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तू डाल डाल, मैं पात पात

देश एक दिलचस्प मगर चुनौतीपूर्ण मोड़ पर है। पूर्व में एकतरफा दिख रही, हाल ही के पांच राज्यों के चुनावों के परिणाम के बाद लोकसभा चुनावों की जंग बड़े कांटे की हो गयी है। स्थितयां लगभग सन 2009 जैसी हैं जब सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध कोई बड़ी लहर या हवा नहीं थी तो यह भी पता नहीं था कि पक्ष में कौन है, वैसी ही कुछ मोदी सरकार की वर्तमान स्थिति है। मोदी सरकार को अस्थिर व बदनाम करने के लिए जो झूठ व अतिरंजित आरोपों व बयानों का सहारा विपक्षी पार्टियों विशेषकर कांग्रेस पार्टी ने लिया वह देश मे स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अत्यंत निराशाजनक है। राफेल डील पर जिस प्रकार राहुल गांधी मोदी सरकार को घेर रहे थे व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आरोप लगा रहे थे उससे जनता में यह विश्वास बनने लगा था कि हो सकता है कोई घोटाला हुआ हो किंतु जब संसद में इस विषय पर हुई बहस के जवाब में रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस डील के सभी तथ्य संसद के माध्यम से देश के सामने रखे तब जनता की समझ मे आया कि किस प्रकार झूठ और प्रपंच की राजनीति कर कांग्रेस व राहुल गांधी ने मोदी सरकार को अस्थिर व बदनाम करने की साजिश रची। ऐसी ही दर्जनों साजिशें व आरोप असहिष्णुता, ईवीएम, अयोध्या मामले, संवैधानिक संस्थाओं, रिजर्व बैंक को अस्थिर करने आदि के नाम पर देश की सेकुलर पार्टियां व लोग लगातार मोदी सरकार के विरुद्ध लगाकर जनता को गुमराह करने पर उतारू हैं। दु:खद व अशोभनीय यह है कि मीडिया का एक वर्ग विशेष ऐसी खबरों को बिना जांचे परखे प्रमुखता से दिखा रहा है।
निश्चित रूप से यह विपक्ष का उत्तरदायित्व है कि वह सरकार के गलत कार्यों को सामने लाए व उसकी आलोचना करे किंतु इसकी आड़ में दुष्प्रचार करना अत्यंत घातक है। ऐसा संभव नहीं कि एनडीए गठबंधन की सरकार में सब कुछ ठीक ही हुआ हो या सभी नीतिगत निर्णय सही ही हो मगर उनकी आलोचना व वैकल्पिक नीतियों का ढांचा प्रस्तुत करने में विपक्ष पूर्णत: असफल रहा है। लोकसभा चुनाव उनके लिए एक स्वर्णिम अवसर की तरह है जब वे अपनी नीतियों व कार्यक्रमों को लेकर जनता के पास जा सकते थे किंतु वे अपने परस्पर विरोधी व वैचारिक प्रतिद्वंद्वी तक के साथ गठजोड़ करने में अधिक दिलचस्पी दिखा रहे हैं और जनहित व जन सरोकार के मुद्दों से किनारा कर मात्र सत्ता को सर्वस्व मानकर गठबंधन बनाने की कवायद में जुटे हैं। विपक्षी पार्टियों की यह सीमाएं देश की राजनीति में उत्पन्न बड़े वैचारिक संकट का संकेत भी हैं। विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार व कांग्रेस पार्टी की जीत ने नए सत्ता समीकरण खोल दिए हैं। अभी तक अपराजेय समझी जाने वाली मोदी-शाह की जोड़ी स्थितियां हाथ से निकलती देख नए दांव पेंच चल रही है तो कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए भी अपनी ताल ठोक रहा है। यद्यपि बाजारवादी नीतियों के मामले में दोनों ही दल एक धरातल पर खड़े हैं। कांग्रेस पार्टी अगले कुछ दिनों में कुछ बड़े खुलासे, स्टिंग ऑपरेशन व घोटाले सामने ला सकती है ताकि मोदी सरकार बदनाम हो सके। मगर कांग्रेस व विपक्षी दलों को अगर सही मायने में सत्ता चाहिए है तो जन सरोकार के मुद्दों पर व्यापक जन आंदोलन छेडऩा होगा और उससे पहले अपनी नीति व नीयत स्पष्ट करनी होगी क्योंकि मोदी व भाजपा के आक्रामक अभियान के कारण हिंदुत्व, राष्ट्रवाद व रचनात्मक सोच अब भारतीय राजनीति के महत्वपूर्ण मुद्दे हो गए हैं और जो दल इन मुद्दों से किनारा करेगा, जनता उससे किनारा कर लेगी।
पिछले एक वर्ष में अपनी मेहनत व कांग्रेस के उठते ग्राफ के बीच कांग्रेस व राहुल गांधी को उम्मीद थी कि आसानी से सभी विपक्षी दलों को मोदी सरकार के विरुद्ध महागठबंधन में शामिल करवा लेंगे और राहुल प्रधानमंत्री पद के विपक्ष के सांझा उम्मीदवार घोषित हो जाएंगे। किंतु तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर द्वारा तीसरे मोर्चे की कवायद के बीच उत्तर प्रदेश में सपा बसपा गठबंधन, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, बीजेडी, अन्नाडीएमके व वाम दलों आदि के महागठबंधन में आने व कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लडऩे से मना करने व राहुल के नेतृत्व को अस्वीकार करने के कारण कांग्रेस व राहुल अलग थलग पड़ गए हैं। मायावती ने तो विशेष रूप से बड़े गंभीर आरोप लगाते हुए कांग्रेस से दूरी बना ली। ऐसे में अंतत: गांधी परिवार को प्रियंका को राजनीति में लाना पड़ा। इस कदम ने सेकुलर दलों व वोटरो में विचित्र स्थिति पैदा कर दी है और पूरे देश मे लोकसभा चुनाव त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय हो गए हैं। यह किसी हद तक बैकफुट पर आए भाजपा व एनडीए के लिए बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने जैसा है।
पर्दे के पीछे की राजनीति बताती है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने तीन राज्यों की सरकार गवाने के बाद उपजी नकारात्मक स्थितियों व माहौल से निकलने व वापस बाजी पलटने की मजबूत कार्यनीति बनाई व काम किया। सर्वप्रथम भाजपा की राष्ट्रीय परिषद का सम्मेलन बुलाकर पार्टी पर अपनी पकड़ होने की बात सत्यापित की। जिन कारणों से हारे व मतदाता हाथ से निकला यानि सवर्णों का विरोध व गुस्सा उसको शांत करने के लिए सामान्य वर्ग के आरक्षण का दांव खेला और दो दिन में ही पूरा परिदृश्य बदल अपने रूठे वोटबैंक को वापस अपने साथ कर लिया। दूसरा बड़ा कदम विपक्षी खेमें में सेंध लगाना व महागठबंधन बनने से रोक कांग्रेस व यूपीए को अलगथलग करना। इसके लिए पर्दे के पीछे सभी गैर यूपीए दलों से संपर्क साधे गए, उनको तीसरे मोर्चे से जुडऩे या अलग चुनाव लडऩे के फायदे समझाए। जो नहीं माना उसके भ्रष्टाचार की फाइलें सामने रख दी या फिर जांच एजेंसियों की कार्यवाही तेज कर साध लिया गया। तीसरा बड़ा काम जनता को राहत व स्थायी आमदनी के साथ ही किसानों, बेरोजगारों व मध्यम वर्ग के लिए बड़े, प्रभावी व दीर्घकालिक स्थायी लाभ वाली योजनाओं की घोषणा व क्रियान्वयन। इसके साथ ही पुरानी योजनाओं का तेजी से जमीनी क्रियान्वयन व अधूरे चल रहे प्रोजेक्ट्स को तेजी से पूरा कर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ताबड़तोड़ उद्घाटन व रैलियां। साथ ही विश्वपटल पर तेजी से उभरते भारत की प्रतिष्ठा से आम आदमी को जोड़ उसे रोमांचित महसूस करा उसमें आत्मगौरव का भाव पैदा करना और सबसे ऊपर भारत की सनातन संस्कृति व गौरवान्वित अतीत की पुनर्प्रतिष्ठा करने के काम। लेकिन इन सब के बाद भी जीत का आत्मविश्वास एनडीए, भाजपा व मोदी-शाह की जोड़ी में नहीं पैदा हो पा रहा। ऐसे में अंतत: राम मंदिर के निर्माण की घोषणा व बड़ी सर्जिकल स्ट्राइक जैसे कदम भी मोदी सरकार उठा सकती है ताकि भावनात्मक ज्वार पैदा कर अपने पक्ष में लहर बनाकर सत्ता की वैतरणी पार की जा सके।
ऐसे में जब हर ओर पक्ष विपक्ष से लगातार ब्रह्मास्त्र छोड़े जा रहे हैं और उनकी काट भी ढूंढी जा रही है, तू डाल डाल, मैं पात पात की स्थिति है, लोकसभा के चुनाव दिनोंदिन महाभारत में बदलते जा रहे हैं। संभावना है कि मार्च माह में लोकसभा चुनावों की तिथियां घोषित हो जाए व अप्रैल में कुछ और राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ चुनावों की प्रक्रिया पूरी हो जाए। ऐसे में राजनीतिक दलों के साथ ही मतदाताओं का विवेक भी दांव पर है कि वे किसे चुनेंगे? प्रखर राष्ट्रवाद को या उथले सेकुलरवाद को। किसी भी स्थिति में देश में पूर्ण बहुमत वाली स्थिर सरकार बने यह जरूर जनता से अपेक्षित है।

By Anuj Agarwal

Editor, Dialogue India

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