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छत्तीसगढ़ में सुनामी

देश की राजधानी में बैठे राजनीतिक धुरंधरों का मानना था कि जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है वहां छत्तीसगढ़ में भाजपा की स्थिति सबसे मजबूत है और शायद यही सोच कर चुनाव प्रक्रिया सबसे पहले छत्तीसगढ़ में ही शुरू हुई। छत्तीसगढ़ में भाजपा जीत रही है, यह संदेश मध्यप्रदेश और राजस्थान जाएगा तो वहां भी भाजपा की स्थिति में सुधार होगा, शायद यह आंकलन किया गया होगा।  लेकिन दांव उल्टा पड़ गया। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस प्रचंड बहुमत से जीत रही है, यह संकेत जाने से मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस का मनोबल बढ़ा और उसे उसका लाभ भी मिला। दिल्ली में बैठकर जब विश्लेषण होता है तो उनमें अक्सर मैदानी हकीकत का संज्ञान नहीं लिया जाता। ऐसे ही परिणाम सामने आते हैं। इसलिए सारे एग्जिट पोल एक तरफ रह गए। सीएसडीएस जैसी ख्यातिप्राप्त संस्था के निदेशक डॉ. संजय कुमार का वह लेख अब शायद उन्हें ही मुंह चिढ़ा रहा होगा जिसमें विद्वान अध्येता ने भविष्यवाणी की थी कि कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ जीतने का अवसर गंवा दिया है।

बहरहाल, छत्तीसगढ़ की राजनीति को जानने वाले अनेक लोगों का अनुमान था कि प्रदेश में माहौल कांग्रेस के पक्ष में है। लेकिन यह कल्पना तो बमुश्किल तमाम एक दर्जन लोगों के अलावा किसी ने भी नहीं की थी कि कांग्रेस को दो-तिहाई बहुमत से भी अधिक सीटें मिल जाएंगी और भाजपा बीस का आंकड़ा भी नहीं छू पाएगी। अजीत जोगी अपनी पार्टी बनाकर सोच रहे थे कि वे किंग नहीं तो किंगमेकर अवश्य बनेंगे, लेकिन कांग्रेस के पक्ष में जो सुनामी उठी उसने उनके सपनों का महल चकनाचूर कर दिया। प्रसंगवश कह दूं कि सेवानिवृत्त वरिष्ठ आईएएस अधिकारी बी.के.एस. रे ने 20 नवंबर को दूसरे मतदान के दिन मुझसे कहा था कि कांग्रेस के पक्ष में सुनामी है। मेरा अपना आंकलन भी यही था कि भाजपा बीस सीटों में सिमट जाएगी और स्वतंत्र रूप से यही अनुमान पत्रकारों में युवा तुर्क राजकुमार सोनी का था।

फिलहाल यह विश्लेषण का विषय है कि भाजपा को इतनी शर्मनाक पराजय का सामना क्यों करना पड़ा? विगत दो माह में मेरे जो कॉलम छपे हैं उनमें कुछ-कुछ उत्तर मिल सकते हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि प्रदेश में प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं रह गई थी। मंत्री और अफसर अपनी मनमानी कर रहे थे। वे आम जनता को ही नहीं, भाजपा के कार्यकर्ताओं तक को अपमानित कर रहे थे। सरगुजा से लेकर बस्तर तक पत्रकारों को या तो खरीदा जा रहा था या नए-नए तरीकों से प्रताडि़त किया जा रहा था। कुछेक मनपसंद अफसरों के अलावा बाकी अफसर घुटन महसूस कर रहे थे। सरकारी कर्मचारियों में भय, निराशा, और उत्साहहीनता की भावना पनप रही थी। कितने ही लोग तो इस डर से जी रहे थे कि उनके फोन टेप किए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री ने इन सारी बातों को जानते हुए भी आंखें मूंद लेना बेहतर समझा। क्यों? यह तो वे ही बेहतर बता सकते हैं।

इस सरकार ने, जैसी हर सरकार से अपेक्षा होती है, बहुत सी कल्याणकारी योजनाएं जारी रखीं, नई योजनाएं शुरू कीं, लेकिन सारा ध्यान योजनाओं के बजट पर केन्द्रित रहा। आम जनता के कान सुन-सुन कर पक गए कि उन्हें आज एक, कल दूसरी, परसो तीसरी सौगात मिल रही है। जनता ने मन ही मन पूछा कि टैक्स का पैसा तो जनता का है, फिर सौगात किस बात की? आप कोई अपने घर से तो पैसा लाकर दे नहीं रहे हैं। अनेक योजनाएं जैसे अमृत नमक, चरण पादुका, सरस्वती साइकिल इत्यादि तो कुछ व्यावसायिक मित्रों को सीधे-सीधे लाभ पहुंचाने के लिए बनाई गई थीं। शराबबंदी के नाम पर जो हुआ वह प्रहसन ही माना जाएगा। स्टेडियम के बाद स्टेडियम, ऑडिटोरियम के बाद ऑडिटोरियम, ये सब किसके लिए और क्यों बने? रायपुर का तथाकथित स्काई वॉक तो जैसे जनता की छाती पर लोट रहा अजगर है, जिसे देखकर भाजपा सरकार के प्रति जनता के मन से बद्दुआ ही निकलती थी। यह तस्वीर का एक पहलू है जिसमें अंतर्निहित और भी बहुत से तथ्य हैं।

