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खतरे में क्या : हिंदुत्व या इस्लाम?

मोदी के दूसरे कार्यकाल में वामपंथी विचारधारा के पोषक कुछ लोग एवं बॉलीवुड के कलाकार अब प्रधानमंत्री पर चि_ी लिखकर दबाव बना रहे हैं। लोकसभा चुनाव 2019 के परिणाम के बाद देश में एक नए तरह के राजनीतिक वातावरण का उद्गम हुआ है। इसमें धार्मिक आस्था के प्रश्न जो नितांत निजी होते थे वह अब सार्वजनिक रूप से राजनीतिक रंग लेने लगे हैं। चुनाव पूर्व बंगाल में भाजपा और ममता बनर्जी के बीच की नूराकुश्ती से वहां चुनाव के पहले खूब हिंसात्मक संघर्ष हुआ। लोकसभा चुनावों में भाजपा को इसका फायदा हुआ। ममता बनर्जी ने मुस्लिम वोटों को प्रभावित करने में सफलता प्राप्त की। लोकसभा चुनाव के बाद पूरे देश में इस तरह की घटनाएं बढ़ चढ़ कर सुनाई देने लगीं। सिर्फ एक दो स्थानों पर नहीं बल्कि कई प्रदेशों में ऐसा दिखाई दिया। इसके बाद जो एक नया परिदृश्य सामने आया वह और भी भयावह था। इसमें हिन्दुओं से अपील की गयी कि वह मुसलमानों से सामान न खरीदें तो दूसरे पक्ष ने मुसलमानों से अपील की कि वह हिन्दुओं से सामान न लें। यानि कि इस खाई को पाटने के स्थान पर इस पर राजनीति की शुरुआत राजनीतिक दलों ने आरंभ कर दी। एक तरफ मोदी देश की अर्थव्यवस्था को पांच साल में दुगुनी करने की बात कर रहे हैं तो दूसरी तरफ व्यवस्था के छिद्र उसमें पलीता लगा रहे हैं। एक तरफ मोदी मुसलमानों को कई योजनाओं से आगे बढ़ाते दिख रहे हैं तो दूसरी तरफ भगवा ब्रिगेड इसको मोदी का मुस्लिम तुष्टीकरण मान रही है। भगवा ब्रिगेड राम मंदिर, 370 एवं जनसंख्या नियंत्रण कानून पर काम न होने से मोदी से नाराजगी दिखाती चली जा रही है। इस बीच एक अच्छी खबर यह भी आई कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने बीफ के अंतर्गत गौमांस पर रोक लगा दी है। इसके बाद भगवा ब्रिगेड का गुस्सा शायद अपनी सरकार पर कुछ कम हो सकता है। अब जब देश एक वित्तीय महाशक्तिबनने की राह पर आगे बढ़ चला है तो धार्मिक कट्टरता उसमें बाधा बनती दिख रही है। व्यवस्था की खामियां उन बाधाओं को और बढ़ा रही हैं। लोग कानून अपने हाथ में ले रहे हैं। उन्हें अब न पुलिस पर भरोसा है न प्रशासन पर। न कानून और न्यायपालिका पर वह भरोसा कर रहे हैं और न ही चुनी हुयी सरकार पर। सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में हर हाथ में मोबाइल है और सूचनाएं तेज़ी से प्रसारित हो रही हैं। इन सूचनाओं को ही ज्ञान मानने वाला भारत का आम जनमानस किसी भी घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया दे रहा है। लिंचिंग की घटनाओं में जितना पक्ष दिखाई दे रहा है उससे भी बड़ा एक पक्ष अभी अदृश्य है। एक तरफ एक पक्ष 2019 में मोदी की जीत को हिन्दुत्व की जीत बता रहा है तो दूसरी तरफ मुस्लिमों में एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो मोदी की 2019 की जीत को हिन्दुत्व की जीत बताकर मुस्लिमों को भड़काने की कोशिश कर रहा है। वह समाज में यह संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि भारत में सिर्फ हिन्दू रहने दिये जाएंगे। इसका दुष्प्रभाव यह हो रहा है कि मुस्लिम समाज की अशिक्षा का फायदा उठाकर यह लोग माहौल अशांत करने में लगातार कामयाब हो रहे हैं। ऐसे लोगों के इरादों को भगवा ब्रिगेड के आक्रामक लोग और हवा देते दिख रहे हैं। पुरुस्कार वापसी गैंग के द्वारा असहिष्णुता को मोदी के पहले कार्यकाल में भुनाने का खूब प्रयास हुआ था। अब वही गैंग एक नए कलेवर के साथ मॉब लिंचिंग के नाम पर अल्पसंख्यकों और दलितों के शोषण का विषय उठा रहा है। वैश्विक परिदृश्य में मुस्लिम और ईसाई देशों के निहित स्वार्थ इस आग में और तड़का लगा रहे हैं। ये परिदृश्य सिर्फ हिन्दू मुस्लिम का विषय न होकर भारत की अखंडता से जुड़ा हुआ है जिसकी जड़ें अमेरिका-रूस के हथियार उद्योग, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव, चीन के व्यापारिक दृष्टिकोण एवं भारत के बड़े वैश्विक बाज़ार तक फैली हुयी हैं।
अमित त्यागी
भारत के प्रधानमंत्री मोदी का दूसरा कार्यकाल इतना वैश्विक चुनौतियों से भरा हुआ नहीं है जितना घरेलू मोर्चे पर मोदी को घेरने की कोशिश चल रही है। 2014 में मोदी की जीत के बाद से बौखलाई विश्व की कई बड़ी अदृश्य शक्तियां मोदी को 2019 में कमजोर करने की लगातार कोशिश कर रही थीं। मोदी को अपनी पार्टी के अंदर और बाहर दोनों तरफ से लगातार कमजोर करने के प्रयास हो रहे थे। मिशन 180, मिशन 220 जैसे कई खेल मोदी के खिलाफ लगातार चलाये जा रहे थे। मोदी की जीत के बाद से राजनीतिक विपक्ष तो जैसे नेस्तनाबूद हो गया है किन्तु विपक्षी खेमा अभी भी शांत नहीं है। वह अभी भी उन विषयों पर ज़्यादा ध्यान केन्द्रित करता दिख रहा है जिनसे पहले भी मोदी की छवि पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। मोदी के पहले कार्यकाल के प्रारम्भिक दिनो में एक बड़ा वर्ग ऐसा था जिसने पुरुस्कार वापसी के जरिये भारत में असहिष्णुता बढऩे का दावा किया था। तब भी कभी आंकड़े दिखाकर तो कभी अखलाक के बहाने असहिष्णुता को साबित किया गया। देश के बड़े बड़े लेखक, फिल्मी सितारे उस दौरान एक मंच पर आए और उन्होंने असहिष्णुता को एक अच्छे से कलेवर में विश्व के सामने प्रस्तुत किया। उन सबको अपेक्षा थी कि ऐसा करके वह मोदी को कमजोर कर सकेंगे और देश की जनता में एक संदेश दे पाएंगे। मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले दलों को यहां मुंह की खानी पड़ी। उनका अपना वोट बैंक तो उनके साथ नहीं आया बल्कि इसके विरोध में मोदी का वोट बैंक एकजुट होता चला गया। एक के बाद एक राज्य भाजपा जीतती चली गयी और मोदी को जनता का आशीर्वाद मिलता रहा। अब वही लोग इस बार एक नया शिगूफ़ा मॉब लिंचिंग का लेकर आए हैं। इस बार उन्होंने सिर्फ शब्द नया गड़ा है भावनाएं वही हैं। और आम जनता के मन में इन लोगों से आज भी वही सवाल हैं कि जब कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार हो रहे थे तब यह पुरुस्कार वापसी और मॉब लिंचिंग गैंग कहां था? जब किसी हिन्दू पर हमला होता है तब यह लोग क्यों खामोश रहते हैं? तब इनकी मानवीय संवेदनाएं कहां चली जाती हैं? क्यों यह लोग ऐसे पत्र लिखते हैं जो वाशिंगटन पोस्ट या विदेशी मीडिया को ज़्यादा रास आते हैं? इस पर यह सब ऐसे खामोश हो जाते हैं जैसे कभी ऐसी कोई घटना हुयी ही न हो। इन दोहरे मापदण्डों के कारण ही ये गैंग न पहले जनता की सहानुभूति प्राप्त कर पाया था न आज कर पा रहा है।
मॉब लिंचिंग के बहाने निशाने साधने वाले लोगों पर बात करने से पहले जऱा अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य को समझते हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रम्प अपने दूसरे कार्यकाल को प्राप्त करने के लिए लगातार हाथ पैर मार रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में एक पैटर्न यह रहा है कि वहां अमेरिकी राष्ट्रपति के दूसरे कार्यकाल में जाने से पहले एक युद्ध होता है। इसके द्वारा अमेरिका में युद्ध के हथियार बेचने वाले व्यापारियों को बड़ा मुनाफा होता है और वह वहां के राजनीतिक दलों को बड़ी रकम चंदे के रूप में देते हैं। हालांकि, अमेरिका हथियारों का एक बड़ा उत्पादक देश है किन्तु अब उसे रूस से इस क्षेत्र में कड़ी चुनौती मिल रही है। रूस ने हथियारों के उत्पादन के क्षेत्र में पिछले एक दशक में बड़ी सफलता हासिल की है। अब अमेरिका के सामने चुनौती यह है कि अगर वह राष्ट्रपति चुनाव के पहले कहीं युद्ध करता है तो उसके द्वारा दिये गए हथियारों के डेमो का फायदा कहीं रूस न ले जाये। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प का उत्तर कोरिया जाकर किम जोंग से मिलना भी एक बड़ा संदेश है। अमेरिका में ट्रम्प की लोकप्रियता कुछ उसी प्रकार की है जिस तरह की मोदी की भारत में है। दोनों नेता कॉर्पोरेट और जनता में पसंद किए जाते हैं। दोनों को राष्ट्रवादी विचारधारा का पोषक माना जाता है। अमेरिका में बड़ी मात्रा में भारतीय रहते हैं जो ट्रम्प के समर्थक हैं। पिछले चुनाव में उन्होंने ट्रम्प के लिए वोट किया था। ट्रम्प डेमोक्रेट हैं जो भारत में भाजपा की करीबी है। उनकी विपक्षी रिपब्लिक पार्टी की कांग्रेसी विचारधारा से करीबी रही है। ट्रम्प के कमजोर होने से मोदी कमजोर होंगे और मोदी के भारत की छवि खराब दिखने से अमेरिका में ट्रम्प कमजोर होंगे।
अब इस बात को थोड़ा और गहराई से समझें तो पुरुस्कार वापसी गैंग, असहिष्णुता की बात करने वाला वर्ग और अब मॉब लिंचिंग पर चि_ी लिखने वाले अपनी चि_ी वाशिंगटन पोस्ट के सामने ज़्यादा सार्वजनिक करना चाहते हैं। भारत में उनकी चि_ी को ज़्यादा बल मिले या न मिले। इस पर वह चिंतित दिखाई नहीं देते हैं। ऐसा लगता है जैसे वह लोग समस्या के वास्तविक सुधार से ज़्यादा किसी को दिखाने के लिए यह काम कर रहे हों। अब वापस भारत के परिदृश्य पर आते हैं। व्यवस्था की खामियों से उपजी कई घटनाओं को हिन्दू मुस्लिम का रंग देना समझ से परे है। यह हमें भी समझना होगा कि हमारा समाज अब किधर जा रहा है। भीड़ क्यों अपने हाथ में कानून लेने लगी है? इसकी वजह है हमारी सड़ी गली व्यवस्था। कानून का डर न होना। पुलिस प्रशासन पर भरोसा न होना। न्याय प्रक्रिया का सुस्त होना। जब भी कहीं कोई घटना घटित होती है तब अगर आरोपी अगर एक बार भीड़ के हत्थे चढ़ जाता है तो भीड़ उसको स्वयं दंडित करना चाहती है। मॉब लिंचिंग की घटनाओं में अक्सर देखा जा रहा है कि जैसे किसी घटना में किसी की गाय या पशु चोरी हो गया तो उसने अपने स्तर से चोर को ढूंढ लिया। बाद में उसको पीट पीट कर मार डाला। अगर ऐसी घटना में पीडि़त मुस्लिम या दलित वर्ग से होता है तो उसे मॉब लिंचिंग का नाम दे दिया जाता है। अगर इन वर्ग से नहीं होता है तो उसे साधारण घटना मान लिया जाता है।
व्यवस्था से पीडि़त भीड़ करती है हिंसा
भारत में कानून और न्याय व्यवस्था की प्रक्रिया इतनी जटिल एवं सुस्त है कि यहां वर्षों तक न्याय ही नहीं मिल पाता है। साढ़े तीन करोड़ केस अभी भी अदालतों में लंबित हैं। स्वयं उच्चतम न्यायालय इस बात को मान चुका है कि इतनी बड़ी संख्या में वादों के निपटारे के लिए उन्हें 70 हज़ार नए जजों की आवश्यकता है। एक आंकड़े के अनुसार भारत की अदालतों में लगभग 3 करोड़ याचिकाकर्ताओं के 3.15 करोड़ मुक़दमें लंबित हैं। इस तरह हर चौथा वयस्क भारत में मुक़दमेबाज़ी के पेंचों में उलझा है। यदि रफ्तार इस तरह ही बढ़ती चली जाती है तो आने वाले बीस सालों में हर दूसरा व्यक्ति भारत में कोई न कोई मुकदमा लड़ रहा होगा।
अब दायर याचिकाओं पर आये फैसलों एवं लंबित याचिकाओं के भविष्य के आंकड़े पर गौर करते हैं। 1950 में गठित किये गये भारत के उच्चतम न्यायालय ने अब तक लगभग 40,000 वादों में फैसला दिया है। मामलों को निपटाने के औसत के संदर्भ में यह 600 मामले प्रतिवर्ष बैठता है। अब अगर न्यायालय अपनी गति को लगभग दुगना करते हुये 1000 मामले प्रतिवर्ष निपटाने लगे तब भी वर्तमान मामलों को निपटाने में अभी 60 वर्ष और लग जायेंगे। यदि उच्च न्यायालय की तरफ देखें तो अगर कोई न्यायाधीश 500 फैसले प्रतिवर्ष सुनाता है तो वर्तमान के 640 न्यायाधीशों के हिसाब से मुकदमों के निस्तारण में 15 वर्ष का समय अभी और लगेगा। इसके एक कदम आगे यदि निचली अदालतों की बात करें तो लगभग 15,000 न्यायाधीशों के द्वारा 2.7 करोड़ वादों के निस्तारण में कम से कम दस वर्षों का समय तो लगेगा ही। न्यायपालिका पर इतना बोझ! और, अदालत में निर्णय देने वाले जज भी इंसान हैं, कोई देवता नहीं हैं। इसके साथ ही इससे जुड़ा हुआ एक तथ्य यह भी है कि भारत में प्रति 10 लाख की आबादी पर 14 जज काम कर रहे हैं। अन्य देशों की तुलना में ये बेहद कम हैं। ब्रिटेन में इतनी ही आबादी पर 50 जज एवं अमेरिका में 100 जज काम करते हैं। भारत में एक जज औसतन 2600 वादों को निपटा देता है जबकि अमेरिका में एक जज साल में सिर्फ 81 मामले ही निपटाता है। इतनी बड़ी संख्या में केसों का निपटान करने की स्थिति में न्याय की गुणवत्ता पर प्रभाव पडऩा स्वाभाविक है। ये आंकड़े इतने भारी भरकम हैं कि इनको सुनने मात्र से इंसान हाफने लगता है। सिर्फ आंकड़े ही नहीं वर्षों तक चलने वाले केस स्वयं इसकी तसदीक करते हैं।
वास्तव में देखा जाये तो पुरुस्कार वापसी गैंग को मॉब लिंचिंग नहीं बल्कि इस विषय को उठाना चाहिए। उनको विपक्षी दलों के साथ मिलकर सरकार पर दबाव बनाना चाहिए कि वह कानून और न्याय व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए बड़े बदलाव करे। ऐसे विषयों को ये लोग मीडिया के सामने लाएं। इन पर चि_ी लिखें। पर अफसोस यह है कि न तो विपक्ष और न ही ये आवाज़ उठाने वाले इन विषयों पर गंभीर हैं। सरकार तो खैर इन विषयों पर खामोश है ही। सब के सब अपने ही खेल में रंगे हुये हैं।
कैसे जीते जनता का भरोसा, क्या हो समाधान ?
