एक तरफ जहां उत्तर भारत में सर्जिकल अटैक और पाकिस्तान के अंदर घुस कर प्रहार करना राष्ट्रवाद की भावना को बलवती कर रहा है वहीं दूसरी तरफ दक्षिण के राज्यों में यह विषय चुनावी विमर्श का विषय नहीं बन पा रहा है। उत्तर भारत की राजनीति भावनात्मक रूप से चलती है तो दक्षिण के राज्यों की राजनीति विशुद्ध व्यक्तिगत स्वार्थों पर। दक्षिण के राज्यों में यह भावना पायी जाती है कि उत्तर भारतीय लोग उनका राजनीतिक अतिक्रमण करते रहते हैं। चूंकि भारत के प्रधानमंत्री अधिकतर उत्तर भारत से ही रहे हैं इसलिए उनकी इस बात को नकारा भी नहीं जा सकता है। वर्तमान में गुजरात से आने वाले प्रधानमंत्री मोदी भी बनारस से जीत कर लोकसभा में पहुंचे हैं। राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द भी उत्तर प्रदेश से आते हैं। ऐसे में दक्षिण के राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के मुद्दे उत्तर भारत के चुनावी मुद्दों से अलग हैं। दक्षिण में अभी भी क्षेत्रीय राजनीति राष्ट्रीय राजनीति पर भारी है। केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना एवं आंध्र प्रदेश में आज भी क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों पर भारी हैं। मोदी और अमित शाह का प्रदेश गुजरात व्यापारिक क्षेत्र होने के कारण ज़्यादा राजनीतिक पचड़ों में नहीं है। संघ और हिन्दुत्व का गढ़ महाराष्ट्र शिवसेना से जुड़ाव के बाद वापस भाजपा का गढ़ बन गया है। बंगाल में ममता और भाजपा में मुस्लिम और हिन्दू वोटों का आपस में अघोषित बंटवारा हो चुका है। इसके साथ ही पूर्वोत्तर में अभी भी मोदी का जादू सर चढ़कर बोलता दिखाई दे रहा है। देश में स्थायी सरकार के एकमात्र विकल्प के कारण मोदी दूसरी पारी की तरफ तेज़ी से बढ़ रहे हैं।
द्य अमित त्यागी
राष्ट्रीय दल कांग्रेस और भाजपा के चुनाव जीतने के अपने अपने पैंतरे हैं। भाजपा राष्ट्रवाद के जरिये दोबारा सत्ता प्राप्त करना चाह रही है तो कांग्रेस अब नरम हिन्दुत्व के द्वारा भाजपा को कमजोर करने की कोशिश कर रही है। इन सबके बीच जिस जिस राज्य में क्षेत्रीय दल एवं उनकी राजनीति हावी है वहां वहां राष्ट्रवाद और नर्म हिन्दुत्व चुनावी विषय नहीं बन रहा है। वहां स्थानीय मुद्दे, स्थानीय स्वार्थ और उम्मीदवारों के व्यक्तिगत प्रभाव चुनाव में भारी पड़ते दिख रहे हैं। अगर कहा जाये कि देश की राजनीति को अस्थिर करने में क्षेत्रीय दलों की बहुत बड़ी भूमिका रही है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। अब चाहे वह बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और वामदल हों या उत्तर प्रदेश में मायावती और मुलायम। बिहार में यह काम लालू और नितीश ने किया तो तमिलनाडु में जयललिता एवं करुणानिधि ने। केरल में कांग्रेस और वाम दल भी क्षेत्रीय दलों की ही भूमिका में दिखाई देते हैं। क्षेत्रीय दलों के प्रभाव वाले क्षेत्रों में राष्ट्रवाद मतदाता को प्रभावित नहीं करता है। इस तरह से देखा जाये तो पूर्व में क्षेत्रीय दल अपने अपने क्षेत्र में शासन करते रहे एवं केंद्र में अल्पमत की गठबंधन सरकारें देश को अंदर से खोखला करती रहीं। दशकों तक यही चला देश की राजनीति में। जब तक जनता को क्षेत्रीय दलों के नुकसान समझ आ पाते, काफी कुछ लुट चुका था। अब जैसे जैसे जनता थोड़ी जागरूक होती जा रही है, क्षेत्रीय दलों के कुछ नुकसान उसे समझ आने लगे हैं। किन्तु क्षेत्रीय दलों के नुकसान को समझने के बावजूद राष्ट्रवाद का विषय न उभरना इन प्रदेशों