इस तस्वीर के दूसरे पहलू में कांग्रेस की छवि है। छत्तीसगढ़ बुनियादी तौर पर कांग्रेस का गढ़ रहा है। अजीत जोगी ने पहले मुख्यमंत्री रहते हुए अपनी ही बुद्धिमत्ता से कांग्रेस का नुकसान किया। आगे चलकर विद्याचरण शुक्ल ने भी कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने में कोई कमी नहीं की। पिछले पन्द्रह साल में बार-बार यह भी सुनने को मिलता रहा कि भाजपा सरकार ने कांग्रेस के किन-किन नेताओं को उपकृत किया है। कांग्रेस ने अपनी संघर्षशीलता और जुझारूपन जैसे खो दिए थे। जिस दिन अजीत जोगी को कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखाया गया, उस दिन मानो पार्टी ने जीत की कुंजी हासिल कर ली। विगत तीन वर्षों में भूपेश बघेल और टी.एस. सिंहदेव की जोड़ी ने कांग्रेस का कायाकल्प करने में दिन-रात मेहनत की और कोई कसर बाकी नहीं रखी। एक पत्रकार के नाते मुझे लगता था कि कांग्रेस ने उससे अपेक्षित अनेक मुद्दे नहीं उठाए,  इसके बावजूद विपक्षी दल के रूप में जितनी सक्रियता दिखाई, वह कम नहीं थी।

इस बीच राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने का भी अनुकूल प्रभाव पार्टी पर पड़ा है। उन्होंने नरेन्द्र मोदी के बरक्स अपनी एक शिष्ट, शालीन छवि बनाई है जिससे जनता के हृदय में उनकी स्वीकार्यता धीरे-धीरे कर बढ़ती गई। इन विधानसभा चुनावों के बारे में भी एक बात जनमानस में काफी हद तक बैठ गई कि असली लड़ाई तो मोदी बनाम राहुल है। कहना गलत न होगा कि तीनों राज्यों में मिली सफलता के पीछे राहुल गांधी की छवि का बड़ा योगदान है, लेकिन सिर्फ छवि से तो काम चलता नहीं है। आप जनता के लिए क्या कर सकते हैं और क्या करेंगे? यह बड़ा सवाल हर पार्टी व नेता के सामने होता है। इस मुकाम पर राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने जिस सूझबूझ का परिचय दिया वह काबिले तारीफ है। मैं कांग्रेस के घोषणापत्र की बात कर रहा हूं। एक युवा मित्र ने मुझसे कुछ दिन पहले कहा था कि जिस तरह मनुष्य का जीवन आशा से संचालित होता है उसी तरह चुनावी जीत भी आशा पर अवलंबित होती है। कांग्रेस ने इस मनोवैज्ञानिक बिन्दु को भलीभांति जान लिया था।

कांग्रेस के घोषणापत्र में जिस बात का सबसे अधिक असर पड़ा वह किसानों से संबंधित है। कर्जा माफी, दो साल का बकाया बोनस, पच्चीस सौ रुपए समर्थन मूल्य, बिजली बिल हाफ, ये सारे मुद्दे किसानों और आम जनता के मन को छू गए। भाजपा ने घोषणाओं को झूठा ठहराने की कोशिश की, इसको लेकर कुछ वीडियो बने और वायरल हुए, लेकिन आम जनता ने राहुल गांधी के वायदे पर जो एतबार कर लिया था सो वह उससे हटी नहीं। घोषणापत्र में समाज के अन्य वर्गों के लिए भी जो वायदे किए गए उनका भी कुछ न कुछ असर तो हुआ ही है। मेरे विचार में पुलिसकर्मियों को साप्ताहिक अवकाश देने व काम के घंटे निर्धारित करने का वायदा इनमें महत्वपूर्ण है।

यह याद रखना भी उचित होगा कि नोटबंदी और जीएसटी के दुष्परिणाम अब दिखाई देने लगे हैं। पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त ओ.पी. रावत तो 1 दिसंबर को जाते-जाते कह गए कि विमुद्रीकरण के बावजूद कालेधन में कमी नहीं आई है। मतलब साफ है कि जनता को अथक परेशानियां अकारण झेलनी पड़ी हैं। दुबले और दो असाढ़ की कहावत जीएसटी ने चरितार्थ की है। आम नागरिकों के अलावा छोटे-मोटे व्यापारी भी त्रस्त हैं। कोल ब्लाक आदि को लेकर श्रीमान विनोद राय की रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उद्योग जगत के लिए अप्रत्याशित और अवांछित मुसीबतें खड़ी कर दीं।

फिलहाल मोदी जी हार के लिए मुख्यमंत्रियों को दोषी ठहरा सकते हैं लेकिन लोकसभा चुनावों के समय बलि का बकरा कौन बनेगा?

 

ललित सुरजन

लेखक देशबन्धु समाचार पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं

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