विधि आयोग के अनुसार 10 लाख की आबादी पर 50 जज होने चाहिए। वर्तमान में इतनी आबादी पर सिर्फ 10 जज काम कर रहे हैं। अब अगर 70,000 नये जज के लिये मानव संसाधन जुटाने की चर्चा करें तो भारत में इस समय 12 लाख पंजीकृत अधिवक्ता हैं। 950 लॉ स्कूल से लगभग पांच लाख छात्र कानून की पढ़ाई कर रहे हैं। यदि पंजीकृत अधिवक्ताओं में से कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं से न्यायाधीश की भूमिका का निर्वहन करवाया जाएगा तो न्यायालय पर बोझ काफी कम हो सकता है। इसके साथ ही न्यायालयों के कामकाजी घंटों में बढ़ोत्तरी होनी चाहिए। पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर एम लोढ़ा ने एक बार कहा था कि अगर अस्पताल, विमान सेवा और रेलवे 24 घंटे और सात दिन काम कर सकते हैं तो न्यायालय क्यों नहीं? इसके साथ ही अंग्रेजों द्वारा डाली गयी ग्रीष्म-अवकाश की परिपाटी को खत्म किया जा सकता है। अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों के न्यायालय में इस तरह के अवकाशों की कोई परिपाटी नहीं है। मुख्य न्यायाधीश के द्वारा अवकाशों में भी काम करने के आह्वान को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तीन साल पहले आचरण में ले लिया था।
जनता का भरोसा जीतने के संदर्भ में अगर दूसरे बिन्दु पर चर्चा करें तो भारतीय न्यायालयों में सबसे अधिक मामले ज़मीन और संपत्ति विवाद के हैं। इन दीवानी मुकदमों के लिये कोर्ट फीस सिर्फ एक रुपये है। ज़मीन की कीमत लाखों-करोड़ों में होने के बावजूद मुकदमा एक रुपये में दाखिल हो जाता है। ऐसे में अनावश्यक मुकदमों से निपटने के लिये संपत्ति के मूल्य के अनुपात में ही कोर्ट फीस की जा सकती है। फर्जी मुकदमा करने वालों, दूसरे पक्ष को सिर्फ उलझाने के लिये न्यायालय का समय बर्बाद करने वालों पर सख्त कार्यवाही के द्वारा बोझ कम किया जा सकता है। यहां एक बेहद महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि सबसे बड़ी मुक़दमेबाज़ जनता नहीं है बल्कि सरकार है। कुल लंबित मामलों में से 70 प्रतिशत वाद सरकार से जुड़े हुये हैं। अफसरों के आदेशों और बला को टालने की प्रवृत्ति के चलते गेंद न्यायालय के पाले में डालने की परिपाटी चल रही है। चूंकि, ‘मामला न्यायालय में विचाराधीन है’ यह कहकर सरकारी कर्मचारी आसानी से अपना कार्यकाल बिना कुछ करे भी पूरा कर ले जाते हैं। इसके साथ ही सुधार के नाम पर की जाने वाली जनहित याचिकाओं पर भी कुछ अंकुश आवश्यक है। पर जनहित याचिकाओं का एक सकारात्मक पक्ष भी है। जब जनता के अधिकारों और अपेक्षाओं की सुनवाई सरकार के द्वारा नहीं होती है तब वह न्यायालय के माध्यम से अपना अधिकार प्राप्त करने का रास्ता चुनती है। यह सिर्फ एक वैकल्पिक माध्यम रखा गया था। आज यह अधिकार प्राप्त करने का मुख्य प्रावधान बनता जा रहा है जो लोकतन्त्र के लिये एक विचारणीय विषय है। इसके साथ ही अब लोगों को यह भी समझना होगा कि संवैधानिक व्यवस्था में न्यायालय का काम न्याय प्रदान करना है न कि अन्य को उलझाने का माध्यम बनना। समय और ऊर्जा सीमित है। ‘बोझ’ सीमाएं तोड़कर अपनी हद से बाहर जा चुका है। अब भारत में न्याय के क्षेत्र को ‘कंप्लीट बॉडी स्कैन’ की सख्त आवश्यकता है। मोदी के विपक्षियों को इस विषय को उठाना चाहिए। इसमें सुधार के बाद मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर जब निर्णय तेज़ी के साथ आएंगे तो ऐसी घटनाएं भी कम होने लगेंगी।
हिन्दू खतरे में है या मुसलमान बनाम नौकरशाही के कसते पेंच
यह विषय सिर्फ सियासत के लिए तो चर्चा का विषय हो सकता है किन्तु आम जनता के बीच ऐसा कुछ भी नहीं है। बौद्धिक वर्ग ऐसे विषयों को ड्राइंग रूम में बैठकर डिस्कस तो करता है किन्तु ज़मीन पर जाकर पीडि़तों के लिए काम करता नहीं दिखता है। मोदी को 2019 में 2014 के मुक़ाबले लगभग 6 प्रतिशत ज़्यादा मुस्लिम वोट मिला है। यह लोग इस बात को भी नहीं समझते हैं कि मोदी से शिकायत बौद्धिक वर्ग को तो हो सकती है किन्तु जिस गरीब को मोदी की नीतियों से फायदा मिला है वह इन घटनाओं से बेपरवाह है। इसी कारण पार्टी के अंदर और विपक्ष के भारी विरोध के बावजूद मोदी को प्रचंड जीत मिली। ऐसी जीत जिसकी कल्पना शायद खुद मोदी ने भी नहीं की थी। मोदी का आत्मविश्वास इस समय चरम पर है। वह हिन्दू मुस्लिम की राजनीति से ऊपर उठकर नौकरशाही को ठीक करने में लगे हैं। उनका व्यवहार कुछ ऐसा है जिसमें अब उन्हे जनता पर भरोसा है कि वह उन्हें ही वोट देगी। अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने नौकरशाही के पेंच कुछ कसे थे जिसके बाद नौकरशाही द्वारा उनको सहयोग नहीं दिया गया। इस बार उन्होंने मॉब लिंचिंग और अन्य घटनाओं पर चल रहे बवाल के बावजूद निर्णय लेना शुरू भी कर दिया है। मोदी एक बड़ी तैयारी के साथ इस बार व्यापक सुधार की रूपरेखा तैयार कर चुके हैं।
पिछली बार लेटरल इंट्री पर बवाल हुआ था लेकिन इस बार पूरी आईएएस लॉबी शांत बैठी है। जबकि इस बार पिछली बार से कहीं ज्यादा सचिव स्तर के पद निजी क्षेत्र के लोगों से भरे जाएंगे। वित्त मंत्रालय के कमिश्नर से लेकर ज्वाइंट कमिश्नर तक के 12 अधिकारियों को सरकार ने इस बार बाहर का रास्ता दिखा दिया है। सबसे बड़ी बात है कि इस पर कोई हो हल्ला नहीं हुआ है। इस तरह ही आईएएस और आईपीएस की लिस्ट बन गयी है अगला नम्बर उनका ही है। कॉलेजियम की राय को दरकिनार करते हुए एक राज्य में सरकार ने खुद मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कर दी। इस पर भी सन्नाटा पसरा रहा। रेलवे की कुछ बड़ी ट्रेनों में निजीकरण की शुरुआत हो गयी। उस पर रेलवे की यूनियन का भी कोई प्रदर्शन धरना नहीं सुनाई दिया।
शायद विपक्ष का नेस्तनाबूद होना इसको ही कहते हैं। इन विषयों पर विपक्ष को हंगामा करना चाहिए था। रेलवे का निजीकरण एवं व्यावसायीकरण पर ट्रेड यूनियन को प्रदर्शन करना चाहिए था। पर सब खामोश बैठे हैं। इन पर कोई कुछ नहीं बोल रहा है। बस मॉब लिचिंग के बहाने सिर्फ सतही मुद्दे को उठा रहे हैं और वह भी विदेशी ताकतों के इशारे पर। इसके साथ ही असली फर्क देखना हो तो नीति आयोग और योजना आयोग की कार्यशैली में देखिए। नीति आयोग के दिशा निर्देशन में देश में बड़े बदलाव होंगे और इन बदलावों में अब तक हावी रही ब्यूरोक्रेसी की जगह निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की महत्ता रहेगी। अगर समय रहते ही ब्यूरोक्रेसी लालफीताशाही की जगह रचनात्मक काम करती तो देश आज कहीं आगे खड़ा होता। बाकी ऊपर की बातों से समझा जा सकता है कि ये मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के शुरुआती दिनों के रुझान भर हैं। बाकी आगे आगे क्या होगा उसकी दिशा और गति समझने के लिए ये काफी है। मॉब लिंचिग की बात में सच्चाई तो है किन्तु उसको जिस रूप में दिखाया जा रहा है उससे लगता है कि यह हताश लोगों का समूह ही है जो ये सब करवा रहा है।
देश में वाद विवाद नहीं आंतरिक संवाद की है आवश्यकता
दो शब्द है जो हम लोग अपनी बोलचाल की भाषा में इस्तेमाल करते हैं। एक है आर्गुमेंट। दूसरा है डिस्कशन। दो पक्षों के बीच विवाद की स्थिति में एक पक्ष को सही साबित करने के लिए आर्गुमेंट किया जाता है। अदालत की कार्यवाही में आर्गुमेंट होता है और यह तय होता है कि कौन सही है। दूसरा शब्द है डिस्कशन जिसमें क्या सही है यह तय किया जाता है। इसमें दोनों पक्ष सही हो सकते हैं और दोनों गलत भी। इसके द्वारा समस्या के समाधान निकलते हैं। भारत की व्यवस्था डिस्कशन आधारित थी। यहां गांव में लगने वाली चौपाल पर तय हो जाता था कि क्या सही है। अंग्रेजों के द्वारा दी गयी व्यवस्था जिसे हम आज तक ढो रहे हैं उसमें हम आर्गुमेंट के आदी हो गए हैं। इस व्यवस्था में दोनों पक्ष सिर्फ जीतना चाहते हैं। समाधान की तरफ शायद दोनों नहीं बढऩा चाहते हैं। मॉब लिंचिंग, असहिष्णुता जैसे विषय आर्गुमेंट के नहीं डिस्कशन के विषय हैं। इसमें जीत हार नहीं समाधान महत्वपूर्ण है। वसुधैव कुटुंबकम को तो भारत में हमेशा समाहित किया गया है, इसलिए सिर्फ सकारात्मक चिंतन की आवश्यकता ही शेष है। बस एक बार भारतीय आर्गुमेंट के स्थान पर पारंपरिक डिस्कशन का रास्ता अख्तियार कर लें।
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देवबंद की शरीयत और कुरान की शरीयत में है बड़ा अंतर
मैंने जब तक मुस्लिम कानून की 800 वर्ष पूर्व इमाम मरगीनानी द्वारा लिखी गयी पुस्तक हिदाया नहीं पढ़ी थी तो मुझे आश्चर्य होता था कि जो लोग हिंसा और आतंकवाद कर रहे हैं वह अपने आप को इस्लाम से कैसे जोड़ते हैं। यह पुस्तक आज भी देवबंद, नदवा और दूसरे मदरसों के पाठ्यक्रमों का हिस्सा है। इस किताब को पढ़कर मैं हैरान रह गया कि इसमें हर उस बात को सही ठहराया गया है जो आतंकी करते हैं। इससे आगे बढ़कर देवबंद के उलेमा ने किताब के प्रावधानों पर जो टीका लिखी है वह तो हिदाया के अपने प्रावधानों को भी पीछे छोड़ देती है। मसलन अशरफूल हिदाया में मुरतिदो (धर्म भ्रष्ट मुसलमान) के बारे में यह लिखा है कि उनसे तौबा करने की मांग की जायेगी। और तौबा से इंकार करने की सूरत में उसको कत्ल कर दिया जाएगा। इस पर टिप्पणी करते हुये मौलाना सय्यद अमीर आली और मौलाना मोहम्म्द अजमतुल्ला (देवबंदी उलमा) ने लिखा है कि ”वजह रहे कि दौरे हाजिर में फि़तना कादियानियत, आगा खनियत, राफ्जि़य़त, बहरायत का यह हुक्म है क्योंकि ये लोग भी ग़ुलाम अहमद कादियानी, आगा खान, अइम्मा असना अशरा (12 इमाम जिनके प्रति आम तौर पर सभी और खास तौर पर शिया मुसलमान विशेष श्रद्धा रखते हैं। ) और मुहम्मद अटकी बहाई वगैरह की लफजन या मानवी नबूव्वत के न सिर्फ कायल हैं बल्कि उनकी इशाअत पर भी मुसीर वो मशरूफ़ हैं।” (अशरफुल हिदाया, खंड 7, पृष्ठ 36 )।
