Shadow

जादुई सोच से नई दुनिया रचने वाला शख्स

वास्तविक रचनाकार एवं सृजनकार अपने हूनर से ही नहीं, बल्कि अपनी सोच एवं मूल्यों से ख्याति पाते हैं और इतिहास बनाते हैं, ऐसे अनूठे एवं विलक्षण इंसान परंपरावादी दुनिया की सारी सीमाओं को तोड़कर जज्बातों के बवंडर से नई सूरत गढ़ते हैं। ऐसी शख्सियतें खुद अपनी सोच के जादू से नई दुनिया बनाते हैं। ऐसे ही थे मिर्जा असदुल्ला बेग खान अर्थात मिर्जा गालिब। वे भारत की एक ऐसे चर्चित, प्रतिशिष्ट एवं विशिष्ट शख्स थे, जिन्होंने प्रेम और दर्शन के, सोच एवं सीरत के नए पैमाने तय किए पर जिनकी जिंदगी खुद ही वक्त और किस्मत के थपेड़ों से लड़ती रही, जूझती रही, लेकिन थकी नहीं, हारी नहीं। उस उर्दू और फारसी भाषा के मशहूर शायर मिर्जा गालिब की आज 223वीं जयंती है। उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को काला महल आगरा में हुआ था। भले ही गालिब को गुजरे करीब दो शताब्दियां बीत गयी है, लेकिन उनकी शायरी, गजलें और बेबाकी हिन्दुस्तानियों के दिलों में आज भी जिंदा है। बीती दो शताब्दियों की पीढ़ियों के अधिकांश पाठकों का जीवन गालिब की शेरों-शायरी एवं गजलों के सम्मोहन में बीता, जिनमें दर्द है, प्रेम की अनकही बेचैनियां है, त्याग की दीप्ति है, जीवन के सुख-दुःख है।
बारह साल की छोटी उम्र से ही उर्दू और फारसी में लिखना शुरू कर देने वाले मिर्जा गालिब कलम एवं शब्दों के जादूगर थे। उन्हें उर्दू, फारसी और तुर्की समेत कई भाषाओं का ज्ञान था। उन्होंने फारसी और उर्दू में रहस्यमय-रोमांटिक अंदाज में अनगिनत गजलें लिखी, शायरी की। उन्हें जिंदगी के फलसफे के बारे में बहुत कुछ लिखा है। अपनी गजलों में वे अपने महबूब से ज्यादा खुद की भावनाओं को तवज्जो देते हैं। गालिब की लिखी चिट्ठियां भी बहुत मशहूर हुई। उन चिट्ठियों को उर्दू लेखन का महत्वपूर्ण दस्तावेज माना जाता है। मिर्जा गालिब को मुगल शासक बहादुर शाह जफर ने अपना दरबारी कवि बनाया था। उन्हें दरबार-ए-मुल्क, नज्म-उद दौउ्ल्लाह के पदवी से नवाजा था। इसके साथ ही गालिब बादशाह के बड़े बेटे के शिक्षक भी थे। मिर्जा गालिब पर कई किताबें है जिसमें दीवान-ए-गालिब, मैखाना-ए-आरजू, काते बुरहान शामिल है। बाद में उन्हें मिर्जा नोशा का खिताब भी मिला। इसके बाद वे अपने नाम के आगे मिर्जा लगाने लगे।
गौर करने वाली बात है की गालिब अपने जमाने में काफी मशहूर थे इसके बावजूद वे बहुत गरीब थे, उनका जीवन संघर्षों एवं झंझावतों में गुजरा। छोटी सी उम्र में गालिब के पिता अब्दुल्ला बेग खाँ की मौत हो गई, जिसके बाद उनके चाचा ने उन्हें संभाला लेकिन उनका साथ भी ज्यादा दिन नहीं रहा। जिसके बाद उनकी देखभाल उनके नाना-नानी ने की। वे बचपन से ही अनियंत्रित, बेपरवाह, स्वच्छंद एवं फक्कड़ स्वभाव के थे। वस्तुतः उनका जीवन विचित्रताओं का अनूठा आख्यान है। मिर्जा गालिब का विवाह 13 साल की उम्र में उमराव बेगम से हो गया था। ऐसा कहा जाता है कि गालिब की सात संतानें हुईं, पर कोई भी जीवित नहीं रह सकी। अपने इसी गम से उबरने के लिए उन्होंने शायरी का दामन थाम लिया। वे जीवनभर दिल्ली के बल्लीमरान में किराए के घरों में ही रहे। हर बार सच को देखने, पकड़ने में वे जख्मी होते रहे। काल का हर मुहरा उन्हें छलता रहा। जटिल हालातों एवं समस्याओं से घिरे गालिब के जीवन के इन्द्रधनुषी रंग बनते-बिखरते रहे फिर भी सच को जीने की उनकी कोशिशें जारी रही। सत्य को जीना उनके जीने का अहम हिस्सा रहा है पर हालातों से उपजी स्थितियां उनके जीवन को जख्मी बनाती रही। इन जटिल हालातों में भी उन्होंने अपना आत्मसम्मान कायम रखा, जब माली हालत ठीक नहीं थी तब भी उन्होंने अपने स्वाभिमान का सौदा नहीं किया।
