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जल्दी का काम शैतान का !

जल्दी का काम शैतान का !
रजनीश कपूर
ये मुहावरा उन लोगों पर लागू होता है जो बिना सोचे-समझे जल्दबाज़ी में काम बिगाड़ लेते हैं। कोई आम व्यक्ति
ऐसा करे, ये तो समझ में आता है, पर भारत सरकार की सबसे बड़ी जाँच एजेंसी नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो
(एनसीबी) के अधिकारी अगर ऐसा करें तो यह सरकार और जनता दोनों के लिए चिंता की बात है। वो भी तब जब
मामला हाई प्रोफ़ाइल हो और उस पर 24 घंटे मीडिया की नज़र हो। ऐसी जल्दीबाज़ी से न सिर्फ़ जग हँसाई होती
है बल्कि जाँच एजेंसी की विश्वसनीयता और पारदर्शिता पर भी प्रश्न चिन्ह लग जाता है।
पाठकों को याद होगा कि सुशांत सिंह राजपूत की आकस्मिक मृत्यु के बाद एनसीबी ने बॉलीवुड में जो तांडव रचा
वो अप्रत्याशित था। जाँच के परिणाम अगर आरोपों के अनुरूप आते तो एनसीबी की वाह-वाही होती। पर ‘खोदा
पहाड़ निकली चुहिया’।
ताज़ा मामला आर्यन खान का है जिसे एनसीबी ने ड्रग के मामले में अब क्लीन चिट दे दी है। जबकि आर्यन खान की
गिरफ़्तारी के समय ही क़ानून के जानकारों ने कह दिया था कि यह मामला अदालत में टिकेगा नहीं। उनका ऐसा
मानना इसलिए था क्योंकि एनसीबी के जाँच अधिकारियों से शुरुआती दौर में ही जल्दबाज़ी में कई ऐसी ग़लतियाँ
हुई जो आर्यन खान को दोष-मुक्त करने के लिए काफ़ी थीं। जैसे उसके पास ड्रग बरामद न होना। आर्यन की मेडिकल
जाँच का न होना। क्रूज़ पर रेड का सही पंचनामा न होना आदि। जाँच टीम द्वारा ये ऐसी जल्दबाज़ी वाली ग़लतियाँ
थी, जिनसे एनसीबी जैसे विभाग पर भी उँगलियां उठी। सबूतों की कमी होने के कारण ही एनसीबी ने न सिर्फ़ उसे
क्लीन चिट दी बल्कि इस मामले की जाँच कर रहे अपने ही अधिकारियों को दोषी ठहराया, जिन्होंने ये सब नाटक
रचाया था। उनकी मंशा पर अब और संदेह हो गया है। जिस मामले ने शुरुआत में इतना तूल पकड़ा वह 238 दिनों
के ट्रायल के बाद सबूत न मिलने के कारण औंधे मुह गिर पड़ा। किसी भी दोषी को सज़ा सबूतों और अदालत द्वारा
दी जाती है न कि जल्दबाज़ी में किए गए मीडिया ट्रायल द्वारा।
आर्यन ख़ान के मामले में प्रिंट और टीवी मीडिया के एक तबके ने जिस तरह का बवंडर खड़ा किया था वो
हास्यास्पद ही नहीं चिंताजनक भी था। मीडिया के इस तबके ने आर्यन को बिना किसी जाँच और सबूत के
अंतर्राष्ट्रीय तस्कर बना दिया था। अब वही मीडिया ख़ामोश है। जबकी अगर उसमें थोड़ा भी नैतिक बल है तो उसे
आर्यन ख़ान और शाहरुख़ ख़ान से सार्वजनिक माफ़ी माँगनी चाहिए। ज़ाहिर है कि वो मीडिया यह नहीं करेगा। तो
फिर मीडिया का वो तबका जो संतुलित खबर दिखने में यक़ीन रखता है उसे चाहिए कि वो ऐसे ग़ैर-ज़िम्मेदाराना
टीवी चैनलों के आर्यन ख़ान कवरेज को अपनी डिबेट में दिखा कर बेनक़ाब करे।
पंजाब के मशहूर गायक सिद्धू मूसेवाला की निर्मम हत्या हो या पंजाब में अन्य हिंसक घटनाएँ, जानकार इन्हें भी
जल्दबाज़ी का नतीजा मान रहे हैं। जिस तरह पंजाब की कमान सँभालते ही केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की
सरकार ने जल्दबाज़ी में कई फ़ैसले ले डाले उससे कई सवाल उठते हैं। ऐसी क्या जल्दी थी कि एक ही झटके में
पंजाब सरकार ने 424 लोगों की सुरक्षा घटाई? जब भी किसी को सरकारी सुरक्षा दी जाती है तो उसे देने से पहले
संबंधित व्यक्ति पर धमकी का जायज़ा ख़ुफ़िया विभाग, गृह मंत्रालय व स्थानीय पुलिसकर्मी द्वारा लिया जाता है
और उसी के अनुसार उस व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान की जाती है। इसके बाद भी हर उस व्यक्ति, जिसे सरकारी सुरक्षा
प्रदान की जाती है, उसकी सुरक्षा का नियमित रूप से मूल्यांकन भी किया जाता है। उसी मूल्यांकन के अनुसार
सुरक्षा बढ़ाई या घटाई भी जाती है। लेकिन इस मामले में भगवंत सिंह मान ने कुछ ज़्यादा ही जल्दी दिखाई। हां
उन लोगों की बात फ़र्क़ है जो सुरक्षा गार्डों को अपनी प्रतिष्ठा का प्रतीक बनाकर प्रदर्शन करने में यक़ीन करते हैं।
उनकी सुरक्षा घटाए जाना ज़रूरी होता है क्योंकि वे नाहक जनता पर बोझ बने रहते हैं।
पंजाब की राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों के अनुसार राज्य की पुलिस ने सिद्धू मूसेवाला की हत्या के बाद इसे
‘गैंग वार’ का नाम देकर सरकार की जल्दबाज़ी को छिपाने का प्रयास किया है। लेकिन यह सही नहीं। हाँ जिस