यह पढऩे के बाद मैंने अपने एक जानने वाले देवबंदी आलिम से पूछा कि मैं स्वयं ऐसे कार्यक्रमों में जाता हूं जो इमामों की याद में मनाए जाते हैं और मैंने कभी किसी शिया को यह कहते नहीं सुना कि वह इमामों को नबी मानते हैं। फिर हिदाया में यह बात क्यों लिखी है? उन्होंने जवाब दिया कि यह लोग मुंह से ऐसा नहीं कहते हैं लेकिन अगर वह सारे इमामों कि इस्मत(शुचिता) को मानते हैं तो यह उनको नबी मानने के बराबर हैं। अब अगर गौर करें कि हम अगर देवबंद की दलील को मान लें तो फिर हमारा यह दायित्व हो जाता है कि जिनका उल्लेख हुआ है उनको धर्मभ्रष्ट माने और फिर उनके साथ वह करें जो नुस्खा हिदाया में लिखा हुआ है। कल्पना करें कि इसके परिणाम क्या होंगे। कहना अनुचित नहीं होगा कि पाकिस्तान में जिस तरह जुमे की नवाज़ों में बम चलाये जाते हैं या सीरिया में यजिदी संप्रदाय पर जो जुल्म हो रहे हैं वे इसी प्रकार की शिक्षा का परिणाम है।
कुरान उन आयतों से भरा पड़ा है जिनमें कहा गया है कि आस्था मन का विषय है शरीर का नहीं। धर्म दिल से माना जाता है, शारीरिक प्रताडऩा से नहीं। कुरान स्पष्ट शब्दों में ऐलान करता है कि धर्म के विषय में कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं (2.256) या तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म है और मेरे लिए मेरा धर्म है (109.6)। इससे भी आगे बढ़कर कुरान कहता है यदि तुम्हारा रब चाहता तो धरती में जितने लोग हैं सबके सब ईमान ले आते, फिर क्यों तुम लोगों को विवश करोगे कि वे ईमान वाले हो जाएं (10.99 )। इसी के साथ कुरान कहता है कि हमने तुममें से हरेक के लिए एक कानून और एक खुला रास्ता बनाया है। यदि अल्लाह चाहता तो तुम सबको एक समुदाय बना देता (5.48)। कुरान की इन बहुत सी आयतों को ध्यान में रखकर अब आप एक नजऱ उस पर डालें जो देवबंदी उलमा ने अशरफुल हिदाया में लिखा है। ‘शरीयत में जिहाद दीने हक़ की तरफ बुलाने और जो उसे कबूल न करे उससे किताल(लड़ाई) करने को कहते हैं (खंड 7, पृष्ठ 17)।’ इसी तरह जिहाद का जो मक़सद है यानि मुल्क से फसाद, बुराइयां शिर्क (बुतों की पूजा) और कुफ्ऱ के फितने को दूर करके अल्लाह ताला की तौहीद और अदल को कायम करना (खंड 7, पृष्ठ 18)। बुतपरस्तों को ग़ुलाम बनाना जायज़ है इसलिए उन पर जजिया लाजि़म करना भी जायज़ है। क्योंकि ग़ुलाम बनाने और जजिया वसूल करने में से हरेक काम से उनकी हैसियत और शख्सियत को छीनना लाजि़म आता है ताकि वह फसाद न करें। (झंड 7, पृष्ठ 111)
देवबंद वाले जिसे शरीयत कहते हैं वह किताब ऐसी कई बातों से भरी पड़ी है। दूसरी तरफ कुरान इंसानों की रायों को नहीं बल्कि अपनी आयतों को शरीयत कहता है। मैंने 22 मार्च 2008 में देवबंद वालों को खत लिखकर अनुरोध किया था कि आज हिदाया किसी देश का कानून नहीं है इसलिए या तो इसे पाठ्यक्रम से निकाल दें या फिर इसको मुस्लिम कानून के इतिहास के रूप में पढ़ाएं और इसे शरियत न कहें। आज तक मैं देवबंद से जवाब का इंतज़ार कर रहा हूं। (यह लेखक के प्रकाशित लेख का एक भाग है। )
-आरिफ़ मोहम्म्द खान (पूर्व केन्द्रीय मंत्री )
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न्यायिक सुधार के कुछ त्वरित समाधान एवं सुझाव प्ली बारगेनिंग
अमेरिका एवं यूरोपीय देशों की तजऱ् पर इसे भारत में बढ़ावा दिया जा सकता है। इसमें आरोपी अभियोजन पक्ष के वकील के सामने अपना आरोप कबूल कर लेता है और उसके बदले में उसकी सज़ा में कुछ रियायत कर दी जाती है। इसके द्वारा न्यायालय का समय बच जाता है।
नो विन – नो फीस
ब्रिटेन, वेल्स एवं अमेरिका में एक चलन है कि सिर्फ मुकदमा जीतने पर ही वकील को फीस दी जाएगी। ऐसे में वकील सिर्फ वही केस हाथ में लेते हैं जिसमें वह तथ्य देख रहे होते हैं एवं अपने मुवक्किल को जिता सकते हो। मुकदमों की बाढ़ को रोकने में यह तरीका कारगर है।
आर्बिट्रेशन या वाह्य समझौता
संपत्ति से जुड़े विवाद, पारिवारिक मसले एवं विवाह से संबन्धित मसलों में यह महत्वपूर्ण है। इस तरह के मसलों को निपटाने के लिये सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर द मेडियशन एंड कंसिलेयेशन प्रोजेक्ट कमिटी का गठन किया जा चुका है। इसको प्रोत्साहित करके न्यायालय का काफी बोझ कम हो सकता है।
स्टे ऑर्डर की कम समय सीमा
भारत में स्टे ऑर्डर का उपयोग से ज़्यादा दुरुपयोग किया जाता है। यदि कोई भूमि 10-20 सालों तक ऐसी ही पड़ी रहती है तो या तो उसकी उत्पादकता समाप्त हो जाती है या उस पर अन्य कब्जा आदि कर लेते हैं। स्टे ऑर्डर की समयसीमा निश्चित होनी चाहिए एवं एक साल से ज़्यादा स्टे नहीं दिया जाना चाहिए।
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अमेरिका और ब्रितानी हुकूमत में होती रही है असली लिंचिंग
भारत में जिन घटनाओं को लिंचिंग कहकर प्रचारित किया जा रहा है वास्तव में वह लिंचिंग नहीं कुछ और है। पश्चिम और अमेरिका में भारत की छवि खराब करने का यह षड्यंत्र व्यवस्था के आक्रोश से उपजी खामी है। लिंचिंग क्या होती है इसको अमेरिका के आंकड़े बेहतर समझा सकते हैं। आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार 1870 -1950 के बीच करीब 4000 काले लोगों को अमेरिका में लिंचिंग करके मारा गया। ब्रितानी हुकूमत ने तो सारी दुनिया के काले लोगों को ग़ुलाम ही मान लिया था। सिर्फ इतना ही नहीं उनका मानना था कि जब तक वह ईसाई धर्म को नहीं अपनाते हैं तब तक अपने कालेपन के पाप से छुटकारा नहीं पा सकते। अगर इस आंकड़े को देखेंगे तो वह लाखों में जाएंगे। सबसे पहले तो हमें ये जान लेना चाहिए की भारत में जिसे लिंचिंग कहा जा रहा है वह पाश्चात्य सभ्यता के अनुसार का लिंचिंग नहीं बल्कि कुछ और है।
जिसे हम लिंचिंग कह रहें हैं वो इस देश में हमेशा से होता आ रहा है फर्क सिर्फ इतना है कि पिछले 4-5 सालों से मीडिया में रिपोर्ट होने लगा है। हमारा देश क़ानून से ज़्यादा समाज से चलता है। न कानून व्यवस्था वैसी है और न ही इतनी मात्रा में पुलिस फोर्स जो हर गांव, कस्बों तक पहुंचे। जहां अमेरिका में एक कॉल पर पुलिस को पूरी तैयारी से पहुंचने में औसतन 3:30 मिनट लगते हैं वहीं हमारे देश में ये मामला घंटो का होता है। अगर पुलिस हाथ में लाठी लेकर पहुंच भी जाए तो भी आम जनता लिंचिंग करने को ताकत जुटाती है या यूं भी कह सकते हैं कि विकल्पहीनता के कारण मजबूर होती है। वजह साफ है जब उसे अपने इलाके की कानून व्यवस्था पर कोई भरोसा नहीं है तो वह यह कदम ही उपयुक्त समझती है। कानूनी/कोर्ट कार्यवाही में कितना समय लगता है ये हम सब जानते हैं। अगर कुछ आंकड़े देखें तो प्रत्येक वर्ष इस देश में 40,000 से ऊपर बच्चे गुमशुदा हो जाते हैं, वो कभी नहीं मिलते। पिछले 4 सालों में लगभग 42 लिंचिंग के रिपोर्ट आयी हैं जिसमें से 12 ऐसी हैं जिसे धर्म से जोड़कर देखा जा रहा है। पर बच्चों के तरह ही इस देश में हर साल 3.5 लाख से 4 लाख गायों की गैर-क़ानूनी और चुरायी हुयी तस्करी होती है। अगर धर्म के बात छोड़ भी दे तो कृषि प्रधान देश होने के नाते इस देश की और किसान परिवारों की अर्थव्यवस्था गौ वंश पर निर्भर है। जहां इंसान के बच्चे खो जाने पर नहीं मिलते हों वहां कोई गौ के चुराये जाने पर पुलिस के सक्रिय होने की कल्पना करे यह तो असंभव सा ही लगता है। हां, किसी अरबपति का कुत्ता खो जाए या आज़म खान की भैंसे हों तो पुलिसफोर्स और मीडिया सब उस पर लग जाते हैं। ऐसे परिस्थिति में गायों का समाज मजबूरन अपने और अपने मवेशियों की रक्षा के लिए खुद तैयार होते हैं। वह घटनाओं को रोक तो नहीं पाते हैं किन्तु अगर कोई पकड़ा जाए तो उस पर उसी वक्त कार्यवाही कर देते हैं। क्योंकि भीड़ में उपस्थित लोगों में हर व्यक्ति किसी न किसी स्टार पर व्यवस्था से परेशान होता है तो डबल्यूएच सब अपना हाथ साफ करते हैं।
4 वर्ष में 42 लिंचिंग के रिपोर्ट से हिंदुस्तान को लीनचिस्तान का नाम देने का काम कुछ मीडियाकर्मी और राजनैतिक दल ने तो किया पर पिछले कई सालों से हर वर्ष जब 4 लाख कऱीब गौ-तस्करी होती है। इस दौरान तब लगभग 200 पुलिस-कर्मी या बीएसएफ़ जवानों का भी ये तस्कर लोग लिंच करके कत्ल कर देते हैं उस पर कभी कोई रिपोर्ट बहस नहीं होती। एक ओर जहां अमेरिका या पाश्चात्य सभ्यता में ‘लिंचिंग’ रंग के आधार पर होता रहा है वहीं भारत में यह बिलकुल अलग कारण है। ये अपने अर्थ, अपने बच्चों, मवेशियों के न खोने वाला डर से जन्म हुआ है। ये हमारे व्यवस्था की कमी से जन्मा है जहां हम अपना कानून लोगों के घर -घर तक मुहैया नहीं करवा सकते हैं। इसे धर्म का रूप-रंग देने वाले बस अपनी रोज़ी-रोटी और अपनी राजनीति का काम कर रहे हैं उन्हें वास्तविकता से कोई मतलब नहीं है।
-मनीष मिश्र
(लेखक एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्चाधिकारी हैं। )
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मुस्लिम और ईसाई देशों में रही हैं लिंचिंग की परम्पराएं
आज भारत में जो कुछ भी हो रहा है उसकी देन भी यह धर्म की राजनीति है और इसको मॉब लिंचिंग की बजाय धार्मिक पॉलिटिकल लिंचिंग कहना ज्यादा उचित होगा। यह एक वोट बैंक का खेल है जो डर दिखा कर ज्यादा इक_ा होता है। जनता जितना हिन्दू मुसलमान अगड़े पिछड़े की घृणित मानसिकता में बंटेगी उतना ही वोटबैंक की राजनीति से सत्ता आसानी से प्राप्त होगी क्योंकि यह भ्रष्ट राजनीति कभी नहीं चाहती कि जनता शिक्षा, चिकित्सा, सड़क, बिजली, पानी, रोजगार जैसे मूलभूत विषयों को बोटबैंक का मुद्दा बना ले। मॉब लिंचिंग यानी भीड़तंत्र की उग्रता या भीड़ पर उग्रता यह दोनों ही भारतीय परम्परा में नहीं है। परंतु यह परंपरायें धार्मिक रूप से पूरे विश्व में सदियों से कुछ सम्प्रदायों में चली आ रही है। जहां अरब और बहुत से मुस्लिम देशों में सदियों पुरानी परम्परा के अंतर्गत भीड़ इक_ी होकर किसी चोर, अपराधी या दूसरे सम्प्रदाय के लोगों को पत्थर से मार मार कर मार डालती है। ऐसा ही ईसाई देशों में होता रहा है जहां ऐसे कई इतिहास है जहां उन्होंने क्रूरता की हदें पार की थी अब बात चाहे हिटलर की भीड़ द्वारा लाखों यहूदियों की क्रूरतापूर्वक हत्या करना हो, या भारत में अंग्रेजो द्वारा सैकड़ों लोगों का जलियांवाला बाग हत्याकांड करना हो। या फिर धर्म के नाम पर बंटवारा और उसके नाम पर दूसरे सम्प्रदायों का कत्ल भी इसी भीड़तंत्र की उग्रता वाले लोगों ने ही किया है। ऐसे कई उदाहरण प्रत्येक मुस्लिम और ईसाई देश के इतिहास में भरे पड़े हैं जहां धार्मिक आंतकवाद की लिंचिंग के कारण लाखों लोग मारे जा रहे हैं। इन सब पर कभी चर्चा होती है क्या? शायद कभी नहीं?
