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घुसपैठियों के सवाल को पीछे छोड़ दिया एनआरसी ने

असम की राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर की अंतिम सूची जारी होते ही विवादों में आ गई है। वहीं इसे लेकर कुछ राज्य उत्साह में भी हैं। असम में एक कार्यक्रम में गृहमंत्री अमित शाह ने कह दिया कि पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी की व्यवस्था लागू की जाएगी। अमित शाह ने जैसे ही यह बयान दिया, भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों हरियाणा, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात के मुख्यमंत्रियों ने अपने राज्यों में इसे लेकर ना सिर्फ समर्थन दे दिया, बल्कि इसे अपने राज्यों में लागू करने की बात भी कर दी। झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास भी ऐसी घोषणा कर चुके हैं। माना जा रहा है कि मणिपुर और मेघालय में भी इसे समर्थन मिल सकता है। क्योंकि इन दोनों राज्यों के भी मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्यों में एनआरसी की मांग करते रहे हैं। वैसे दिल्ली, तेलंगाना, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में भी एनआरसी की मांग उठती रही है। भाजपा के मुख्यमंत्री मनोहर खट्टर, योगी आदित्यनाथ, विजय रूपाणी, त्रिवेंद्र सिंह रावत आदि जहां एनआरसी के पक्ष में हैं, वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसके प्रबल विरोधी हैं। भारतीय जनता पार्टी के आलोचकों का मानना है कि भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों के मुख्यमंत्री अपने राज्यों में एनआरसी लागू करके एक तरह से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करना चाहते हैं जिससे उन्हें वोटों का फायदा मिल सके। जबकि भारतीय जनता पार्टी समर्थकों का दावा है कि एनआरसी लागू करने से घुसपैठियों को बाहर करने में मदद मिलेगी। वैसे तो असम से घुसपैठियों को बाहर निकालने को लेकर एनआरसी की मांग की गई थी और इसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर लागू किया गया। लेकिन इसे लेकर ऐसी अवधारणा बनाई गई है कि एनआरसी अल्पसंख्यकों के खिलाफ है और उन्हें देश से बाहर करना संघ के विचार परिवार का एजेंडा है। इसीलिए एनआरसी को राष्ट्रीय मुद्दे और घुसपैठ की समस्या से जोड़ कर देखने की बजाय सांप्रदायिक नजरिए से देखा जा रहा है।

वैसे असम में जारी हुई सूची पर सवाल वे लोग भी उठा रहे हैं, जिन्होंने घुसपैठियों को बाहर निकालने के लिए इसे मुद्दा बनाया था तो सवाल वे भी उठा रहे हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के बहाने अल्पसंख्यक नागरिकों को देश से बाहर करने की आशंका जताई थी। सुप्रीम कोर्ट ने जिनकी याचिकाओं पर आदेश देकर राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को अद्यतन यानी अपडेट करने प्रक्रिया शुरू कराई थी, उनमें से एक पक्ष ऑल असम स्टूडेंट यूनियन ने इस सूची पर नाराजगी जताते हुए उसमें संशोधन के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की बात कही है। माना जाता है कि पूर्वोत्तर के इस राज्य में भारतीय जनता पार्टी के लिए सत्ता का दरवाजा खोलने में इस मुद्दे ने बड़ी भूमिका निभाई। भारतीय जनता पार्टी ना सिर्फ राज्य, बल्कि केंद्र की भी सत्ता में है। इसके बावजूद राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को अपडेट करने की जिन पर जिम्मेदारी थी, उन पर वह भी सवाल उठा रही है। राज्य के वित्त मंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने भी इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की बात की है।

