हे मानव! कुछ तो सोच जरा ….
बच्चा सोचे कब बड़ा होऊं, बड़ों की तरह रहूंगा व्यवहार करुंगा आदि-आदि। बच्चे को बड़ा होने की प्रतीक्षा। पढ़ाई पूरी कर कमाने की प्रतीक्षा। कमाना शुरु करते ही सही साथी की या शादी की प्रतीक्षा।
फिर प्रतीक्षा की लम्बी कड़ी प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा कब बच्चे हों, बड़े हों, फिर उनका जीवन संवार कर उनको व्यवस्थित करने की प्रतीक्षा। फिर कब बूढ़े मां-बाप से छुटकारा हो और जायदाद हाथ में आ जाए इसकी प्रतीक्षा। सदा प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा। प्रतीक्षा करना जैसे एकमात्र आवश्यक नितकर्म हो गया हो। यह हो जाए तो वह करेंगे वह हो जाए तो यह करेंगे। प्रतीक्षा और बहाने एक दूसरे के पर्याय हो गए हैं। इस प्रतीक्षा में कब स्वयं बूढ़े हो जाते हैं पता ही नहीं लग पाता। यह कैसी किसकी और क्यों अन्तहीन प्रतीक्षा है। इस प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा में कब जीवन चूक और चुक जाता है पता ही नहीं चलता।
कब मानव जीवन के सौन्दर्यमय ध्येय लक्ष्य और पूर्णता के आनन्द से वंचित रह जाता है यह मालूम ही नहीं होता। अपने इतने सुन्दर मानव जीवन को, अपने दिव्य अस्तित्व को नकार कर जीवन को केवल मृत्यु की प्रतीक्षा बनाकर रख देता है। जीवन जीता नहीं है केवल बिता देता है। तो हे मानव जीवन को प्रतीक्षा नहीं सुशिक्षा बना प्रकृति की तरह सदा देने वाली दीक्षा बना!
यही सत्य है
प्रणाम मीना ओम्