भारत सदैव ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की विचारधारा, ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के मूलमंत्र एवं ‘प्राणियों में सदभावना हो विश्व का कल्याण हो’ की भावना को सदैव जीता रहा है। सत्ता इन्हीं जीवन मंत्रों के आधार पर चलती रही है। अब यदि कुछ 100- 200 मानसिक विकृति के लोगों के कुकृत्यों से भारत को बदनाम किया जाए तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। सनातन सभ्यता और संस्कृति पर विश्वास करने वाला कभी भी जाति और धर्म के नाम पर वेवजह किसी को मारना तो छोड़ो कभी किसी को अपशब्द कहने की भी पहल नहीं कर सकता परंतु क्रिया की प्रतिक्रिया न हो उस सहिष्णुता की भी एक सीमा होती है। सीमा के टूटने की जिम्मेदार भी वही मानसिकता है जो इंसानियत के धर्म में नहीं सिर्फ अपने धर्म की कट्टरता में विश्वास रखती है। न केवल भारत के लिये बल्कि पूरे विश्व के लिये जाति, धर्म, रंगभेद, नस्लवाद आदि की कट्टरता बहुत खतरनाक है। कुल मिलाकर विश्व के इतिहास में धर्म, जाति ,रंगभेद, नस्लवाद आदि विषयों पर जनता को बरगलाकर सत्ता को कायम रखा जाता था चाहे वह धार्मिक जिहाद के नाम पर हो या फिर जर्मनी सहित, यूरोपियन और अमेरिकी देशों में नस्लवाद, रंगभेद या धार्मिक कट्टरता के नाम पर। शायद यह सबसे आसान तरीका था सत्ता हासिल करने का और कायम रखने का। चाहे वह लोकतांत्रिक सत्ता प्राप्ति के लिये हो या राजशाही या तानाशाही के लिये हो, भारत में मोहम्मद बिन तुगलक एवं बाबर से लेकर औरंगजेब और फिर अंग्रेजों का क्रूर शासन इस बात का उदाहरण है जहां दूसरे मजहब या रंग के लोगों की लिंचिंग बहुत आम बात थी। जाति धर्म की लिंचिंग से सत्ता हासिल करने का ज्वलन्त उदाहरण भारत का बंटवारा था जो पाकिस्तान की सत्ता प्राप्त के लिये किया गया।
शुद्ध भारतीय परम्परा में कभी भी जनता में विद्वेष नहीं रहा न कभी इसका उदाहरण मिलता है इसीलिये ज्यादातर भारत के इतिहास में जातिवाद नस्लवाद या धर्मवाद की लड़ाई नहीं मिलती केवल न्याय और अन्याय के बीच ही युद्ध होता देखा गया। चाहे वह क्षत्रिय कुल में जन्में श्रीराम का लंका के बलशाली विद्वान ब्राह्मण राजा रावण से युद्ध हो जहां वनवासी गिरवासी सबने मिलकर एक बलशाली राजा को हराया था और राज्य खुद हासिल न करते हुये विभीषण को दे दिया था। यह युद्ध जाति या धर्म के भेद पर आधारित नही था अपितु अन्याय पर न्याय और अधर्म पर धर्म की विजय के रूप में जाना जाता है। इसी प्रकार महाभारत का उदाहरण है। ब्राह्मण आचार्य चाणक्य का भी उदाहरण है जहां देश और जनता की भलाई के लिये एक साधारण जाति में जन्में बालक चंद्रगुप्त मौर्य के साथ धनानंद जैसी अन्यायी सत्ता को उखाड़ फेंका था और राज्य चंद्रगुप्त को सौंप खुद झोपड़ी में रहने चले गए थे। ऐसे तमाम उदाहरण भारत के इतिहास में मिल जायेंगे परंतु आज जिन मुस्लिमों और ईसाइयों ने पूरे विश्व में मजहब, नस्लवाद के नाम पर दूसरे देशों को लूटा, उनको गुलाम बनाकर कत्लेआम किये, मां-बहनों की इज्जत को शर्मसार किया, आज वो कौमें सबसे ज्यादा मानवाधिकार की बात करती हैं। अब भारत के तथाकथित आज के लोकतंत्र के मसीहा भी भारतीय मूल परम्परा न्याय आधारित ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ को छोड़ इसी ‘बांटो और राज्य करो’ की मानसिकता को अंगीकार करते आ रहे हैं जो मुगलों और अंग्रेजो ने विरासत में दी। अब जनता हिन्दू-मुसलमान, अगड़े-पिछड़े की मानसिकता में फंसी रहेगी तो ऐसे ही अन्याय, नफरत और डर की सत्ता के दल दल में धंसी रहेगी।
-अशित पाठक
(लेखक राष्ट्रवादी विचारक हैं।)
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हां, मैं जेहादी हूं पर आपकी परिभाषा से नहीं
इस्लाम का पैरोकार होने के कारण मैं सबसे पहले अपनी अंतरात्मा को खंगालता हूं और इस बात को मानता हूं कि पैगंबर मुहम्मद साहब और कुरान के दिखाये गए रास्ते में कहीं हिंसा फैलाने की बात नहीं कही गयी है। रही बात जेहाद की तो यह बात अच्छे से समझ ली जाये कि यह अपने अंदर की खामियों और कमियों को दूर करके एक सच्चा मुसलमान बनने की प्रक्रिया भर है। खुद से जंग का नाम है जेहाद। मैं खुल कर कहता हूं कि मैं एक जेहादी हूं पर आपकी परिभाषा का जेहादी नहीं। मैं खुद की खामियों से लडऩे वाला जेहादी हूं। बात चाहे आज के समाज में पढे लिखे लोगों की हो। समाजशास्त्रियों की हो या मीडिया की। इन सबके लिए दुनिया का कोई भी धर्म सिर्फ एक बात कहेगा कि पहले धर्म को समझने की कोशिश करो। पवित्र गीता हो या पवित्र कुरान। पहले इसको पढ़ो। फिर खुद को खंगालो और फिर सोचो कि जिस बेगुनाह को आज तुमने भीड़ तंत्र बनकर मार डाला जब उसका बच्चा उसकी कब्र पर आंसू बहाकर आगे चलकर बदला लेने के लिए कुछ लोगों को मार देगा तब आप उसे भी आतंकवादी कहेंगे। थोड़ा इसे भी समझिए कि यह सब विपरीत बुद्धि का खेल है धर्म की कही बात नहीं। आज अगर हम अपने धर्म से ऊपर उठकर एक स्वस्थ समाज का निर्माण करने का जेहाद नहीं करेंगे, अगर हम अपने अंदर छुपी इंसानियत को जि़ंदा रखने के लिए अपने अंदर के हैवान के लिए आतंकवादी नहीं बनेंगे तो हम न गीता को समझने वाले हिन्दू बन पाएंगे और न ही कुरान के द्वारा दिये गए फलसफा ए हयास (जीवन दर्शन) को समझने वाले मुसलमान। बहैसियत एक मुसलमान मैं इस मुल्क के आइन(संविधान) की इज्ज़त करने वाला और मानने वाला मुसलमान कहलवाना पसंद करूंगा। और अपने मुसलमान भाइयों से यही कहूंगा कि आप भी सच्चे मुसलमान बनने की तरफ बढ़े। अपने ईमान को मुसल्लम करें और मुल्क के आइन(संविधान) का पालन करें।
-अयूब खान
(लेखक मुस्लिम विचारक हैं )
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मुगलों के आने के पहले भी भारत सोने की चिडिय़ा था
कुछ मुस्लिम दोस्तों को गुमान बहुत है कि मुसलमानों ने इस देश को बहुत कुछ दिया है । और इस अंदाज़ में कह रहे हैं गोया वह अभी भी अरब में रह रहे हों, भारत में नहीं। जैसे मुगलों ने भारत को भाई चारा नहीं, कोई बख्शीश दी हो आदि-आदि। गोया मुगल न आए होते तो भारत यतीम ही बना रहता। मुगलों ने भारत आ कर भारत को सोने की चिडिय़ा बना दिया वगैरह कुतर्क और तथ्यों से विपरीत बातें उनकी जुबान में भरी पड़ी हैं। मैं उनसे कहना चाहता हूं कि पहले तो अपने को भारतीय समझ लीजिए। फिर इतिहास को जऱा पलट लीजिए। पलटेंगे तो जानेंगे कि भारत सोने की चिडिय़ा मुगलों के आने के पहले था। ब्रिटिशर्स यहां व्यापारी बन कर आए थे लेकिन मुगल तो सीधे-सीधे आक्रमणकारी बन कर आए थे। सोने की चिडिय़ा को लूट लिया। जाने कितने मंदिर लूटे और तोड़े बारंबार। समृद्धि, सुख-चैन लूट लिया। उन का आक्रमणकारी और लुटेरा रुप अभी भी उन से विदा नहीं हुआ है। मुसलमान अभी भी अपने को यहां का नागरिक नहीं समझते। भले किसी गैराज में कार धोते हों, मैकेनिक हों, किसी ट्रक पर खलासी हों, कहीं चाय बेचते हों, कहीं अफसर हों, इंजीनियर हों, अध्यापक हों या कुछ और हों। पर समझते हैं अपने को रुलर ही। राहत इंदौरी जैसे शायर इसी गुमान में लिखते हैं, ‘कब्रों की जमीनें दे कर हमें मत बहलायिये, राजधानी दी थी राजधानी चाहिए।’
