बिगुल बज चुका है I चुनावी समर का शंखनाद हो चुका है I लोकसभा चुनावों कीतारीखों की घोषणा हो चुकी है। अब देश में चुनावी रैलियों, भाषणों, आरोपों-प्रत्यारोपों, दावों-प्रतिवादों वगैरह का दौर प्रारंभ हो जाएगा। चुनाव अभियान के दौरान कसकर कीचड़ उछलेगा, इसका अंदाजा तो मोटा-मोटी लग गया है।कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बिहार से संभावित उम्मीदवार कन्हैया कुमार ने चुनावी दंगल की तस्वीर साफ कर दी है कि इस बार चुनावी कैंपेन में भाषाई मर्यादाएं हर रोज तार-तार होती रहेंगी। कुछ नेता बदजुबानी करने से बाज नहीं आएंगे। वे अपने विरोधियों पर निशाना साधते वक्त गटर वाली सड़ी भाषा का इस्तेमाल करने से पीछे नहीं रहेंगे।
पहले बात कर लें श्रीमान कन्हैया कुमार की। जिस शख्स को जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी ने हाल में पी.एचडी की डिग्री से नवाजा है, वो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए अपने भाषणों में “कहता है”,“करता है” जैसी सड़कछाप भाषा का प्रयोग कर रहा है। क्या यही शिक्षा कन्हैया कुमार ने जेएनयू में ग्रहण की है कि वे अपने राजनीतिक विरोधी पर वार करते हुए भाषा के संस्कारों को भूल जाएं? दुर्भाग्य यह भी है कि जो शख्स सधी हुई भाषा न बोल पाता हो उसे उदीयमान नेता बताया जा रहा है।
राहुल गांधी का तो अपनी जुबान पर कभी कोई नियंत्रण रहा ही नहीं। वे भी प्रधानमंत्री मोदीपर हल्ला बोलते हुए घटियापन की सारी सीमाओं को लांघने लगे हैं। उन्होंने कुछ समय पहले अल्पसंख्यकों के एक सम्मेलन में जिस भाषा का इस्तेमाल किया वह कोई भी नागरिक निंदनीय ही मानेगा। वे बार-बार कहते रहे “मोदी डरपोक है। वह कायर है।”राहुल गांधी ने सम्मेलन में आई जनता को संबोधित करते हुए कहा, “यदि नरेंद्र मोदी में हिम्मत है तो उनके सामने सिर्फ़ 5 मिनट बहस करके दिखाएँ।” भीड़ से किसी चमचे की आवाज़ आई कि “वो हार जाएँगे।” इस पर माननीय कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी जी ने कहा, “हार नहीं, वह भाग जाएगा।” अब आप समझ लीजिए कि किस तरह की भाषा हमारे बड़े कहे जाने वाले नेता बोलने लगे हैं।अभी तो कायदे से कैंपेन को शुरू होना है, तब यह स्थिति बन कर उभर रही है ।
क्या देश की जनता इतनी भी उम्मीद न करें कि सभी दल अपने स्तर पर एक आचार संहिता बना लें, ताकि किसी भी दल का कोई नेता चुनावी सभाओं में मर्यादित भाषा का ही इस्तेमाल करे। बेशक, देश को पता है कि अब उसे बाल गंगाधर तिलक जैसा वो भाषण फिर सुनने को तो नहीं मिलेगा जिसमें उन्होंने अंग्रेजों को चुनौती भरे लहजे में कहा था कि“स्वतंत्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है।” इसी तरह से गांधी जी का भारत छोड़ो आंदोलन के मौके पर 8 अगस्त, 1942 को दिया गया भाषण भी फिर से सुनने को नहीं मिलेगा। अब तिलक और गांधी फिर से पैदा नहीं होंगे। देश आखिर राहुल गांधी या कन्हैया कुमार जैसों की टुच्ची भाषा में दी तकरीरों को क्यों सुने? क्या देश की जनता ने इतना बड़ा पाप किया है?