गालिब अपना अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। वे हमेशा सकारात्मक रहे और अपने स्वाभिमान एवं मूल्यों को साथ लेकर चले। कभी उसे चोट नहीं लगने दी। वे किसी भी मजहबी रंगत के बजाय इंसानियत को ही तवज्जो देते थे। उनकी कलम से निकले शब्दों ने दिल की हर सतह को छुआ, किसी भी मोड़ पर कतराकर नहीं निकले। जिंदगी ने उनकी राह में कांटे ही बोए, पर वे उनका जवाब अपने लफ्जों के गुलों से देते रहे। हिज्र और विसाल दोनों के गले में एक साथ हाथ डालकर चलते रहे। वेदना को अद्भुत शब्द देने की उनकी जादूगरी का कायल सारा संसार है। उन्होंने जीवन को यायावरी शैली में ही जिया। उनके शेर शब्दों के हुजूम नहीं हैं बल्कि वह तो जज्बातों की नक्काशी से बनी मुकम्मल शक्ल है। गालिब अपने बारे में खुद कहा करते थे-
हैं और भी दुनिया में सुख नवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि गालिब का है अन्दाजे-बयां और।
मिर्जा गालिब को गोश्त, शराब और जुए का शौक था। कहा जाता है कि एक बार गालिब को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और सार्जेंट के सामने पेश किया। उनका वेश देखकर पूछा- क्या तुम मुसलमान हो? तब गालिब ने जवाब दिया कि मुसलमान हूं पर आधा, शराब पीता हूं, सूअर नहीं खाता। इसके अलावा एक और घटना है जब गालिब उधार ली गई शराब की कीमत नहीं चुका सके। उन पर दुकानदार ने मुकदमा कर दिया। अदालत में सुनवाई के दौरान उनसे सवाल-जवाब हुए तो उन्होंने एक शेर पढ़ दिया-
कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां,
रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन।
इतना ही कहने पर उनका कर्जा माफ हो गया, और उन्हें छोड़ दिया गया। उनकी शायरी में गम का ये कतरा भी घुलता रहा। उन्होंने कहा था-
शहादत थी मिरी किस्मत में, जो दी थी यह खू मुझको
जहां तलवार को देखा, झुका देता था गर्दन को।
गालिब की जिंदगी फक्कड़पन में गुजरी। वे अपनी पूरी आमदनी शराब पर ही खर्च कर दिया करते थे। कभी-कभी इंसान के सामने अभाव और संघर्ष की मोटी दीवार खड़ी होती है। आदमी उससे टकराकर टूट भी जाता है तो कभी जीत भी जाता है। जो भी उस दीवार में दरार पैदा करने में कामयाब होता है, मंजिल वही पाता है क्योंकि उन्हीं दरारों से नैसर्गिकता, मौलिकता और रचनात्मकता फूटती है। यही वो चीज है जिसने गालिब को मकबूल बनाया। उन्होंने दर्द को भी एक आनंद का जामा पहनाकर जिंदगी को जिया। उन्होंने ‘असद’ और ‘गालिब’ दोनों नामों से लिखा। फारसी के दौर में गजलों में उर्दू और हिन्दी का इस्तेमाल कर उन्होंने आम आदमी की जबान पर चढ़ा दिया। उन्होंने जीवन को कोरे कागज की तरह देखा और उस पर दिल को कलम बनाकर दर्द की स्याही से जज्बात उकेरे। उनकी जिंदगी का फलसफा अलहदा था जो इस शेर में है…
था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता।
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता।
गालिब शब्दों से खेलते नहीं, बल्कि वे शब्दों को जीते थे। उनकी गजलें एवं शायरी हर जाति, वर्ग, धर्म की धड़कन बनी, जो उनके अहसास की अभिव्यक्ति का माध्यम थी। ये उनका जादू ही है जो अब तक हम सबके सिर चढ़कर बोलता है। उन्होंने अनेक रास्तों और अनेक तरीकों से, जीवन की अर्थवत्ता को खोज निकाला था और खुद को उसमें खपा दिया था, वे वही बात बतातेे, जिन्हें उन्होंने खुद आजमाया था। वे फरिश्ते थे, ऐसा मैं नहीं मानता। लेकिन वे अच्छे इंसान थे, और उन्होंने आत्मविश्वास, स्वाभिमान, नैतिकता एवं चरित्र का खिताब ओढ़ा नहीं, उसे जीकर दिखाया। जो भाग्य और नियति के हाथों के खिलौना बनकर नहीं बैठे, स्वयं के पसीने से अपना भाग्य लिखा। उनकी गजलों एवं शायरी में समायी अपराजेय मेधा का उत्सव मनाया जाये, उनके पदचिन्हों पर चलते हुए आने वाले कल का आविष्कार किया जाय।उस महान् शब्द एवं भाव शिल्पी को उनके जन्म दिन पर नमन! प्रेषकः

 (ललित गर्ग)
लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92
मो. 9811051133

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