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खाक में मिलता पाक

किसी भी परिदृश्य के निर्माण में एक बड़ा समय लगता है। वर्तमान में वैश्विक परिदृश्य कुछ इस तरह का बन गया है जहां बड़े बाज़ार के कारण भारत का स्थान महत्वपूर्ण हो गया है। एक तरफ यूरोप और अमेरिका का बाज़ार सेचूरेट हो चुका है तो दूसरी तरफ चीन का माल गुणवत्ता में पिछड़ रहा है। अमेरिका और चीन के बीच चलने वाली ट्रेड वार अब निर्णायक मोड़ पर आ चुकी है। चीन को नियंत्रित करने के लिए  अमेरिका ने पहले चीन पर 25 प्रतिशत की ड्यूटी लगाई और बाद में उसे बढ़ा कर 35 प्रतिशत कर दिया, ताकि चीन का माल महंगा हो जाये। बाज़ार से चीन की पकड़ ढीली हो जाये। चीन ने अमेरिका को कड़ा जवाब देते हुये अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर दिया। चीन के द्वारा ऐसे करते ही बाकी मुद्राओं पर दवाब आ गया। बाज़ार में बने रहने के लिए भारत को भी अपनी मुद्रा की कीमत कम करनी पड़ी। इस तरह रुपया डॉलर के मुक़ाबले कमजोर हो गया। वर्तमान में अमेरिका की ट्रम्प सरकार और भारत की मोदी सरकार के बीच की इस जुगलबंदी के द्वारा चीन को कमजोर कर दिया गया। चीन के कमजोर होने की स्थिति में पाकिस्तान पर अप्रत्यक्ष तौर पर असर पड़ा। उसका आत्मविश्वास डगमगा गया। भारत के बड़े बाज़ार के कारण कोई भी महत्वपूर्ण देश 370 के विषय में पाकिस्तान के साथ नहीं आया। पाकिस्तान की गिरती अर्थव्यवस्था एवं नकारात्मक कश्मीर नीति के कारण पीओके भी अब उसके हाथ से जाता दिख रहा है। अब पाकिस्तान के चार टुकड़े होने की संभावना प्रबल होने लगी है। खाड़ी देश पाकिस्तान के साथ न जाकर भारत के साथ खड़े हो गए हैं। इस बीच अमेरिका द्वारा ईरान में हमले किए जाने के बाद तेल का खेल फिर शुरू हो गया है। मध्य एशिया में तेल के इस खेल में सऊदी अरब ने तेल का उत्पादन कम कर दिया तो तेल की कीमतें अचानक बढ़ गईं। इस तरह मध्य एशिया में अमेरिकी तेल कंपनियों का उत्पादन बढ़ा और तेल पर उसका वर्चस्व बढ़ गया। यह सब 2020 में होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की तैयारी के अंतर्गत किया जा रहा है। यहां यह जानना महत्वपूर्ण है कि ट्रम्प की रिपब्लिकन पार्टी को सबसे ज़्यादा चंदा तेल और हथियार की कंपनियों से मिलता है। 2016 में ट्रम्प राष्ट्रवाद की भावना से चुनाव जीते थे इसलिए 2020 में इस भावना को भुनाने के लिए उन्हें अपनी अर्थव्यवस्था में तेज़ी प्रदर्शित करनी ही होगी। भारत में राष्ट्रवाद की तजऱ् पर नरेंद्र मोदी ने भी चुनाव जीता था। अमेरिका में भारतीयों की बड़ी जनसंख्या के कारण मोदी का प्रभाव ट्रम्प भुनाना चाहते हैं। ऐसे में भारत सौदेबाजी की बेहतर स्थिति में आता दिख रहा है। अमेरिका और चीन के बीच की ट्रेड वार, भारत का बड़ा बाज़ार, मध्य एशिया में तेल का खेल और चीन द्वारा हांगकांग मसले पर लगातार हो रही वैश्विक किरकिरी के बीच भारत जितनी अच्छी सौदे बाज़ी कर पायेगा वह ही उसकी कला है। पीओके पर सरकार के जिम्मेदार लोगों के आने वाले बयान इसी सौदेबाजी प्रक्रिया का एक स्वरूप है। पाकिस्तान इस समय चौतरफा मार झेल रहा है। कुल मिलाकर भावी वैश्विक परिदृश्य में अमेरिका भारत को चीन के सामने एक वैकल्पिक अर्थव्यवस्था के रूप में देख रहा है। भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती नज़दीकियां उन्हीं व्यापारिक रिश्तों की एक बुनियाद हैं। 

अमित त्यागी

पूरा विश्व इस समय एक बाज़ार बन गया है। राजनीति सिर्फ सत्ता प्राप्त करने के लिए नहीं की जा रही है बल्कि सत्ता के द्वारा बाज़ार को नियंत्रित करने के लिए की जा रही है। नब्बे के दशक में भारत में उदारीकरण के आने के बाद जिस बाज़ार की नींव भारत में पड़ी थी वह आज वटवृक्ष बन कर खड़ा हो चुका है। पूरी दुनिया के बड़े बाज़ार के बीच भारत एक बड़ा बाज़ार है जिसका आकार लगातार बढ़ता चला जा रहा है। भारत में निम्न वर्ग एवं किसान की आमदनी बढऩे के फॉर्मूले के कारण इस वर्ग की क्रय शक्ति बढऩा प्रारम्भ हो गयी है। यह वर्ग आगामी 15 सालों में एक नया बाज़ार पैदा करने जा रहा है। भारत में जो वर्तमान में 30-35 करोड़ का मध्य वर्ग है वह धीरे धीरे 60-70 करोड़ का मध्य वर्ग होने जा रहा है। चूंकि विकसित देशों की अर्थव्यवस्था इस समय अपने सेचूरेशन की स्थिति में आ गयी है इसलिए भारत का नया उभरता बाज़ार सबके लिए एक अवसर पैदा कर रहा है। यूरोप और अमेरिका की कंपनियों की निगाह इसी बड़े बाज़ार की तरफ लगी हुयी है। बस यहीं से पैदा होती है भारत की शक्ति। भारत के लोकतन्त्र की ताकत एवं भारत की कूटनीतिक विजय की पटकथा।

