिसके आधार उसके गर्भधारण का निर्धारण होता है। इस विधि के अनुसार तुहर के दौरान दिया गया तलाक अगर तुहर के दौरान ही वापस भी ले लिया जाये तो वह खंडित हो जाता है। मतलब तलाक खारिज हो जाता है और पति एवं पत्नी खुशी-खुशी साथ रह सकते हैं। यह एक अच्छा प्रारूप है जहां किसी पुरुष द्वारा अंजाने में हुयी भूल का सुधार भी संभव है।
दूसरा तलाक होता है, ‘तलाक उल बिददतÓ। इस तलाक में पति के द्वारा एक बार में तीन तलाक कह देने भर से तलाक मुकम्मल हो जाता है और उस पर दुबारा विचार करने का मौका पति के पास नहीं होता है। अब इसे दुर्भाग्य कहें या परंपरा का हिस्सा, भारत में तलाक उल बिददत प्रचलन में है। यह अखंडनीय तलाक है इसलिए इस तलाक को बुरा तलाक भी कहा गया है। इस्लामिक विचारधारा के अनुसार यह तलाक एक समुचित समयावधि में मुकम्मल हो जाना चाहिए। चूंकि यह समुचित शब्द पारिभाषित नहीं है इसलिए यह ही विवाद की मूल वजह है। विधि कहती है कि यह समुचित समयावधि तीन तुहर की होनी चाहिए। यानि, तीन तलाक तीन महीने में दिये जाये। बहुत से कट्टर इस्लामिक देश एक बार में तीन तलाक के प्रारूप को खारिज कर चुके हैं। पर चूंकि, भारत में यह प्रचलन में है इसलिए अब इसमें सुधार के लिये किए जा रहे प्रयास को मुस्लिम धर्मगुरु इस्लाम और शरीयत में दखल कहकर प्रचारित कर रहे हैं।
क्या कहता है कुरान है एवं भारतीय संविधान ?
पूर्व केन्द्रीय मंत्री आरिफ़ मोहम्मद खान ने एक किताब लिखी है। कुरान एंड कंटेम्परी चेलेंजेज़। इसमें कई आवश्यक सुझावों को दिया गया है। इस्लामी न्यायशास्त्र में कानून या नैतिक सिद्धान्त का प्रथम आधार कुरान है। इसके बाद सुन्नत एवं हदीस का जि़क्र आता है। सुन्नत एवं हदीस पैगंबर साहब की कथनी और करनी पर आधारित है। इन दोनों स्रोतों के बाद इज़मा और कयास का जि़क्र है। यह आपसी सहमति एवं विवेक के ऊपर आधारित है। यह जमाने की जरूरतों के मुताबिक नियम रचना के सिद्धांतों पर आधारित है। कुरान में तलाक के दिये तरीके के अनुसार पहले कदम के रूप में दोनों पति और पत्नी को बिस्तर पर अलेहदगी करनी होगी। इसके बाद के चरण में दोनों पक्षों को एक एक पंच नियुक्त करने को कहा गया है। परिवार के द्वारा यह सारे प्रयास नाकाम होने के बाद ही तलाक दिया जाएगा। इस बारे में जो कहा गया है उसका सार है कि ‘जब तुम औरतों को तलाक देने लगो तो इद्दत (तीन महीने की प्रतीक्षा अवधि) के शुरू में तलाक दो और इद्दत का शुमार (गिनती) रखो। इनको इस बीच घरों से मत निकालो न वह खुद बाहर निकलें। तुम्हें क्या पता शायद खुदा इसके बाद (मिलने) की कोई राह पैदा कर दे।Ó