की विडम्बना है। अब चूंकि विभिन्न प्रदेशों के क्षेत्रीय दलों के द्वारा आपस में मिलकर महागठबंधन तो कर लिया गया है लेकिन फिर भी इनमें आपसी सामंजस्य कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा है। इसके साथ ही विकास और अपराध का आपस में सीधा संबंध है। जहां अपराध कम होगा वहां के लोगों की ऊर्जा विकास के कामों में ज़्यादा खर्च होती है। भाजपा की जहां जहां सरकारें हैं वहां अपराध की प्रवृत्ति घटी है। कानून व्यवस्था में सुधार हुआ दिखता है। उत्तर प्रदेश इसका एक उदाहरण है।
अगर गुजरात की बात करें तो गुजरात में एक बड़ा तबका व्यापार से जुड़ा है। वहां विकास भी हुआ और अपराध भी कम दिखे। पहले हार्दिक पटेल ने आकर गुजरात को अस्थिर किया इसके बाद विधानसभा चुनावों के दौरान राहुल गांधी ने विकास को पागल बताकर गुजरात को उत्तर भारत बनाने की कोशिश कर दी। इसके बाद जब हार्दिक पटेल की कांग्रेस से नज़दीकियां बढ़ी तो एक बार फिर आंदोलन की रूपरेखा बन गयी। इसके पहले अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया था जो बाद में राजनैतिक परिनीति को प्राप्त हो चुका है। हार्दिक पटेल की सहयोगी रेशमा पटेल भी दो साल पहले ही भाजपा के खेमे का दामन थाम चुकी हैं। कानून व्यवस्था पर प्रहार करने वाले इस आंदोलन के बीच गुजरात में विधानसभा चुनावों में भाजपा लडख़ड़ाते हुये जीत गयी थी। इसका निश्चित फायदा लोकसभा के चुनावों में मिलने जा रहा है। गांधीनगर से लालकृष्ण आडवाणी का टिकट काटकट अमित शाह को दिया जाना बुजुर्ग भाजपाइयों में रोष पैदा कर रहा है। चूंकि, पाटीदार के आरक्षण के नाम पर नेता बने लोग अब अलग अलग दलों में व्यवस्थित हो चुके हैं इसलिए भाजपा के लिए अब पटेल आंदोलन फायदे का सौदा बन चुका है। इसके साथ ही गुजरात एक विकसित प्रदेश रहा है। वहां व्यापार का माहौल है। व्यापारी वर्ग अपराध में समय गंवाने से ज़्यादा पूंजी कमाने पर ध्यान देता है। गुजरात के पटेल समृद्ध लोग हैं। विदेशों में रहने वाले गुजराती लोगों में पटेलों की संख्या बहुतायत में है। हार्दिक पटेल ने जब पाटीदार आंदोलन शुरू किया तो आरक्षण के नाम पर शुरू किया गया यह आंदोलन पटेलों को खूब भाया। सरकारी नौकरी की चाह में युवाओं ने इसमें बढ़ चढ़कर भाग लिया और हार्दिक पटेल एक बड़े पाटीदार नेता के रूप में उभरकर सामने आए। इस आंदोलन के द्वारा गुजरात जैसा विकसित देश उत्तर भारत के अपेक्षाकृत पिछड़े प्रदेशों की राह पर बढ़ता दिखा जहां सरकारों ने विकास के मॉडल के स्थान पर जातिवादी मॉडल खड़ा कर दिया है। पाटीदार आंदोलन के बाद गुजरात में कुछ ऐसी घटनाएं सामने आयीं जिसके द्वारा जातिवादी राजनीति की बू आने लगी। इन घटनाओं से यह भी साबित हुआ था कि पाटीदार समुदाय पिछड़ा समुदाय नहीं है।
इसके साथ ही गुजरात और उसके समीपवर्ती राजस्थान में धार्मिक आस्था का विषय भी चुनावी प्रभाव रखता है इसलिए योगी सरकार के द्वारा जो नाम बदलाव की घटनाएं उत्तर प्रदेश में हुयी हैं वह राजस्थान एवं अन्य राज्यों पर अपना प्रभाव दिखाने जा रही हैं। कांग्रेस की प्रियंका गांधी का मंदिर दर्शन भी नर्म हिंदुतव का एक संकेत दे रहा है। राहुल गांधी ने भी अपना मंदिर दर्शन गुजरात विधानसभा चुनावों से शुरू किया था। अब इसके बाद कुम्भ के माध्यम से योगी सरकार ने हिन्दुत्व को उभारने का काम किया है। चूंकि उत्तर प्रदेश में उम्मीद के मुताबिक हिन्दू धर्म से जुड़े कार्यकलाप ज़्यादा हो रहे हैं इसलिए सुदूर महाराष्ट्र जैसे प्रखर हिंदुवादी प्रदेश में भी इसका व्यापक प्रभाव देखने को मिल रहा है। अयोध्या में एक साथ लाखों दीप जलाकर गिनीज़ बुक में उत्तर प्रदेश का नाम आना एवं बाद में योगी आदित्यनाथ का चित्रकूट जाना जैसे सांकेतिक प्रखर हिन्दुत्व के कार्य कर्नाटक में भी प्रभाव रखते हैं और पंजाब-बंगाल में भी।