नरेंद्र मोदी इस पटकथा के महानायक बन कर उभर चुके हैं। भारत के बड़े बाज़ार को कैसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ताकत में बदला जाता है इस काम को वह बखूबी अंजाम दे रहे हैं। एक तरफ वह इस ताकत के जरिये विश्व मंच को साध रहे हैं तो विश्व मंच को लोकतन्त्र की ताकत का एहसास करा कर बेहतर सौदेबाजी की प्रक्रिया में शामिल भी कर रहे हैं। 370 पर कार्यवाही करने के बाद जिस तरह से अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान अकेला पड़ा है। उसके साथ कोई भी महत्वपूर्ण देश नहीं खड़ा हो रहा है वह इसी बड़े बाज़ार की शक्ति का नतीजा है।  भारत नाटो का भी महत्वपूर्ण सदस्य है और नाटो देश भी भारत के साथ ही खड़े दिखाई देते हैं। पाकिस्तान इस कोण से भी अकेला दिखाई देता है। पाकिस्तान के साथ सिर्फ चीन दिखाई देता है। चीन और भारत के बीच बाज़ार को लेकर व्यापारिक युद्ध धीरे धीरे गर्मा रहा है। वास्तव में यदि देखा जाये तो यह व्यापारिक युद्ध भारत और चीन के बीच न होकर चीन और अमेरिका के बीच है। अमेरिका चीन के घटिया माल को अपने यहां डम्पिंग ग्राउंड बनने से रोकने के लिए कभी ड्यूटी बढ़ाता है तो कभी भारत को प्रोत्साहित करता है। चीन प्रति उत्तर में कभी पाकिस्तान का सहयोग करता है तो कभी अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर देता है। इस तरह से एक दूसरे को शह देने का यह खेल लगातार चल रहा है। भारत के बड़े बाज़ार से सीधा पंगा कोई नहीं लेना चाहता। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सौदेबाजी में माहिर मोदी ने इस बीच न सिर्फ 370 का हल निकाल लिया बल्कि पीओके पर भी दावा ठोक दिया। यूरोप के देशों के पैसे से चलने वाली उन एनजीओ पर भी शिकंजा कस दिया गया है जो दलित मूवमेंट के नाम पर भारत को तोडऩे का काम कर रही थीं। यूरोप के देशों ने अपनी कंपनियों के हितों को देखते यह बंद भी कर दिया है। अब भारत सरकार ने हर विदेशी पैसे से पोषित एनजीओ से कहा है कि वह इस बात का हलफनामा दें कि प्राप्त होने वाले धन का उपयोग धर्मांतरण के लिए नहीं करेंगे। इस तरह से भारत एक नए वैश्विक परिदृश्य की धुरी बनता दिख रहा है। मोदी सरकार ने पूरी दुनिया को भरोसा दिला दिया है कि दुनिया की मंदी को दूर करने में भारत एक विश्वास करने योग्य अर्थव्यवस्था है। सिर्फ भारत ही चीन को चुनौती पेश कर सकता है। 2025-30 के बीच भारत का मूलभूत ढांचा इस स्थिति में आ जाएगा कि वह चीन को चुनौती दे पाएगा।

अब इस समय जो अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति है वह 2020 में होने जा रहे अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव को लेकर चल रही है। रिपब्लिकन पार्टी से आने वाले डोनाल्ड ट्रम्प अपनी राष्ट्रवादी नीतियों के कारण सत्ता में आए थे। रिपब्लिकन पार्टी को चुनाव में चंदा देने वाले ज़्यादातर हथियार विक्रेता एवं तेल कंपनियों के मालिक हैं। इसके साथ ही एक बात बहुत महत्वपूर्ण है कि अमेरिका में राष्ट्रपति के दूसरे टर्म के पहले युद्ध अवश्य होता है। उस युद्ध से ही उम्मीदवार का खर्च निकलता है। अमेरिका की हथियार कंपनियों को फायदा पहुंचाने एवं उस धन से राष्ट्रपति चुनाव में फायदा लेने के कारण ही अमेरिका मध्य एशिया में ईरान पर हमले कर दबाव बढ़ा रहा है। सऊदी अरब के तेल उत्पादन को कम करके अपनी कंपनियों का तेल उत्पादन बढ़वा रहा है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राष्ट्रवाद की सफल कुंजी को अमेरिका में रहने वाले भारतीयों के लिए इस्तेमाल कर रहा है। और इस खेल में ज़्यादातर बड़े देशों के द्वारा पाकिस्तान को फुटबॉल बना दिया गया है। उस पर हर कोई लात ही मार रहा है। पाकिस्तान की एक आस अफगानिस्तान पर आकर टिक जाती है जहां तालिबान के साथ अमेरिका की वार्ता बेनतीजा होने के कारण नए समीकरण पैदा हो रहे हैं। पर तालिबान भी पाकिस्तान को अब उस तरह की गर्मजोशी नहीं दिखा रहा है जैसे दस साल पहले दिखाता था।

अफगानिस्तान में ट्रम्प हुये फेल, भारत के लिए एक मौका 

अमेरिका और तालिबान के बीच में काफी समय से चल रही वार्ता बेनतीजा ही रही है और अब खत्म हो गयी है। इससे भारत को कुछ समय के लिए ही सही थोड़ी राहत तो मिल ही गयी है। इसके लिए सबसे पहले तालिबान की वार्ता को समझते हैं। अफगानिस्तान में तेजी से बदलते परिदृश्य में क्षेत्रीय ताकतों द्वारा लगातार अपने समीकरण बदलने का दबाव बढ़ता चला जा रहा है। अमेरिका यह बात स्पष्ट कर चुका है कि अकेला वह ही आतंकवाद के खिलाफ युद्ध लडऩे का जिम्मा उठाए हुये हैं। ऐसे में भारत, ईरान, तुर्की और रूस जैसे देशों को वह इसमें जोडऩा चाहता है। इस जि़म्मेदारी का बोझ सहने का अमेरिका का आह्वान भविष्य में जोर पकडऩे जा रहा है। अगर थोड़ा और अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों की तरफ बढ़ें तो तालिबान और अमेरिका के बीच वार्ता लगभग ठीक दिशा में ही बढ़ रही थी। सितंबर 2019 माह के आरंभ तक बातचीत ठीक दिशा की तरफ बढ़ती भी रही। ट्रम्प के द्वारा कैंप डेविड में 8 सितंबर 2019 के दिन तालिबान और राष्ट्रपति अशरफ गनी की मेजबानी की योजना भी बना ली गयी थी। तभी अचानक 6 सितंबर को काबुल में तालिबान द्वारा एक हमला किया गया। इसमें एक अमेरिकी सैनिक समेत 11 लोग मारे गए। इसके बाद ट्रम्प ने यह कहते हुये बातचीत स्थगित कर दी कि अगर यह संगठन बातचीत के दौरान भी युद्ध विराम नहीं कर सकता है तो इससे बातचीत का क्या फायदा है।

