मोदी की प्रचंड जीत को विपक्ष के लिए स्वीकारना आसान नहीं है। कभी वह ईवीएम का रोना रोता है तो कभी मोदी को घृणा की राजनीति का परिचायक बताता है। कभी मोदी को मिले कम वोटों का हवाला देता है तो कभी मोदी को प्रेसेडेंशियल रूल की तरफ बढऩे वाला बताया जाता है। पर वास्तव में जमीनी हक़ीक़त इन सबसे अलग है। मोदी का जनता से जुड़ाव बंद कमरे में बैठकर राजनीति करने वाले नहीं समझ सकते हैं। मोदी ने छल, प्रपंच की राजनीति के उस गढ़ को भेद दिया है जिसके माध्यम से क्षेत्रीय दल अपनी दुकान चलाते थे। अल्पसंख्यक, दलित और शोषितों को सिर्फ एक वोट बैंक के रूप में माना करते थे। लोकसभा चुनावों के परिणाम के अनुसार राजग को लगभग 45 प्रतिशत के आस पास वोट मिला है। कई राज्यों में अकेले भाजपा को पचास प्रतिशत से ज़्यादा वोट मिले हैं। इस तरह का रुझान कभी आज़ादी के बाद कांग्रेस के पक्ष में दिखाई देता था किन्तु कांग्रेस ने कभी पूरे देश में पचास प्रतिशत का आंकड़ा नहीं छुआ था। मोदी की इस ऐतिहासिक जीत में मुस्लिमों का बढ़ा प्रतिशत भी शामिल है जो 2014 के मुक़ाबले 8 प्रतिशत से बढ़कर 14 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इसके साथ ही दलित और पिछड़े की राजनीति के चक्रव्यूह को मोदी ने भेद दिया है। मोदी के प्रथम कार्यकाल के दौरान गरीबों के लिए बनी योजनाओं का सबसे ज़्यादा लाभ दलित और पिछड़े वर्ग को हुआ और उसने अपने परंपरागत दलों को छोड़कर सीधे मोदी को वोट दिया। इस तरह देश में चलने वाली छल और प्रपंच की राजनीति में मोदी के द्वारा एक बड़ी सेंध लगी और बंद कमरों में बैठकर बौद्धिक विमर्श करने वाले सज्जनों के सारे आंकड़े ध्वस्त हो गए। अब ये बुद्धिजीवी स्वयं को सही साबित करने के लिए नयी कहानियां और नए विमर्श तलाश कर रहे हैं। नए प्रतिमान गढऩे की तैयारी में हैं किन्तु अब मोदी का का ध्यान अब शायद नए कीर्तिमान की तरफ है। इसमें भारत को वैश्विक परिदृश्य में आर्थिक महाशक्ति बनाने के साथ देश को एकजुट रखना भी शामिल है।
अमित त्यागी
जीत आखिर जीत होती है और उसे खुले दिल से स्वीकार करने वाला भविष्य में जीत का हकदार भी बनता है किन्तु राजनीति में अक्सर विपक्षी दल सत्ता पक्ष की जीत को खुले दिल से स्वीकार नहीं कर पाते हैं। मोदी की प्रचंड जीत को समझने के लिए जनता से उनके जुड़ाव को समझना बेहद आवश्यक है। उन घटनाओं का मूल्यांकन भी आवश्यक है जिसके द्वारा जनता के बीच जाने अंजाने मोदी एक स्वाभाविक विकल्प बनते चले गए। भारत में मुस्लिम समुदाय अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में देखा जाता है। जबकि कई राज्यों में मुस्लिम अब बहुसंख्यक हो चुके हैं। यदि वैश्विक परिदृश्य में देखें तो हिन्दू समुदाय को अल्पसंख्यक कहा जा सकता है। पूरे विश्व में बौद्ध, मुस्लिम और ईसाई धर्म के लोग हिन्दू धर्म से काफी ज़्यादा संख्या में हैं। भारत के बाहर रहने वाले मुस्लिम भारतीय मुस्लिमों से ज़्यादा बदतर हालत में भी हैं किन्तु भारत में मुस्लिम तुष्टीकरण दिखाकर लगातार ऐसा दुष्प्रचार किया जाता रहा है जैसे भारत में मुसलमान खतरे में है। उसे उसके अधिकार नहीं मिल रहे हैं। ऐसा खाका खींचा जाता है जैसे मोदी और भाजपा उसके विरोधी हैं। 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी ने इस विमर्श की दिशा बदल दी थी। उन्होंने मन की बात के द्वारा 130 करोड़ भारतवासियों से सीधा संवाद शुरू कर दिया था। इसके बाद उन्होंने सुशासन और विकास के ऊपर अपना ध्यान केन्द्रित किया। जनकल्याणकारी नीतियां जनता तक पहुंचानी शुरू की। मोदी की नीतियों में अल्पसंख्यक हितों की कहीं भी अनदेखी नहीं की गयी। इसकी वजह से अल्पसंख्यक समुदाय में मोदी के लिए जो दुष्प्रचार किया गया था वह कारगर नहीं हुआ। इसका प्रभाव आंकड़ों पर भी दिखाई दिया। 2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी को जहां 8 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिला था वहीं 2019 के लोकसभा चुनावों में मोदी को 14 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले हैं। मोदी को मिलने वाले मुस्लिम वोटों से एक बात तो साफ हो गयी है कि मुस्लिम समाज के अंदर मोदी का डर दिखाकर वोट पाने की क्षेत्रीय दलों की रणनीति अब ज़्यादा चलने वाली नहीं है।