प्रियंका-राहुल के नरम हिन्दुत्व का प्रभाव
एक तरफ भाजपा प्रखर हिन्दुत्व पर काम करती दिख रही है दूसरी तरफ कांग्रेस भाजपा को कमजोर करने के लिए छदम हिन्दुत्व की राह पर है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार बनने के बाद कांग्रेस को समझ आ गया है कि अब भारत में दक्षिणपंथ का विकल्प दक्षिणपंथ ही बन सकता है। इन तीन राज्यों में कांग्रेस ने यह भांप लिया था कि लोगों में भाजपा के लिए गुस्सा है। पर लोग हिन्दुत्व के मुद्दे के कारण भाजपा को विकल्पहीनता में वोट देते हैं। इसलिए कांग्रेस ने अपने चुनावी मौसम में बाहर आने वाले चेहरे प्रियंका को पहले राष्ट्रीय महासचिव बनाया फिर इसके बाद प्रियंका मंदिरों के दर्शन को निकल गईं। हालांकि, प्रियंका उत्तर प्रदेश के मंदिरों में पूजा कर रही हैं किन्तु कांग्रेस को इसका फ़ायदा दक्षिण के राज्यों में भी मिलता दिख रहा है। चूंकि दक्षिण के राज्यों में राष्ट्रवाद चुनावी विषय नहीं है इसलिए प्रियंका के दौरे से भाजपा को नुकसान होना भी तय है। दक्षिण में भाजपा स्वाभाविक विकल्प नहीं बन पा रही है। महाराष्ट्र में तो भाजपा और शिवसेना में व्यापक मनमुटाव था। शिवसेना ने तो सीधे सीधे मोदी को ही निशाने पर ले रखा था पर अब दोनों दल सीटों पर समझौता करके साथ आ चुके हैं। महाराष्ट्र की जनता में एक स्पष्ट संदेश है कि यह दोनों दल अपने निजी स्वार्थों के कारण फिर से एक साथ आ गए हैं। अब जो हिन्दू मतदाता वर्ग भाजपा और शिवसेना से नाराज़ है। जो नोटा में जाना चाहता था वह कांग्रेस खेमे की तरफ स्थानांतरित हो सकता है।
अगर बंगाल की तरफ देखें तो सीमा पार घुसपैठ और रोहिंग्या मसले को उठाकर भाजपा ने हिन्दुओं को अपनी तरफ आकर्षित कर लिया है। भाजपा का विरोध करके ममता ने मुस्लिम वर्ग को अपने साथ जोड़ लिया है। वाम दल और कांग्रेस अपने वोट बैंक को एकजुट रखने के लिए संघर्ष करते दिख रहे हैं। बंगाल में हिन्दू एक जुट होकर वोट बैंक बनता नहीं दिख रहा है। प्रियंका गांधी का नर्म हिन्दुत्व बंगाल में भी कांग्रेस खेमे को मत प्रतिशत का फायदा पहुंचा सकता है। ऐसा ही कुछ अन्य हिन्दी भाषी प्रदेशों में भी संभव है। पर इन सबके बीच सबसे महत्वपूर्ण बात यह सामने आती है कि कांग्रेस को वोट देने की स्थिति में प्रधामन्त्री कौन होगा। इस प्रश्न के जवाब में राहुल गांधी का नाम आने पर प्रियंका का मंदिर दर्शन का प्रभाव सीमित हो जाता है। फ्लोटिंग वॉटर वापस नरेंद्र मोदी की तरफ जाता दिखने लगता है। प्रियंका गांधी के मंदिर जाने से कांग्रेस का मत प्रतिशत बढ़ता दिख रहा है किन्तु इसके द्वारा कांग्रेस को कोई बड़ा फ़ायदा होगा ऐसा होता तो नहीं दिख रहा है। इसी तरह पूर्वोत्तर के राज्यों में मोदी का प्रभाव दिखता है। वर्षों से कांग्रेस और वाम दलों के गढ़ को भाजपा ने पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है। अब इन सभी प्रदेशों में भाजपा की सरकारें हैं। इन राज्यों में भाजपा की सरकार बनने के बाद पहली बार 2019 के लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं। पूर्वोत्तर से इस बार मोदी 2014 से काफी ज़्यादा सीटें प्राप्त करते दिख रहे हैं। पूर्वोत्तर से साफ होने के बाद लाचार कांग्रेस जब प्रियंका के द्वारा उत्तर प्रदेश में भाजपा को चोट करने का प्रयास करती दिखती है तो उसकी लाचारी साफ दिखाई देने लगती है।