अब कुरान में तो यही तरीका बताया गया है। कहा जाता है कि अरबों में इस्लाम के पहले के जहालत युग में बहुत बार तलाक कहने की कुप्रथा थी जिसे इस्लाम खत्म करना चाहता था। हदीस में एक वाकये का जि़क्र है कि जब एक व्यक्ति ने तीन तलाक दिया तो पैगंबर साहब ने पत्नी को वापस लेने का हुक्म दिया। इसी के साथ पत्नी को तीन तलाक देने के एक अन्य मसले में पैगंबर साहब को जब इस बात की जानकारी हुयी तो वह बहुत नाराज़ हुये और उन्होने कहा कि ”मेरी मौजूदगी में ही खुदा की किताब के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।ÓÓ आज जो मुस्लिम पर्सनल लॉं बोर्ड तीन तलाक की वकालत कर रहा है उसकी किताब मजमुआ कवानीन इस्लमी के पृष्ठ 137 में कहा गया है कि ‘तलाक बिददत है और ममनु हैÓ। अर्थात यह धार्मिक विकृति है और निषिद्ध है। अब एक बात समझ से परे है कि जिसे ये लोग धार्मिक विकृति मान रहे हैं उसे बचाने के लिये क्यों अहम की लड़ाई लड़ रहे हैं। इनके बीच पिस रही है मुस्लिम महिला।
खैर, मुस्लिम महिला को भारतीय संविधान तो दोयम दर्जे का नहीं मानता। अनु0-14 जीवन जीने का अधिकार देता है तो अनु0-15 धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता। अनु0-21 जीवन जीने का अधिकार देता है तो अनु0-25 हर नागरिक को धार्मिक स्वतन्त्रता देता है। इसके अंतर्गत ही भारत में मुस्लिमों को अपने पर्सनल लॉ के नियम में छूट मिली हुयी है। इसके साथ ही अनु0-44 में समान नागरिक संहिता को राज्य का दायित्व कहा गया और अनु0-51 में संविधान को मानना हर भारतीय का कर्तव्य माना गया। तीन तलाक के बिल के कानून बनने की स्थिति में मुस्लिम महिलाओं को अपने अधिकारों को प्राप्त करने का एक रास्ता और मिल जाएगा।
……………………………………………………………………………………………………………………………………………………….
बिना शौहर की सहमति से महिला नहीं दे सकती तलाक
पुरुष के विपरीत स्त्री अगर अपने शौहर को तलाक देना चाहे तो वह तीन तलाक कहकर तलाक़शुदा नहीं हो सकती है। इसके लिये उसे अपने पति से सहमति लेनी होती है। इस तलाक को खुला कहा जाता है। विडम्बना देखिये कि स्त्री बिना अपनी मजऱ्ी के पति के द्वारा तलाक कह देने से तलाक़शुदा तो हो जाती है किन्तु बिना पति की सहमति के उसे तलाक भी नहीं दे सकती है। पत्नी के पास किसी भी न्यायिक प्रक्रिया के द्वारा बिना अपने पति की सहमति के तलाक देने का अधिकार भी नहीं है। मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम,1939 की धारा-2 में पत्नी के लिये तलाक के प्रावधान तो दिये गये किन्तु उसमें भी सिर्फ मुस्लिम धर्म की प्रथाओं को अमली जामा पहना दिया गया। कोई गुणात्मक सुधार नहीं किया गया। तलाक के जो आधार इसमें रखे गये उसमें पति के लापता होने, भरण पोषण में कमी, नपुंसकता, पागलपन आदि आधार रखे गये।
हां, इसमें तलाक के लिये यौवनागमन के विकल्प का अधिकार शामिल है। यौवनागमन (निकाह) के समय लड़की की उम्र कम से कम 09 साल होनी चाहिए। उसके साथ निकाह करने वाले पुरुष की अधिकतम उम्र का कोई जि़क्र नहीं है। हालांकि, पुरुष की कम से कम उम्र 12 वर्ष रखी गयी है। सादिक़ अली खान (1937) के वाद में यदि 15 साल से कम उम्र की लड़की का निकाह उसके संरक्षक द्वारा कर दिया गया है तो जब तक वह 15 वर्ष की नहीं हो जाएगी वह अपने निकाह को तलाक में तब्दील नहीं कर सकती है। 15 वर्ष की होने के बाद ही वह तलाक ले सकती है। किन्तु उसमें भी एक शर्त यह है कि उसके साथ समागम नहीं हुआ हो। इसके पहले यदि उसके साथ समागम हो चुका है तो वह तलाक के लिये आवेदन भी नहीं कर सकती है। अब इसमें क्या कहा जा सकता है। यह शर्त ही विरोधाभासी लगती है।