देश ने एक छोटे से अंतराल के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी और जॉर्ज फर्नांडीज जैसे महान नेताओं को खो दिया है। ये दोनों प्रखर वक्ता और करिश्माई नेता थे। इनका विरोधी भी सम्मान करते थे।ये अपने भाषणों से जनता से संवाद कर लेते थे। इनके भाषण सुनने के लिए जनता मीलों दूर से पहुंच जाती थी। ये नेताओं पर तीखे व्यंग्य बाण तो छोड़ते थे, पर इनकी भाषा का स्तर सदैव ठीक रहता था। मुझे एक 1972 की प्रेस कांफ्रेंस का स्मरण है जब अटल जी के किसी भाषण पर तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी ने तीखा प्रहार किया थाI जब किसी ने अटल जी का ध्यान आकृष्ट करते हुए उनकी प्रतिक्रिया चाही तब अटल जी एक मिनट तो मुस्कराते रहे फिर एक लाइन बोलकर सबको चुप कर दियाIअटलजीनेकहा“मित्रों, मैंकमरकेनीचेप्रहार करने में विश्वास नहीं करताI” इनके भाषणों पर विरोधी पक्ष ने कभी आपत्ति नहीं जताई। अटल बिहारी वाजपेयी को शब्दों से खेलना आता था। शायद इसलिए ही वे दशकों देश के सबसे उम्दा वक्ता और लोकप्रिय नेता रहे। इसी तरह से पंडित नेहरु, इंदिरा गांधी, दीन दयाल उपाध्याय, राम मनोहर लोहिया वगैरह भीप्रखर वक्ता थे। प्रणव कुमार मुखर्जी जब कांग्रेस के नेता थे, तब वे भी अपने विरोधियों पर करारे प्रहार करते थे। वे तथ्यों के साथ अपनी बात रखते थे। इसलिए उनके भाषणों को ध्यान से सुना जाता था।इस तरह के नेता सभी दलों में रहे हैं। पर अचानक से देखने में आ रहा कि भाषणों में घनघोर फूहड़ता देखी जा रही है।
कांग्रेस के अग्रणी नेता दिग्विजय सिंह से तो सभी परिचित हैं ही। वे चुनाव कैंपेन के समय तबीयत से अनाप-शनाप बातें करेंगे। इन्हीं दिग्विजय सिंह ने मोदी जी के लिए कहा था कि वे ‘हिटलर’ की तरह लोकप्रिय हैं। ये बात 25 मई,2012 की है। आप प्रधानमंत्री मोदी की राजनीति और विचारधारा को नापसंद कर सकते हैं, पर उनको हिटलर के साथ खड़ा करने का मतलब तो किसी के समझ नहीं आता। उन्होंने 26 जुलाई, 2013 को अपनी पार्टी की नेता मीनाक्षी नटराजन को “टंचमाल”कहा था। वे ओसामा बिन लादेन को भी “ओसामा जी” भी कह चुके हैं। दुनिया के सबसे बड़े आतंकी को लेकर उनका आदर का भाव देखते ही बनता है।
निश्चित रूप से जब कोई नेता भाषण देता है तो उसमें ईमानदारी तो होनी ही चाहिए। जनता को छलने का भाव नहीं होना चाहिए। जनता के सवालों के सही जवाब दिए जाने चाहिए। देश के ज्वंलत सवालों को जरूर उठाया जाना चाहिए। जाहिर है,तब जनता किसी भी नेता के भाषण को सुनने को लेकर गंभीर होने लगती है।
यदि राजनीतिक दल अपने बदजुबान नेताओं को कस न सकें तो चुनाव आयोग भी अपनी तरफ से पहल कर सकता है। वो उन नेताओं पर कठोर कार्रवाई करे जो चुनाव अभियान के दौरान अमर्यादित भाषा बोल रहे हों। अभी तक बदजुबान नेताओं के खिलाफ शिकायत भर करके ही खानापुरी ही हो जाती है। उन शिकायतों को चुनाव आयोग सुनकर कार्रवाई का भरोसा दे देता है। पर देखने में आया है कि इस खानापूर्ति के अलावा और कुछ नहीं होता। यह पर्याप्त नहीं है। इसी वजह से भाषण देने के नाम पर कीचड़ उछालने वाले मजे करते रहते हैं। अगर एक बार कन्हैया कुमार जैसे किसी नेता पर सख्त कार्रवाई हो जाए तो सब सुधर जाएंगे। चुनाव आयोग पर चुनावों को पूरी निष्पक्षता से कराने के अलावा भी तो दो और दायित्व होते हैं। पहला, किवह सुनिश्चित करे कि कोई नेता भाषण करते हुए समाज में वैमनस्य फैलाने का कार्य ना करे। दूसरा, हर नेता यथा संभव संयमित भाषा का ही इस्तेमाल करे।
आर.के. सिन्हा
(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)