मोदी के पक्ष में पड़ा यह वोट तीन तलाक के बाद आया है तो संभव है कि मुस्लिम महिलाओं का रुझान मोदी की तरफ हुआ हो। यह भाजपा की नयी तरह की समावेशी राजनीति का परिणाम था जिसमें सेकुलर पार्टियों की दुर्गति हो गयी। अपने दूसरे कार्यकाल के शुरुआती दौर में ही मोदी ने एक ऐसा निर्णय लिया जिसे अल्पसंख्यक समुदाय में काफी सराहा गया किन्तु सेकुलर जमात के वोट बैंक को ये निर्णय ज़्यादा रास नहीं आया। अब सरकार 5.77 लाख पंजीकृत वक्फ सम्पत्तियों की जीआईएस मैपिंग करने जा रही है। इसके द्वारा सम्पत्तियों को चिन्हित करके उनसे अवैध कब्जे खाली कराने की योजना है। ऐसी सम्पत्तियों पर स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, बहुउपयोगी हॉल, सद्भाव-मंडप आदि जनहित के कार्य किए जाएंगे। इसके साथ ही मदरसों के शिक्षकों को विज्ञान, गणित, कम्प्युटर, हिन्दी और अंग्रेज़ी का प्रशिक्षण दिया जाएगा। इसके साथ ही मुस्लिम के एक हाथ में कुरान और दूसरे में कम्प्युटर का मोदी का सपना भी पूरा होता दिखने लगेगा। मुस्लिम समुदाय में मोदी के इस कदम की प्रशंसा की जा रही है किन्तु मुस्लिम समुदाय को सिर्फ वोट बैंक मानने वाले दलों में इससे खलबली मची है। वह सिर्फ इस बात की दलील दे रहे हैं कि मोदी को देश की साठ प्रतिशत से ज़्यादा जनता ने वोट नहीं दिया है। इस नकारात्मक विमर्श में कांग्रेस भी शामिल है और क्षेत्रीय दल भी।
वोट प्रतिशत के खेल में उलझते विपक्षी दल
यदि कांग्रेस के संदर्भ में बात करें तो वर्ष 2004 में मात्र 26.53 प्रतिशत वोटों के साथ कांग्रेस ने 145 सीटें प्राप्त की थी। इसके पांच साल बाद जब 2009 में चुनाव हुये तो कांग्रेस को 206 सीटें मिलीं। इस चुनाव में कांग्रेस को 28.55 प्रतिशत वोट मिले थे। इस तरह कांग्रेस ने सिर्फ 28 प्रतिशत के वोटों के साथ देश पर दस साल तक शासन किया। इसके बाद बात करते हैं 2014 की तो इसमें भाजपा की मोदी सरकार ने 31.34 प्रतिशत वोट प्राप्त किए। भाजपा को मिली सीटों की संख्या 282 थी। विपक्ष और कांग्रेस पूरे पांच साल तक इस बात को उठाता रहा कि लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी ने भाजपा को वोट नहीं दिया था। अब अगर 2019 के आंकड़े को देखें तो भाजपा को 37.40 प्रतिशत वोट मिले हैं। इस बार भाजपा की सीटें 303 हैं। अब भी विपक्ष के द्वारा प्रचार किया जा रहा है कि लगभग 60 प्रतिशत मतदाताओं ने भाजपा के खिलाफ वोट दिया है। अगर भाजपा के साथ के घटक दलों की बात करें तो राजग का वोट प्रतिशत का आंकड़ा 45 प्रतिशत तक पहुंच जाता है। इसके साथ ही आधा दर्जन से ज़्यादा प्रदेशों में भाजपा को 50 प्रतिशत तक वोट प्राप्त हुये हैं। विपक्ष के इस तरह के दावे से खुद उनकी विश्वसनीयता लगातार कम होती जा रही है।
45 प्रतिशत वोट एक बड़ी संख्या मानी जा सकती है। इतनी बड़ी संख्या में वोट तो जवाहर लाल नेहरू को भी प्राप्त करने में मुश्किल आ जाती थी। यदि देश के पहले आम चुनाव के आंकड़े को देखें तो 1951-52 के चुनावों में कांग्रेस को 364 सीटों पर जीत हासिल हुयी थी। इतनी बड़ी संख्या में सीटें जीतने के बावजूद कांग्रेस को 45 प्रतिशत वोट मिले थे। उस समय भी विपक्ष पूरी तरह बिखरा था। कोई बड़ा दल कांग्रेस को चुनौती देने की स्थिति में नहीं था। आज की भाजपा के तत्कालीन स्वरूप जनसंघ को उस दौरान सिर्फ तीन सीटें ही मिली थीं। इसके बाद 1957 के चुनावों में कांग्रेस को 371 सीटों पर जीत मिली और उसका मत प्रतिशत बढ़कर 48 प्रतिशत हो गया। इससे एक बात तो साफ हो जाती है कि आज़ादी के बाद जब देश में कांग्रेस की प्रचंड लहर मानी जा रही थी तब भी कांग्रेस के लिए 50 प्रतिशत मतों को प्राप्त करना आसान नहीं था। वह उस आंकड़े तक पहुंच कर किनारे पर रुक रही थी। इसके बाद देश के तीसरे आम चुनाव में कांग्रेस का ग्राफ पहले से कुछ नीचे आया। 