दरअसल राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर की अंतिम सूची के मुताबिक 19,06,657 लोगों को बाहरी माना गया है। हालांकि पिछले साल जब इस रजिस्टर की ड्राफ्ट रिपोर्ट छपी थी तो असम के 3.39 करोड़ नागरिकों में से 2.89 करोड़ लोगों को नागरिकता के लिए योग्य पाया गया था। जबकि 40 लाख लोगों के नाम उस सूची में नहीं थे। विवाद इसी पर है कि आखिर 24 मार्च 1971 के बाद क्या असम में इतने ही लोग बांग्लादेश से घुसे? 14 अगस्त 1985 की मध्य रात्रि को असम के छात्र नेताओं और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच हुए समझौते में इसी तारीख के बाद असम आए लोगों को राज्य का नागरिक नहीं माना जाना था और उन्हें भारत से बाहर किया जाना था। यह बात और है कि उसी साल हुए राज्य विधानसभा चुनावों में छात्रों की नवगठित पार्टी असम गण संग्राम परिषद जो बाद में सिर्फ असम गण परिषद के नाम से जानी जाने लगी, को सत्ता मिली और वह भी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के तहत लोगों की पहचान करने का मामला भूल गई।

असम के राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को अद्यतन करने की कार्यवाही वैसे तो पहली बार वाजपेयी सरकार ने शुरू की। 17 नवंबर 1999 को अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली सरकार ने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के तहत असम के लोगों की सूची को अपडेट करने की शुरूआत की थी। उस वक्त इसके लिए सरकार ने 20 लाख रूपए की राशि निर्धारित की थी और पांच लाख रूपए जारी भी कर दिए थे। लेकिन काम तेजी से आगे नहीं बढ़ सका। लेकिन वाजपेयी सरकार के जाते ही असम में बदरूद्दीन अजमल के सहयोग से सत्ता में आई तरूण गोगोई की सरकार ने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं ली। वैसे भी अल्पसंख्यक राजनीति पर केंद्रित कांग्रेस और गैर भाजपा दलों के लिए यह मुद्दा सिर्फ राजनीति करने के लिए रहा, असल में इसे अमलीजामा पहनाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रही। इसलिए इस पर काम नहीं हो सका। वैसे भी इस सूची को अद्यतन करने में तेजी सुप्रीम कोर्ट के 2013 में दिए आदेश के बाद आई। देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह आदेश इस सिलसिले में दायर कई याचिकाओं की सुनवाई के बाद दिया था।

चूंकि यह मुद्दा पूर्वांचल में भारतीय जनता पार्टी के अस्तित्व को निर्णायक मोड़ पर पहुंचाने में कामयाब रहा है, इसलिए वह भी इस सूची की मौजूदा स्थिति से असंतुष्ट है। इसकी बड़ी वजह यह है कि माना जा रहा था कि धुबरी समेत बांग्लादेश से सटे जिलों में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के मुताबिक बहुत सारे ऐसे लोग मिलेंगे, जो 24 मार्च 1971 के बाद बांग्लादेश से आए। लेकिन राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के मौजूदा अद्यतन के बाद यह स्थिति गड़बड़ हुई है। मुस्लिम राष्ट्रीय मोर्चा के प्रवक्ता सैयद यासिर गिलानी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में हुए घालमेल पर इसी वजह से सवाल उठाते हैं। उनका कहना है कि धुबरी समेत बांग्लादेश से सटे जिलों में, जिनके पास वैध निवास प्रमाण पत्र नहीं है, ऐसे लोगों की संख्या महज छह प्रतिशत ही है, जबकि आदिवासी जिलों में यह संख्या साठ प्रतिशत तक है। जाहिर है कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को अपडेट करने में प्रक्रियागत से लेकर दूसरी लापरवाहियां हुई हैं। कई जानकारों का मानना है कि जिन लोगों के पास वैध नागरिकता साबित करने के लिए जिन बारह दस्तावेजों का आधार तय किया गया था, आदिवासी लोगों के पास वे भी नहीं हैं। इसलिए इस रजिस्टर की फिर से जांच होनी चाहिए। इसके साथ ही यह भी माना जा रहा है कि सीमावर्ती जिलों में आए बांग्लादेशियों ने स्थानीय प्रशासन से मिलीभगत करके अपनी नागरिकता के लिए वैध दस्तावेज हासिल कर लिए हैं। दिलचस्प यह है कि जिस तरूण गोगोई सरकार ने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर लागू करने में दिलचस्पी ही नहीं दिखाई, उनका कहना है कि भारतीय जनता पार्टी स्वतंत्र राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर लागू करने में पूरी तरह नाकाम रही है। हिमंत बिस्व सरमा पूछ रहे हैं कि हिंदू प्रवासियों को सूची से बाहर क्यों किया गया, जबकि विपक्षी दलों का कहना है कि राज्य में पुश्तैनी तौर से रह रहे कई मुसलमानों को सूची से बाहर रखा गया है। विपक्षी दलों का आरोप है कि कुछ गरीब और आदिवासी लोग सिर्फ इसलिए सूची से बाहर कर दिए गए क्योंकि उनके पास वैध दस्तावेज नहीं हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाने की मांग की है। इस पर जनता दल यू और तृणमूल कांग्रेस ने भी इस पर सवाल उठाया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कहना है कि बंगालियों को जानबूझकर इस सूची से बाहर रखा जा रहा है।

इस सूची से राष्ट्रीय मुस्लिम मंच और भारतीय जनता पार्टी की शिकायत जहां राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में वाजिब घुसपैठियों को छोड़ देने से ज्यादा है तो वहीं विपक्षी दलों का बाकी बचे 19 लाख लोगों को अलग करने पर ज्यादा विरोध है। हालांकि विदेश मंत्रालय ने साबित कर दिया है कि ये लोग भी फॉरेन ट्रिब्यूनल में अपील कर सकते हैं। केंद्र सरकार ने अपील दायर करने की समय सीमा 60 से बढ़ाकर 120 दिन कर दी है। किसी के भारतीय नागरिक होने या न होने का निर्णय ट्रिब्यूनल ही करेगा। उसके निर्णय से असंतुष्ट होने पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जाने का विकल्प भी मौजूद रहेगा। सबसे बड़ी बात यह कि बाहर छूटे लोगों की स्थिति पर संशय दूर करते हुए विदेश मंत्रालय ने रविवार को कहा कि इससे कोई व्यक्ति ‘राष्ट्र विहीन’ या ‘विदेशी’ नहीं हो जाएगा। जिनके नाम अंतिम सूची में नहीं हैं, उन्हें हिरासत में नहीं लिया जाएगा और कानून के तहत जारी सभी विकल्पों पर विचार होने तक उन्हें सारे अधिकार पहले की ही तरह हासिल रहेंगे।

सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर अपडेट करने की तारीख इस साल की 31 अगस्त निर्धारित की थी। वैसे केंद्र सरकार को भी लगता था कि इस मामले में सही तरीके से कार्यवाही नहीं हो रही है, इसलिए उसने 13 अगस्त को नए सिरे से इस रजिस्टर को अपडेट कराने की मांग सुप्रीम कोर्ट के सामने रखी थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया था। इस बीच आखिरी सूची आने के बाद इसे हिंदू बनाम मुसलमान बनाने की राजनीतिक कोशिश भी शुरू हो गई है। कथित मुस्लिम अधिकारों के लिए मुखर रहने वाले हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने इसे मुसलमान नागरिकों के साथ भेदभाव करने वाला बताने में हिचक नहीं दिखाई। जैसे ही राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर की रिपोर्ट आई, हिमंत बिस्व सर्मा ने कहा, ”एनआरसी की प्रक्रिया में साल 1971 से पहले भारत आए कई बांग्लादेशी हिंदुओं को लिस्ट से बाहर कर दिया गया क्योंकि अथॉरिटी ने उनके ‘शरणार्थी सर्टिफि़केट’ को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। नतीजन बांग्लादेश से आए कई वैध हिंदू शरणार्थियों को लिस्ट में जगह नहीं मिली। दूसरी बात ये कि एनआरसी की प्रक्रिया में बहुत से लोगों ने जानकारी में हेरफेर करके लिस्ट में अपनी जगह बना ली।’’ इसके जवाब में असदुद्दीन ओवैसी ने ट्वीटर पर लिख डाला, ‘ये बिल्कुल स्पष्ट है कि असम में एनआरसी के जरिए मुसलमानों को हटाने की कोशिश की जा रही है। अब हिमंत बिस्वा सरमा कह रहे हैं कि चाहे जैसे भी हो, हिंदुओं को बचाया जाएगा।’