शादी और तलाक से संबन्धित विभिन्न धर्मों के लिये बने भारतीय कानून

– द कन्वर्ट्स मैरिज डिसोलुशन एक्ट,1866
– द इंडियन डिवोर्स एक्ट,1869
– द इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट,1872
– द काज़ी एक्ट,1880
– द आनंद मैरिज एक्ट,1909
– द इंडियन सक्सेशन एक्ट,1925
– द चाइल्ड मैरिज रेस्ट्रेंट एक्ट,1929
– द पारसी मैरिज एंड डिवोर्स एक्ट, 1936
– द डिसोलुशन ऑफ मुस्लिम मैरिज एक्ट,1939
– द स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954
– द हिन्दू मैरिज एक्ट,1955
– द फ़ॉरन मैरिज एक्ट,1969
– द मुस्लिम वीमन(प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डिवोर्स एक्ट),1986
……………………………………………………………………………………………………………………………………………………….

धड़ाधड़ विधेयक पास, राज्यसभा में बहुमत का इंतज़ार
भाजपा के पास लोकसभा में तो पर्याप्त बहुमत है किन्तु जब किसी बड़े विधेयक को राज्यसभा में पास कराने की बारी आती है तब भाजपा एवं एनडीए चूक जाता है। कई महत्वपूर्ण बिल मानसून सत्र में लोकसभा से पास हो चुके हैं। 2020 तक भाजपा के पास राज्यसभा में भी पूर्ण बहुमत होने जा रहा है। इसके बाद शायद भाजपा की सरकार उन विषयों पर भी कार्य करेगी जिसकी अपेक्षा उसका वोट बैंक उससे लगातार कर रहा है। 370, राम मंदिर और समान आचार संहिता जैसे विषयों को बिना राज्यसभा में बहुमत के छूना समझदारी वाला कदम नहीं है।

मोदी सरकार ने आते ही अपने काम की रफ्तार पकड़ ली है। सरकार गठन के बाद पहले ही मानसून सत्र में सरकार ने कई बड़े विधेयक लोकसभा से पास करा लिए हैं। जम्मू कश्मीर आरक्षण संशोधन बिल, तीन तलाक बिल, मोटर विहीकिल संशोधन बिल, आरटीआई संशोधन बिल, कंपनी संशोधन बिल, एनआईए संशोधन बिल जैसे प्रमुख विधेयक इस मानसून सत्र में लोकसभा से पास हो गए हैं। किन्तु इस तेज़ी से काम कर रही सरकार के साथ एक पेंच अभी भी फंसा हुआ है। लोकसभा में बहुमत के आंकड़े से काफी ऊपर सीटें होने के बावजूद भाजपा सरकार अक्सर बड़े बिलों को राज्यसभा में पास करने से चूक जा रही है। तीन तलाक बिल को तीसरी बार लोकसभा ने पास किया है। मोटर विहीकिल एक्ट, सिटिजऩशिप एक्ट जैसे विधेयक भी राज्यसभा में बहुमत न होने से अटक रहे हैं। लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भारतीय जनता पार्टी का अगला मिशन अब राज्यसभा में बहुमत पाने का है। 