हां उनका रहन-सहन, खान-पान में योगदान ज़रूर है। रोटियां कई तरह की ले आए। मसाला आदि लाए, साथ में गाय का मांस खाने की जि़द भी लाए। औरतों को खेती समझने की समझ, तीन तलाक का कुतर्क आदि ले आए। मज़हबी झगड़ा ले आए। जबरिया धर्म परिवर्तन का फसाद ले आए। भाई को मार कर पिता को कैद कर राज करने की तरकीब ले आए। अभी भी पूरी दुनिया को जहन्नुम के एटम बम पर बिठा दिया है, मनुष्यता को सलीब पर टांग दिया है । फिर भी कुतर्क भरा गुमान है कि भारत को बहुत कुछ दिया है तो आप की इस खुशफहमी का मैं तो क्या कोई भी कुछ नहीं कर सकता। यह गुमान आप को मुबारक। लेकिन आप यह तय ज़रूर कर लीजिए कि आप की यह चिढ़ सिफऱ् संघियों, भाजपाईयों और गांधी के हत्यारों से ही है या समूची मनुष्यता से है? आप के रोल मॉडल आंखिर बिन लादेन, बगदादी, बुरहान वानी या ज़ाकिर नाईक जैसे हरामखोर आतंकवादी ही क्यों हो गए हैं? उन के लिए आप छाती क्यों पीट रहे हैं भला? सीमांत गांधी , ज़ाकिर हुसैन , ए पी जे अबुल कलाम या वीर हामिद जैसे नायक लोग कहां बिला गए आप की जिंदगी से? क्यों बिला गए? और कि आप के भीतर से कोई बड़ा राजनीतिक क्यों नहीं निकल पाया? आखिऱ कभी कांग्रेस, कभी मुलायम, कभी लालू आदि के अर्दली और मिरासी बन कर ही मुस्लिम राजनीति संभव क्यों बन पा रही है? अभी भी चेत जाईए, इंसान बन लीजिए पहले, फिर मुसलमान भी बन लीजिएगा। शांति कायम रहेगी तभी हम आप इस तरह विमर्श कर सकेंगे। सहमति या असहमति जता सकेंगे एक दूसरे से। बम फोड़ कर, पत्थर फोड़ कर, किसी का गला रेत कर नहीं, किसी मासूम पर ट्रक चढ़ा कर नहीं।
अगर मैं यह कहता हूं कि देश के मुसलमान सिफऱ् मुसलमान नहीं देश के समझदार नागरिक बन कर रहना सीखें तो इस में नासमझी कहां से आ गई भला? ग़लत क्या है भाई? आंखिऱ देश में और भी अल्पसंख्यक समुदाय के लोग हैं । सिख हैं, ईसाई हैं, बौद्ध हैं, जैन हैं, पारसी हैं। आंखिऱ इन लोगों को कोई मुश्किल क्यों नहीं होती? इसलिए कि यह लोग देश में समझदार नागरिक की तरह मुख्यधारा में रहते हैं। न इनको किसी से तकलीफ होती है, न इनसे किसी को तकलीफ होती है। हमारे मुस्लिम दोस्तों को भी मुख्य धारा में रहना, जीना सीख लेना चाहिए।
-दयानन्द पांडे
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उन्चास के फेर वाली चि_ी, मॉब-लिंचिंग और अरबन नक्सलिज्म
वाम-मीडिया के सभी संसाधनों से हैडलाईन बन कर खबर सामने आई कि उन्चास हस्तियों (जिनमें नक्सलवदियों से सम्बंध रखने के लिये सजायाफ्ता विनायक सेन भी सम्मिलित हैं) ने प्रधानमंत्री को मॉब लिंचिंग पर पत्र लिखा। पत्र लिखना चाहिये, आजकल सर्वहारा डाकियों के आगे पूंजीपति कोरियर कम्पनियों ने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। पत्र डाक से जाये न जाये मीडिया के माध्यम से चला जाता है यानि डाकिये पर दोहरा संकट। खैर! इस पत्र पर बात करने की आवश्यकता नहीं थी यदि लिक्खाड़ों ने शातिरता से इसमें ‘अरबन नक्सल’ शब्द की प्रविष्टि न करायी होती।
मैं भीड़ द्वारा किसी भी धर्म के नारे के साथ हत्या को अपराध मानता हूं। मैं जातीय श्रेष्ठता के लिये होने वाली हत्याओं को अभिशाप मानता हूं, ऐसे अपराधों पर घोर दंड की वकालत करता हूं। डायन बता कर किसी महिला की हत्या कर रही भीड़ को सामाजिकता का नासूर समझता हूं। कैराना और मेरठ से धर्म-विशेष के लोगों के पलायन को भी इसी श्रेणी में वर्गीकृत किया जाना चाहिये। सामूहिक बलात्कर कर हत्यायें हो रही हैं वह भी इसी की कड़ी है। भीड़ जानती है कि उसका चेहरा नहीं है इसलिये अधिक उत्तेजना से भर कर अपनी नृशंसताओं पर उतर आती है। निर्पेक्ष समाजशास्त्री (जिसने विचारधारा की ओवरकोट न पहनी हो) इसके मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों की ओर इशारा करते रहे हैं, जिसे आजादी के इतने साल तक भी दूर न कर पाना हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी नाकामी में से एक है। परंतु क्या मॉब लिंचिंग की व्यथा-कथा इन्हीं संदर्भों तक है?
बस्तर चलते हैं। आजकल ऑनलाईन हो गयी हैं अखबार। दिल्ली में भगवौंधी (भगवा और रतौंधी का कॉकटेल शब्द है, शब्द को छोडिय़े भावना पर जाईये) की शिकार बुद्धिजीविता से मेरा आग्रह है कि ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी को सामने रख कर बस्तर की दैनिक खबरें पढिय़े। वहां कई परिक्षेत्र हैं जहां लाल सलाम जैसा डरावना नारा लगते ही घरों में डिबिया बुझा दी जाती है। सौ दो सौ की तादाद में बंदूक ले कर आ धमके वामपंथी आतंकवादी कभी किसी ग्रामीण को मुखबिर बता कर तो कभी सलवा जुडुम का कार्यकर्ता बता कर घर से घसीट कर निकालते हैं। पूरे गांव के सामने, पत्नी और बच्चों के सामने उस व्यक्ति को अमानवीय रूप से मारा जाता है। कभी पेड़ पर उलटा लटका कर तो कभी दौड़ा-दौड़ा कर। उग्रवादी वाम-विचारधारा के उन्माद से भरी भीड़ ग्रामीण भीड़ के सम्मुख किसी भोथड़े हथियार से उस व्यक्ति का गला इस तरह काटती है जिससे चीख देर तक और पूरी कारुणिकता के साथ गूंजती रहें, भय का वातावरण प्रसारित हो जाये। ऐसा लगभग रोज होता है। कितने लोग जानते हैं कि इस तरह की हत्या को मॉब लिंचिंग नहीं माना जाता। बुद्धिजीवी टाईप के वे लोग जो प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर अपनी पब्लिसिटी की दुकान का गिरा हुआ शटर उठाने के प्रयास में रहते हैं, इस तरह की भीड़-हत्या को क्रांति कहते हैं।
अंग्रेजों वाला शब्दकोष कहता है कि भीड़ द्वारा मारे जाने को अंग्रेजी में मॉब लिंचिंग कहते हैं। हिंदी का शब्द उपलब्ध नहीं होगा इसलिये इसे अंग्रेजी में ही क्वाईन किया गया। क्वाईन शब्द में आप उपमा अलंकार का प्रयोग देख सकते हैं जिसमें विदेशी फंडिंग की खनक सुनाई दे सकती है। यदि न सुनाई देती तो पत्रलेखक श्रेणी के एक बुद्धिजीवी गौतम नवलखा के हिजबुल मुजाहिदीन से सम्बंध हैं ऐसी जानकारियां क्यों आती? रौना विलसन और सुरेंद्र गाडलिंग जैसे लोग महाराष्ट्र में वर्ग विशेष की भीड़ को हिंसा के लिये उकसाने के भी आरोपी हैं। ओह सॉरी! ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार मॉब मिंचिंग के कथनाशय यह है कि हत्या और हत्या में कैसा वर्गीकरण? भीड़ ने जय श्री राम के नारे लगा कर मारा तो ऐसी भी भीड है जो अल्लाह हो अकबर का नारा लगा कर भी मार रही है। दोनों ही भयावह स्थितियां हैं, दोनों ही तरह के अपराधी दंडित होने चाहिये, झारखण्ड वाले भी और कैराना वाले भी। है न? परंतु इन हत्याओं के बताये गये प्रतिशत से चारगुना अधिक भीड़-हत्यायें वामपंथी आतंकवादी बस्तर के आदिवासियों/ग्रामीणों की कर रहे हैं। अलग से सांख्यिकी देने की आवश्यकता नहीं। क्या दलित और मुस्लिम शब्द लिखते हुए आदिवासी शब्द का उल्लेख पत्र केवल इस डर से नहीं करता कि ऐसा करने पर लाल-आतंकवाद भी लपेटे में आता है?
पुणे पुलिस ने नवलखा, रोना व अन्य कथित सामाजिक कार्यकर्ताओं को ले कर आज जो जानकारियां सार्वजनिक की हैं यदि वे सत्य हैं तो ‘अरबन नक्सलिज्म’ वास्तविकता है ही? मैं नाटक ‘असहिष्णुता भाग दो’ के सभी पात्रों से सहमत हूं कि कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिये सभी प्रकार के मॉबलिंचर्स के लिये, उनके लिये भी जो ‘श्रीराम’ के नारे की आड़ ले रहे हैं और उनके लिये भी जिनका नारा ‘लाल सलाम है’। अंतर क्यों? पत्र लिखने वाले लोगों में से अधिकांश बंगाली हैं, इसका विशेष कारण यह तो नहीं कि पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार का वामपंथियों ने अभी से आगाज कर दिया है?
– राजीव रंजन प्रसाद
ये लिस्ट है उन 49 अर्बन नक्सल कम्युनिस्टों की, जिनको जय श्री राम बोलने से भी अब दिक्कत होने लगी है
अदिति बसु (सोशल वर्कर)
अदूर गोपालकृष्णन (फिल्ममेकर)
अमित चौधरी (लेखक)
अंजन दत्त (फिल्ममेकर,एक्टर)
अनुपम रॉय (सिंगर, सॉन्गराइटर, म्यूजिक डायरेक्टर)
अनुराधा कपूर (सोशल एक्टिवस्ट)
अनुराग कश्यप (फिल्ममेकर)
अपर्णा सेन (फिल्ममेकर, एक्टर)
आशा जोसफ (एकेडमिक फिल्म मेकर)
आशीष नंदी (स्कोलर, सोशियोलॉजिस्ट)
बैशाखी घोष (डिजाइनकर, आर्टिस्ट)
बिनायक सेन (फिजिशियन, सोशल एक्टिवस्ट)
बोलन गंगोपाध्याय (सोशल एक्टिवस्ट, जर्नलिस्ट)
बोनानी कक्कड़ (पर्यावरणविद, फाउंडर- ‘पब्लिक’)
चित्रा सिकर (डिजाइनर)
दर्शन साह (फाउंडर, वीवर्स स्टूडियो)
देवल सेन (कार्डियोलॉजिस्ट)
गौतम घोष (फिल्ममेकर)
इफ्तिखार एहसान (फाउंडर सीइओ कलकत्ता वॉक्स कलकता बंगलो)
जयश्री बुरमन (आर्टिस्ट)
जोया मित्रा (पर्यावरणविद,लेखक)
कनी कुश्रुती (एक्टर)
कौशिक सेन (फिल्म एंड थियेटर पर्सनैल्टी)
केतन मेहता (फिल्ममेकर)
कोंकना सेन शर्मा (फिल्ममेकर एक्टर)
मणि रत्नम (फिल्ममेकर)
मुदर पथारिया (सिटीजन)
नराणय सिन्हा (मूर्तिकार)
नवीन किशोर(पब्लिशर)
परमब्रता चटोपाध्याय (फिल्ममेकर,एक्टर)
पार्थ चटर्जी (हिस्ट्रियन, सोशल साइंटिस्ट)
प्रिया चक्रोबर्ती (रिसर्चर)
प्रदीप कक्कड़ (फाउंडर-पब्लिक)
रामचंद्र गुहा (हिस्ट्रियन)
रतनबोली रे (मेंटल हेल्थ एक्टिवस्ट)
रेवती आशा (फिल्मेकर)
रिद्धी सेन (एक्टर)
रूपम इस्लाम (सिंगर, सॉन्गराइटर, म्यूजिशियन)
रुपसा दासगुप्ता (डायरेक्टर, कोलकाता सुक्रिति फाउंडेशन)
शक्ति रॉय(संस्कृत प्रोफेसर)
समिक बनर्जी(स्कॉलर)
शिवजी बसु(सर्जन, यूरोलॉजिस्ट)
शुभा मुद्गल (सिंगर.म्यूजिशियन)
श्याम बेनेगल (फिल्ममेकर)
सौमित्र चटर्जी (एक्टर)
49 फिल्मी हस्तियों के जवाब में 62 फिल्मी हस्तियों का खुला खत
पुरुस्कार वापसी, असहिष्णुता के बाद मॉब लिंचिंग। ये सब एक दूसरे सी जुड़ी घटनाएं हैं। इन सबके पीछे मोदी को घेरने की साजिश साफ नजऱ आती है। अब बॉलीवुड भी इस विषय पर दो गुटों में साफ बंट गया है। मॉब लिंचिंग पर 49 फिल्मी हस्तियों के मोदी सरकार को लिखे पत्र के जवाब में अब 62 फिल्मी हस्तियों ने भी खुला खत लिखा है और पूछा है कि ‘जब आदिवासियों को माओवादी निशाना बनाते हैं तब ये क्यों चुप रहते हैं?’ पत्र में तीन तलाक का जिक्र कर मोदी सरकार के कार्यों का भी समर्थन किया गया है। पत्र में लिखा गया, ‘तीन तलाक के मुद्दे पर कोई बात नहीं की जाती, जो महिलाओं के हक का सवाल है। इस मुद्दे पर कुछ लोग खामोश हो जाते हैं। इस सरकार में लोगों को इतनी आजादी मिली हुई है कि लोग सरकार की किसी भी हद तक जाकर आलोचना कर सकते हैं। पीएम मोदी ने सबका साथ, सबका विकास का मंत्र दिया है। इसमें सबका विश्वास भी शामिल है। भीड़ हिंसा एक समस्या है और पीएम भी इसको लेकर आलोचना कर चुके हैं। राज्य सरकारें इसको लेकर सख्त कदम उठा रही हैं। हम सभी लोगों से आग्रह करते हैं कि वे चुनिंदा बातों पर आक्रोश जताना छोड़ें और समान रूप से लिंचिंग, घृणा अपराधों और धार्मिक स्थलों को अपवित्र करने की निंदा करें। ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए समाज के सभी लोगों को एक साथ आकर जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है।’
हस्ताक्षर करने वाली 62 हस्तियों में सीबीएफसी चेयरमैन प्रसून जोशी, सोनल मानसिंह, एक्ट्रेस कंगना रनौत, पंडित विश्व मोहन भट्ट, विवेक अग्निहोत्री, पल्लवी जोशी, अभिनेता मनोज जोशी, फिल्मकार अशोक पंडित, शांति निकेतन में विश्व भारती के देवाशीष भट्टाचार्य, अवध विश्वविद्यालय के कुलपति मनोज दीक्षित, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के अनिर्बान गांगुली, सांसद स्वप्न दासगुप्ता और कलाकार बिस्वजीत चटर्जी जैसी तमाम बड़ी हस्तियां शामिल हैं। भीड़ हिंसा को लेकर 49 हस्तियों के जवाब में 62 हस्तियों के इस मामले पर फिल्म निर्देशक मधुर भंडारकर का बयान भी महत्वपूर्ण है। ‘जय श्री राम बोलने पर जब लोगों को जेल में डाल दिया जाता है लेकिन जब दिल्ली के मंदिर को तोड़ दिया जाता है तो ये लोग कुछ नहीं बोलते। दरअसल देश में वैकल्पिक राजनीति चल रही है।’ गीतकार प्रसून जोशी कहते हैं कि ‘ये लोग जानबूझकर ऐसा दिखाने की कोशिश करते हैं कि देश में सब गलत हो रहा है। ऐसा करके वे लोग बेईमानी से झूठी कहानी बनाते हैं।’
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भाईचारे का संदेश केवल हिंदुओं को ही क्यों?
हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को स्थापित करने को लेकर व अपनी स्वतंत्रता व सुरक्षा की उलझन में फंसे एक भारतीय नागरिक की हैसियत से ‘राजदरबारों’ से मेरे प्रश्न-
– क्या भाईचारे व शांति का आश्वासन केवल हिन्दू समाज के लोगों से लिया जाना चाहिये, मुस्लिम समाज के लिये यह शब्द बेमायने हैं? यदि नहीं, तो कैराना व मेरठ से हिन्दू परिवारों के पलायन को रोकने के लिए क्यों मुस्लिम नेता, बुद्धिजीवियों ने वहां जाकर हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को स्थापित करने की कोशिश नहीं की और पलायन रोका?
– क्या सभ्यता, शालीनता, भाईचारे, अहिंसा का पाठ केवल हिन्दू समाज के लोगों के लिए है?
– गंगा-जमुनी तहज़ीब का पाठ आज केवल हिंदुओं को ही क्यों पढ़ाया जा रहा है?
– यदि मुस्लिम, हिंदुओं के साथ भाईचारे से रहने का दावा कर रहे हैं, तो क्यों मुस्लिम समाज में पल रहे ‘तेज़ाब’ रूपी गुंडों से मुस्लिम समाज के लोग हिंदू बच्चियों की रक्षा नहीं करते?
– मुस्लिम समाज इन दहशतगर्दों को क्यों नहीं अपने समाज से निकालता?
– मुस्लिम समाज में मौजूद दहशतगर्दों द्वारा हिंदुओं की अस्मिता लूट कर तार-तार करने के बाद भाईचारे की दुहाई देते हुए सामने आने वाले मुस्लिम समाज के नेता व रहनुमा कहां चले जाते हैं जब मुस्लिम समुदाय में पल रहे यह ‘दहशतगर्द’ बड़े बड़े जत्थे बना हिंदुओं के मंदिरों को खंडित कर देते हैं, उनकी बहन बेटियों की इज़्ज़त तार-तार कर देते हैं, 3-3, 4-4 साल की बच्चियों का रेप कर हत्या कर देते हैं? और सब कुछ हो जाने पर यही ‘मुल्ला-मौलवी’ हमारे ही कुछ ‘स्वार्थी हिन्दू राजनेताओं’ का सहारा ले, पहुंच जाते हैं हिंदुओं के बीच भाईचारे का ढोल पीटने और बेचारा ‘गाय समान हिन्दू’ भूल जाता है अपने ‘आत्मसम्मान का कत्ल’!
– क्यों नहीं मुस्लिम समाज अपने समाज में पल रहे बलात्कारियों, दहशतगर्दों को समाज से बाहर निकाल उनका हुक्का-पानी बंद करता?
– हिंदुओं को भाईचारे व संयमता से रहने का उपदेश देने वाले राजनेता बतायेंगे कि जो हिन्दू बहन इन राजनेताओं के बहकावे में आकर मुस्लिम लड़के को भाई मान उसकी कलाई पर राखी बांधती है और वही कलाई उसकी इज़्ज़त अपने दहशतगर्द दोस्तों के साथ मिलकर लूट लेती है, तो बतायेंगे यह ‘हिन्दू-मुस्लिम’ भाईचारे का पाठ पढ़ाने वाले हिन्दू स्कॉलर राजनेता कि उस बच्ची के मां-बाप, भाई क्या करे? उसका समाज क्या करे?
– क्यों मुस्लिम समाज में पल रहे ‘बौद्धिक टेररिज्म’ पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जा रहा?
– अभी न्यूज़ चैनल में देखा कि गुजरात में एक बस पर मुस्लिम समाज के असामाजिक तत्वों ने हमला कर दिया, इसमें एक शिक्षण संस्थान के छात्र थे, जैसे-तैसे उन्होंने भाग कर अपनी जान बचाई और दहशतगर्दों ने बस को आग के हवाले कर दिया।
– कुछ दिनों पहले टप्पल में एक छोटी हिन्दू बच्ची से दरिंदगी करते हुए मुस्लिम दुराचारियों ने उसकी हत्या कर दी और लाश कूड़े पर फेंक दी।
– उससे पहले कई हिन्दू बच्चियों के बलात्कार, छेड़छाड़, कत्ल करने की खबरें आये-दिन न्यूज़ चैनलों व मीडिया के माध्यम से सुनने में आ रही हैं।
– कुछ दिनों पहले मुसलमानों के अत्याचार व गुंडागर्दी के चलते बड़ी संख्या में ‘हिंदू समाज’ के लोगों ने कैराना से ‘पलायन’ कर लिया।
– अभी कुछ दिन पूर्व दिल्ली में दुर्गा माता के मंदिर में घुसकर मुस्लिम समुदाय के लोगों ने सामूहिक तौर पर देवी-देवताओं का अनादर किया और मूर्तियों को खंडित कर हिंदुस्तान व हिन्दू विरोधी नारे लगाते हुए टहलते हुए चले गये, वहां मौजूद हिन्दू समाज की मां-बहन-बेटियों की पिटाई की, गाली-गलौच दे खूब ठुकाई की।
– मेरठ में हिंदुओं के समक्ष मुस्लिम कट्टरपंथियों ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि अभी कुछ दिन पूर्व ही पूरा हिन्दू मोहल्ला ही खाली कर हिन्दू परिवार वहां से पलायन कर गये। उन हिन्दू परिवारों ने बताया कि मुस्लिम समुदाय के लोग आते-जाते उनकी बहन बेटियों को गंदे शब्द बोलते हैं, रात को डर बना रहता है कि कोई घर में न घुस जाये, उनके घरों के बाहर मीट-मांस डाल जाते हैं, पूजा-पाठ वाले दिन चारों तरफ गंदगी फैला देते हैं। ऐसे में वो पलायन न करे तो क्या करे?
– बहुत सी खबरें तो इतनी भयावह होती हैं कि मीडिया को उन्हें दिखाने से ही रोक दिया जाता है।
– हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को बढ़ाने हेतु सरकार द्वारा मुस्लिमों को दी जाने वाली सुख, सुविधाओं, सब्सिडी, ग्रांट जैसे अभी हाल फिलहाल में ही घोषित 5 करोड़ मुस्लिम छात्रों को स्कॉलरशिप, मदरसों को ग्रांट, मुस्लिम कन्याओं के कल्याणार्थ आर्थिक मदद, हज पर इस वर्ष जाने वालों की संख्या में पिछले वर्ष की तुलना में 1,00,000 से ज़्यादा लोगों की संख्या में बढ़ोतरी, मुस्लिम महिलाओं को हलाला व तीन तलाक से मुक्ति हेतु बिल, इतने पर भी मुस्लिम स्कॉलर, मुल्ला-मौलवी, हिंदुओं के आत्म सम्मान व जानमाल की रक्षा करने में असमर्थ हैं। क्या यही भाईचारे की परिभाषा है?
– आज पूरे विश्व में संख्या व जाति के हिसाब से आधिकारिक रूप से हिन्दू को ‘अल्पसंख्यक श्रेणी’ में रखा गया है। पूरे साक्ष्य उपलब्ध हैं कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और धीरे-धीरे बाहरी देशों से आकर यहां अन्य जातियां पनपी हैं जिन्हें हिंदुओं ने अपने ‘कोमल हृदय’ के चलते स्वीकार कर लिया और आज कोई भी नेता, सरकार भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित करने की हिम्मत नही रखती।
जिस ‘हिन्दू राष्ट्र’ के गौरव के लिये, संरक्षण के लिए शिवाजी, महाराणा प्रताप, झांसी की रानी, वीर बालक हकीकत राय, वीर सावरकर, सुभाष चन्द्र बोस, पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे अनेकों मां भारती के सपूतों ने बलिदान दे दिया, आज उसी देश को ‘हिन्दू राष्ट्र’ कहने पर लोगों को जेल भेज दिया जाता है।
दरबारों में चाटुकारिता करने वालों और अपने पदों को संरक्षित रखने वाले दरबारियों को शायद मेरा यह लेख पसंद न आये और वह अपने मालिकों को मेरी यह पोस्ट भेज मेरी आलोचना भी करें, पर एक भरतवंशी होने के नाते, भरत के भारत में जन्म लेने के नाते व ‘महान हिन्दू धर्म’ में जन्म होने के नाते मेरे यह उपरोक्त प्रश्न हैं ‘दरबारों’ से।
हाय रे आज़ादी! आज तू खुद शर्मिंदा होगी कि भगत सिंह और आज़ाद जैसा लौह पैदा करने वाले ‘भरतवंश’ में यह ‘राजदरबारों’ में हाजऱी बजाने वाले ‘दरबारियों’ की नसलें कब और कहां से पनप गयीं!