इस सूची को लेकर दोतरफा असंतोष के बीच असम सरकार की जिम्मेदारी बढ़ गई है। उसे इस मामले में सावधान रहना होगा कि कुछ असामाजिक तत्व इसे धार्मिक लड़ाई के तौर पर इस्तेमाल ना करें और इसका बेजा फायदा राज्य की कानून-व्यवस्था को बिगाडऩे में ना कर सकें। वैसे इस कवायद से बांग्लादेशी घुसपैठियों को बाहर करने की कोशिश को फिलहाल झटका तो लगा ही है।

बहरहाल जिस तरह इसे पूरे देश में लागू करने की मांग हो रही है और गृहमंत्री अमित शाह ने जिस तरह से संकेत दिया है, उससे कुछ सवाल उठने स्वाभाविक हैं। दरअसल अकेले असम में ही इस पर करीब 1288 करोड़ खर्च हो चुके हैं। अगर पूरे देश में इसे लागू किया जाएगा तो यह रकम कितनी बैठेगी, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है।

एनआरसी पर विवाद चाहे जितना भी हो, लेकिन यह भी सच है कि इसकी मांग घुसपैठियों को रोकने और बाहर करने के उद्देश्य को लेकर हुई। यहां पर यह जान लेना जरूरी है कि सबसे ज्यादा घुसपैठ किन राज्यों में होती है। यह सच है कि पूरे भारत में अवैध विदेशी नागरिकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन देश के उत्तर पूर्व के आठ राज्यों असम, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम में सबसे ज्यादा घुसपैठ की समस्या है। दरअसल यह क्षेत्र छोटे से गलियारे के जरिए देश की मुख्य भूमि से जुड़ा है। करीब 21 से 24 किलोमीटर लंबे इस गलियारे को ‘चिकेन नेक’ कहा जाता है।  इससे भूटान, म्यांमार, बांग्लादेश और चीन जैसे देशों की सीमा जुड़ती है। यहीं से भारत में घुसपैठ सबसे अधिक होती है।

उमेश चतुर्वेदी

 

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गले की फांस ये अवैध बांग्लादेशी

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से संबंधित असम सरकार ने जो आंकड़े जारी किए उसके अनुसार लगभग 20 लाख लोग अवैध बांग्लादेश निवासी पाए गए। इनके शौहर या बीवी व बच्चों को भी मिला लिया जाए तो अकेले असम में एक करोड़ के आसपास आबादी अवैध बांग्लादेशी लोगों की है। इनमें हिन्दू भी अच्छे खासे हैं। पुराने सरकारी कर्मचारी जो दूसरे राजनीतिक दलों से जुड़े हैं उन्होंने बहुत बड़े स्तर पर गड़बड़ी की है। कुछ वर्षों में लाखों अवैध प्रवासियों ने जुगाड़ से अपने आपको भारतीय बना लिया, न जाने कितने तो हिन्दू ही बन गए ताकि उंगली ही न उठे या सत्तारूढ़ भाजपा की सहानुभूति का लाभ ले सकें। अब बारी बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तर पूर्व के अन्य राज्यों व शेष भारत की भी होनी चाहिए जहां अवैध बांग्लादेशी 5-6 करोड़ से कम नहीं होंगे। दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने ही दिल्ली के हर विधानसभा क्षेत्र में 30 से 40 हज़ार बांग्लादेशी बसवाये व उनको पहचान पत्र दिलवाए वोटों के लालच में और ऐसा पूरे देश मे सभी राजनीतिक दलों ने किया।

चलो इनमें से भी काफी ने हिन्दू नाम या धर्म अपना लिया होगा या कागजों का जुगाड़ कर लिया होगा क्योंकि हिंदुस्तान में सबसे आसानी से बिकने वाले सरकारी कर्मचारी हो जाते हैं कई बार। अनेक लोग दूसरे राज्यों में भी भाग सकते हैं। इसीलिए राज्य भाजपा ने राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बनाने की मांग की है। अब समस्या इन अवैध लोगों को कैम्पों व वापस बांग्लादेश भेजने की है व उनको मिली सभी सुविधाओं को छीनने की भी। विकट चुनौतियां हैं इस काम में, अगर संवेदनशील तरीके से नहीं निबटाया गया तो बड़े बवाल भी हो सकते हैं। देखने वाली बात यह होगी कि मोदी सरकार कैसे इस चुनौती से निबट पाती है।

अनुज अग्रवाल, संपादक, डायलॉग इंडिया

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