245 सीटों वाली राज्यसभा में अभी भाजपा के कुल 75 सांसद हैं। एनडीए के पास अभी 115 सांसद हैं। नवंबर 2020 में एनडीए को 19 राज्यसभा सीटें और मिल जाएंगी। इनमें से ज्यादादर उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, गुजरात और मध्य प्रदेश से मिलेंगी। इन प्रांतों की सीटों को जीतने के बाद गठबंधन की राज्यसभा में 125 सीटे हो जाएंगी, जबकि इस सदन में बहुमत के लिए केवल 123 सीटें चाहिए। उसके बाद पिछले 15 सालों में यह भारत की पहली ऐसी सरकार होगी जिसका देश के उच्च सदन में बहुमत होगा। इनमें से अधिकतर सीटें उत्तर प्रदेश, 6 सीटें तमिलनाडु, 3 सीटें असम, दो राजस्थान और शायद 1 सीट ओडिशा, एक-एक सीटें कर्नाटक, मिजोरम, मेघालय, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड से भी मिलेंगी। राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से कुछ सीटों का नुकसान भी होगा। इसी साल (2019) के आखिरी महीनों में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड विधानसभा के चुनाव में एनडीए के प्रदर्शन पर भी काफी कुछ निर्भर है।
भाजपा के राज्यसभा में बहुमत आते ही इस सरकार की गति काफी तेज़ होने की उम्मीद है। संघ की विचारधारा के मुद्दे भी तब यह सरकार छूयेगी ऐसी भी उम्मीद है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का राम मंदिर से जुड़ा एक बयान भी महत्वपूर्ण है। उनका कहना है कि ‘राम का काम करना है और राम का काम तो हो कर रहेगा। राम का काम अपना ही काम है, अपना काम हम खुद करेंगे। भारत का महाशक्ति बनना बाकी देशों के महाशक्ति बनने से अलग रहेगा। शक्ति, शक्ति है। उसका उपयोग राम करते हैं तो दूसरी बात है, रावण करता है तो दूसरा मतलब।Ó इस बयान के मायने साफ है। राम मंदिर विषय को संसदीय प्रक्रिया से छूने के लिए सही समय का इंतज़ार है। अमित शाह के गृहमंत्री बनने के बाद से कश्मीर में जिस तरह भाजपा की सक्रियता बढ़ी है और जम्मू कश्मीर आरक्षण संशोधन विधेयक को लोकसभा से पास करा लिया गया है वह सरकार के आगे के रोड मैप की दिशा दिखा रहा है। अब तो सरकार को बॉलीवुड से भी समर्थन मिलने लगा है। अपने पहले कार्यकाल में मोदी को बॉलीवुड से भी चुनौती मिली थी। पुरुस्कार वापसी गैंग लगभग अपने एजेंडे में कामयाब हो गया था किन्तु तब राष्ट्रवादी विचारधारा वाले कलाकार खुल कर सामने नहीं आए थे। कुछ समय बाद अनुपम खेर ने कश्मीरी पंडितों का मामला बड़े स्तर पर प्रचारित करना शुरू किया तब बॉलीवुड में एक माहौल बना। अब एक ओर पायल रोहतगी खुल कर हिन्दुत्व के एजेंडे पर काम कर रही हैं तो फ़ैयाज़ खान अपने विवादित बयानों के कारण सलाखों के पीछे हैं। मॉब लिंचिंग का विरोध करने वाले 49 फिल्मी कलाकारों के सामने अब 62 राष्ट्रवादी सितारे आ खड़े हुये हैं। इसके साथ ही सरकार के आत्मविश्वास की झलक सदन में लगातार दिख रही है। आजम खान के विवादित बयान पर पूरी भाजपा ने उनको घेरा। चुनावों के दौरान जयाप्रदा पर उनका बयान उन्हें पहले ही नारी विरोधी दिखा चुका था और अब तो आज़म खान एक विलेन के रूप में नजऱ आने लगे हैं। शायद जैसे जैसे समय आगे बढ़ेगा और राज्यसभा में बहुमत आएगा, सत्रहवीं लोकसभा का कार्यकाल रोचक एवं ऐतिहासिक बनता जाएगा।
-अमित त्यागी
……………………………………………………………………………………………………………………………………………………….