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यह सीनाजोरी
तबरेज़ के बाद देश भर में जिस तरह का खाली-पीली का माहौल बनाया गया उससे एक बात तो कन्फर्म हो गई कि कोई रंगे हाथ पकड़ा जाए तो उसे धोना तो बिल्कुल भी नहीं है। मस्त चाय-पानी बिस्किट खिलाना है बिठा के जब तक कि पुलिस न आ जाये। फिर कानून उसको सजा देगा। कानून को हाथ में लेने का किसी को हक़ नहीं है सिवाय जोल्हों के।
तबरेज़ के बाद जितने भी जन धरे गये हैं सभी का रिकॉर्ड देखेंगे तो किसी न किसी थाने में उनके खिलाफ मामला दर्ज है। कई तो कथित कानून की सजा भी काट के बाहर आये थे लेकिन सजा के बाद सुधरे क्या? फिर उसी धंधे में और जोश खरोश के साथ लगे। तो कानून क्या घण्टे का सजा दे रहा है? क्या खौफ है चोरों में कानून का जो कानून के हवाले कर देने के बाद उससे सबक ले कर और कोई सुधर जाए? हमको तो कुछ भी नहीं दिखाई देता।
बल्कि चोरों के दो-चार बार अंदर जाने के बाद मस्त सेटिंग भी हो जाती है। इसलिए भीड़ कोई चोर पकड़े तो उसे कानून के हवाले कर दो। फिर महीना, साल भर अंदर रह कर सेटिंग कर बाहर आये और मस्त अपने धंधे को आगे बढ़ाए।
अब जिन गांवों में चोर पहले घुसने से हजार मर्तबा सोचते थे कि अगर पकड़े गए तो सीधा अंदर हो जाना है, उन गांवों में भी अब एक तबरेज़ ने घुसने का रास्ता साफ कर दिया। अब कोई खतरा नहीं। बिंदास चोरी करो। अगर पकड़े गए तो पब्लिक मस्त कानून के हवाले कर देगी। फिर कानून से क्या डरना? बाहर तो आनी ही है। लेकिन गांव में सीधे ऊपर का ही रास्ता तय होता है।
फिर चोरों की सात पुश्तों की भी उधर का रूख करने से रूह कांप जाती है।
ये 100 प्रतिशत लिख के रख लीजिए कि जिन गांवों, इलाकों में चोर पहले घुसने से थर्राते थे वे अब उन इलाकों में भी मस्त बिंदास चोरी-डकैती कर सकेंगे। जिसकी बानगी आपके सामने है। तबरेज़ की घटना से चोरों में डर नहीं गया बल्कि कॉन्फिडेंस गया। चोरी की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है।
ये होता है कानून का खौफ! डर! भय! सख्ती! वगैरह-वगैरह!
सजग नागरिक बने। जिम्मेदार नागरिक बने। सज्जन नागरिक बने और कानून का सम्मान कीजिये।
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‘जनसंख्या जिहाद’
आज यह सर्वविदित है कि हमारे प्रिय देश भारत में बढ़ती जनसंख्या एक भयानक रूप ले चुकी है, जिससे देश में विभिन्न धार्मिक जनसंख्या अनुपात निरंतर असंतुलित हो रहा है। इससे भविष्य में बढऩे वाले अनेक संकटों का क्या हमको कोई ज्ञान है? आज की बढ़ती जनसंख्या भारत के लिए अभिशाप बन चुकी है। हम अपने अस्तित्व पर आने वाले संकट के प्रति सतर्क व सावधान कब होंगे? लोकतांत्रिक देश में चुनावी व्यवस्था के आधार पर राष्ट्र की राज्य व्यवस्था का गठन होता है और उसमें सम्मलित होने के लिए देश के समस्त नागरिकों को एक समान अधिकार होता हैं। परंतु एक विशेष सम्प्रदाय के कुछ लोग निरंतर अपनी जनसंख्या बढ़ा रहे हैं जिससे देश में अनेक राष्ट्रीय व सामाजिक समस्यायें बढ़ रही हैं ।
यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि जब 1947 में पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्रों में मुस्लिम बहुसंख्यक हुए तो देश का विभाजन हुआ था। यह जनसंख्या बल का दुष्प्रभाव था जिससे तत्कालीन राजनीति ने विवश होकर धर्म के आधार पर देश का विभाजन किया। लेकिन क्या वह स्थिति पुन: बने उससे पूर्व ऐसे षड्यंत्रकारियों के प्रति सचेत होना आवश्यक नहीं होगा? क्या यह अनुचित नहीं कि जहां जहां मुस्लिम संख्या बढ़ती जाती है वहां वहां उनके द्वारा साम्प्रदायिक दंगे भड़काने से वहां के मूल निवासी पलायन करने को विवश हो जाते हैं? तत्पश्चात वहां केवल मुस्लिम बहुल बस्तियां होने के कारण उनमें अनेक अलगाववादी व आतंकवादी मानसिकता पनपने लगती हैं।
इसके अतिरिक्त अधिकांश कट्टरवादी मुस्लिम समाज लोकतांत्रिक चुनावी व्यवस्था का अनुचित लाभ लेने के लिए अपने संख्या बल को बढ़ाने के लिये सर्वाधिक इच्छुक रहते हैं। अधिकांश मुस्लिम बस्तियों में यह नारा लिखा हुआ मिलता है कि ‘जिसकी जितनी संख्या भारी सियासत में उसकी उतनी हिस्सेदारी’। जनसंख्या के सरकारी आंकड़ों से भी यह स्पष्ट होता रहा है कि हमारे देश में इस्लाम सबसे अधिक गति से बढऩे वाला संप्रदाय/धर्म बना हुआ है। इसलिए यह अत्यधिक चिंता का विषय है कि ये कट्टरपंथी अपनी जनसंख्या को बढ़ा कर स्वाभाविक रूप से अपने मताधिकार कोष को बढ़ाने के लिए भी सक्रिय हैं। इसको ‘जनसंख्या जिहाद’ कहा जाये तो अनुचित न होगा क्योंकि इसके पीछे इनका छिपा हुआ मुख्य ध्येय है कि हमारे धर्मनिरपेक्ष देश का इस्लामीकरण किया जाये।
निस्संदेह विभिन्न मुस्लिम देश टर्की, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, मिस्र, सीरिया, ईरान, यू.ए. ई., सऊदी अरब व बांग्लादेश आदि ने भी कुरान, हदीस, शरीयत आदि के कठोर रुढ़ीवादी नियमों के उपरांत भी अपने अपने देशों में जनसंख्या वृद्धि दर कम की है। फिर भी विश्व में भूमि व प्रकृति का अनुपात प्रति व्यक्ति संतुलित न होने से पृथ्वी पर असमानता बढऩे के कारण गंभीर मानवीय व प्राकृतिक समस्याएं उभर रही हैं। सभी मानवों की आवश्यकता पूर्ण करने के लिए व्यावसायीकरण बढ़ रहा है। बढ़ती हुई जनसंख्या संसाधनों को खा रही है। औद्योगीकरण होने के कारण प्रदूषण बढ़ रहा है व बढ़ती आवश्यक वस्तुओं की मांग पूरी करने के लिए मिलावट की जा रही है। जिससे स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं बढ़ रही हैं। इसके अतिरिक्त वायु प्रदूषण, कूड़े-कर्कट के जलने पर धुआं, प्रदूषित जल व खाद्य-पदार्थ, घटते वन व चारागाह, पशु-पक्षियों का संकट, गिरता जल स्तर व सूखती नदियां, कुपोषण व भयंकर बीमारियां, छोटे-छोटे झगड़े, अतिक्रमण, लूट-मार, हिंसा, अराजकता, नक्सलवाद व आतंकवाद इत्यादि अनेक मानवीय आपदाओं ने भारत भूमि को विस्फोटक बना दिया है। फिर भी जनसंख्या में बढ़ोत्तरी की गति को सीमित करने के लिए सभी नागरिकों के लिए कोई एक समान नीति नहीं है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार हमारे ही देश में वर्ष 1991, 2001 और 2011 के दशक में प्रति दशक क्रमश: 16.3, 18.2 व 19.2 करोड़ जनसंख्या और बढ़ी है। जबकि उपरोक्त वृद्धि के अतिरिक्त बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और म्यांमार आदि से निरंतर आने वाले घुसपैठिये व अवैध व्यक्तियों की संख्या भी लगभग 7 करोड़ होने से एक और गंभीर समस्या हमको चुनौती दे रही है ।
इसके अतिरिक्त विभिन्न समाचारों से प्राप्त कुछ आंकड़ों व सूचनाओं के अनुसार ज्ञात होता है कि जनसांख्यकीय घनत्व के बिगड़ते अनुपात के बढऩे से भी ये विकराल समस्याएं बहुत बड़ी चिंता का विषय बन चुकी हैं। सम्पूर्ण विश्व के 149 करोड़ वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में भारत का क्षेत्र मात्र 2.4 प्रतिशत है जबकि हमारी पूण्य भूमि पर विश्व की कुल जनसंख्या लगभग 7.5 अरब का 17.9 प्रतिशत बोझ है। आज हमारे राष्ट्र की कुल जनसंख्या 134 करोड़ से अधिक हो चुकी है और जो चीन की लगभग 138 करोड़ जनसंख्या के बराबर होने की ओर बढ़ रही है। जबकि पृथ्वी पर चीन का क्षेत्रफल हमसे लगभग 3 गुना अधिक है। इस प्रकार हम 402 व्यक्तियों का बोझ प्रति वर्ग किलोमीटर वहन करते हैं जबकि चीन में उतने स्थान पर केवल 144 व्यक्ति ही रहते हैं। इसी प्रकार पाकिस्तान में 260, नेपाल में 196, मलेशिया में 97, श्रीलंका में 323 एवं तुर्की में मात्र 97 व्यक्तियों का प्रति वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पालन हो रहा है। हम से ढाई गुना बड़े क्षेत्रफल वाले ऑस्ट्रेलिया की जनसंख्या जितनी ही संख्या प्रति वर्ष हमारे देश में बढ़ रही है। अत: भविष्य में आने वाली पीढिय़ों को शांति, स्वस्थ व सुरक्षित जीवन के साथ साथ समाजिक सद्भाव एवं सम्मानित जीवन देने के लिये हम सब राष्ट्रवादी चिंतित हो रहे हैं। इन चिंताओं के निवारण व देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बचाये रखने के लिए आज की प्रमुख आवश्यकता है कि सभी नागरिकों के लिए एक समान ‘जनसंख्या नियंत्रण कानून’ बनना चाहिए।
इस विकराल राष्ट्रीय समस्या के समाधान के लिए देश का राष्ट्रवादी समाज विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से पिछले 3-4 वर्षों से सक्रिय है। इस अभियान के अंतर्गत जिला स्तर पर गोष्ठियां,सभाएं व धरने प्रदर्शन बार-बार हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त जनजागरण हेतु बीस हज़ार किलोमीटर की राष्ट्रव्यापी यात्रा भी निकाली गयी थी। सामाजिक व धार्मिक सम्मेलनों व व्यक्तिगत स्तर पर भी एक प्रश्नावली के माध्यम से हज़ारों नागरिकों के हस्ताक्षर सहित सर्वे करके भी प्रधानमंत्री जी को भेजे गए थे। प्रधानमंत्री जी को ‘जनसंख्या नियंत्रण कानून’ बनाने के निवेदन हेतु देश के अनेक क्षेत्रों से लाखों पोस्टकार्ड भी प्रेषित हुए हैं। इस आंदोलन को देशवासियों व अनेक सांसदों का व्यापक समर्थन मिलने के उपरांत भी वर्तमान केन्द्रीय सरकार के पुन: सत्तारूढ़ होने पर भी अभी कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिले हंै।
आज विज्ञानमय आधुनिक युग में जब विश्व के अनेक देशों में जनसंख्या नियंत्रण के लिए आवश्यक कानून बने हुए हैं तो फिर हमारे देश में ऐसा कानून क्यों न बनें? अत: अधिक से अधिक लोगों को इस अभियान से जुड़ कर अपने अपने क्षेत्रीय सांसदों व विधायकों से संपर्क करके इसके समाधान के लिए उनका सहयोग लेना होगा। इसके अतिरिक्त करोड़ों राष्ट्रभक्तों को अपने-अपने स्तर से पत्र लिख कर सरकार पर दबाव बनाना चाहिये ताकि यह अभियान एक ठोस रूप लेकर सफल हो सके। बुद्धिजीवियों, पत्रकारों व राष्ट्रभक्तों को भी सम्मेलनों और गोष्ठियों द्वारा जनजागरण अभियान चला कर ‘बढ़ती जनसंख्या एक अभिशाप’ के प्रति सामान्य नागरिकों को सतर्क करते हुए सभी के लिए इस कानून को बनवाने के लिए यथाशक्ति प्रयास करने होंगे। वर्तमान परिस्थितियों में यह हम सभी की सर्वोच्च प्राथमिकता है कि इस ज्वलंत राष्ट्रीय समस्या के कुप्रभावों का अधिक से अधिक प्रचार करके उसके निवारण के लिए सभी सक्रिय होकर अपनी मातृभूमि के रक्षार्थ इस महत्वपूर्ण अभियान को पूर्ण करायें।
विनोद कुमार सर्वोदय
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उप्र : अवैध हथियारों की फैक्ट्री बन रहे मदरसे – विहिप

