झंडेवालान स्थित दीनदयाल शोध संस्थानसंस्थान में शनिवार को सभ्यता अध्ययन केन्द्र द्वारा एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी में जातीय सद्भाव के विषय पर चिन्तन करते हुए इसके भूत, वर्तमान और भविष्य यानी इतिहास, वर्तमान परिदृश्य और भविष्य पर विस्तृत चर्चा की गयी। इससे पहले केंद्र की त्रैमासिक शोध–पत्रिका ‘सभ्यता–संवाद’ के प्रवेशांक का लोकार्पण किया गया। संगोष्ठी में विषय प्रवेश करते हुए केन्द्र के निदेशक रवि शंकर ने कहा कि आज समाज में सर्वत्र केवल जातीय वैमनस्यता की ही बात की जाती है। इसके लिए चाहे हम समानता या फिर समरसता का बहाना लेते हों, परंतु अंततोगत्वा हम यही चर्चा करते हैं, कि समाज में काफी जातीय वैमनस्य रहा है और आज भी है, इसलिए हमें जातियों को समाप्त करना है। उन्होंने कहा कि दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि वैमनस्यता का यह जहर अब छठी–सातवीं के छोटे–छोटे बच्चों में भी एनसीईआरटी की पुस्तकों के माध्यम से डाला जा रहा है। इसलिए यहाँ चार प्रश्नों पर चर्चा की जाएगी – जातियाँ देश के लिए वरदान हैं या अभिशाप? क्या जातियों को मिटाया जाना संभव है? भारत में जातीय सद्भाव रहा है या विद्वेष? क्या जातियों में सद्भाव स्थापित किया जा सकता है?
संगोष्ठी के मुख्य वक्ता तथा प्रसिद्ध लेखक तथा विचारक प्रो. रामेश्वर प्रसाद मिश्र पंकज ने बताया कि जाति शब्द किसी भी धर्मशास्त्र में नहीं है। हालाँकि यह कुलधर्म का हिस्सा है, जो एक स्वाभाविक इकाई है। जातियों की कलह की बात राजनैतिक झूठ है, इसका कोई शास्त्रीय प्रमाण भी नहीं है। प्रो. मिश्र ने अनेक प्रमाण देते हुए बताया कि जातियाँ भारत के लिए कभी भी अभिशाप नहीं रही। उन्होंने जातीय विद्वेष की पृष्ठभूमि को समझाते हुए स्वाधीनता प्राप्ति और उसके बाद देश में बनी राजनीतिक परिस्थितियों का विश्लेषण किया और कहा कि जातियों के बारे में आज जो वातावरण देश में बना है, उसके लिए ये राजनीतिक परिस्थितियां ही जिम्मेदार हैं। वर्तमान राजनीति बाँटो और राज करो के अंग्रेजी सिद्धांत पर अवलंबित है और इसलिए जातियों में संघर्ष के झूठ को स्थापित किया जाता है।
प्रसार भारती के अवर महानिदेशक डॉ. शैलेंद्र कुमार ने कहा कि आज के समय में जातीय कट्टरता की बात करना बहुत ही बड़ी अज्ञानता है। स्वयं द्वारा किए गए एक शोध का प्रमाण देते हुए उन्होने बताया कि अखबारों में वैवाहिक विज्ञापन देने वाले लोगों में से लगभग साठ प्रतिशत परिवारों के लोग अपनी लड़की के विवाह में जाति बंधन नहीं रखते हैं। लड़कों के परिवारों में यह आँकड़ा और भी ऊपर है। उन्होंने यह भी कहा कि जातियों के कारण ही हमारा अस्तित्व सुरक्षित रहा है। जातीय संरचना के कारण ही देश का मतांतरण होने से बचा। अन्यथा जातीय व्यवस्था से विहीन पूरा मध्य–पूर्व, अफगानिस्तान आदि के क्षेत्रों में इस्लाम पूरी तरह फैल गया था। भारत में वह विफल हुआ तो इसका श्रेय जातीय व्यवस्था को ही है।
प्रो. मिश्र की बातों का समर्थन करते हुए विख्यात अर्थशास्त्री, समाजसेवी तथा भाजपा प्रवक्ता श्री गोपालकृष्ण अग्रवाल ने कहा कि जातियों में संघर्ष की बात वही करते हैं, जिन्होंने भारतीय शास्त्रों तथा समाज का ठीक से अध्ययन नहीं किया होता है। जो लोग मनु स्मृति का विरोध करते हैं, उनमें से शायद ही किसी ने उसका अध्ययन किया होता है। श्री अग्रवाल ने कहा कि वे लंबे समय से साधु–संतों की संगति में रहे हैं और उन्हें यही समझ आया है कि आज जो भी जातीय संघर्ष की घटनाएं देखने के लिए मिलती हैं, वे स्वभाविक नहीं हैं, उनका प्रयासपूर्वक निर्माण किया गया है। गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने कहा कि जाति के साथ सुरक्षा और प्रगति के सवाल जुड़े हैं, इसलिए हम इसे नकार नहीं सकते हैं।
दिल्ली इंस्टीट्यूट ऑफ हैरिटेज रिसर्च एंड मैनेजमेंट के एसोशिएट प्रोफेसर तथा इतिहास के उद्भट विद्वान डॉ. आनन्द बर्धन ने अपने कई निजी अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि जातियां सामाजिक आश्रय प्रदान करती हैं। यह हमारा उत्कर्ष करती हैं, इसीलिए आज समाज का कोई भी वर्ग अपनी जातिधर्मिता नहीं खोना चाहता है। उन्होंने कहा कि जातीय गौरव केवल कथित उच्च जातियों में ही नहीं रहा है, बल्कि यह तथाकथित निम्न वर्गों में भी उतने ही परिमाण में रहा है। मौजूदा समाज में तथाकथित ऊँची–नीची जातियोंके पास अपने गौरव और ग्लानि दोनों के प्रमाण हैं। इसीलिए जातियों को मिटाया जाना संभव नहीं है। उन्होंने पौराणिक काल से लेकर आधुनिक काल तक के भारतीय इतिहास से ऐसे दर्जनों प्रमाण सामने रखे जिनमें जातीय सद्भाव और लचीलेपन का पता चलता है। अनेक यूरोपीय लेखकों को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि भारत में जातियों में संघर्ष कराने का प्रयास गोवा में ईसाई पुर्तगाली शासन स्थापित होने का बाद प्रारंभ हुआ।
प्रसिद्ध लेखक तथा साहित्यकार राजीवरंजन प्रसाद ने शहरी नक्सलों तथा जातीय विद्वेष के गंठजोड़ पर प्रकाश डालते हुए महिषासुर तथा माँ दूर्गा की कथा को लेकर फैलाए जाने वाले भ्रमों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि किसी भी प्रकार समाज में संघर्ष पैदा करने के लिए ही कुछ लोग सक्रिय हैं।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए डॉ. नंदकिशोर गर्ग ने कहा कि यह ठीक बात है कि जातीय संघर्ष का कोई इतिहास नहीं मिलता, परंतु हमें आज की स्थितियों को भी ठीक करना होगा। उन्होंने डॉ. अम्बेडकर के योगदान को याद करते हुए कहा कि अम्बेडकर ने भी यही कहा था कि उन्हें हिंदू धर्म से कोई शिकायत नहीं है, परंतु उन्हें कम से कम उस तालाब या कुँए से पानी पीने तो मिलना ही चाहिए जिनसे जानवर तक पानी पीते हैं।
इस संगोष्ठी में देश भर से कई विद्वान आए थे। उदयपुर से आए इतिहास के विद्वान और वरिष्ठ पत्रकार विवेक भटनागर ने मुस्लिम काल में अस्पृष्यता के प्रारंभ होने की बात रखी तो गुआहाटी से आए शिक्षक तथा योगगुरु मधुकर रायचौधुरी ने जातियों के आनुवांशिकी विज्ञान और भारतीय दर्शन के कर्मफल सिद्धांत के आधार पर जातीय व्यवस्था को समझाया। कार्यक्रम में देशभर से बड़ी संख्या में विद्वानों ने सहभागिता की।
रवि शंकर