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डॉक्टरी पेशे की प्रतिष्ठा पर संकट

डॉक्टरी पेशे की प्रतिष्ठा पर संकट

अरूण तिवारी

हले मैक्स, फिर फोर्टिस और फिर मेदान्ता। आरोप लगा कि मौतें इलाज में लापरवाही के कारण हुई। डेंगू पीडि़त बच्चे के पिता को पहले तो 16 लाख रुपये का खर्च बता दिया। पिता ने अपना घर गिरवी रखकर किसी तरह 15.88 लाख रुपये का इंतजाम किया। अस्पताल को पैसे मिल गये, तो पीडि़त को सरकारी अस्पताल का रास्ता दिखा दिया। जहां जाकर बच्चे की मौत हो गई। क्रूरता की हद यह कि सरकारी अस्पताल में ले जाने के लिए निजी अस्पताल ने अपनी एम्बुलेंस तक मुहैया नहीं कराई। ऐसा नहीं है कि इलाज में लापरवाही की ये पहली, दूसरी अथवा तीसरी घटनायें थीं। सरकारी अस्पतालों में इनसे भी ज्यादा लापरवाही बरतने के मामले संभव हैं। किंतु इलाज को लेकर निजी अस्पतालों में हुए अपराध ज्यादा संगीन इसलिए मानने चाहिए, चूंकि मरीज की दुर्दशा के ज्यादातर मामलों में वजह, लापरवाही से ज्यादा, पूर्ण नियोजित लालच होता है। पैर की हड्डी में आई मामूली टूट, जो प्लास्टर से ठीक हो सकती है, उसका अनावश्यक ऑपरेशन करके सवा लाख रुपये तक वसूल लेना। दिल के जिन मरीजों को स्टंट की जरूरत नहीं, उन मरीजों को भी स्टंट डाल देना। कैंसर न होने पर भी कैंसर बता देना; ताकि मरीज के सगे कुछ भी खर्चने को तैयार हो जायें। इसके लिए पैथोलॉजी लैब से मिलकर गलत रिपोर्ट जारी करा देना। गांव-कस्बे के डॉक्टरों द्वारा शहर के प्राइवेट अस्पतालों में मरीजों को भेजना। बदले में प्राइवेट अस्पताल द्वारा उन्हें कमीशन देना। इस लालच को डॉक्टरी के पेशे में आई नैतिक गिरावट मानें या निजी अस्पतालों को सरेआम डाली गई डकैती डालने की दी गई शासकीय-प्रशासकीय छूट ?

राम मनोहर लोहिया अस्पताल के एक अति वरिष्ठ डॉक्टर ने मुझसे कहा कि उन्हें अब अपने पेशे से घिन आती है। जबकि ऐसा नहीं है कि डॉक्टरों में भगवान एकदम ही गायब हो गया है। वर्षों पहले मैने दिल्ली के सुचेता कृपलानी अस्पताल के एक डॉक्टर को एक मरीज की जरूरत की दवाई बाहर से मंगाने के लिए चंदा इक_ा करते देखा। आज भी मात्र पांच रुपये फीस लेकर चमड़ी का सफल इलाज करने वाले मांड्या (कर्नाटक) के डॉक्टर एस. सी. शंकर गौड़ा का किस्सा आपने सुना ही होगा। हकीकत यह है कि गिरावट पेशे में नहीं, अपितु हमारे निजी चिकित्सा तंत्र में आई है। निजी चिकित्सा संस्थान चलाने वालों ने इलाज करने को पूरी तरह एक बाजारू कारोबार मान लिया गया है और चिकित्सक को बाजार बढ़ाने वाला मार्किटिंग एजेेंट। निजी अस्पताल का प्रबंधन जिन डॉक्टरों को नौकरी पर रखता है, उन पर दबाव डालता है कि वे उनको दी जा रही मोटी पगार के बदले ज्यादा से ज्यादा कमाई करायें। प्रबंधन द्वारा डॉक्टरों को एक महीने में कम से कम कितने ऑपरेशन करने हैं; इसका लक्ष्य दिया जाता है। जच्चा-बच्चा की सुरक्षा के नाम पर ज्यादातर प्रसव, ऑपरेशन से ही कराये जाते हैं। वास्तविक कारण होता है, ज्यादा कमाई का लालच। इस बाजार को बढ़ाने में सरकारी नीतियों, पैथोलॉजी जांच प्रयोगशालाओं, दवा तथा चिकित्सा मशीन की कंपनियों ने पूरी मदद की है। दवाई कंपनियों की मदद से लगाये जाने वाले चिकित्सा कैंप अंतत: बाजार बढ़ाने का ही काम करते हैं। टीका, आयोडिन नमक, बोतलबंद पानी, आर ओ मशीन, रिफाइंड तेल, क्रीम जैसे उत्पाद बेचने के लिए लोगों में भ्रम फैलाने का काम डॉक्टरों के जरिए ही किया जाता रहा है। सबसे ज्यादा मदद की है, बीमा कंपनियों की चिकित्सा पॉलिसियों तथा निजी अस्पतालों को सरकारी पैनल पर डालने की नीति ने।