तालिबान आज अफगानिस्तान के बड़े हिस्से पर काबिज है जबकि 2001 में अमेरिकी सेनाओं ने उसे एक बहुत छोटे से हिस्से में समेट दिया था। इसके साथ ही तालिबान, अशरफ गनी के राष्ट्रपति पद को भी मान्यता नहीं देता है। तालिबान अशरफ गनी सरकार को अमेरिका की कठपुतली सरकार मानता है। अमेरिका के साथ जैसे ही तालिबान की वार्ता रद्द हुयी उसने तुरंत रूस और ईरान से संपर्क साध लिया। यह दोनों देश वर्तमान में अमेरिका के सामने खड़े देश हैं। एक तरफ रूस की हथियार कंपनियां अमेरिका को चुनौती दे रही हैं तो दूसरी तरफ अमेरिका ईरान पर हमला करके अपनी उपस्थिती वहां दर्ज करा रहा है। अब तालिबान का रुख चीन की तरफ बढ़ रहा है। तालिबान अमेरिका के सभी विरोधियों के साथ मिलकर समर्थन जुटा रहा है। ऐसे में भारत का हस्तक्षेप अफगानिस्तान में महत्वपूर्ण बन रहा है। भारत ने विकास के मोर्चे पर अफगानिस्तान में बेहतर काम किया है। अपने कामों के जरिये वहां अपनी पैठ बनाई है। अफगानिस्तान में भारत को लेकर अच्छी संभावनाएं बनने लगी है। एक ओर पाकिस्तान तालिबान के साथ खड़ा है तो भारत अफगानिस्तान सरकार के साथ है। पिछले कुछ समय से अपने पड़ोसी देशों के साथ प्राथमिकताएं तय करने में भारत की भूमिका बेहद अहम बन गयी है। यह बात तब स्पष्ट हो गयी थी जब भारत द्वारा 370 हटाई गयी तब पाकिस्तान ने इस विषय को अफगानिस्तान से जोड़ कर दिखाने का प्रयास किया था। इस पर  स्वयं तालिबान ने कहा कि इस विषय को अफगानिस्तान के साथ जोडऩे से हल नहीं निकलेगा क्योंकि अफगान मसला इससे जुड़ा है ही नहीं। इससे एक बात तो साफ हो गयी थी कि अफगानिस्तान में चाहे अशरफ गनी की सरकार हो या पाकिस्तान के करीबी तालिबान की, दोनों ही कश्मीर विषय पर दखल नहीं देने जा रहे हैं। अफगानिस्तान को अपने मसलों के हल के लिए अमेरिका और पाकिस्तान पर इतना भरोसा नहीं है जितना कि भारत पर है। ऐसे में भारत को भी दक्षिण एशिया में अपने कद के साथ न्याय करने के लिए अपनी नीतियों को ढालना होगा। अमेरिका और तालिबान की वार्ता रद्द होने से मिले मौके को भुनाना होगा। पाकिस्तान को चारों तरफ से मुंह की खाने के बाद अपने बलूचिस्तान को संभालना भी मुश्किल हो रहा है। बलूचिस्तान की सीमाएं अफगानिस्तान से मिलती हैं। ऐसे में पाकिस्तान कभी नहीं चाहेगा कि भारत की पैठ अफगानिस्तान में बढ़े। ट्रम्प और मोदी की करीबी के कारण अगर भारत की वर्तमान सरकार अफगानिस्तान में ज़्यादा सक्रिय होती है तो उसे अमेरिका का विरोध भी झेलना होगा। पाकिस्तान को अफगानिस्तान में न अमेरिका पसंद कर रहा है न ही अफगान सरकार। तालिबान भी इमरान खान के साथ ज़्यादा पींगे बढ़ाने के मूड में नहीं दिखता है। इस तरह से अफगानिस्तान में भी पाकिस्तान अलग थलग पड़ता दिख रहा है।

कश्मीर का व्यापारिक पक्ष एवं भारतीय संस्कृति

कश्मीर विषय पर भारत के साथ अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के बढ़ते रुझान एवं 370 हटने के बाद कश्मीर में व्यापार की संभावनाएं खुल गयी हैं। जब व्यापार बढ़ेगा तो सभी देशों की कंपनियों के लिए वहां एक बाज़ार पैदा होगा। कोई भी महत्वपूर्ण देश 370 के विषय पर भारत का विरोध और पाकिस्तान के साथ जाकर उस व्यापारिक पक्ष को दरकिनार नहीं करना चाहता है। यदि पूर्व में देखें तो जिस समय भारत का विभाजन हुआ था उस समय कश्मीरी लोग भारत के साथ खड़े थे। वर्तमान पाकिस्तान के दो प्रमुख इलाके बलूच और पश्तून भी विभाजन के पक्ष में नहीं थे। 1943 तक भारत के विभाजन की परिकल्पना असहनीय थी। धीरे धीरे जिन्ना और कुछ अन्य मुस्लिम नेताओं की जि़द के चलते विभाजन का फॉर्मूला आकार लेने लग। मुसलमानों की शिकायतें बढ़ती रहीं। प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान मौलाना वहिउद्दीन लिखते हैं कि ‘विभाजन के पहले मुसलमान 14 मांगें रखते थे जो आज़ादी के बाद बढ़ कर 25 हो गयी थी। इसके आगे उनका कहना था कि मुस्लिम समाज लगातार मांग करता रहा है। वह एक राष्ट्र के रूप में क्या योगदान कर सकता है इस पर वह बात नहीं करता है। यदि आप राष्ट्र को कुछ दे नहीं सकते तो आपको लेने का भी कोई हक़ नहीं है।

अब यह वक्तव्य ऊपरी तबके के सामंतवादी सोच के मुसलमानों पर तो फिट बैठ सकता है किन्तु नीचे के तबके के मुसलमान ने भारत की जीडीपी को बढ़ाने में अपना योगदान अवश्य ही दिया है। वह भी मुस्लिम धर्म के ठेकेदारों और मौलानाओं से पीडि़त वर्ग है। कश्मीर भूभाग में तो 370 के नाम पर उसके अधिकारों का सबसे ज़्यादा हनन किया गया। जो सुविधाएं और अधिकार भारत के अन्य राज्यों के मुसलमान पाते थे वह कश्मीर के लोगों को नहीं मिलते थे। अब जब उन्हें भारत के अन्य राज्यों के समान अधिकार मिलने का रास्ता प्रशस्त हुआ तो पाकिस्तान ने कश्मीर में मानवाधिकार का हल्ला पीटना शुरू कर दिया। उसे कश्मीर में मुख्य धारा में आती बड़ी जनसंख्या नहीं दिखी बल्कि कश्मीर के कारण अपनी पैदल हो चुकी विदेश नीति को पुनर्जीवित करने की संभावना ज़्यादा दिखी। पाकिस्तान को बलूच और पश्तून इलाकों में अपनी नाकामयाबी भुनाने का मौका कश्मीर में मिलने की अभी भी आस है जबकि उसको नहीं पता कि कश्मीर सिर्फ मुस्लिम जनसंख्या का प्रतीक नहीं है बल्कि सूफी और शैव भक्ति का वेदान्त मिश्रण है। भारत की हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रारम्भ ही कश्मीर से होता है। हिन्दू धर्म के प्रभाव के कारण सूफियों की एक नयी धारा का उदय हुआ जिसे ‘ऋषि श्रंखला’ कहा जाता है। शैव धर्म, ऋषि श्रंखला और कश्मीर की संस्कृत भाषा के बिना कश्मीरियत मुकम्मल नहीं होती है। भारतीय संस्कृति की कल्पना इसके बगैर अधूरी है। घाटी में रहने वाले कश्मीरी पंडित पाणिनी, पतंजलि, चरक, कालिदास। कल्हण, बिल्हण, वामनचार्य की सन्तानें हैं। पश्चिम के विद्वानो ने कश्मीर पर अध्ययन के लिए संस्कृत के प्रकांड विद्वानों की मदद ली है। कश्मीर में विकसित शैव धर्म आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक भारत का सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिक एवं धार्मिक आंदोलन था।

370 के हटने के बाद जिस तरह से कश्मीर के परंपरागत और सांस्कृतिक ढांचे को मजबूत करने की तैयारी चल रही है उसमें धार्मिक पर्यटन कश्मीर में एक बड़ा रोजगार पैदा करने जा रहा है। वर्तमान में अमरनाथ यात्रा भी कश्मीरी मुसलमानों के रोजगार का एक बड़ा माध्यम है। पाकिस्तान जब भी कश्मीरी मुसलमानों के हक़ की बात करता है तब उसके अपने निहित स्वार्थ तो दिखाई देते हैं। मुसलमानों के भले की कोई संभावना कहीं दिखाई नहीं देती है। इसलिए कश्मीर के विषय पर उसे न पश्चिमी देशों से समर्थन मिल रहा है न ही मध्य एशिया के इस्लामिक देशों से। रही सही कसर पिछले कुछ समय में मोदी को मुस्लिम देशों में मिले सर्वोच्च सम्मानों और उनसे व्यापारिक सौदों ने पूरी कर दी है। यह पूरा परिदृश्य इमरान खान को एक लाचार प्रधानमंत्री के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में स्थापित कर रहा है।

प्रभावहीन होती घरेलू और बाहरी आलोचनाएं

जब किसी नीति की आलोचना तथ्यों के साथ और प्रभावी रूप में की जाती है तब उसका असर व्यापक होता है। जब आलोचना तथ्यहीन एवं सिर्फ नीचा दिखाने के लिए हो तो वह न तो जनता और न ही अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय पर अपना प्रभाव छोड़ती है।  एक तरफ डोनाल्ड ट्रम्प मोदी की तुलना एल्वेस प्रिस्ले से कर रहे हैं। उनको ‘फादर ऑफ इंडिया’ कह कर संबोधित कर रहे हैं तो दूसरी तरफ मोदी के विरोधी भारत में उनको भारत का प्रधानमंत्री न मानकर भाजपा का नेता मानकर उनकी आलोचना करने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। अमेरिका के भारत के संबंध हालांकि व्यापारिक हैं किन्तु इन सम्बन्धों को इतनी गर्मजोशी में तब्दील करने में मोदी का योगदान महत्वपूर्ण है। मोदी भारत में व्यापारिक निवेश के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वह माहौल तैयार कर चुके हैं जिससे अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों का भारत पर विश्वास बढ़ा है। वर्तमान में सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि देश में विश्लेषण के आधार पर बात कम की जा रही है। लोग पक्ष और विपक्ष में बंट गए हैं। यही हाल कमोवेश मीडिया का भी है। वहां भी एक पक्ष मोदी को बढ़ा चढ़ा कर पेश कर रहा है तो दूसरा पक्ष  उनका अनावश्यक विरोध कर रहा है। रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका को छोड़कर नकारात्मक और विध्वंसात्मक भूमिका में आए लोग सिर्फ अपनी विश्वसनीयता खत्म कर रहे हैं। आलोचना नीतियों की न होकर व्यक्तिमूलक हो गयी हैं। सरकार की नीतियों, निर्णयों, कार्यक्रमों, आयोजनों या गतिविधियों पर बहस न होकर सीधे नेतृत्व या व्यक्ति पर प्रहार किए जा रहे हैं। शायद यही एक कमजोर और लचर विपक्ष की निशानी होती है।

इसके साथ ही पक्ष और विपक्ष की भाषाई बौद्धिकता कम होती जा रही है। जो बात शालीन भाषा में कही जा सकती है उसमें भी अनावश्यक आक्रामकता का आना दुर्भाग्यपूर्ण है। जनता के बीच जाकर विरोध करने की अपेक्षा सिर्फ मीडिया में बयान देने से जनता भी भ्रमित महसूस करती है। जैसे 2016 में विमुद्रीकरण (नोटबदली) के दौरान डॉ मनमोहन सिंह ने उसे ‘संगठित एवं कानूनी लूट’ की संज्ञा दी थी। जीएसटी को ‘टैक्स टेररिस्म’ का नाम दिया था। राहुल गांधी तो इससे भी एक कदम आगे बढ़ गए थे और उन्होंने जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स कहा था। संसद में कांग्रेस ने अपने इस स्टैंड को बरकरार रखा था और राज्यसभा में मनमोहन सिंह इसे पास भी करवाने में सफल रहे थे। इन दोनों को असफल नीतियां कहकर प्रचारित किया गया था किन्तु इसके बावजूद भारत में विदेशी निवेश की भूमिका बनती जा रही है। जो नीतियां व्यवस्था सुधार के लिए आवश्यक नीतियां थीं उसको दुष्प्रचारित करने में कांग्रेस ने काफी काम किया। जो काम संरचनात्मक सुधार का अहम हिस्सा थे उसका विरोध आज भी मनमोहन सिंह कर रहे हैं। जब वह मोदी सरकार के इन संरचनात्मक सुधारों का विरोध करते हैं तब वह भूल जाते हैं कि अगर यही सुधार उन्होंने अपने कार्यकाल में किए होते तो भारत में गरीब और अमीर का फासला नहीं बढ़ता। इसको आइए समझा जा सकता है। नरसिंह राव सरकार के दौरान जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे तब उदारीकरण, वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण एवं निजीकरण का दौर प्रारम्भ हुआ। इस दौरान भारत के मध्य वर्ग को कई बड़े ब्रांड के उत्पाद सुलभ हुये और मध्य वर्ग एक बड़े बाज़ार के रूप में उभरा। इस दौरान महंगाई बढ़ी। अमीर और ज़्यादा अमीर होते चले गए। महंगाई के कारण गरीब और अमीर के बीच दूरी बढ़ती चली गयी। इसके बाद अगर मनमोहन सिंह अपने कार्यकाल में भूमि संबन्धित कानूनों में सुधार, श्रम क़ानूनों में सुधार, कृषि सुधार एवं सूक्ष्म/लघु उद्योगों के सुधार भी लागू कर देते तो निम्न वर्ग के पास भी धन आता और उसकी क्रय शक्ति बढ़ जाती।

पर ऐसा नहीं किया गया। इसलिए ज़मीन की कीमतें आसमान तक पहुंची। प्रोपर्टी डीलिंग एक बड़ा व्यवसाय बन गया था। गरीब के हाथ से जमीने निकलकर अमीर के हाथ में जाने लगी। जब इनमें संस्थागत सुधार की दिशा में कदम उठाए गए और यह धन निम्न वर्ग तक पहुंच कर उनकी क्रय शक्ति बढ़ाने लगा तब आलोचक आर्थिक मंदी का रोना रोने लगे। आलोचक निर्यात को 6 प्रतिशत घटना तो प्रचारित करते हैं किन्तु इस दौरान आयात भी 13.45 प्रतिशत घटा है, यह नहीं बताते हैं।  निर्यात और आयात दोनों घटने से व्यापार संतुलन बना रहा और महंगाई दर चार प्रतिशत से कम रही। चूंकि, विपक्ष के पास न तो अध्ययन करने का समय दिखता है और न ही सरकार को घेरने की आवश्यक विद्वता। इसलिए मोदी सरकार के गलत कदमों का आवश्यक विरोध भी नहीं हो पाता है। मजबूत लोकतन्त्र के लिए विपक्ष का मजबूत होना भी आवश्यक शर्त होता है। स्वयं को मजबूत करने के लिए विपक्ष को भी कुछ कदम उठाने चाहिए। सबसे पहले अपने सांसदों और विधायकों को सरकार के अलग अलग मंत्रालयों के विभाग आवंटित करके उनका अध्ययन करने के लिए कहना चाहिए। विषय विशेषज्ञों के साथ जन प्रतिनिधियों को बैठाना चाहिए ताकि वह नीतियों का विरोध कर सकें। अभी तो नीतियों की जानकारी न होने के कारण जन प्रतिनिधि व्यक्ति की आलोचना कर रहे हैं और हास्य का पात्र बन रहे हैं। लोकतन्त्र में विरोध को शत्रुता एवं आलोचना को मनमुटाव में बदलने से अब रोकना ही होगा वरना पाकिस्तान के द्वारा भारत के विरोध और विपक्ष के द्वारा विरोध में कोई अंतर नहीं दिखेगा। पिछले कुछ समय के बयानों में भारत का विपक्ष और पाकिस्तान की सरकार एक दूसरे के पूरक नजऱ आ रहे हैं।

भारत के बड़े बाज़ार के अन्तर्राष्ट्रीय आयाम

अब एक बात तो साफ है कि पूरी दुनिया में लोकतन्त्र का आधार बाज़ार है। जिसके पास जितना बड़ा बाज़ार है वह उतना ही मजबूत लोकतन्त्र है। इसके आधार पर देखें तो अब कोई बड़ा युद्ध किसी भी देश के बीच में होने नहीं जा रहा है। ट्रेड वार के बीच छोटे छोटे युद्ध भविष्य में होते रहेंगे ताकि हथियारों की खरीद फरोख्त चलती रहे। चूंकि, विश्व इस समय एक वैश्विक मंदी और संक्रमण काल से गुजऱ रहा है इसलिए बड़ा युद्ध सिर्फ हथियार विक्रेताओं के अतिरिक्त किसी देश के लिए फायदे का सौदा नहीं है। भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव की वजह से दोनों देशों द्वारा हथियारों की खरीद की जा सकती हैं ताकि अमेरिका में ट्रम्प की वापसी का रास्ता प्रशस्त हो सके। भारत और पाकिस्तान दोनों की सरकार बनवाने में ट्रम्प का भी अप्रत्यक्ष योगदान रहा है। दोनों ही देशों में ट्रम्प ने उस तरह के चुनाव प्रचार को प्रोत्साहित किया जिसके द्वारा दोनों देशों की जनता का भावनात्मक जुड़ाव हो सके। अभिनंदन की पाकिस्तान से सकुशल वापसी अमेरिका के इशारे पर पाकिस्तान ने की थी। इससे मोदी का विराट स्वरूप जनता के सामने आया। उनकी कूटनीति का लोहा भारत में माना गया। पाकिस्तान को लाचार दिखाकर भारत में मोदी की छवि चमकाने में ट्रम्प का बड़ा योगदान रहा है।

अब आवश्यकता ट्रम्प को मोदी की है। ट्रम्प चाहते हैं कि मोदी अमेरिका में बसे भारतीयों में वही जादू भर दें जो उन्होंने भारत में पैदा किया हुआ है। चूंकि ट्रम्प का राष्ट्रवाद और मोदी का राष्ट्रवाद एक दूसरे के पूरक हैं इसलिए ट्रम्प की वापसी भी तय लग रही है। ट्रम्प इस समय अपनी अर्थव्यवस्था को ऊपर उठाने के प्रयास में भी है। इधर भारत में भी अर्थव्यवस्था सुधारने का बड़ा जिम्मा मोदी के पास है। भारत में मंदी की बड़ी वजह बाज़ार में पैसा नहीं होना है। सरकार द्वारा मार्च के बाद से बड़े पेमेंट रुके हुये हैं। बाज़ार में क्रय शक्ति का निर्माण करने वाले धन का लगभग चालीस प्रतिशत सरकारी कर्मचारियों की तन्ख्वाह, सरकार के द्वारा कराये गए कार्यों की ठेकेदारी एवं अन्य स्रोतों से आता है। चूंकि अभी सरकारी काम के ठेकेदार और एनजीओ के पैसे अभी रुके हैं इसलिए बाज़ार में पैसा नहीं आ रहा है। इसके साथ ही अब सरकारी कर्मचारी को रिश्वत का पैसा खर्च करने के तरीके भी बंद हो गए हैं। पहले रिश्वत का पैसा ज़मीन और सोने में प्रयोग होता था। अब दोनों की खरीद के नियम कड़े हो गए हैं। इस वजह से पैसा बाज़ार में न आकर ब्लॉक हो गया है। बड़ा व्यापारी भी आयकर के कारण बड़े खर्च से बच रहा है।

