Shadow

त्योहारों पर हिंसा का साया

त्योहारों पर हिंसा का साया

इस समय देश बड़ी विकट स्थिति से गुज़र रहा है। एक आम आदमी जो कि इस देश की नींव है उस के लिए जीवन के संघर्ष ही इतने होते हैं कि वो अपनी नौकरी, अपना व्यापार, अपना परिवार, अपने और अपने बच्चों के भविष्य के सपनों से आगे कुछ सोच ही नहीं पाता। वो रोज सुबह उम्मीदों की नाव पर सवार अपने काम पर जाता है और शाम को इस दौड़ती भागती जिंदगी में थोड़े सुकून की तलाश में घर वापस आता है।

तीज त्यौहार उसके इस नीरस जीवन में कुछ रंग भर देते हैं। एक आम आदमी का परिवार साल भर इन तीज त्योहारों का इंतजार करता हैं। घर के बड़े बुजुर्गों की अपनी पीढ़ियों पुरानी परंपराओं के प्रति आस्था तो बच्चों के मन की उमंग इन त्योहारों के जरिये उसके जीवन में कुछ रस और रंग भर देते हैं। लेकिन जब यही त्योहार जिंदगी को मौत में बदलने का कारण बन जाए?जब इन त्योहारों पर जीवन रंगहीन हो जाए? उनका घर उनका उनकी दुकानें उनका कारोबार उनकी जीवन भर की कमाई हिंसा की भेंट चढ़ जाए? पहले करौली में नवसंवत्सर के जुलूस पर हमला फिर रामनवमी पर मप्र बंगाल गुजरात झारखंड जेएनयू और उसके बाद हनुमान प्रकटोत्सव पर दिल्ली कर्नाटक आंध्रप्रदेश उत्तराखंड और महाराष्ट्र के कुछ स्थानों पर शोभायात्रा निकालने के दौरान जो हिंसा भड़की वो अनेक और अनेकों पर सवाल खड़े करती है।

वैसे तो हिंसक घटनाएं इस देश के लिए नई नहीं हैं। कुछ समय पहले तक आतंकवादी घटनाएं जैसे सार्वजनिक स्थानों पर बम धमाकों से लेकर आत्मघाती हमले अक्सर होते थे। इस देश में आतंकवाद की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हमने अपने दो प्रधानमंत्री (एक कार्यरत तो एक भूतपूर्व) आतंकवाद के कारण खो दिए। आज उस प्रकार की आतंकवादी घटनाओं पर तो विराम लग गया है। लेकिन आज जिस प्रकार की हिंसक घटनाएं देश के विभिन्न जगहों पर हो रही हैं वो बेहद चिंताजनक हैं क्योंकि ये घटनाएं उन आतंकवादी घटनाओं से अलग हैं।

उन घटनाओं में आतंकवादी संगठनों का या अलगाववादी नेताओं का हाथ होता था जिन्हें बकायदा प्रशिक्षण प्राप्त आतंकवादी अंजाम देते थे। लेकिन आज इन शोभायात्राओं में होने वाले उपद्रव स्थानीय हिंसा है। जिस प्रकार के खुलासे हो रहे हैं उनके अनुसार इन सभी जगह हिंसा की शुरुआत एक ही तरीके से हुई। क्षेत्र के आदतन अपराधी इन जुलूसों के निकलने के दौरान जुलूस में शामिल लोगों से रास्ता बदलने के लिए या फिर भजनों और नारों को बंद करने को लेकर वाद विवाद करते हैं जो हिंसा में तब्दील हो जाता है।

मस्जिदों और आसपास के घरों की छतों से पथराव शुरू हो जाता है। देखते ही देखते दुकानों और गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया जाता है। दंगाइयों के बुलन्द हौसलों का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे पुलिसकर्मियों पर भी हमला करने में नहीं हिचकते। इससे पहले किसान आंदोलन के दौरान 26 जनवरी के दंगों में भी देश ने उपद्रवियों द्वारा पुलिस प्रशासन पर हमला किए जाने की तस्वीरें देखी थीं। आप इसे क्या कहेंगे कि दिल्ली दंगो के मुख्य आरोपी अंसार को जब पुलिस कोर्ट में पेशी के लिए ले जा रही थी तो वो पुष्पा फ़िल्म का एक्शन “झुकेगा नहीं ” कर रहा था। जिस पुलिस के सामने एक आम आदमी के पसीने छूट जाते हैं उसी पुलिस को इन अपराधियों को कोर्ट से सज़ा दिलवाना तो दूर की बात है उनकी बेल रुकवाने में पसीने छूट जाते हैं!

स्थिति का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिल्ली दंगों के आरोपियों को चिन्हित करने के बाद उनके अवैध कब्जों को गिराने के लिए जब सरकार की ओर से कार्यवाही की गई तो कुछ घण्टों में ही सरकार की इस कार्यवाही के खिलाफ कोर्ट से स्टे आर्डर आ जाता है। विडम्बना की पराकाष्ठा देखिए कि संविधान की दुहाई देने वाले संविधानिक को ताक पर रखकर किए गए अतिक्रमण को बचाने के लिए संविधान का सहारा लेकर कर कोर्ट जाते हैं और कोर्ट असंवैधानिक तरीके से किए गए निर्माण को गिराने से रोकने के लिए स्टे आर्डर दे भी देता है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार ये लोग उन लोगों को बचाने के लिए आगे आए हैं जिन्हें रामनवमी और हनुमान प्रकटोत्सव के जुलूसों में लोगों द्वारा अपनी आस्था की अभिव्यक्ति रास नहीं आई। इन परिस्थितियों में ये सवाल तो बहुत गौण हो जाते हैं कि कश्मीर के पत्थर देश की राजधानी दिल्ली से लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में कैसे आए? देश के विभिन्न स्थानों पर निकलने वाली शोभायात्राओं पर एकसाथ हमले क्या संयोग हैं? हमलावरों की इतनी भीड़ क्या अचानक इकट्ठा हो गई? इन हमलों के बाद जिन अवैध कब्जों को तोड़ने प्रशासन पहुंचा था ये अतिक्रमण प्रशासन के नाक के नीचे कैसे खड़े हुए? क्या ये रातों रात खड़े हुए?

क्या स्थानीय स्तर पर होने वाली इस प्रकार की घटनाएं देश भर में सामाजिक समरसता को चुनौती नहीं दे रही?

क्या हमारे राजनीतिक दल और सरकारें इन सवालों के ईमानदार जवाब दे पाएंगी?

वर्तमान परिस्थितियों को अगर सुधारना है तो इनके जवाब तो देश के सामने रखने ही होंगें। क्योंकि जिस प्रकार के खुलासे इन घटनाओं की जांचों में हो रहे हैं वो स्थिति की गंभीरता की ओर इशारा कर रहे हैं। जहांगीरपुरी की हिंसा की जांच में यह बात सामने आ रही है कि जिस जगह से शोभायात्रा पर पथराव के बाद हिंसा हुई थी वहीं से करीब सात बसों में भरकर बांग्लादेशी महिलाएं बच्चों व पुरुषों को शाहीन बाग प्रदर्शन में शामिल होने के लिए ले जाया गया था। अगर शाहीनबाग और शोभायात्रा पर हमलों के तार जांच में जुड़ रहे हैं तो क्या समझ जाए? यही कि इस प्रकार की हिंसक घटनाएं संयोग नहीं प्रयोग हैं?

डॉ नीलम महेंद्र

लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *