अटल-आडवाणी के दौर में भारतीय जनता पार्टी अपने शुचिता, सुशासन और सुराज के नारे का गुणगान करते नहीं थकती थी। उस दौर में पार्टी ने खुद के लिए ‘पार्टी विद डिफरेंस’ कहना शुरू कर दिया था। जाति-धर्म और स्थानीय मुद्दों के दबदबे वाली भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी को इन विशेषताओं से चुनावी राजनीति में तब भले ही फायदा नहीं मिला, लेकिन यह भी सच है कि आज जो भारतीय जनता पार्टी की अलग छवि बनी है और लगातार दो आम चुनावों से केंद्र की सत्ता पर काबिज हो रही है तो उसकी एक बड़ी वजह पार्टी की यह अलग छवि ही रही है। लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह पार्टी ने दूसरी पार्टियों में तोडफ़ोड़ मचाई है, हाल तक अपने विरोध में रहे लोगों को जिस तरह उसने अपने अंदर समाहित करना शुरू किया है, उससे सवाल उठने लगा है कि क्या भविष्य में भारतीय जनता पार्टी अपनी पार्टी विद डिफरेंस यानी अलग तरह का दल होने की छवि बनाए रख सकेगी? सवाल यह भी उठने लगा है कि क्या भारतीय जनता पार्टी देश की उस सबसे पुरानी पार्टी की फोटोकॉपी तो बनकर नहीं रह जाएगी, जिस कांग्रेस के विरोध में उसने देश की सत्ता के साथ ही 19 राज्यों की कमान संभाल ली है।
इन सवालों पर जवाब से पहले देखते हैं कि किस राज्य में भारतीय जनता पार्टी किस तरह दूसरे दलों के नेताओं को अपने साथ लाती जा रही है। सबसे ताजा मामला गोवा का है, जहां विपक्षी कांग्रेस के पंद्रह में से दस विधायकों ने भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया है। अभी ज्यादा अरसा नहीं बीता, जब इन विधायकों ने भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ विधानसभा चुनाव में अभियान चलाया था और भारतीय जनता पार्टी के तमाम दावों को धता बताते हुए उसे बहुमत पाने से रोक दिया था। लेकिन अब वे ही विधायक भारतीय जनता पार्टी के माननीय बन चुके हैं। 1985 में पारित दल-बदल विरोधी कानून भी इन पर लागू नहीं होता, क्योंकि दो तिहाई विधायक टूट गए हैं। अब इनके नेता चंद्रकांत कावलेकर उपमुख्यमंत्री होंगे। कांग्रेस के निशान पर चुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंचे कावलेकर भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने से पहले तक नेता प्रतिपक्ष थे। चूंकि अब भारतीय जनता पार्टी को फारवर्ड पार्टी और महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी की जरूरत नहीं रही, लिहाजा उनके चार मंत्रियों को पार्टी ने सरकार से बाहर का रास्ता दिखा दिया है। इस तरह अब गोवा विधानसभा में 31 विधायकों के साथ भारतीय जनता पार्टी बहुमत में आ गई है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में सत्ता संभालते वक्त कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था। तब इस नारे का मकसद कांग्रेस को जगह-जगह चुनावी राजनीति में हराना था। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस कई राज्यों में ताकतवर बनकर उभरी। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसने भारतीय जनता पार्टी से सत्ता छीन ली। कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी 105 सदस्यों के साथ सबसे बड़ा दल भले ही बनी, लेकिन 78 सीटों वाली कांग्रेस ने उसे अपने से कमजोर जनता दल सेक्युलर के 37 विधायकों वाले नेता कुमार स्वामी को समर्थन देकर भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से दूर कर दिया। गुजरात के विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी को जबरदस्त टक्कर दी। तो कांग्रेस में पूर्ण बहुमत के साथ उसने सरकार में वापसी की। इसके बाद लगता है कि भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस मुक्त भारत बनाने को लेकर अपनी रणनीति बदल दी। अब कांग्रेस विधानमंडल दल में ही उसने सेंध लगानी शुरू कर दी है। कर्नाटक में हाल के दिनों में कांग्रेस के 13 और जनता दल सेक्युलर के तीन विधायकों ने इस्तीफा दे दिया है। इस लिहाज से देखें तो 225 सदस्यीय विधानसभा का प्रभावी आंकड़ा 209 पर आकर टिक गया है। इस लिहाज से 105 सदस्यों वाली भारतीय जनता पार्टी बहुमत में आ गई है। हालांकि भारतीय जनता पार्टी इनकार कर रही है, लेकिन राजनीतिक हलके में माना जा रहा है कि इन विधायकों के इस्तीफे के पीछे भारतीय जनता पार्टी का ही हाथ है। कर्नाटक के इस घटनाक्रम से कांग्रेस मध्य प्रदेश और राजस्थान में इतनी घबराई हुई है कि उसने एक-एक मंत्री पर दस-दस विधायकों का ध्यान रखने का जिम्मा दे दिया है। दोनों ही राज्यों में कांग्रेस बहुमत के प्रभावी आंकड़े से एक और तीन सीटें ही आगे है। जाहिर है कि कर्नाटक जैसा खतरा वहां भी हो सकता है।
भारतीय जनता पार्टी में इन दिनों पश्चिम बंगाल में थोक के भाव से दलबदल हुआ है। सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के कई नगर निगम और नगर पालिका पार्षदों के साथ ही तीन विधायक भी भाजपा में शामिल हो चुके हैं। पिछली लोकसभा में तृणमूल सांसद रहे मुकुल रॉय भाजपा की शोभा पहले से ही बढ़ा रहे हैं। आम तौर पर माना जाता है कि कैडर आधारित भारतीय जनता पार्टी और सीपीएम की विचारधारा में जमीन-आसमान का अंतर होता है। लिहाजा एक-दूसरे के नेता दलबदल के बावजूद एक-दूसरे के यहां नहीं खप सकते। लेकिन पश्चिम बंगाल में सीपीएम के भी कई नेता भाजपा का दामन थाम चुके हैं। गुजरात में भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा चुनावों में जिन वजहों से टक्कर मिली, उनमें एक वजह युवा नेताओं अल्पेश ठाकोर, हार्दिक पटेल और दलित नेता जिग्नेश मेवाणी का आंदोलन रहा। हार्दिक चुनाव तो नहीं लड़ पाए, लेकिन दोनों नेता गुजरात में विधायक चुने गए। अल्पेश ठाकोर जहां कांग्रेस के टिकट पर चुने गए, वहीं जिग्नेश कांग्रेस समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव मैदान में विजयी रहे। लेकिन अब अल्पेश ठाकोर ने भी कांग्रेस के हाथ का साथ छोड़ दिया है और भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए हैं। गुजरात कांग्रेस के कई नेता इसके पहले भी भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो चुके हैं।
उत्तर प्रदेश में भी पिछले कुछ वर्षों में कई विपक्षी नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा और कमल का फूल खिलाने में जुट गए। ताजा मामला समाजवादी पार्टी के राज्यसभा में सांसद नीरज शेखर का था। उन्हें उम्मीद थी कि बलिया की पारंपरिक सीट से उनकी पत्नी सुषमा सिंह को टिकट मिलेगा। लेकिन समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने चुनावी गणित के लिहाज से सनातन पांडेय को उम्मीदवार बना दिया। इससे नीरज शेखर नाराज हो गए। अब उन्होंने समाजवादी पार्टी की राज्यसभा सदस्यता से इस्तीफा देकर भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता स्वीकार कर ली है। कहा जा रहा है कि अपनी खाली की हुई सीट से वे राज्यसभा का उपचुनाव लड़ेंगे और भारतीय जनता पार्टी के सदस्य के तौर पर राज्यसभा की शोभा बढ़ाएंगे। इसके पहले राज्य में कांग्रेस से रीता बहुगुणा जोशी, समाजवादी पार्टी से यशवंत सिंह, जयाप्रदा आदि भाजपा में शामिल हो चुके हैं। यशवंत को इसका फायदा भी मिला और अभी वे आगरा से भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं तो जयाप्रदा रामपुर से भाजपा उम्मीदवार के तौर पर चुनाव मैदान में थीं, हालांकि वे हार गईं।
भारतीय जनता पार्टी में थोक के भाव से दूसरी पार्टियों के नेताओं के शामिल होने के चलते स्थानीय कार्यकर्ता बेहद निराश हैं। आगरा से भारतीय जनता पार्टी के टिकट की आस लगाए एक नेता ने एक केंद्रीय मंत्री के सामने अपने दुख का इजहार करते हुए कहा था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं से शुरू हुई उनकी सार्वजनिक यात्रा और तप को बाहर से आए एक व्यक्ति ने बेकार कर दिया। ऐसी सोच कम से कम हर उस जगह पर है, जहां संगठन मजबूत रहा है। कार्यकर्ता अब आपसी बातचीत में सवाल उठाने लगे हैं कि क्या उनकी किस्मत में सिर्फ दरी और जाजिम बिछाना ही रहेगा? वे अपने बड़े नेताओं के लिए कुर्सियां ही सजाते रहेंगे?
भारतीय जनता पार्टी में बाहरी लोगों के लगातार बढ़ते प्रवेश के बाद आम मतदाताओं का एक वर्ग भी सवाल उठा रहा है। उसका कहना है कि जिन नेताओं के चरित्र के विरोध में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया, वे ही अगर भारतीय जनता पार्टी में शामिल होते रहेंगे तो जाहिर है कि भारतीय जनता पार्टी का चरित्र भी उनकी ही तरह हो जाएगा। भारतीय जनता पार्टी का कोर मतदाता भी पूछने लगा है कि अगर इन्हीं नेताओं को चुनना था तो फिर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी या दूसरी पार्टियों में रहते वक्त ही उन्हें वोट देना क्यों गलत होता।
बहरहाल भारतीय जनता पार्टी के सूत्रों का कहना है कि चूंकि नरेंद्र मोदी सरकार बहुत कुछ बदलाव लाना चाहती है, लेकिन वह राज्यसभा में बहुमत के अभाव में ऐसा नहीं कर पाती है। लिहाजा उसकी प्राथमिकता येन-केन प्रकारेण राज्यसभा में बहुमत हासिल करना है। पार्टी के सूत्रों का कहना है कि असम के ताकतवर नेता सर्वानंद सोनोवाल कांग्रेस में थे। लेकिन जब से उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ली है, वे पार्टी के सिद्धांतों के अनुसार ही काम कर रहे हैं। पार्टी को भरोसा है कि उसके साथ आने वाले विपक्षी नेता भारतीय जनता पार्टी के सिद्धांतों को आत्मसात करेंगे और उसके सिद्धांतों के मुताबिक ही राष्ट्र का विकास करेंगे।
भारतीय जनता पार्टी का चाहे जो भी तर्क हो, लेकिन एक बात तय है कि जब तक नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता है, तब तक बाहरी नेताओं का आना जारी रहेगा और वे चुनावी राजनीति में कामयाब भी होंगे। कर्नाटक जैसी जगहों पर सरकारें भी बन जाएंगी। हो सकता है कि इसी फॉर्मूले के तरह भविष्य में मध्य प्रदेश में भी सरकार बन जाए। लेकिन यह भी तय है कि दीर्घ अवधि के लिए यह रणनीति कामयाब नहीं होगी। यह सच है कि मतदाता भी मोदी के नाम पर पार्टी का साथ देता रहेगा। लेकिन अंतत: किसी पार्टी की पहचान उसके निष्ठावान और सिद्धांतवादी कार्यकर्ता और उनमें से उभर कर सामने आए नेता ही होते हैं। वे ही पार्टी के असल सिद्धांतों पर चलते हैं। आज अगर भारतीय जनता पार्टी का डंका बज रहा है तो उसकी बड़ी वजह उसके निष्ठावान और सिद्धांतवादी कार्यकर्ता ही हैं। लेकिन जब लगातार बाहरी कार्यकर्ता पार्टी में आते रहेंगे, वे ही नेता बनते रहेंगे, अहम पदों के लिए उनकी ही पूछ रहेगी, फिर पारंपरिक कार्यकर्ता निराश होगा। उसकी निराशा बढ़ेगी और इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ सकता है। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या इस नजरिए से भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व सोच रहा है?
यू. चंद्रा