वर्तमान में बाज़ार का मनोवैज्ञानिक परिदृश्य गड़बड़ाया हुआ है। ऑटो सेक्टर में यूरो 6 पर काम चल रहा है इसलिए इसमें मंदी आई हुयी है। इलैक्ट्रिक कार में कई उपकरण नहीं होने के कारण उनको बनाने वाली कंपनियों में बेरोजगार कुछ समय के लिए बढ़ रहे हैं। सड़क अच्छी होने के कारण वाहन की आयु बढ़ी है तो नयी खऱीदारी नहीं हो रही है। यह भी ऑटो सेक्टर में मंदी की एक छोटी वजह है। ओला उबर ने भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बढ़ावा दिया है। डिफ़ॉल्टर बिल्डरों के कारण अब मकान में पैसा लगाने की हिम्मत निवेशक नहीं जुटा पा रहे है। निवेशक चिंतित हैं कि प्रोजेक्ट पूरा होगा या नहीं। कब्जा मिलेगा या नहीं। इस वजह से बाज़ार में अब निवेशक नहीं सिर्फ वास्तविक ग्राहक ही बचे हैं।  मूलभूत ढांचे को सुधार करने वाली नीतियों के समुचित प्रभाव आने के बाद और क्रय शक्ति बढऩे के बाद भारत का बाज़ार तेज़ी पकड़ेगा। भारत का निम्न वर्ग और मध्य वर्ग इस बाज़ार का वैश्विक आधार बनेगा। ऐसे में भारत सबके लिए आकर्षण का केंद्र बन गया है। अब देखना रोचक होगा कि भारत की सरकार इस बड़े बाज़ार के आधार पर कितनी बेहतर अन्तर्राष्ट्रीय सौदेबाजी देशहित में कर पाती है। इस सौदेबाजी में पाकिस्तान के टुकड़े भी हो सकते हैं। बलूचिस्तान की आज़ादी भी संभव है। पीओके पर कब्जा भी शामिल है और अफगानिस्तान से भारत के बेहतर रिश्ते भी। 370 हटने के बाद भारत के पास वाला कश्मीर भूभाग तो पाकिस्तान के लिए दुस्वप्न हुआ ही है अब उसे अपना हिस्सा बचाना भी मुश्किल पड़ रहा है। भारत के बड़े बाज़ार के आगे पाकिस्तान की कूटनीति नतमस्तक हो गयी है।

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अपने आभामंडल से खाड़ी देशों में मोदी का जलवा बरकरार

वर्तमान में नरेंद्र मोदी का जलवा अमेरिका सहित चहुंओर कायम है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके आसपास एक आभामंडल होता है। ऐसे व्यक्तियों को आप बचपन से ही अपनी बात लोगों से मनवाते, लोगों को लीड करते देख सकते हैं। फिर कोई फर्क नहीं पड़ता कि ऐसे लोग गरीब हैं या अमीर। इतिहास ऐसे ही लोगों से भरा पड़ा है।  पूरे विश्व को अपने सामने नतमस्तक करने की प्रबल इच्छा उनमें स्पष्ट दिखाई पड़ती है जिसका उदाहरण आप भारतीय विपक्ष को देखकर भी समझ सकते हैं। यदि पाकिस्तान की स्थिति की बात करें तो विशेष तौर से कश्मीर मुद्दे के संदर्भ में तो हम पाते हैं कि दुनिया में अर्थ और स्वार्थ से बढ़कर और कुछ भी नहीं है। धर्म तो कतई नहीं। मानवता और इंसानियत पर फिर भी आप किसी को अपने साथ ला भी सकते हो लेकिन पाकिस्तान जैसे देशों ने तो अपनी छवि इतनी खराब कर ली है कि वो बाकी दुनिया में भले ही कितनी भी बेशर्मी दिखाये परंतु कम से कम अपने परिवार (इस्लामिक देश, जैसा कि वो समझता है) में तो किसी को भी मुंह नहीं दिखा सकता। न यूरोपीय देश और न ही इस्लामिक देश, उसकी बात को कोई नहीं सुन रहा। अरब देशों ने ऐसे समय में न सिर्फ नरेंद्र मोदी को सम्मानों से नवाज कर पाकिस्तान को उसकी औकात भी बता दी बल्कि अर्थ और स्वार्थ के रिश्तों को भी भारत के साथ मजबूत कर लिया। नरेन्द्र मोदी और उनकी विश्व स्तर पर दिखाई जा रही गर्मजोशी का भी अहम स्थान है। शायद ये मोदी का ही असर था कि उनकी खाड़ी देशों की पहली यात्रा के दौरान ही बहरीन ने 250 भारतीय कैदियों को रिहा कर दिया।

इस्राइल के साथ भारत के संबंध 1991 से हैं परंतु 2016 में नरेंद्र मोदी पहले ऐसे भारतीय प्रधानमंत्री बने जिसने इस्राइल का दौरा किया। उनके इस दौरे का भी कूटनीतिक प्रभाव खाड़ी देशों पर पड़ा जिससे वो भारत को अपने पलड़े में करने को जोर शोर से तत्पर हो उठे। इस सब से नरेंद्र मोदी को व्यक्तिगत लाभ ये हुआ कि 2002 गोधरा को लेकर उनकी जो मुस्लिम विरोधी छवि बन गई थी वो भी स्वत: ही टूटती नजर आई। चाहें वो भारत और खाड़ी देशों को करीब लाने के लिए संयुक्त अरब अमीरात द्वारा दिया गया जायद मेडल हो या फिर सऊदी अरब का सर्वोच्च नागरिक सम्मान अब्दुल्लाजीज सैश हो। सभी भारत तथा खाड़ी देशों के मध्य मजबूत रिश्तों की कवायद मात्र हैं और इस कहानी में पाकिस्तान का कोई किरदार नहीं है। बहरीन में लगभग 350000 भारतीय नागरिक हैं तथा बहरीन से द्विपक्षीय व्यापार 2018-19 में 1.3 अरब डॉलर पहुंच गया है। भारत की 80 प्रतिशत तेल आपूर्ति खाड़ी देशों से ही होती है। असल में पाकिस्तान का अलग थलग पडऩा और खाड़ी देशों से भारत के खिलाफ उसको कोई मदद न मिलना एक बाय प्रोडक्ट मात्र है जबकि यदि पाकिस्तान को एक तरफ भी रख दें  तो भी हमारे खाड़ी देशों से संबंध मजबूत होना अत्यंत आवश्यक है इसका कारण वहां बस रहे 75 लाख से ज्यादा भारतीय भी हैं जो हर वर्ष अरबों डॉलर भारत भेजते हैं। इस प्रकार नरेंद्र मोदी जी को जब आप देखें तो आप महसूस करेंगे कि उन्होंने भारतीय कूटनीति को रस्मअदायगी और बोझिलता से निकालकर क्रियात्मक और  खुशनुमा बनाने का कार्य किया है जिसकी परिणति आप उनके अन्य देशों के प्रमुखों के साथ उनके व्यक्तिगत संबंधों के रूप में देख सकते हैं।

-आनंद गुप्ता

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पहले मानवाधिकार और भारतीय संविधान को भी समझ लो इमरान खान