तरह सिद्धू मूसेवाला या पंजाब के अन्य पॉप गायक अपने गानों में हथियारों, हिंसा और नशे को दिखा रहे हैं,
उससे अपराध को बढ़ावा ही मिल रहा है।
केजरीवाल की आम आदमी पार्टी द्वारा पंजाब में बनी सरकार ने अन्य राज्यों में अपने पंख फैलाने की दृष्टि से
सरकार बनते ही जल्दबाज़ी में कुछ ऐसे फ़ैसले ले डाले जो कि घातक साबित हुए। अगर भगवंत मान की सरकार
को कुछ अनूठा ही करना था तो गुरुओं की धरती पर जिस तरह नशे और हथियारों का चलन बढ़ा है, उस पर
रोकथाम लगाने का प्रयास करते तो शायद बेहतर होता और जनता के बीच अच्छा संदेश जाता। क्योंकि राज्य में
क़ानून व्यवस्था बनाना सरकार की ही ज़िम्मेदारी होती है।
पंजाब जैसे सीमावर्ती राज्य को चलाने के लिए जिस तरह के अनुभव और संयम की ज़रूरत होनी चाहिए वो शायद
आम आदमी पार्टी की सरकार के पास फ़िलहाल नहीं है। इसलिए सरकार बनते ही जिस तरह से हिंसक घटनाएँ
बढ़ी है उससे दुनिया भर में एक ग़लत संदेश गया है। पंजाब सरकार ने वीआईपी कल्चर पर कैंची चलाई सो चलाई
लेकिन जितने भी लोगों की सुरक्षा घटाई उनके नामों का खुलासा कर बहुत बड़ी गलती की। ऐसा करने से उन
लोगों के दुश्मनों को खुला निमंत्रण मिल गया और हिंसा की घटनाएँ बढ़ने लगी।
आर्यन खान का मामला हो, लखीमपुर में किसानों की हत्या का मामला हो या सिद्धू मूसेवाला की हत्या का
मामला हो, इन सभी में जाँच कर रहे अधिकारियों से पहले ही मीडिया ट्रायल के माध्यम से जनता के बीच ऐसी
जानकारी लीक कर दी जाती है, जिससे जाँच पर गहरा और प्रायः विपरीत असर पड़ता है। जनता के मन में भी
एक धारणा पैदा हो जाती है कि आरोपी दोषी है। पर बाद में जब वही आरोपी आरोप मुक्त हो जाता है तो भी
उसके माथे पर नाहक अपराधी होने का तमग़ा लगा रहता है। जो ग़लत है। इसलिए सभी जाँच और पुलिस
एजेंसियों को जाँच के मामलों में जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए।

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