कांग्रेस और गठबंधन से परहेज दिखा रहा मतदाता
जनता का एक बड़ा वर्ग देश में गठबंधन की सरकारों से परहेज करता दिख रहा है। यहां हम भिन्न भिन्न विचारधाराओं वाली पार्टियों के आपसी गठबंधन की बात कर रहे हैं जो कभी आपस में ही लड़ा करती थी। वैसे तो कांग्रेस और भाजपा दोनों के अपने अपने गठबंधन हैं किन्तु इन दलों से इतर एक अन्य तीसरा गठबंधन भी उभरता दिखने लगता है। गठबंधन सरकारों के तजुर्बे भारत में अच्छे नहीं रहे हैं। आपातकाल के बाद कई दलों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई थी और देश को कांग्रेस का विकल्प देने का प्रयास किया था। उस सरकार को स्पष्ट जनादेश मिला किन्तु बहुकेंद्रीय सरकार होने के कारण दो साल में ही यह सरकार गिर गयी। इसके बाद 1989 में वीपी सिंह ने गठबंधन सरकार बनाई। यह सरकार एक साल में ही गिर गयी, इसके बाद इस सरकार के अभिन्न अंग रहे चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री बने जिसे कांग्रेस ने चार माह बाद ही गिरा दिया। 1996 में कांग्रेस के समर्थन से एक और गठबंधन सरकार देवगौड़ा के नेतृत्व में बनी। कांग्रेस ने इसे भी गिरा दिया और फिर इन्द्र कुमार गुजराल के रूप में देश को अगला गठबंधन प्रधानमंत्री मिला। यह सरकार भी कुछ महीनों के बाद गिर गयी। इसके बाद अटल बिहारी बाजपेयी ने गठबंधन करके अपनी सरकारें बनाई। उनकी सरकार तेरह दिन और तेरह महीनों में गिर गयी। इसके बाद जब एनडीए के रूप में चुनाव पूर्व गठबंधन अस्तित्व में आया तब अटल सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। 2004 में कांग्रेस और वामदलों के सहयोग से बनी सरकार में आपसी खींचतान मची रहती थी। 2004 में जब यूपीए 1 में चार राज्यपाल नियुक्त किए गए तब गठबंधन में अंदुरुनी दरारे साफ दिखाई दी थीं। यूपीए ने जब एक संयुक्त कार्यक्रम बनाया तो वाम दलों ने उस पर हस्ताक्षर ही नहीं किए जबकि वह सत्ता में हिस्सेदार थे। इन सबके बाद जब 2014 में मोदी के नेतृत्व में दशकों बाद एक दल की सरकार आई तब जनता ने कुछ राहत की सांस ली।
2019 में जनता मोदी से पूर्ण संतुष्ट न होने के बावजूद गठबंधन की सरकार नहीं चाहती है। चूंकि गठबंधन के पास कोई प्रधानमंत्री का स्पष्ट उम्मीदवार नहीं है इसलिए तमाम समीकरण और आंकड़ों के बावजूद गठबंधन कमजोर हो जाता है। कांग्रेस का इतिहास गठबंधन सरकारों को पहले बनवाने और फिर गिरवाने का रहा है। इसलिए कांग्रेस का इतिहास जनता को उस पर फिर से भरोसा नहीं करने दे रहा है। कांग्रेस और गठबंधन के अन्य दल चूंकि अपना कोई स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं रख पा रहे हैं इसलिए वह मोदी के स्वाभाविक विकल्प नहीं बन पा रहे हैं। प्रियंका के मंदिर दौरे और विपक्ष के अन्य जातिगत समीकरण जनता की नजऱ में मोदी को रोकने की कवायद मात्र साबित होते दिख रहे हैं। भारत में मध्य वर्ग चुनावों पर एक बड़ा प्रभाव रखता है। अन्तराष्ट्रीय संस्था मैकइंजी के अनुसार जिस तरह से भारत का मध्य वर्ग बढ़ रहा है उसके अनुसार भारत में जागरूकता भी बढ़ रही है। 2005 में मध्य वर्ग का आकार 14 प्रतिशत था जो 2015 आते आते 29 प्रतिशत तक हो गया है। अगर यह इसी तरह से बढ़ता रहा तो 2025 तक देश की 44 प्रतिशत आबादी मध्य वर्ग में प्रवेश कर जाएगी। मध्य वर्ग के बढ़ते आंकड़े देश में स्थिर सरकार की दिशा निर्धारित करने वाले हैं।
अब अगर वापस राष्ट्रवाद के विषय पर लौंटे तो उत्तर भारत में उफान मारता राष्ट्रवाद और दक्षिण में राष्ट्रवाद विहीन राजनीति के बीच सक्षम और जागरूक मध्य वर्ग एक स्थायी सरकार बनाने का माध्यम बनता दिख रहा है। देश में मोदी का कोई स्थायी और स्वाभाविक विकल्प नहीं दिखाई दे रहा हैं। यह बात सभी विषयों से ऊपर जनता पर असर डाल रही है। राम मंदिर निर्माण, प्रखर एवं छदम हिंदुतव, क्षेत्रीय दलों की राजनीति, गठबंधन की मजबूरियों के बीच अगर वोट देते समय कोई बात सबसे ज़्यादा जनता के मन में होगी तो वह है देश में पांच साल के लिए स्थायी सरकार का गठन। इस प्रारूप में मोदी अकेले फिट बैठते हैं। शायद इसी वजह से वह दुबारा प्रधानमंत्री बनते भी दिखने लगे हैं।
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तमिलनाडु : बहुध्रुवीय होती क्षेत्रीय राजनीति से फायदे में भाजपा
तमिलनाडु की राजनीति बहु-ध्रुवीय होने की ओर बढ़ रही है जो वर्तमान में एक लंबे समय से क्षेत्रीय दलों के बीच सिमटी हुयी है। करुणानिधि की डीएमके और जयललिता की एआईएडीएमके दो ऐसे दल हैं जिन्होने सत्ता का हस्तांतरण अपने ही हाथों में रखा है। इन दोनों दलों नें 1967 के बाद से किसी राष्ट्रीय दल को तमिलनाडु में स्वयं से ऊपर जाने नहीं दिया है। तमिलनाडू में न तो कांग्रेस मजबूत है न ही भाजपा। ये दोनों राष्ट्रीय दल यहां सिर्फ लोकसभा चुनावों के समय प्रस्फुटित होते हैं। उस समय डीएमके का झुकाव कांग्रेस की तरफ और एआईएडीएमके का झुकाव भाजपा की तरफ रहता है। तमिलनाडु की राजनीति में जब जयललिता की मृत्यु हुयी थी तभी इस बात की आशंका व्यक्त होने लगी थी कि क्या अब उनके उत्तराधिकारी पांच साल सरकार चला पाएंगे? 2016 में हुये विधानसभा चुनावों में तमिलनाडू की जनता ने जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके को पूर्ण बहुमत दिया था। जयललिता सिर्फ छह माह ही इस सरकार का नेतृत्व कर पाईं। उनके उत्तराधिकारी के रूप में पनीरसेलवम का चुना जाना उनकी करीबी शशिकला को पसंद नहीं आया। सिर्फ दो माह में ही तमिलनाडू में इस तरह का घटनाक्रम पैदा कर दिया गया जिसमें शशिकला को जेल जाना पड़ा और पनीरसेल्वम मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाये गए और पलनीसामी मुख्यमंत्री बने।
एआईएडीएमके के सामने अपने सामाजिक आधार को बनाए रखने की चुनौती है। उसने थेवर समुदाय को अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) नहीं बल्कि सर्वाधिक पिछड़ी जाति (एमबीसी) का दर्जा देने का वादा किया था। पर विडम्बना देखिये उसी समुदाय के पन्नीरसेल्वम पार्टी से अलग हो गये। ऐसे में थेवरों का समर्थन पाना एआईएडीएमके के लिये आसान नहीं होगा। इससे अन्य जातियों के बीच के राजनीतिक समीकरण भी बदल सकते हैं।
शशिकला खेमे के पलनीसामी गाउंडर समुदाय से आते हैं। तमिलनाडु के पश्चिमी जिलों में गाउंडर समुदाय का ख़ासा असर है। इसी तरह करुणानिधि की मौत के बाद उनके बेटों की लड़ाई सड़क पर आ गयी। डीएमके के सर्वोच्च नेता एम. करुणानिधि की मौत के बाद उनके दो पुत्रों एम. के. स्टालिन और एम. के. अड़ागिरि के बीच नेतृत्व की लड़ाई बड़ी हो चुकी है। ऐसे में 2021 के अगले विधानसभा चुनाव में किसी एक पार्टी का अकेले बहुमत लेकर उभरना मुश्किल होगा। यह परिस्थिति 2019 लोकसभा चुनावों के संदर्भ में कांग्रेस और भाजपा दोनों राष्ट्रीय दलों के लिये लाभ की स्थिति है। वर्तमान में भाजपा के पास तमिलनाडु में तीन प्रतिशत से भी कम वोट हैं लेकिन जिस तरह दोनों क्षेत्रीय दलों में उठापटक के दौर चल रहे हैं इस बार उसका वोट बैंक निश्चित तौर पर बढ़ेगा। इसका प्रभाव सीटों के अंतर पर भी देखने को मिलेगा।
