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जय श्रीराम के नारे का विरोध क्यों?

नोबेल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन के बड़े अजीबोगरीब बयान ने हैरान कर दिया। उनका कहना है कि श्रीराम का बंगाली संस्कृति से कोई सम्बन्ध नहीं है। भले ही अर्थशास्त्री के तौर पर उनका बहुत बड़ा नाम है लेकिन वे विदेश में रहते हुए भारत की संस्कृति एवं लोकभावनाओं से कितने जुड़े हैं, यह एक अलग चर्चा का विषय है। जय श्रीराम का नारा तो न केवल अच्छे शासन का प्रतीक है बल्कि लोक-आस्था का द्योतक भी है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी राम राज्य की कल्पना की थी। गांधीजी आज जीवित होते तो जय श्रीराम के नारे का विरोध देखकर आंसू जरूर बहाते। राजनीति से प्रेरित श्री राम के चरित्र को धुंधलाने एवं जन-आस्था को बांटने की कोशिशें विडम्बनापूर्ण है, दुर्भाग्यपूर्ण है।
श्री राम किन्हीं जाति-वर्ग और धर्म विशेष से ही नहीं जुड़े हैं, वे सारी मानवता के प्रेरक हैं। उनका विस्तार दिल से दिल तक है। उनके चरित्र की सुगन्ध विश्व के हर हिस्से को प्रभावित करती है। भारतीय संस्कृति में ऐसा कोई दूसरा चरित्र नहीं है जो श्री राम के समान मर्यादित, धीर-वीर और प्रशांत हो। इस विराट चरित्र को गढ़ने में भारत के सहóों प्रतिभाओं ने कई सहóाब्दियों तक अपनी मेधा का योगदान दिया। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर महाकवि भास, कालिदास, भवभूति और तुलसीदास तक न जाने कितनों ने अपनी-अपनी लेखनी और प्रतिभा से इस चरित्र को संवारा। वे मर्यादा पुरुषोत्तम तो हैं ही मानव-चेतना के आदि पुरुष भी है। भारत का जन-जन श्री राम का उद्घोष करके धन्य होता रहा है, वह शब्दभर नहीं है, बल्कि हमारी जीवनशैली है। जिसका इस्तेमाल हम लोग एक-दूसरे के अभिवादन के समय भी करते हैं। अब यह शब्द बोलना भी पश्चिम बंगाल में गुनाह हो चुका है। उस प्रातः स्मरणीय, मर्यादा पुरुषोत्तम के उद्घोष ‘जय श्रीराम’ का विरोध भारत में कौन करना चाहेगा? श्रीराम हमारे रोम-रोम में हैं तो फिर श्रीराम का उद्घोष बोलने वालों की हत्याएं क्यों? ऐसा लगता है कि बंगाल के जीवन के सारे आदर्श और सारी रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता राजनीति स्वार्थों की ओट में आ गयी है।
संभवतः अमत्र्य सेन ने वामपंथी विचारधारा के दबाव में वक्तव्य दिया है। जय श्रीराम तो पश्चिम बंगाल के गांवों में भी, जन-जन मेें रमा-बसा है, पूरी आस्था एवं भक्ति से बोला जाता है, बंगाल की संस्कृति में श्रीराम देश के अन्य हिस्सों की ही भांति पूज्य है, आदर के पात्र हैं एवं लोकआस्था से जुड़े हैं। जय श्रीराम बोलना भारतीयों की परम्परा रही है लेकिन राजनीति से जुड़े बड़े लोग अब अपनी परम्पराओं से कट चुके हैं। किसी भी देश की सभ्यता और संस्कृति तभी जीवित रहती है जब संस्कारों और परम्पराओं का निर्वाह किया जाए। जिस दिन यह देश श्रीराम से विमुख होगा उसी दिन इसकी सभ्यता और संस्कृति नहीं बचेगी, यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाये, हित में है। यह भी जरूरी है कि श्रीराम को राजनीतिक हथियार न बनाया जाए।
हजारों-हजारों साल से जिस प्रकृति ने भारतीय मन में श्रीराम को आकार दिया था, उसे रचा था, भारतीयता की एक अलग छवि का निर्माण किया था, यहां के इंसानों की इंसानियत ने श्री राम के चरित्र से दुनिया को आकर्षित किया, जिस आदर्श चरित्र से संस्कृति एवं संस्कारों, जीवन-मूल्यों की एक नई पहचान बनी, उस देश की संस्कृति एवं वैभवता जिस महान व्यक्तित्व से प्रेरणा, शक्ति एवं जीवन-दिशा पाती रही, एकाएक राजनीति लोगों ने उस महान् चरित्रनायक से खिलवाड़ किया, उसके साथ कुछ गलत किया, और वह गलत दिनोंदिन गहराता जा रहा है जिससे सारा माहौल ही प्रदूषित हो गया है, जीवन के सारे रंग ही फिके पड़ गये हैं, हम अपने ही भीतर की हरियाली से वंचित हो गए हैं। न कहीं आपसी विश्वास रहा, न किसी का परस्पर प्यार। न सहयोग की उदात्त भावना रही, न संघर्ष में सामूहिकता का स्वर, बिखराव की भीड़ में न किसी ने हाथ थामा, न किसी ने आग्रह की पकड़ छोड़ी। जन-आस्था को धूमिल करने की यह कैसी कुचेष्टा है? क्यों बार-बार श्री राम की अस्मिता को तार-तार किया जाता है, यह जीवन इतना बंधा-बंधा-सा क्यों है? ये कैसी दीवारें हैं? इतनी संकीर्णता, इतने स्वार्थ कहां से बंगाल के हिस्से में आ गए?