1962 में कांग्रेस को 45 प्रतिशत वोटों के साथ 361 सीटों पर जीत हासिल हुयी। आज की भाजपा अभी भी कांग्रेस की सीटों की संख्या से काफी पीछे हैं। 303 सीटों और 37.40 प्रतिशत मतों के साथ भाजपा अगर इसी गति से आगे बढ़ती रही तो एक दिन साठ के दशक की कांग्रेस के आस पास पहुंच सकती है। पर इन आंकड़ों के बाद एक बात तो स्पष्ट रूप से उभरती है कि इतने सालों तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस की आज इतनी दुर्गति का क्या कारण है।
देश की जनता शायद बद्जुबानी एवं खोखले दावे को पसंद नहीं करती है। कांग्रेस अभी भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रही है कि इसकी हरकतों से वह जनता के बीच से लगभग विलुप्त हो चुकी है। उसके कुछ प्रमुख कारण जो समझ आते हैं वह कुछ यूं हैं। प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ राहुल गांधी के द्वारा किया गया व्यक्तिगत जुबानी हमला जनता को रास नहीं आया। राफेल के विषय पर बार बार उच्चतम न्यायालय की फटकार के बाद भी राहुल गांधी नहीं माने। यह तो सिर्फ चुनाव के दौरान के विषय थे। विपक्ष की इस दुर्दशा के लिए पिछले पांच सालों के वह काम भी जिम्मेदार थे जिसने जनता के दिमाग में क्षेत्रीय दलों और विपक्ष की छवि नकारात्मक कर दी थी। इस दौरान भारत में हिन्दू और मुस्लिम के बीच के विमर्श को हमेशा सांप्रदायिक बना कर पेश किया गया। हिन्दुओं के हितों को सांप्रदायिक एवं मुस्लिम हितों को सेकुलर कहा गया। सेकुलर हितों के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण किया गया। अब यदि अलग अलग प्रदेशों के क्षेत्रीय दलों की चर्चा करें तो उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा एवं रालोद मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करते रहे। बंगाल में ममता बनर्जी ने मुस्लिम वोटों के कारण कभी उनकी गलत गतिविधियों का विरोध नहीं किया। बिहार में नितीश कुमार ने भाजपा के साथ रहने के बावजूद मुस्लिम प्रेम नहीं छोड़ा। आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस एवं टीडीपी मुस्लिम हितों के कारण हिन्दुओं की अनदेखी करती रहीं। केरल में यूडीएफ़ और एलडीएफ़ दोनों गठबंधनों ने हिन्दुओं की अनदेखी की। केरल में संघ के कार्यकर्ताओं की हत्या तक की गयी। रही सही कसर सबरीमाला मंदिर के विषय पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय ने पूरी कर दी। संक्षेप में कहा जाये तो सिर्फ राज्य के नाम बदलते गए और हिन्दुओं की अनदेखी होती रही। मुस्लिम तुष्टीकरण की इस राजनीति के कारण हिन्दू खुद को ठगा महसूस करता रहा और उसे भाजपा एक मात्र विकल्प के रूप में दिखने लगी।
लोकसभा परिणामों के बाद भी ममता में सुधार नहीं
मुस्लिम तुष्टीकरण की इस नीति के कारण देश को एक बड़ा नुकसान और हुआ। सांप्रदायिक किस्म के मुसलमानों में एक बात घर कर गयी कि वह चाहें कुछ भी करें पर राजनीति दल उनके विरोध में नहीं जा सकते हैं। इस कारण वह हिन्दुओं के प्रति गलत व्यवहार करने लगे। उनको राजनीतिक संरक्षण भी मिलता चला गया। इससे हिंदुओं में जो गुस्सा पनपा उसने उसे धीरे धीरे मोदी का स्थायी वोटर बना दिया। अब प्रश्न यह उठता है कि हिन्दू वोटर को नाराज़ करने की भूल इन क्षेत्रीय और विपक्षी दलों ने क्यों की। उसकी वजह यह है कि इन दलों ने कभी हिन्दू वोट बैंक को एक करके देखा ही नहीं। यदि पिछड़े और दलित वर्ग के वोटों को अलग कर दें तो हिन्दुओ में सवर्णों के वोट लगभग 19 प्रतिशत के आस पास हैं। विपक्षी दलों को लगता रहा है कि दलित और पिछड़ों को अलग करके वह हिन्दू वोटबैंक को विभाजित रख सकते हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी तो लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद भी बदलने को तैयार नहीं दिखती हैं।