निजी अस्पतालों में आने वाले मरीज से सबसे पहले पूछा जाता है – आपके पास कोई हैल्थ पॉलिसी या कार्ड है ? हकीकत यह है कि निजी अस्पताल उन्हीं को भर्ती करने में रुचि लेते हैं, जिनके पास कोई कार्ड या पॉलिसी हो। रोग चाहे मामूली ही क्यों न हो, वे कार्ड की अधिकतम संभव आर्थिक सीमा के अनुसार इलाज का पैकेज पहले ही बता देते हैं। हकीकत यह भी है कि जिनके पास जितने की चिकित्सा पॉलिसी है, वे मरीज उतने खर्च तक इलाज की कतई परवाह नहीं करते; चाहे वह नाजायज ही क्यों न हो। सरकारी कर्मचारी तो बिल्कुल नहीं करते। अलबत्ता कुछ कर्मचारी तो साल में कुछ दिनों के लिए पैनल के किसी अस्पताल में इसलिए भर्ती हो जाते हैं; ताकि सरकारी छुट्टी पर एक-आध सप्ताह फाइव स्टार सुविधा वाली जगह में आराम फरमा सकें। गरीबी रेखा से नीचे वाले आय वर्ग को वर्ष में 30 हजार रुपये तक की चिकित्सा कराने की आजादी देने के लिए स्मार्ट कार्ड बनाये गये हैं। बिजनौर के एक डॉक्टर के मुताबिक, जिला व तहसील स्तर के ज्यादातर नर्सिंग होम इसी कार्ड पर जिंदा हैं। गांव से आये अनपढ़ मरीजों को नहीं पता होता कि वे जिस फार्म पर अगूंठा लगा रहे हैं, उनमें क्या लिखा है और उनके इलाज के नाम पर मनचाही राशि लिख दी जाती है। यह टैक्स के रूप लोगों द्वारा सरकार को दी जा रही गाढ़ी कमाई की बर्बादी नहीं तो और क्या है ?

एक वक्त था, डॉक्टर नब्ज, लक्षण अथवा स्टेथोस्कोप की मदद से बीमारी का पता लगा लेते थे। निस्संदेह, पैथोलॉजी जांच ने बीमारी की सटीक पहचान करने को आसान बनाया है। किंतु साधारण सी भी बीमारी की पहचान के लिए पूरी तरह पैथोलॉजी जांच रिपोर्ट पर निर्भर हो जाने की चिकित्सा पढ़ाई ने इलाज को बेहद मंहगा बना दिया है। यदि भारत में इलाज की मंहगाई और लूट घटानी है, तो हैल्थ पॉलिसी, कार्डों और सरकारी पैनल में निजी अस्पतालों का ईमानदार विकल्प सोचना होगा। डॉक्टरी की पढ़ाई में पैथोलॉजी जांच की बजाय, नाड़ी ज्ञान और लाक्षणिक विज्ञान पर जोर बढ़ाना होगा। ऐसा कानून बनाना होगा, जिसके तहत् मरीज को उसकी जांच रिपोर्ट, बीमारी तथा इलाज के चिकित्सकीय पहलुओं के बारे में उसकी भाषा में बताना अनिवार्य हो। दवाइयों की कीमतों तथा पैथोलॉजी जांच की फीस पर लगाम सुनिश्चित करनी ही होगी। चुनिंदा साधारण बीमारियों के लिए लोगों को मंहगे अस्पतालों तथा मंहगे डॉक्टरों के फेर में पडऩे से रोकने के लिए प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों के तंत्र को तकनीकी और विशेषज्ञता स्तर पर पूरी तरह समृद्ध तथा ईमानदार सेवा केन्द्रों में तब्दील करना होगा। सरकारी जिला अस्पतालों में जांच व दवा की उपलब्धता बढ़ानी होगी। बिना डिग्रीधारी अचूक नाड़ी वैद्यों, नस व हड्डियों के अद्भुत जानकारों, सांप काटे का अचूक इलाज करने वालों तथा दाइयों को उनकी प्रमाणिक कुशलता के आधार पर मान्यता देने की प्रक्रिया शुरु करनी होगी। संभवत: राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग बिल में शामिल ब्रिज कोर्स का प्रस्ताव इसके रास्ते खोले।

यदि सरकार चिकित्सा में बाजार की गिरोहबंदी को न तोड़ सकी, तो तय मानिए कि डकैती की वजह निजी चिकित्सा तंत्र भले ही हो, खामियाजा अंतत: डॉक्टरी पेशे को ही भुगतना पड़ेगा। अभी मरीज ने डॉक्टरों को भगवान मानना बंद किया है; आगे चलकर वह पूरी तरह डकैत मानने लगेगा। दुखद यह होगा कि तब मरीज, डॉक्टरों से उसी तरह मुकाबला करेगा, जैसे डकैती पडऩे पर डकैतों से करता है। मरीजों के तीमारदारों द्वारा डॉक्टरों से की जाने वाली बदतमीजी की बढ़ती घटनायें इसका संकेत हैं। ऐसे में डॉक्टरी पेशे के प्रति विश्वास को बचाना बेहद जरूरी है। इसके लिए निजी चिकित्सा तंत्र को बाध्य करना जरूरी है। सरकार, मरीज और डॉक्टर मिलकर ऐसा करें; ताकि डॉक्टर को मिला भगवान का दर्जा और पेशे की प्रतिष्ठा… दोनों बचे रहें। यह मरीज के हित में भी है और डॉक्टर के हित में

भी।

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