समाज एवं राष्ट्र में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जिनकी आंखों की कोशिकाएं जीवन के रंग नहीं देखकर सब काला ही काला देखती हैं। ऐसे लोग जीवन के हर मोड़ पर मिलेंगे बस सिर्फ चेहरे बदलते रहते हैं। पहले हिन्दू और मुसलमान के बीच भेदरेखा खींची गई फिर सवर्ण और हरिजन के बीच, अमीर और गरीब के बीच, ग्रामीण और शहरी और अब जय श्रीराम के नाम पर भेदरेखाएं खींचने का प्रयास किया जा रहा है। यह सब करके कौन क्या खोजना चाहता है- मालूम नहीं? पर यह निश्चित है कि इन्सान को नहीं खोजा जा रहा है। अभी तक हम शब्दों को अर्थ देते रहे हैं- अपनी सुविधानुसार अपनी राजनीति के लाभ के लिए। वक्त आ गया है जब अर्थों को सही शब्द दें ताकि कोई भ्रमित न हो। हम अपने तात्कालिक लाभ के लिए मनुष्य को नहीं बाँटें, सत्य को नहीं ढकंे। सत्य की यह मजबूरी है कि जब तक वह जूते पहनता है, झूठ नगर का चक्कर लगा आता है।
वक्त इतना तेजी से बदल जाएगा, यह उन्होंने भी नहीं सोचा था जो वक्त  बदलने चले थे। धूप को भला कभी कोई मुट्ठी में बन्द रख पाया है? जो सीढ़ी व्यक्ति को ऊपर चढ़ाती है, वह ही नीचे उतार देती है। सीढ़ी के ऊपर वाले पांवदान पर सदैव कोई खड़ा नहीं रह सकता। अतीत को राग-द्वेष की भावना से मुक्त करने के लिए समय की एक सीमा रेखा खींचना जरूरी होता है। क्योंकि इतिहास को अन्ततः मोह, वैर से परे का विषय बनाना चाहिए।
उदार समाज इतिहास की इस अनासक्ति को जल्दी प्राप्त करता है और पूर्वाग्रहित, धर्मान्ध समाज देरी से। लेकिन इस अनासक्ति को प्राप्त किये बगैर कोई समाज, कोई देश आगे नहीं बढ़ सकता। देश की एकता सदैव उसकी उज्ज्वल संस्कृति, गौरवशाली इतिहास, देशभक्ति, राष्ट्रीय चरित्र तथा उस देश के शिखर पुरुषों व धर्मनायकों के  प्रति आस्था से कायम रहती है।
एक महत्वपूर्ण बिन्दु प्रसिद्ध लोकोक्ति से मिलता है कि ”यथा राजा तथा प्रजा“। प्रजा राजा के आचरण को अपने में ढालती है। आदर्श सदैव ऊपर से आते हैं। लोकतंत्र में जनमत ही सर्वाेच्च है। मत का अधिकार गिना गया है। वह भी सबको बराबर। मताधिकार के उपयोग में हिंसा का घुसना शुभ लक्षण नहीं है। पश्चिम बंगाल के लोकसभा चुनावों में मतपेटी पर खून के धब्बे लगे, जो लोकतंत्र के नाम पर कालिख है, अब श्रीराम को हथियार बनाया जा रहा है जो देश की एकता एवं संस्कृति को कुचलने की कुचेष्टा है। राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है या अपराध का राजनीतिकरण? मूल्यों पर आधारित राजनीति करने का आश्वासन देने वालों से हमारा समकालीन इतिहास भविष्य की देहरी पर खड़ा कुछ सवालों का जवाब मांग रहा है।
हम भारत के लोग इसलिए विशिष्ट नहीं हैं कि हम ‘जगतगुरु’ रहे हैं, या हम महान आध्यात्मिक अतीत रखते हैं। हम विशिष्ट इसलिए हैं कि हमारे पास श्री राम का सबसे प्राचीन और गहरा मानवतावादी अनुभव हैं। इसमें वसुधैव कुटुम्बकम की  आभा और प्रकृति का विराट लीला-संसार समाया हुआ है। हमारा हर दिन और जीवन उस महापुरुष की रोशनी में समाधायक बने, दिशासूचक बने। गिरजे पर लगा दिशा-सूचक नहीं, वह तो जिधर की हवा होती है उधर ही घूम जाता है। कुतुबनुमा बने, जो हर स्थिति में सही दिशा बताता है।

(ललित गर्ग)

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