पश्चिम बंगाल में कुछ समय के बाद विधानसभा चुनाव होने हैं और ममता बनर्जी कमजोर विकेट पर खड़ी हैं। वह चुनाव जीतने के लिए कुछ भी कर सकती हैं। बंगाल में लोकसभा चुनाव के बाद डॉक्टरों की हड़ताल हुयी। उसके परिप्रेक्ष्य में देखने पर पता चलता है कि मरने वाला मरीज मुसलमान था। इसलिए सबसे आसान था इस मामले को सांप्रदायिक रंग देना। उन्होंने यही किया, पर वह भूल गईं कि इस बार जिस प्रतिद्वंद्वी से पाला पड़ा है, उसे इस मैदान में शिकस्त देना मुश्किल है। डॉक्टरों को सुरक्षा देने का वादा करने या मारपीट करने वालों की धर-पकड़ कराने की बजाय उन्होंने डॉक्टरों को ही धमकाना शुरू कर दिया। पहले भी उन्होंने मस्जिदों के इमामों को भत्ते देकर या सिर पर पल्लू ढक नमाज पढऩे की दिलचस्प कोशिश करके सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया है। इससे हाल ही में सम्पन्न लोकसभा चुनाव में उनका नुकसान ही हुआ है। इस बार भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। फिर भी वे जातीय, साम्प्रदायिक एवं हिंसक राजनीति का सहारा लेने की भूल कर रही हैं। गरीब एवं अल्पसंख्यक समुदायों को गुमराह करके वे राजनीतिक सफलता की सीढिय़ा चढऩा चाहती हैं। लेकिन मतदाता भी अब गुमराह होने को तैयार नहीं हैं। यह समझना होगा कि केवल गरीब एवं अल्पसंख्यक लोगों को बेवकूफ बनाने से कुछ नहीं हो सकता और उनके नाम पर लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाने से वोट पक्के नहीं हो सकते। जमाना बदल रहा है, पर ममता बनर्जी कब बदलेंगी। जनभावना लोकतंत्र की आत्मा होती है। लोक सुरक्षित रहेगा तभी तंत्र सुरक्षित रहेगा। यह बात कब ममता को समझ में आयेगी। पश्चिम बंगाल में ममता की जिस तरह निरंकुशता एवं अराजकता बढ़ रही है, उसी तरह भाजपा के प्रति जनता का विश्वास बढ़ता जा रहा है। बंगाल की घटनाओं का असर पूरे देश की राजनीति पर पड़ रहा है।
देश के विमर्श की दिशा बंगाल से तय होने लगी है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने ममता बनर्जी को कड़ी टक्कर देते हुए अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है। भाजपा की यह शानदार एंट्री तृणमूल एवं ममता की बौखलाहट का कारण बन रही है। लोकसभा में हार का मलाल भी कहीं न कहीं तृणमूल नेताओं और कार्यकर्ताओं में बना हुआ है। मगर हिंसा एवं अराजकता के जरिए राजनीतिक हैसियत पाने की कोशिश किसी सभ्य समाज की निशानी नहीं हो सकती। लोकतंत्र में तो यह किसी भी रूप में मान्य नहीं है। यदि किसी राज्य में हालात एक सीमा से अधिक बिगड़ते हैं तो केंद्र सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह उन पर न केवल ध्यान दे, बल्कि ऐसे उपाय भी करे जिससे हालात संभलें। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि जब देश के किसी हिस्से में कानून एवं व्यवस्था की स्थिति को लेकर गंभीर सवाल खड़े होते हैं तो उससे देश की छवि और प्रतिष्ठा पर असर पड़ता है। अब मसला ममता की राजनीतिक अपेक्षाओं का नहीं रहा। देश की प्रतिष्ठा एवं लोकतांत्रिक मूल्यों का है। पश्चिम बंगाल के लोक के लिए, लोकजीवन के लिए, लोकतंत्र के लिए कामना है कि उसे शुद्ध सांसें मिलें। लोक जीवन और लोकतंत्र की अस्मिता को गौरव मिले।
लोकसभा के नतीजों के बाद बदलेगी विमर्श की दिशा
हालांकि, बंगाल में ममता और भाजपा के बीच नूराकुश्ती लगातार जारी है और इसमें बंगाल के चुनावों तक कमी आने की कोई आशंका भी नहीं दिखाई दे रही है किन्तु फिर भी लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग के उस तबके को इस बात का एहसास तो हो गया है कि वह अपनी बनाई हुयी कृत्रिम दुनिया में जी रहा था जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं था। पर यह वर्ग आज भी उस बात को नहीं स्वीकार कर पा रहा है कि उनकी राजनीतिक ज़मीन खिसक चुकी है। जनता और मोदी के बीच सीधे जुड़ाव के बाद पिछड़े और दलित की राजनीतिक दिशा अब बदल गयी है। वह विधानसभा और लोकसभा में अलग अलग पैटर्न पर वोटिंग कर रहा है। वामपंथ से जुड़े लोग अब भी इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं। उनको लगता है भारत सवर्ण, पिछड़ा, दलित एवं मुस्लिम में बंटा है। जबकी वास्तविकता में अब ऐसा नहीं है। अब बदलाव दिखाई दे रहा है। इसको समझने के लिए प्रधानमंत्री मोदी का सेंट्रल हॉल में दिया गया भाषण महत्वपूर्ण संदेश देता है। मोदी ने कहा था कि ”लंबे समय से गरीबों से छल हो रहा था। उसमें हमने छेद कर दिया। अल्पसंख्यकों के साथ भी छल हो रहा है उसमें भी छेद करने की जरूरत है।’’
मोदी की यह दोनों बातें इस बात को बताती हैं कि उन्हे मालूम है कि समस्या कहां पर है। उन्होंने गरीबों के हितों की योजनाओं पर जो काम किया उसके द्वारा भारत में जाति और धर्म की सीमाएं टूट गईं और गरीब जनता ने उन्हें वोट किया। अपने दूसरे कार्यकाल के प्रारम्भिक दौर में ही मुस्लिम समुदाय के संदर्भ में किए गए उनके निर्णय मुसलमानों के साथ किए जा रहे छल में छेद करने की एक शुरुआत है। तीन तलाक के द्वारा वह पहले ही मुस्लिम महिलाओं के लिए काम कर चुके हैं। अब धर्म निरपेक्षता की आड़ में छल रही दुकानें एवं मुस्लिम तुष्टीकरण की सांप्रदायिक राजनीति में छेद उनका लक्ष्य बन गया दिखता है। इस गंभीर विषय को समझने के लिए आज़ादी के बाद की सत्तर साल की राजनीति जिम्मेदार है। इस राजनीति में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ मुस्लिम तुष्टीकरण बना दिया गया था। जाति की राजनीति को इसमें सामाजिक न्याय का नाम देकर पुष्पित एवं पल्लवित किया गया। अब मोदी से अपेक्षा है कि वह सिर्फ दो छल की बात तक सीमित नहीं हो जाएंगे बल्कि उस तीसरे छल की बात भी करेंगे जो हिंदुओं के साथ काफी समय से और लगातार हो रहा है। इस तीसरे छल से पीडि़त लोगों ने ही उन्हें वोट दिया है। वह यह कभी नहीं चाहेंगे कि मोदी उनके हितों के ऊपर जाकर सिर्फ अन्य के साथ हो रहे छल में छेद तक सीमित होकर रह जाएं।
इस बात को समझने के लिए पुरुस्कार वापसी प्रकरण और अखलाक का प्रकरण याद करना आवश्यक है। अखलाक के प्रकरण के बाद पूरे देश में असहिष्णुता के नाम पर जो ड्रामा किया गया उसका असर हिन्दुओं पर सबसे ज़्यादा पड़ा। उन्हें यह समझ ही नहीं आया कि इस ड्रामे से ये लोग क्या हासिल करना चाह रहे थे। अखलाक के नाम पर चिलपौ मचाने वाले लोग कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के समय मुंह पर ताला लगाए थे। अगर अखलाक की हत्या मुस्लिम समुदाय पर हमला थी तो कश्मीरी पंडितों पर हमला हिन्दुओं पर हमला क्यों नहीं था। कश्मीर में हिन्दुओं की मौतों पर इस वर्ग का खामोश रहना और अखलाक पर शोर मचाना जनता के दिमाग में कहीं न कहीं असर कर रहा था। जनता पूरे राजनीतिक खेल को समझने लगी थी। मोदी ने इसी छल में छेद कर दिया और वामपंथी विचारधारा के पोषक लोग अब भी इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। बंगाल और केरल में स्वयं को जीवित रखने की कोशिश में लगे वामपंथी इस समय सबसे ज़्यादा बौखलाए हैं। 2019 का जनादेश सिर्फ मोदी की जीत का परिचायक नहीं है बल्कि तुष्टीकरण की राजनीति और वैमनस्यता की राजनीति पर सीधा प्रहार है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को इसकी पहली किश्त मिल चुकी है। वह अब भी अगर नहीं चेती तो आगामी विधानसभा चुनावों में उनको इसकी अगली किश्त भी मिल जाएगी। 2021 में बंगाल में चुनाव है। चूंकि, बंगाल में मुस्लिम समुदाय बहुतायत में है तो ममता मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करती दिख रही हैं। उनकी इस राजनीति के द्वारा हिन्दू समुदाय में आक्रोश बढ़ रहा है और वह अंदर ही अंदर एकजुट होता जा रहा है।
कमजोर विपक्ष बनाम लोकतन्त्र को खतरा
मोदी को तानाशाह दिखाने की कोशिश लगातार की जाती रही है। 2014 से 2019 के बीच बाकायदा एक साजिश के तहत ऐसा दिखाने की कोशिश लगातार होती रही हैं। एक तरफ नरेंद्र मोदी पूरे देश में एक साथ चुनाव करवाने की तरफ आगे बढ़ते दिख रहे हैं वहीं दूसरी तरफ अब बौद्धिक वर्ग एक मुहिम चला रहा है कि कमजोर विपक्ष से लोकतन्त्र को खतरा है। जब सारे विपक्षी दल एक साथ आकर मोदी को हराने की मुहिम में जुटे थे तब भी उनके तर्क यही थे। अगर कमजोर विपक्ष लोकतन्त्र के लिए खतरा होता है तो इन लोगों को याद करना चाहिए कि आज़ादी के बाद लगभग तीन दशक तक भारत में विपक्ष कमजोर ही रहा। अकेले कांग्रेस ने एकछत्र राज किया। पर शायद तब यह तर्क नहीं उठाए गए। 1984 में इन्दिरा गांधी की मौत के बाद जब चुनाव हुये तो राजीव गांधी के पास तीन चौथाई बहुमत था। उस समय तो विपक्ष लगभग नगण्य ही था। तब भी ऐसे तर्क नहीं उठाए गए। शायद ऐसे ही हल्के और कमजोर तर्कों की वजह से विपक्षी दल जनता में अपनी पैठ नहीं बना पाते हैं। वह क्षणिक वाहवाही तो लूट लेते हैं किन्तु अपनी गंभीरता खो देते हैं।
विपक्ष की मजबूती उसकी संख्या से नहीं बल्कि उसके तेवर, तर्कशीलता एवं सदन में प्रभावी दखल से तय होती है। हैदराबाद से आने वाले असदुड्डीन ओवैसी अपने दल से अकेला सांसद होने के बावजूद संसद में अपने तर्कों के कारण मुखर रहता है। पश्चिम बंगाल विधानसभा में भाजपा के कुल 6 विधायक हैं किन्तु सड़क से सदन तक उनकी मुखरता भाजपा को बंगाल में प्रभावी बनाए हुये हैं। इसके विपरीत अखिलेश यादव, मायावती, राहुल गांधी और शरद पवार किसी भी सदन में उतनी मुखरता से अपनी बात नहीं रखते हैं जिसका असर आम जनता पर पड़ता हो। इनके लचर तर्कों से न इनका वोटर प्रभावित होता है न ही इनके विपक्षी दलों का। युवाओं के बीच में राजनीति की आलोकप्रियता भी इन्हीं हल्के तर्कों के कारण बढ़ी है। यदि सदन में या बाहर गंभीर तर्कों के साथ विपक्ष अपनी बात रखता है तो संख्या बल कम होने के बावजूद वह जनता में लोकप्रिय हो जाता है। चूंकि हर पांच साल बाद दलों को वापसी का मौका रहता है इसलिए विपक्ष में रहने के दौरान दिये गए तर्क महत्वपूर्ण बन जाते हैं।
भाजपा ने विपक्ष में रहते हुये अपने तर्कों से कांग्रेस और सत्ता पर ऐसा करारा हमला बोला था कि 2014 में उसकी गूंज सुनाई दी। अब मोदी ने गरीबों के साथ छल में छेद की बात कहकर विपक्ष पर तीखा प्रहार किया है। शायद इस प्रहार की आवश्यकता विपक्ष को थी जो उसे सरकार के खिलाफ करना चाहिए था। पर अब तो स्थिति कुछ ऐसी बन गयी है कि सत्ता और विपक्ष हर तरफ मोदी छाए हैं। वह ही स्वयं के लिए मुद्दे तय करते हैं। वह ही उनका मूल्यांकन करते हैं और वह ही अपना रिपोर्ट कार्ड पेश करते हैं। राजनीति की घटती विश्वसनीयता के बीच मोदी की बढ़ती विश्वसनीयता इस कार्यकाल में कई बड़े गुल खिलाने जा रही है।
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अल्पसंख्यक समुदाय पर मेहरबान मोदी सरकार
केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यकों को लेकर कई योजनाएं बनाई हैं। इसमें अगले 5 साल में अल्पसंख्यक वर्ग के 5 करोड़ छात्रों को प्रधानमंत्री छात्रवृत्ति योजना का लाभ देने, 25 लाख युवाओं को टेक्निकल ट्रेनिंग देकर रोजगार में सक्षम बनाए जाने की योजना शामिल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी की प्रचंड जीत के बाद ‘सर्वमत और विश्वास बहाली’ का संदेश दिया था जिसमें समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चलने की बात कही गई। सरकार ने इस ओर अपना कदम बढ़ा दिया है। अल्पसंख्यक लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर ‘पढ़ो-बढ़ो’ अभियान की शुरुआत की गयी है। मुख्तार अब्बास नकवी के मोदी सरकार में दोबारा अल्पसंख्यक मंत्री का पदभार ग्रहण करते ही थ्री ई का लक्ष्य तय किया है। ये थ्री ई हैं-एजुकेशन, एंप्लॉयमेंट और एम्पावरमेंट। इस अभियान का लक्ष्य है अल्पसंख्यक लड़कियों को शिक्षा देकर रोजगार दिया जाए ताकि उनका सशक्तिकरण हो सके। अल्पसंख्यक मंत्रालय की कोशिश है कि जिन 5 करोड़ छात्रों को छात्रवृत्ति दी जाएगी उनमें 50 फीसदी हिस्सेदारी लड़कियों की होगी। गरीब अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम लड़कियों में पढ़ाई लिखाई का स्तर काफी नीचे है जिस कारण एक खास वर्ग का विकास तेजी से नहीं हो पा रहा है। अब सरकार ने इस कमी को दूर करने का संकल्प लिया है।
अल्पसंख्यक मंत्रालय शिक्षा और रोजगार की जानकारी देने के लिए खास माध्यम का सहारा लेगी। इस काम में 100 से ज्यादा मोबाइल वैन लगाई जाएंगी जो अलग अलग इलाकों में घूम कर लोगों को इस बारे में जागरूक करेंगी। सरकार का ध्यान पंचायतों पर भी है जहां से इस अभियान को तेजी दी जा सकती है। सरकार पंचायतों के माध्यम से अल्पसंख्यकों को छात्रवृत्ति की जानकारी देने के साथ ही उन्हें लाभान्वित करने की तैयारी में है। मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ अभियान चलाया था जो समाज के हर वर्ग को लाभ देने के मकसद से शुरू किया गया। इस अभियान में सरकार ने कन्या भ्रूण हत्या रोकने और लड़कियों को शिक्षा के माध्यम से आगे बढ़ाने का नारा दिया था। इस अभियान को देश में अच्छी पहचान मिली थी।
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बंगाल के बिगड़ते हालत के लिए ममता जिम्मेदार
पश्चिम बंगाल में बात केवल राजनीतिक हिंसा एवं आक्रामकता की ही नहीं है बल्कि कुशासन एवं अराजकता की भी है। कोलकाता के एनआरएस मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में 10 जून की रात जो हुआ, वह इसका एक काला अध्याय है। इलाज के दौरान एक बुजुर्ग मरीज की मृत्यु के बाद एक वर्ग विशेष के लोगों ने डॉक्टरों पर हमला बोल दिया, जिससे कई डॉक्टर गंभीर रूप से घायल हो गए। कुछ तो आज भी अस्पताल में दाखिल हैं। भारत में डॉक्टर को लगभग भगवान का दर्जा मिला हुआ है। ऐसे में, आमतौर से उन पर हमला किसी ऐसे निरंकुशता और असंवेदनशीलता की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए, जो तंत्र से पोषित एवं संरक्षित होता है। उसकी हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता, पर इसे किसी शून्य की उपज भी नहीं कह सकते। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। सत्तारूढ़ तृणमूल कांगेस की नेता और प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी शुरू से भाजपा और केंद्र सरकार पर हमलावर रही हैं। वे उन पर हमला करने के क्रम में असंसदीय और अमर्यादित शब्दों के उपयोग से भी गुरेज नहीं करतीं। उनके भाषणों में भाजपा के प्रति एक प्रकार की नफरत और हिंसक आक्रामकता होती है। उसका असर निस्संदेह उनके पार्टी कार्यकर्ताओं पर पड़ता है और वे भी आक्रामक एवं हिंसक रूख अख्तियार करते देखे जाते हैं। लोकसभा चुनाव प्रचार के समय से लेकर ताजा घटनाक्रमों में ममता बनर्जी ने साबित कर दिया है कि वोट की राजनीति एवं सत्ता की भूख उन्हें किस स्तर तक ले गयी है? उन्होंने अपने वोट बैंक को रिझाने के लिये उस लोकतंत्र की मर्यादा और गरिमा को सरे बाजार बेइज्जत कर दिया है, जिसका अधिकार उनके वोट बैंक ने भी उन्हें नहीं दिया है। इसी वोट की ताकत के बूते पर तो आज भारत के लोकतंत्र के ढांचे के भीतर ममता बनर्जी नेता बनी। आज पश्चिम बंगाल के तीव्रता से बदलते समय में, लगता है ममता लोकतांत्रिक मूल्यों को तीव्रता से भुला रही हैं, जबकि और तीव्रता से इन मूल्यों को सामने रखकर उन्हें अपनी सरकार व लोकतांत्रिक जीवन प्रणाली की रचना करनी चाहिए।
लोकतंत्र श्रेष्ठ प्रणाली है। पर उसके संचालन में शुद्धता हो। लोक जीवन में लोकतंत्र प्रतिष्ठापित हो और लोकतंत्र में लोक मत को अधिमान मिले। यह प्रणाली उतनी ही अच्छी हो सकती है, जितने कुशल चलाने वाले होते हैं। अधिकारों का दुरुपयोग नहीं हो, मतदाता स्तर पर भी और प्रशासक स्तर पर भी। लेकिन दुर्भाग्य से पश्चिम बंगाल में तंत्र ज्यादा और लोक कम रह गया है। इसी का परिणाम है कि वहां लगातार राजनीतिक हिंसा हो रही है, अराजकता का माहौल है, ममता मनमानी कर रही है, अपने कार्यकर्ताओं को भड़का रही है, आक्रामक बना रही है। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास पुराना है। वहां मामूली बातों का लेकर भी अक्सर सत्तापक्ष और विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें हो जाती हैं। ताजा घटना में भी विवाद झंडा उतारने को लेकर हुआ और वह इस कदर बढ़ा कि चार कार्यकर्ताओं को अपनी जान गंवानी पड़ी। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों और उनके कार्यकर्ताओं के बीच वैचारिक टकराव स्वाभाविक प्रक्रिया है, पर वह हिंसक रूप ले ले तो उसे किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता। इसके लिए संबंधित दलों का नेतृत्व जिम्मेदार माना जाता है, क्योंकि वह अपने कार्यकर्ताओं को मर्यादित और लोकतांत्रिक तरीके से व्यवहार करने की सीख देने में विफल होता है। लोकसभा चुनाव के दौरान दोनों पार्टियों के बीच शुरू हुई वर्चस्व की लड़ाई ने वहां एक अनवरत चलने वाली हिंसा का वातावरण बना दिया है, जिसने लोकतंत्र की मर्यादा एवं अस्मिता को ही दांव पर लगा दिया है। भारतीय लोकतंत्र की एक बड़ी विडम्बना एवं विसंगति है कि यहां हर राजनीतिक दल में कहीं न कहीं इसे लेकर स्वीकार्यता है कि बाहुबल और हिंसा के जरिए अपना दबदबा बनाया जा सकता है। इसीलिए हर राजनीतिक दल आपराधिक वृत्ति के अपने कार्यकर्ताओं के दोष छिपाने का प्रयास करता देखा जाता है। जाहिर है, इससे नीचे के कार्यकर्ताओं में कहीं न कहीं यह भरोसा बना रहता है कि पार्टी के नेता उनकी अराजक एवं हिंसक गतिविधियों पर परदा डालते रहेंगे। बंगाल की हिंसा के पीछे भी यही मानसिकता काम कर रही है। अगर पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व हिंसा के खिलाफ होते, तो वे एक-दूसरे पर दोषारोपण करने के बजाय अपने कार्यकर्ताओं को अनुशासित करने में जुटते, शांति स्थापित करते।
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विवादों से दूर होगी वक्फ प्रोपर्टी
देशभर में जगह-जगह अल्पसंख्यकों की वक्फ संपत्ति फैली हुई है। खास बात ये है कि आए दिन इसको लेकर विवाद होते रहते हैं। इन प्रोपर्टी पर कब्जे हो रहे हैं। गैरकानूनी तरीके से वक्फ प्रोपर्टी को बेचा जा रहा है। इसे रोकने के लिए 100 दिन के रोडमैप में ठोस कदम उठाए गए हैं। अब आने वाले दिनों में सभी वक्फ प्रोपर्टी का डिजिटिलाइज़ेशन किया जाएगा। प्रोपर्टी की मॉनिटरिंग के लिए प्रोपर्टी की जीपीएस मैपिंग की जाएगी। बीते कार्यकाल में भी मोदी सरकार ने वक्फ प्रोपर्टी को लेकर कई ठोस कदम उठाए थे। इसके साथ ही हुनर हाथ योजना को और मजबूत किया जा रहा है। योजना का मकसद युवाओं को किसी न किसी काम की ट्रेनिंग देकर उन्हें हुनरमंद बनाना है। गौरतलब रहे कि ये योजना बीते कार्यकाल की है लेकिन इसकी सफलता को देखते हुए ही इस पर दूसरे कार्यकाल में ज़्यादा फोकस किया जा रहा है।