तमिलनाडु लोकसभा 2014 ( कुल सीट : 39 )
एआईडीएमके 37
बीजेपी 01
पीएमके 01
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केरल : कांग्रेस और वामपंथियों के गढ़ में भाजपा की सेंध
सबरीमाला पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद केरल की राजनीति में कुछ नए समीकरण पैदा हुये। हिन्दू आस्था को चोट पहुंचाने वाले कथित निर्णय पर केरल के हिन्दू समुदाय में उबाल आया और लाखों लोग सड़कों पर उतर आए। भाजपा ने मौके को भांपते हुये जनभावना का साथ दिया। अपने लिए केरल में ज़मीन तलाश की और केरल में तीन सीटों पर स्वयं को निर्णायक स्थिति में पहुंचा लिया। केरल के राजनैतिक परिदृश्य को अगर समझें तो केरल में कम्यूनिस्ट एवं कांग्रेस प्रमुख राजनैतिक दल हैं। वर्तमान में केरल विधानसभा में कम्यूनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाला वाम लोकतान्त्रिक मोर्चा (लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट, एलडीएफ) सत्ता में हैं और कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट, यूडीएफ) विपक्ष में है। केरल के इतिहास में सत्ता का स्थानांतरण ज़्यादातर इन दोनो के बीच ही होता रहा है। 2016 में हुये केरल विधानसभा चुनावों में भाजपा ने भी एक सीट जीतकर अपनी उपस्थिती दजऱ् करा दी थी। जनसंख्या की दृष्टि से देखें तो केरल में ज़्यादातर अल्पसंख्यक समुदाय निवास करता है। केरल की कुल जनसंख्या में मुस्लिम 27 प्रतिशत और ईसाई 18 प्रतिशत हैं। प्रमुख रूप से दोनों धार्मिक समुदायों का समर्थन एलडीएफ के साथ रहा है किन्तु एक तथ्य यह भी है कि बहुमत ज़्यादातर यूडीएफ के साथ रहा है। भाजपा के परिदृश्य में आने के बाद तथाकथित हिंदू वोट बैंक, जो एलडीएफ़ का परंपरागत वोट बैंक था, उसमें कमी आ गयी। वोट बैंक के विभाजन का फायदा कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ़ को मिला और 2014 में उसे सीटें जीतने में मदद मिली। केरल से लोकसभा में 20 एवं राज्यसभा में 09 सांसद प्रतिनिधित्व करते हैं।
यदि केरल के राजनैतिक इतिहास पर थोड़ा गौर करें तो 2011 के चुनाव में यूडीएफ को 72 सीटों पर जीत मिली थी जबकि एलडीएफ को 68 पर विजय मिली। 2016 के चुनावों में एलडीएफ़ को 83 सीटों पर जीत मिली तो यूडीएफ़ को 47 सीटें प्राप्त हुयी। 2016 विधानसभा चुनावों में भाजपा और निर्दलीय ने एक एक सीट पर जीत हासिल की थी। यानि की दोनों मोर्चे लगभग बराबरी पर रहते रहे हैं। इन चुनावों में लगभग 35 सीटें ऐसी थीं जिन पर हार जीत का फासला 5,000 से कम मतों का रहा था। इतने कम अंतर वाली सीटों के राजनैतिक समीकरण सरकार के गठन में एक निर्णायक अंतर पैदा कर देते हैं। यदि थोड़ा और पूर्व में जायें तो वर्ष 2006 में जब दोनों मोर्चों के बीच 6 प्रतिशत वोटों का अंतर था जो 2011 में एलडीएफ़ एवं यूडीएफ़ के मत प्रतिशत में अंतर सिर्फ 1 प्रतिशत का रहा था। भाजपा को लगभग 6 प्रतिशत वोट मिले थे। वोटों के इसी विभाजन ने दोनों दलों के अंतर को कम कर दिया। यहां एक बात गौर करने लायक है कि जब 2014 में सारे देश में कांग्रेस विरोधी लहर थी और मोदी नाम का तूफान गुंजायमान था, तब भी कांग्रेस ने यहां 20 में से 8 सीटें जीती थी। भाजपा अपना खाता भी नहीं खोल पायी थी।
अब केरल की राजनीति को अगर केंद्र से जोड़कर देखें तो केंद्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा केरल में अपनी पैठ बनाना शुरू कर चुका है। केरल की दो ध्रुवीय राजनीतिक परिदृश्य में अपनी उपस्थिति दजऱ् करने के लिये भाजपा कुछ क्षेत्रीय दलों को साथ हाथ मिला रही है। भारत धरम जन सेना (बीडीजेएस) के साथ भाजपा द्वारा गठजोड़ किया गया जो एक पिछड़े एझवा समुदाय से संबन्धित है। पिछले सालों से तुलना में केरल में भाजपा की ताकत लगातार बढ़ रही है और पंचायत/नगरपालिका चुनावों में उसे 15 प्रतिशत वोट मिले जबकि राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस गठबंधन को 25 प्रतिशत वोट मिले थे। केरल की राजनीति में एक और उल्लेखनीय तत्व है। यहां दलों के भीतर भी दल बने हुये हैं। ऐसी जानकारी हुयी है कि वाम दलों के दो सबसे बड़े नेताओं अच्युतानंदन और पिनराई विजयन के बीच झगड़ा रहता है। चूंकि, भाजपा की जमीन मजबूत हो रही है और वामपंथियों में एकता नहीं बन पा रही है। ऐसे में सत्तारूढ़ दल इसका फायदा उठा सकता है। केरल वामपंथियों का गढ़ रहा है ऐसे में वामपंथियों की साख भी यहां दांव पर है। किसी भी फूट की स्थिति में इसका सबसे अधिक लाभ यूडीएफ को होगा। भाजपा के पास खोने के लिये कुछ नहीं है अगर वह 2-3 सीटें भी यहां जीत जाती है तो भी उसके लिए यह सुखद अनुभूति होगी। भाजपा के केरल में जमते कदम के कारण कांग्रेस राहुल गांधी को केरल से चुनाव लड़ाने की योजना भी बना रही है ताकि भाजपा का बढ़ता ग्राफ सीमित किया जा सके।
केरल लोकसभा 2014 (कुल सीट : 20)
कांग्रेस 08
सीपीएम 05
मुस्लिम लीग 02
निर्दलीय 02
आरएसपी 01
केरल कांग्रेस 01
सीपीआई 01
केरल (प्रमुख दलों का मत प्रतिशत)
यूडीएफ़ 45.83′
एलडीएफ़ 44.9′
भाजपा 6.03′
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कर्नाटक : भाजपा की पहले से बढ़ेगी सीटें
दक्षिण भारत कांग्रेस और वाम दलों का गढ़ रहा है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं केरल को मिलाकर दक्षिण भारत राज्यों का कोरम पूरा होता है। कर्नाटक में भाजपा मजबूत स्थिति में हैं। 2014 में कर्नाटक में भाजपा ने 17 सीटें जीती थी। इसके बाद 2018 में हुये विधानसभा चुनावों में भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। दूसरे नं. पर रही कांग्रेस ने तीसरे नं. के दल जेडीएस को समर्थन करके कुमारसामी को कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनवा दिया। कुछ ऐसा ही खेल पूर्व में भाजपा गोवा में कर चुकी थी। इसलिए भाजपा कांग्रेस को कुछ कहने की स्थिति में भी नहीं थी। एक के बाद एक राज्य गंवा रहे कांग्रेस और विपक्ष ने कर्नाटक में गठबंधन सरकार को एक मंच के रूप में इस्तेमाल किया था जब पूरे देश के सभी छुटभैये दल एक मंच पर आ गए थे, महागठबंधन की रूपरेखा बनी। विपक्ष ने एकजुटता दिखाने की पूरी कोशिश की। किसी दल को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि कर्नाटक में कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन बेहतर कार्य करे। सब के सब सिर्फ भाजपा को परास्त करने तक सीमित थे। इसके बाद वही हुआ जिसकी आशंका थी। कर्नाटक में कुमारसामी और कांग्रेस में खटकने लगे। जनता में यह संदेश जाने लगा कि भाजपा को बहुमत न देकर उन्होंने कोई बड़ी भूल कर दी है। अब इस धारणा का फ़ायदा भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनावों में मिलने जा रहा है। भाजपा को 2014 के बराबर या उससे भी ज़्यादा सीटें इस लोकसभा में मिल सकती हैं।
कर्नाटक लोकसभा 2014 (कुल सीट : 28)
भाजपा 17
कांग्रेस 09 जेडी (एस) 02
कर्नाटक विधानसभा 2018 परिणाम
भाजपा 104
जेडीएस 38
कांग्रेस 78
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पतन, विद्रोह व बिखराव की ओर कांग्रेस
पी चिदंबरम द्वारा मोदी सरकार के कामों की तारीफ व कपिल सिब्बल द्वारा फर्जी और दिग्विजय सिंह द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक को हादसा बताने वाले बयान यूं ही नहीं आए हैं। वास्तव में यह परिवार द्वारा हाशिए पर धकेलने की कोशिश से क्षुब्ध हो जाने वाले कांग्रेसी बुजुर्गों की बगावत है। ऐसे में जबकि देश जज्बाती है व सेना के साथ खड़ा है, इस तरह के बयान कांग्रेस की राजनीतिक स्थिति दिनोदिन कमजोर कर रहे हैं। बुर्जुग नेता यही चाहते हैं कि गांधी परिवार के नेतृत्व में कांग्रेस बुरी तरह हारे व वे कांग्रेस पर कब्जा कर लें। आज कांग्रेस के साथ कुछ स्वार्थी व महत्वाकांक्षी नेता व कुछ कट्टरपंथी अल्पसंख्यक लोग ही बचे हैं और अब दिग्विजय सिंह व कपिल सिब्बल उनके नेता हैं। अंदरूनी रूप से कांग्रेस पार्टी में यह चर्चा जोरों पर है कि लोकसभा चुनाव हाथों से निकल चुके हैं और अब लकीर पीटने के सिवा कुछ नहीं बचा है। ऐसे में ग़ांधी परिवार की प्रतिष्ठा दांव पर लग चुकी है। हैरान-परेशान व बीमार सोनिया, तेजहीन राहुल तो नेशनल हेराल्ड का अवैध दफ्तर चुपचाप खाली करने में लगे हैं,वहीं बिना खिले ही मुरझाने वाली प्रियंका खासी हताश हैं। एक ओर उनका राजनीतिक भविष्य दांव पर है तो दूसरी ओर पति। बेल-गाड़ी में सवार गांधी परिवार को बुजुर्ग कांग्रेसी अपने बयानों से और भी कमजोर कर रहे हैं। लोकसभा चुनावों में हार की आशंका से पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं का मनोबल व आत्मविश्वास वैसे ही टूटा है ऊपर से अंदरखाने परिवार के नेतृत्व को चुनौती मिलती जा रही है ऐसे में पार्टी में बड़ी भगदड़ देखने को मिल सकती है। जमीनी हकीकत यह है कि कांग्रेस पार्टी में सबसे ताकतवर नेता दिग्विजय सिंह ही हैं, जिन्होंने अपने दम पर मध्यप्रदेश में पार्टी की सरकार बनवा दी व अपने कठपुतली कमलनाथ को मुख्यमंत्री बना प्रदेश पर कब्जा कर लिया है। पंजाब में अमरिंदर सिंह आलाकमान की बातों पर ज्यादा कान नहीं धरते। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री अभी नए नए हैं व उनका कद बहुत बोना है। कर्नाटक में जेडीएस कब करवट बदल लें पता नहीं। वैसे भी पार्टी वहां खासी कमजोर हुई है, ऐसे में गांधी परिवार की वहां कोई खास साख बची भी नहीं है। राजस्थान में अशोक गहलोत पुराने कद्दावर नेता हैं और बदलती परिस्थितियों में कब दिग्विजयसिंह से हाथ मिला लें पता नहीं। मल्लिकार्जुन खडग़े भी चिदंबरम के साथ दक्षिण के बड़े नेता हैं और बदलती परिस्थितियों में बुजुर्गों की टोली में ही शामिल होने में देर नहीं लगाएंगे। गांधी परिवार के पुराने वफादार नेता भी अंतत: परिवार से ज्यादा पार्टी के पक्ष में ही खड़े होंगे।
तो क्या माना जाए कांग्रेस में अब गांधी परिवार के दिन लद गए। पार्टी में दोफाड़ होगी या परिवार की सम्मानपूर्वक विदाई। यह लोकसभा से पहले होना थोड़ा मुश्किल है किंतु चुनाव परिणाम आने के साथ ही होना तय है और ऐसे बड़े बदलाव प्यार व सम्मान से नहीं होते यह भी सच है। तो आइए दर्शक बनें व मजे ले कांग्रेस पार्टी की शुरू हो चुकी अंदरूनी घमासान के तमाशे का अगले कुछ महीनों तक। वो देखिए मोदी-शाह की जोड़ी मंद मंद मुस्कुरा रही है।
संपादक