मानव अधिकार एक अनुकरणीय विषय है जिसके अनुकरण के द्वारा समाज के हर व्यक्ति को उसके अधिकार मिलने का मार्ग प्रशस्त होता है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार के महत्व को समझते हुए संयुक्तराष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसम्बर, 1948 को मानवाधिकार की शुरुआत की गई थी। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा निर्धारित मानवाधिकार भारत में 26 सिंतबर, 1993 से अमल में लाया गया है। इसका अर्थ ये नहीं है कि 1993 के पहले भारत में मानवाधिकार नहीं मिलते थे। दरअसल, जब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानव-अधिकारों पर चर्चा चल रही थी उसी समय भारत का संविधान निर्मित हो रहा था। हमारे संविधान निर्माताओं ने भारतीय नागरिकों को मिलने वाले मूल अधिकारों में ही अधिकतर मानव अधिकारों को समावेशित कर दिया। जिसका प्रभाव ये हुआ कि अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा कहे जाने वाले मानव-अधिकार हमारे यहां संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों की श्रेणी में आ गए। अब जब कश्मीर से 370 हट गयी है और संवैधानिक अधिकारों की प्राप्ति का रास्ता जम्मू कश्मीर और लद्दाख भूभाग में खुल गया है तब इमरान खान को कश्मीर में मानवाधिकार याद आ रहा है। स्थितियों को नियंत्रित किए जाने वाले कफ्र्यू को मानवाधिकार का हनन दिखाकर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर वह अपनी लगातार किरकिरी करा रहे हैं।

सिर्फ हमारी संवैधानिक स्थिति नहीं बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत भी इतनी समृद्ध रही है कि वेदों और पुराणों में मानवता और मानव अधिकारों को जीवन शैली का अंग बना दिया गया था। सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामय:, सर्वे भद्राणि पश्यंतु…….. जैसे श्लोक इस बात के गवाह हैं कि समता का अधिकार (अनु0 14-18), शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनु0 23-24), धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार (अनु0 25-28) आदि तो प्राचीन भारत से हमारी जीवन शैली का ही अंग रहे हैं। अनेक प्राचीन दस्तावेजों, धार्मिक और दार्शनिक पुस्तकों में ऐसी अनेक अवधारणाएं हैं जिन्हें मानवाधिकार के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। अशोक के आदेश पत्र, मदीना का संविधान जैसे अनेकों दस्तावेज़ हैं जो मानवता की रक्षा के लिए धार्मिक आदेश बना दिये गए थे। आधुनिक मानवाधिकार कानून तथा मानवाधिकार की अधिकांश व्यवस्थाएं तो उनका ही संशोधित रूप मात्र है। अब इस बात को समझते हैं कि क्यों अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को मानवाधिकार की आवश्यकता महसूस हुई? 20 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में विकसित देशों को दो बड़े विश्व युद्धों से रूबरू होना पड़ा। इन युद्धों में उनकी धन और जन दोनों की बहुत हानि हुई। राजनीति, अर्थनीति और संस्कृति के माध्यम से कारपोरेट हितों को निर्देशित और नियंत्रित करने की गति द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद काफी तेज हो गई। द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था में अमेरिका और सोवियत संघ के इर्द-गिर्द जुटे देश अपनी आर्थिक भरपाई के लिए अपनी नीतियां दुनिया पर थोपने में लग गए। ये घटनाक्रम इतनी तेज़ी और समग्रता के साथ घटित होने लगा कि तीसरी दुनिया के लोगों (मानवता) की रक्षा के लिए मानव-अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा करना अवश्यंभावी हो गया। किन्तु इसके साथ ही एक बात बेहद विचारणीय है कि जिन देशों ने मानवाधिकारों पर सबसे ज़्यादा चर्चाएं की हैं वहीं मानवाधिकारों के हनन के दोषी हैं।

यदि मानव अधिकारों को समग्रता में समझा जाये तो इससे अभिप्राय अधिकारों की स्वतंत्रता से है जिसके सभी मानव प्राणी हकदार है। इनमें नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार सम्मिलित किए जाते हैं। जीवन जीने का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विधि के समक्ष समानता, भोजन का अधिकार, रोजगार का अधिकार, शिक्षा का अधिकार इनमें से प्रमुख हैं। क्या 370 के बाद कश्मीर भूभाग के लोगों को इन अधिकारों से वंचित कर दिया गया है? बस यही प्रश्न इमरान खान को वैश्विक समुदाय से नहीं खुद से पूछने की आवश्यकता है।

-अमित त्यागी (मानवाधिकार विधि में परास्नातक हैं)

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मोदी और इमरान आपस में कश्मीर मुद्दा सुलझा लेंगे : ट्रम्प

ह्यूस्टन में ‘हाउडी मोदी’ कार्यक्रम को संबोधित करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने संयुक्त राष्ट्र महासभा  के 74वें सत्र से इतर द्विपक्षीय बैठक की। इस बैठक में भारत की ओर से विदेश मंत्री एस जयशंकर, रेल मंत्री पीयूष गोयल समेत कई अधिकारी भी मौजूद थे। इस बैठक के बाद हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पीएम मोदी की जमकर तारीफ की। डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि मोदी मुझे बहुत पसंद हैं, उनकी शख्सियत बहुत बड़ी है। मोदी एलविस प्रेस्ली की तरह बहुत मशहूर हैं। नरेंद्र मोदी बहुत अच्छे प्रधानमंत्री हैं।

यूएन मुख्यालय में हुई इस मुलाकात के बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने पाकिस्तान के मुद्दे पर कहा कि पीएम नरेंद्र मोदी और इमरान खान मिलकर मुद्दा सुलझा लेंगे। बहुत अच्छा होगा कि दोनों देश मिलकर कश्मीर पर काम करें। मोदी महान प्रधानमंत्री हैं वह सारी समस्या सुलझा लेंगे। आतंकवाद के एक प्रश्न पर ट्रंप ने कहा कि ईरान नंबर वन आतंकी देश है। नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान पर साफ संदेश दे दिया है। इसके पहले ट्रंप ने खुद को एक ‘अच्छा मध्यस्थ’ बताते हुए कहा था कि अगर भारत और पाकिस्तान चाहें तो वह दोनों पक्षों के बीच कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थ बनने को तैयार हैं। उन्होंने ह्यूस्टन में ‘हाउडी मोदी’ सामुदायिक कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री मोदी द्वारा दिए गए बयान को भी ‘बेहद आक्रामक’ करार दिया था। इसमें भारतीय नेता ने पाकिस्तान और उसके द्वारा आतंकवाद को समर्थन का अप्रत्यक्ष रूप से हवाला दिया था। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र की सूची की बात पर चीन पर निशाना साधा। मोदी ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र की ओर से मिली मंजूरी और फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स के फैसलों पर बिना राजनीति के इन्हें लागू करना चाहिए। कहीं भी आतंकी हमले हों दुनिया को इन्हें आतंकी कृत्य ही मानना चाहिए। मोदी ने 74वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा में स्ट्रैटेजिक रिस्पॉन्स टू टेरररिस्ट एंड वॉयलेंट एक्सट्रीमिस्ट नैरेटिव्स नाम के एक कार्यक्रम को भी संबोधित किया। इसमें दुनिया के कई बड़े नेता शामिल हुए।

इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए संगठित तौर पर सभी को आगे आना होगा। मोदी ने आतंकवाद निरोध को संस्थागत बनाने का आह्वान किया। साथ ही उन्होंने बहुपक्षीय स्तर पर सहयोग को लेकर जोर देते हुए कहा कि दूसरे देशों का सहयोग मिलने के बाद भारत इस क्षेत्र में और भी तेजी से काम करेगा। आतंकियों को अपने अंजामों को पूरा करने के लिए किसी भी हालत में फंड और हथियार नहीं मिलने चाहिए। दुनिया में कही भी हमला होता है तो इसे आतंकवाद ही मानना चाहिए, न कि अच्छा और बुरा, ज्यादा और कम आतंकवाद। मोदी ने संयुक्त राष्ट्र की सूची की बात पर चीन पर निशाना साधा।

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सच की मजबूरी नहीं होती कि वो सब को कुछ खुश रखे!

ट्रम्प ने रेडिकल इस्लामिक टेररिज्म से लडऩे की बात बोलने के बाद लंबा विराम दिया। उनके इस विराम के बाद भीड़ ने भी खड़े होकर तालियां बजाईं। मोदी सहित वहां मौजूदा बाकी भारतीय अधिकारी भी खड़े हो गए। ट्रम्प ने विराम इसलिए दिया क्योंकि वो अपनी बात का असर देखना चाहते थे। विराम देकर वो एक ख़ास संदेश देना चाहते थे। विराम देकर उन्होंने ये भी जता दिया कि आखिर मैंने वो बोल दिया जो बहुत से लोग बोलने से बचते हैं।

राष्ट्रपति बनने से तकरीबन 30 साल पहले ट्रम्प से एक इंटरव्यू में पूछा गया था कि आपको क्यों लगता है कि आप देश के राष्ट्रपति बन सकते हैं, तो उनका जवाब था, क्योंकि मैं पॉलिटकली इन्करेक्ट हूं। मतलब मैं हमेशा वो बात नहीं बोलता जो आदर्श रूप में बोलनी जानी चाहिए, बल्कि मैं वो बोलता हूं जिसे लोग सच मानते हैं, मगर मुख्यधारा (राजनीति और मीडिया) जिसके बारे में कभी बात नहीं करती। ट्रम्प के ये तेवर ही आज उनकी सबसे बड़ी ताकत हैं। इन्हीं तेवरों ने उन्हें अमेरिका का राष्ट्रपति बनाया।

मगर भारत में सच को सच बोलना तो दूर इतने सालों तक हम उसे सच मानने को ही तैयार नहीं थे। उस मुख्यधारा ने कभी माना ही नहीं कि आतंकवाद का कोई धर्म हो सकता है। किसी खास तरह की मानसिकता आतंकवाद को बढ़ावा दे सकती है। और मोदी की जिस राजनीति को आज भी देश का एक वर्ग (राजनीति और वामपंथी मीडिया) गलत मानती है वो इसलिए लोकप्रिय हुई, क्योंकि उसने उस झूठ को सच मानने से इंकार कर दिया।

उन्होंने ट्रम्प की तरह खुले शब्दों में भले न बोला हो लेकिन उसकी तरफ इशारा ज़रूर कर दिया। वो इशारा जिसे बहुत से लोग साम्प्रदायिक राजनीति कहते हैं। क्योंकि उनके हिसाब से जो धर्मनिरपेक्ष राजनीति है उसमें किसी को बुरा नहीं कहा जाता। हमेशा यही बोला जाता है कि सभी अच्छे हैं। हज़ारों सालों से गंगा-जमुनी तहज़ीब है, कोई भी धर्म नफरत नहीं सिखाता, जैसी मीठी-मीठी बातें बोली जाती हैं। उन्हें लगता है कि किसी को भी ऐसा सच बोलने से परहेज़ करना चाहिए या उसे इग्नोर करना चाहिए जिससे कोई खास पक्ष शर्मिंदा हो। भले उसने उस शर्मिंदगी से बचने के लिए आज तक कुछ भी क्यों न किया हो।

यही वो सोच है जो मानती है कि धर्मनिरपेक्षता की रक्षा में आप बहुसंख्यक को कुछ भी कह सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे गली के झगड़े में कोई महिला झूठा बड़प्पन दिखाने के लिए हर बार अपने ही बच्चे को डांट देती हो। महिला को लगता है कि उसके ऐसा करने से लगेगा कि देखा, वो बाकी माओं की तरह नहीं है। लोगों के ऐसा सोचने से महिला को सम्मान मिलेगा और अगर वो कभी अपने बच्चे को सच मानकर उसका पक्ष लेगी तो लोग उसे भी बाकी महिलाओं की तरह आम और झगड़ालू मान लेंगे।

महिला की तरह सम्मान की उस भूख ने कई सालों तक इस देश के मीडिया और राजनीतिक वो वैसा ही मक्कार बना दिया था। मगर देश की जनता उस बच्चे जितनी बदनसीब नहीं थी। बच्चा मां नहीं बदल सकता मगर जनता सत्ता बदल सकती है। जब वो जनता हद से ज़्यादा मजबूर हो गई, उसे विकल्प मिला, तो उसने सत्ता बदल दी। ये वो जनता थी जिसके अंदर सालों से पीडि़त होने के बावजूद छले जाने की पीड़ा थी। खुद को अकेला महसूस करने का दर्द था।

एक नेता को सफल या महान बनने के लिए कई पैमानों पर कामयाब होना पड़ता है। मोदी कई पैमानों पर खरे उतरे हैं और कईयों पर फेल भी हुए हैं। मगर ये एक पैमाना ऐसा है जिस पर बिना किसी शक ओ शुबाह के वो बेहद कामयाब हैं। उनके आने से उस पीडि़त जनता को तसल्ली मिली है। भले ही उनको पसंद न करने वाले लोग डिनायल मोड में जीते रहें मगर वो हर बदलते दिन के साथ ज्यादा लोकप्रिय और मज़बूत होते जा रहे हैं।

वो मज़बूत हो रहे हैं क्योंकि आडवाणी की तरह उन्होंने कभी परवाह नहीं की कि मुझे भी पॉलिटिकली करेक्ट होना है। जिन्ना को सबसे बड़ा देशभक्त बताकर कोई मिडिल पाथ चुनना है। क्योंकि उन्होंने माना, सच हमेशा लोकप्रिय नहीं होता। वो हमेशा बड़प्पन लिए नहीं आता। वो हमेशा मुंह का मीठा नहीं होता। सच हमेशा सच होता है और उसकी ऐसी कोई मजबूरी नहीं कि वो हर किसी को खुश करता फिरे।

नीरज बधवार

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