विश्व हिन्दू परिषद(विहिप) के धर्माचार्य सम्पर्क प्रमुख शरद शर्मा ने बिजनौर जनपद के एक मदरसे में अवैध हथियारों के मिलने को बहुत बड़ी साजिश का हिस्सा बताया है। इस मामले में उन्होंने योगी सरकार से प्रदेश भर में ऐसे संदिग्ध मदरसों और मस्जिदों की जांच कराये जाने की मांग की है।
उन्होंने कहा कि जब से मोदी और योगी की सरकार देश और उत्तर प्रदेश में आई है, देशवासी अपने को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। लेकिन आज भी समय-समय पर आंतरिक और बाह्य षड्यंत्रकारी अपनी साजिश से इस देश को अस्थिर करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि पूर्व में भी विहिप कहती आई है कि देश के अनेक ऐसे मस्जिद और मदरसे हैं, जिनकी कार्यप्रणाली संशय पैदा करने वाली है। शिक्षा और इबादत की आड़ में राष्ट्र विरोधी षड्यंत्र किये जाते हैं।
उन्होंने प्रश्न उठाया कि आखिर बिजनौर के मुस्लिम मदरसे में व्यापक मात्रा में मिले हथियारों को रखने का उद्देश्य क्या था? पश्चिम उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों में पूर्व में लगातार दंगा भड़काने की साजिश की जाती रही है। कहीं पुन: ऐसा वातावरण तो नहीं बनाया जा रहा है? उन्होंने कहा कि संघ परिवार पर ऊंगली उठाने वाले छद्म सेक्यूलरवादी और उनके तथाकथित चेलों की फौज शिक्षा की आड़ में चल रहे अवैध मदरसे में मिले अवैध हथियारों पर खामोश क्यों? यह शिक्षा केंद्र अवैध हथियारों को पैदा करने वाली फैक्टरी बन रहे हैं। उन्होंने योगी सरकार से इसकी गंभीरता से जांच कराने के साथ मदरसे पर प्रतिबंध लगाने की मांग उठाई।
विश्व हिन्दू परिषद के संगठन मंत्री अवध प्रांत भोलेन्द्र ने बताया कि मैं यह बात नहीं कह रहा हूं बल्कि उत्तर प्रदेश के शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन वसीम रिजवी ने मदरसा शिक्षा पर सवाल उठाया था। उन्होंने 21 जनवरी को प्रधानमंत्री के नाम एक पत्र लिखकर देश भर में मदरसे बंद करने का अनुरोध किया है। उन्होंने इस पत्र में कहा है कि मदरसों में छात्रों में आंतकी संगठन आईएसआईएस की विचारधारा फैलाई जा रही है। उन्होंने कहा कि बिजनौर के मदरसे में मिले अवैध हथियार को देखते हुए ऐसे में पूरे प्रदेश के मदरसे व मस्जिदों की जांच करनी चाहिए। इसके साथ दोषी पाए जाने वालों के खिलाफ ठोस कार्रवाई होनी चहिए।
उल्लेखनीय है कि बिजनौर जिले के शेरकोट इलाके में स्थित ‘मदरसा दारूल कुरआन हमीदया’ में हाल ही में छापेमारी की गई। सीओ अफजलगढ़ कृपाशंकर कन्नौजिया ने बताया कि छानबीन के दौरान पुलिस को मदरसे से 36 बोर का एक पिस्टल व आठ कारतूस, 315 बोर के तीन तमंचे व 32 कारतूस, 32 बोर का एक रिवॉल्वर, कार व 16 कारतूस बरामद हुए हैं। इस मामले में अब तक छह लोगों को गिरफ्तार किया गया। मामले में आगे की जांच जारी है।
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राष्ट्र के प्रति न्यूनतम करणीय मर्यादा
सामान्य स्थिति में किसी भी देश में देशभक्त और देशद्रोही दो प्रकार के वर्ग ही होने चाहिये मगर अंतर्राष्ट्रीय विचारधाराओं के कारण वैश्विक रूप से ईसाई मत, इस्लाम और कम्युनिज़्म का तीसरा वर्ग ‘अराष्ट्रीय’ भी बड़े पैमाने पर उभर आया था। यह वो वर्ग है जिसकी आस्था जिस देश में वो रह रहा है, नहीं होती। उन्नीसवीं शताब्दी में वैज्ञानिक आविष्कार यूरोप में हुए इसलिये बाइबिल की पोल खुल गयी और ईसाई समाज ने ईसाइयत को त्याग दिया। यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में ईसाई मत समाप्त हो गया। कम्युनिज़्म का बौड़म आर्थिक चिंतन रूस, पोलैंड, पूर्वी जर्मनी, चीन, क्यूबा आदि कम्युनिस्ट देशों की अर्थ व्यवस्था ले डूबा अत: कम्युनिज़्म का भी बाजा बज गया।
इस्लाम के ग्रंथ जिस भाषा में थे उस भाषा का सभ्य समाज से सम्पर्क नहीं था। तीनों में से वह बचा हुआ था मगर नैट, सोशल मीडिया के कारण उसकी भी वास्तविकता सामने आ गयी। फिर भी तलवार आधारित चिंतन होने के कारण इस्लाम को न मानने वाला समाज उससे डरता है अत: इस्लाम पर उतनी खुली चर्चा नहीं हो पा रही है जितनी आवश्यक है। ऐसी स्थिति में सामान्य व्यक्ति क्या करे?
कुछ बिंदु विचारणीय हैं। सबसे पहले तो इसकी वास्तविकता अर्थात मानवताविरोधी चिंतन को उजागर करना अनिवार्य है, फिर इस्लाम के शिकार बंधु-बांधवों तक इसका सत्य पहुंचाना आवश्यक है। यह प्रबुद्ध लोगों का कार्य है अत: हर व्यक्ति इसे नहीं कर सकता मगर राष्ट्रोत्थान के महायज्ञ में आहुति तो सबको डालनी ही होगी। यह छप्पर सबके हाथ लगाने से ही उठेगा। भीरु मानसिकता से बाहर तो आना ही होगा।
वर्षों हो गए और लगातार देखने में आ रहा है कि देश में राष्ट्रवादी दबोचे जा रहे हैं। मीडिया, अराष्ट्रीय समाज, बचे-खुचे वामपंथी, अराष्ट्रीय समाज के वोटों के लिये जीभ लपलपाते राजनीतिक दल राष्ट्र के मूल समाज को किनारे लगा रहे हैं। तथाकथित राष्ट्रवादी सरकारें भी इनके हल्ले में दबाव में आ रही हैं और राष्ट्रविरोधियों का सामना करने से कतरा रही हैं।
समस्या यह है कि ऐसी स्थिति में साधारण व्यक्ति क्या करे? पौरुष व्यक्त करने पर राज्य दबोचता है और अभी बड़े पैमाने पर पौरुष के लिये राष्ट्र तैयार भी नहीं है। तो वह अपनी मनस्थिति बताने के लिये व्हॉट्सएप पर आये मैसेज को आगे बढ़ाता है। सोशल मीडिया पर अपनी बात रखता है। दूसरे के लिखे को लाइक, शेयर करता है। कुछ बोल सकने में सक्षम राष्ट्रवादी सभाओं में बोलते हैं। लेख लिखते हैं। यह सारे उपाय जनमानस तो बनाते हैं। स्वयं से पूछिए कि क्या इतना भर पर्याप्त है?
अराष्ट्रीय समाज शस्त्रबद्ध भी है, उत्पाती भी है और हमारी तुलना में संगठित भी है। यह समस्या है तो मगर ऐसा नहीं है कि राष्ट्र विरोध नहीं करता। कहीं-कहीं अराष्ट्रीय वर्ग की दुष्टता के विरोध में समाज के विभिन्न वर्ग उसके स्वर के तीखे स्वर में प्रतिउत्तर भी देते हैं। किशनगंज में ऐसा ही हुआ। वनवासी बंधुओं ने भूमि पर क़ब्ज़ा करने के प्रयास तीर चला कर निष्फल कर तो दिये मगर तीर चला कर अपनी भूमि बचाने वाले 12 वनवासी बंधु जेल में डाल दिए गये। राज्य के नियम तो हमसे 1877 से ही चाहते हैं कि हम शस्त्र त्याग दें।
इन बंधुओं की सेवा, ऐसा माध्यम है जिसमें सामान्य बंधु भी धर्म के लिये योगदान कर सकता है। मुझमें मॉब लिंचिंग की नौटंकी को बदलने का सामथ्र्य नहीं है तो मैं जिन बंधुओं को मॉब लिंचिंग बता कर जेल में डाल दिया गया है, उनकी सेवा तो कर सकता हूं।
तुफैल चतुर्वेदी
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‘मैं कुरान नहीं बाटूंगी’
सुनो लड़की।
गर्व हो रहा है तुम्हें देख कर, तुम्हें सुन कर, तुम्हें जानकर… सीना चौड़ा हो रहा है यह सोच कर कि तुम हमारे बीच की हो।
जानती हो, जिस न्यायालय ने मात्र दो पंक्तियों की एक पोस्ट के लिए तुम्हे यह अनैतिक सजा दी थी, वह पूरी तरह से अंधा है। इसी देश में रोज हजारों किताबें ऐसी छपती हैं जिनमे सनातन मान्यताओं की खिल्ली उड़ाई जाती है, हिन्दू देवी-देवताओं को गाली दी जाती है, हमारे पुरुखों को मूर्ख कहा जाता है। ऐसी किताबें रोज छपती हैं और उसी न्यायालय के सामने लोगों को बांटी जाती हैं। देश को छोड़ो, जिस रांची में तुम्हें सजा दी गयी है न, उसी रांची में मिशनरियां रोज ऐसी हजारों अश्लील किताबें बांटती हैं। क्या उससे हम आहत नहीं होते? क्या हमारी भावनाओं का कोई मूल्य नहीं? पर न्यायालय की इतनी भी हिम्मत नहीं है कि उन ईसाइयों से एक प्रश्न तक पूछ दे… स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्षों बाद तक वेटिकन चर्च के भय में जीने वाले न्यायालय की यही औकात है।
हमारा न्यायालय कमजोर के लिए काल है। यह बड़े और सामथ्र्यवान अपराधियों को झुक कर सलाम करता है, और कमजोरों से गरज कर बात करता है। तुम्हें जो कुरान बांटने की सजा दी गयी थी न, वह इसी गर्जना का एक छोटा उदाहरण है।
पर तुम अद्भुत हो लड़की। सच कहूं तो तुम जानती भी नहीं कि तुमने किया क्या है?
प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास ‘रंगभूमि’ में एक अंग्रेज पात्र है, मिस्टर क्लार्क। एक जगह वह अपनी जमीन के लिए सत्याग्रह कर रहे अंधे-भिखमंगे सूरदास के लिए कहता है, ‘हम बड़ी बड़ी सेनाओं से नहीं डरते, हम डरते हैं तो ऐसे जिद्दी लोगों से डरते हैं। सेनाएं हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं पर ऐसे जिद्दी लोग बड़े-बड़े साम्राज्यों को उखाड़ फेकते हैं।’
हम भी अपनी जमीन के लिए ही लड़ रहे हैं लड़की। हमारे पास कुल मिला कर जमीन का यही एक टुकड़ा है। हम यदि यहां से उखड़े तो धरा के किसी कोने में एक अंगुल भूमि भी नहीं मिलेगी हमें। इस्लाम के पास पचासों देश हैं, ईसाइयों के पास सैकड़ों देश हैं, पर हमारे पास केवल यही भूमि है। हमें सहिष्णुता का झूठा पाठ पढ़ाने वाले कभी नहीं बता पाएंगे कि हमें यदि यहां से हटाया गया तो हम कहां जाएंगे? हम यदि यहां से उखड़े तो उखड़ जाएंगे। तुम जो युद्ध लड़ रही हो वह इस हजारो वर्ष पुरानी सभ्यता के अस्तित्व का युद्ध है।
तुमने जब कहा न कि ‘मैं कोर्ट का यह अवैध आदेश नहीं मानूंगी’ तब मुझे तुम प्रेमचंद के उस महानायक सूरदास की तरह लगी। तुम्हारी यह जिद्द बड़े से बड़े साम्राज्य को उखाड़ सकती है।
इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी यदि मैं यह कहूं कि तुम्हारा ‘मैं कुरान नहीं बाटूंगी’ वाला संवाद महारानी झांसी के ‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’ के संवाद के बराबर सम्माननीय है। यह तुम्हारी पीढ़ी का एक साहित्यकार कह रहा है।
आज जब यह घमंडी न्यायालय तुम्हारे आगे झुका है, तो यह देश समझ रहा है कि तुम्हारी इस जीत का मूल्य क्या है। यह केवल तुम्हारी जीत नहीं है, यह इस सभ्यता की जीत है, यह भारत की जीत है। लड़ी तुम थी, जीते हम सब हैं।
तो सुनो भारती! इसे इस विपन्न साहित्यकार का लालच समझो, धर्म के प्रति समर्पण समझो या राष्ट्रप्रेम, तुमसे निवेदन करता हूं कि अपनी इस स्वाभिमानी जिद्द के साथ अड़ी रहना। तुम अकेली नहीं हो, हम जैसे असंख्य तुम्हारे पक्ष में खड़े हैं। तुम हमारे लिए ऋचा भारती नहीं, वेद की ऋचा जैसी हो… बेटियां तो यूं भी ऋचाओं जैसी ही होती हैं।
अपने स्वाभिमान के साथ खड़ी रहना। तुम जैसी बेटियां पिता और भाइयों को छाती चौड़ी करने और मस्तक ऊंचा करने का सौभाग्य देती हैं। यशश्विनी भव:…
सनातन की विजय हो, विधर्मियों का विनाश हो।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख

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