संसद में धुआधार तरीके से खेल रही एनडीए-2 सरकार

17वीं लोकसभा के पहले सत्र में एनडीए सरकार इतिहास रचने की तरफ बढ़ गयी है। विपक्ष में दिख रहा बिखराव भी सरकार के लिए मुफीद बन रहा है। संसद का बजट सत्र लगभग 10 दिन के लिए बढ़ाया गया है। गौरतलब है कि इस बजट सत्र में रिकॉर्ड नंबर में बिल पेश किए गए हैं और सरकार उनको पारित करने का मन बना चुकी है। सरकार ने लोकसभा में 10 और राज्यसभा में लगभग 16 विधेयकों को पारित करने की मंशा जताई है। उधर संसद में सरकार के कामकाज को लेकर नाराज विपक्ष की लामबंदी भी शुरू हुयी है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार सदन की प्रक्रिया को दरकिनार करके एक के बाद एक तमाम बिलों की झड़ी लगा रही है। विपक्ष के नेताओं का कहना है कि बिजनेस एडवाइजरी कमिटी सिर्फ टाइम आवंटन करने वाली मशीन बन गई है। इसकी साख गिरती जा रही है। जिस तरह सरकार दोनों सदनों के कामकाज में नियम कायदों को ताक पर रख रही है, उससे इस प्रक्रिया से विश्वास उठता जा रहा है।
……………………………………………………………………………………………………………………………………………………….

लाचार विपक्ष, हताश कार्यकर्ता

विपक्ष का कमजोर होना सत्ता पक्ष को निरंकुश बनाता है। भाजपा जब तक विपक्ष में रही उसने मजबूती से इसका निर्वाह किया। सरकार को घेरने का कोई मौका वे लोग नहीं चूकते थे। आज हालात पूरी तरह बदल चुके हैं। आज का विपक्ष सिर्फ लचर नहीं है बल्कि लाचार है। उसके पास न कोई राष्ट्रव्यापी सोच है, न कोई राष्ट्रव्यापी नेता है और न ही कोई राष्ट्रव्यापी वोट बैंक। तीन तलाक या किसी भी बिल पर संसद में भाजपा को घेरने के लिए उनके पास न संख्या है और न ही हौसला। भाजपा की सहयोगी जेडीयू अगर राज्यसभा में भाजपा का साथ नहीं देती है इस पर विपक्षियों की कुछ उम्मीद बंध जाती है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के पास तो ऐसा कोई प्रेरणादायी नेतृत्व भी नहीं है जो उसे सम्मानजनक स्थिति का आभास करा सके। रही सही कसर परिवारवाद की राजनीति पूरी कर देती है। प्रेरणादायक नेतृत्व के अभाव के कारण कांग्रेस के हाथ से कर्नाटक तो गया ही है, अब गोवा भी जाने की तैयारी में है। मध्य प्रदेश पर भी चर्चाओं का बाज़ार गरमाने लगा है।
लोकसभा चुनाव के बाद से ही राहुल गांधी ने स्पष्ट कर दिया था की वह राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोडऩा चाहते हैं। जिस तरह से कांग्रेस के अंदर के कार्यकर्ता राहुल गांधी के विश्वास पर खरे नहीं उतर रहे हैं उससे राहुल गांधी के अंदर भी हताशा साफ दिख रही है। पहले कार्यकर्ताओं का राहुल पर भरोसा नहीं था तो अब राहुल गांधी का अपने नेताओं पर भरोसा खत्म हो रहा है। अशोक गहलौत और कमलनाथ अपने परिवार के साथ कांग्रेस को अपनी व्यक्तिगत जागीर मान कर चला रहे हैं। इसका दुष्प्रभाव कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों में झेला जहां 4 महीने पहले जीतने वाले राज्यों में कांग्रेस हार गयी। ऐसा ही कुछ सपा बसपा में भी है। मायावती ने अपने भतीजे को बसपा की कमान देकर अपने कार्यकर्ताओं को हताश कर दिया है। सपा में अखिलेश यादव का परिवार ही अब सपा है। ऐसे में भाजपा का विपक्ष सिर्फ लचर नहीं है बल्कि लाचार है। अब इन लाचारों से सदन के अंदर भाजपा का विरोध करने एवं तीखी बहस करने की अपेक्षा भी कैसे की जा सकती है।
– अमित त्यागी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *