देश में आम चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। सभी सियासी पार्टियां अपने-अपने हिसाब से चुनाव प्रचार में लगी हैं। लेकिन इस बार चुनाव प्रचार की धार पूरी तरह बदली-बदली नजऱ आ रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी नीत सत्तारूढ़ गठबंधन की पार्टियां जहां पांच साल में किए गए विकास के नाम पर और अगले पांच साल के लिए तय किए गए लक्ष्यों के आधार पर जनता से वोट मांग रही हैं, वहीं मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां जाति और धर्म के नाम पर वोट की जुगाड़ में लगी हैं।
चुनाव जीतने की होड़ में इस बार जो शब्द बाण चलाए जा रहे हैं, उनमें तर्क, तथ्यपरकता और मर्यादा तक का ध्यान नहीं रखा जा रहा है। चुनाव आयोग ने हालांकि कुछ सख्ती दिखाई है, लेकिन किसी को नीचा दिखाने के लिए व्यक्तिगत संयम का निर्माण आयोग किसी भी स्तर पर नहीं कर सकता। जिस तरह हांडी के चावल पक गए हैं या नहीं, यह देखने के लिए एक-दो चावल निकाल कर देख लिया जाता है, उसी तरह अगर बहुतायत में इस्तेमाल किए जा रहे विपक्ष के एक-दो जुमलों को देखें, तो कह सकते हैं कि विपक्षी नेता, ख़ासतौर पर कांग्रेस ने पूरी तरह आधारहीन मानसिकता अपना रखी है। उदाहरण के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के ‘चौकीदार चौर है’ के नारे को ले सकते हैं। राफेल लड़ाकू विमान सौदे के संदर्भ में राहुल ये नारा चुनाव प्रचार के शुरूआती दौर से ही लगा और लगवा रहे हैं।
राहुल ने जब ‘चौकीदार चोर है’ के नारे को और ताक़त देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के नाम का सहारा लिया, तो उसे चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट में जब इसके खिलाफ़ शिकायत की गई, तो राहुल गांधी ने माफ़ी मांग ली। हालांकि कोर्ट ने अभी सिफऱ् माफ़ी के आधार पर राहुल गांधी को आपराधिक अवमानना के आरोप से मुक्त नहीं किया है, लेकिन इस पूरे प्रकरण ने देश पर कऱीब 55 साल तक राज करने वाली सियासी पार्टी कांग्रेस की सोच के गर्त में जाने की बात साबित कर दी है। चौकीदार चोर है के जुमले को बीजेपी पर हमले का मुख्य हथियार बनाए जाने की सोच ने साफ़ कर दिया है कि कांग्रेस के पास अब देश के लोगों को भरोसे में लेने के लिए कुछ ठोस आधार ही नहीं बचा है।
चुनाव प्रचार के दौरान अपनाई जाने वाली भाषा और हावभाव के आधार पर राहुल गांधी के समूचे व्यक्तित्व का विश्लेषण सामने आ गया है। यह भी साफ़ समझ में आने लगा है कि सियासी तौर पर राहुल गांधी अभी तक परिपक्व नहीं हो पाए हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो राहुल गांधी के पूरे व्यक्तित्व में राजनेता बनने के गुण असल में हैं ही नहीं, यह कहना ग़लत नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट में जो माफ़ीनामा कांग्रेस की ओर से पेश किया गया है, उसमें साफ़ लिखा है कि उन्होंने राफेल से संबंधित सुप्रीम कोर्ट का फैसला अथवा कोई भी टिप्पणी पढ़ी ही नहीं है, सिफऱ् चुनावी आवेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का जि़क्र कर डाला। राहुल गांधी के वकीलों को अच्छी तरह पता है कि वे कोर्ट की अवमानना के मामले में तकनीकी तौर पर फंस गए हैं, लिहाज़ा माफ़ी मांगने का ढोंग तो कोर्ट में कर दिया गया, लेकिन राहुल और कांग्रेस के बयानों में ‘चौकीदार चोर है’ का जि़क्र बदस्तूर जारी है। हां, अब सुप्रीम कोर्ट का नाम नहीं लिया जा रहा है।
असल में कई बार जब हम एक बात को लाखों बार दोहरा चुकते हैं, तो भले ही हमारी बात में कोई तर्क, कोई तथ्य नहीं हो, उस बात से मुकरना बेहद मुश्किल होता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति जो होगा, देखा जाएगा वाली मानसिकता से ग्रस्त हो जाता है। इसलिए ‘चौकीदार चोर है’ पर टिके रहना राहुल गांधी और कांग्रेस की मजबूरी भी है। लेकिन राहुल गांधी और कांग्रेस को कम से कम अब तो यह सोचना ही चाहिए कि यह नारा उसके लिए कितना नुकसानदायक साबित हुआ है? राहुल ने ‘चौकीदार चोर है’ की रट लगाई, तो भारतीय जनता पार्टी ने ‘मैं भी चौकीदार’ मुहिम शुरू कर दी। सही मायनों में बीजेपी के लिए एक ठोस नैरेटिव कांग्रेस ने ही तय किया, यह कहना ग़लत नहीं होगा। दूसरी बात यह है कि राहुल गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में पेश माफ़ीनामे में यह मान कर कि उन्होंने कोर्ट का फ़ैसला पढ़ा ही नहीं है, यह भी साबित कर दिया है कि वे कितने उथले स्तर के नेता हैं। जो आपका मुख्य हथियार हो, उसके बारे में आप सतर्क ही न हों, तो जनता में क्या संदेश गया होगा? यह आसानी से समझा जा सकता है।
भारत के नागरिकों को कांग्रेस क्या इतना मूर्ख समझ बैठी है कि उनमें बहुत सतही बातों को परखने की समझ है ही नहीं? जऱा सोचिए कि जिस व्यक्ति को देश के प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किया जा रहा हो, वह देश के मौजूदा प्रधानमंत्री का चरित्र हनन करने के लिए इस तरह की लापरवाही कैसे कर सकता है? चुनाव में जीतने के लिए पार्टियां एक-दूसरे पर तमाम तरह के आरोप लगाती हैं। कुछ आरोप आधारहीन भी होते ही हैं, लेकिन ऐसी ग़लतबयानी बिना किसी ठोस आधार के किया जाना किसी नेता को गंभीर समझ रखने वाला साबित नहीं करता। उल्टे यह उसे मज़बूत करता है, जिस पर तथ्यहीन आरोप लगाए जाते हैं। राफेल मामले में भ्रष्टाचार के आरोप लगा कर राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी की छवि को और चमकाया ही है, न कि उन्हें कोई नुकसान पहुंचाया है। भारतीय जनता पार्टी को तो राहुल के ‘चौकीदार चोर है’ वाले बयान का शुक्रग़ुज़ार होना चाहिए। पुरानी कहावत है कि कमज़ोर दोस्त से तो ताक़तवर दुश्मन अच्छा होता है। प्रधानमंत्री और बीजेपी के नेता विकास की बात कर रहे हैं, तब सिफऱ् नरेंद्र मोदी को चोर बता-बता कर कांग्रेस अपना ही नुकसान कर रही है, इसमें कोई शक़ नहीं है।
राहुल गांधी सियासी तौर पर परिपक्व होते, तो वे अपनी भाषा पर संयम रखना अब तक सीख गए होते। भारतीय परंपरा में बड़ों को आदरसूचक शब्दों से संबोधित करने की परंपरा है। अगर कोई आरोप लगाना भी है, तो वैसा भाषा की मर्यादा में रहते हुए भी किया जा सकता है। लेकिन राहुल गांधी जिस तरह देश के प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के दूसरे नेताओं के खिलाफ़ तू-तड़ाक की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, उससे युवाओं में अच्छा संदेश नहीं जा रहा है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह उम्र और अनुभव दोनों में राहुल गांधी से बड़े हैं। उनके लिए कर रहा है, खा रहा है, बोल रहा है, जैसे अपमानजनक जुमलों का इस्तेमाल राहुल के व्यक्तित्व के खोखलेपन को ही उजागर करता है।
अच्छा वक्ता होना सबके बस की बात नहीं होता। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो सोचते बहुत तर्कसंगत हैं, लेकिन लोगों के हुजूम के सामने उस सोच को व्यक्त कर पाने में कुशल नहीं होते। अच्छा वक्ता होना अभ्यास से भी पूरी तरह संभव नहीं हो पाता। यह प्रतिभा जन्मजात होती है। सभी मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत अच्छे वक्ता हैं। वे जो सोचते हैं, उसे भीड़ के सामने हू-ब-हू कहने की कला में माहिर हैं। लेकिन राहुल गांधी ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं है, तो यह उनकी अयोग्यता नहीं है। जब राहुल गांधी अच्छे ओरेटर नहीं हैं, तब तो उन्हें और उनकी कांग्रेस के तमाम रणनीतिकारों को बहुत सतर्क रहने की ज़रूरत है। लेकिन पता नहीं क्यों, बहुत से दिग्गज और अनुभवी नेताओं के रहते हुए भी राहुल को सतर्क रहने की सलाह नहीं मिल पाती है? इसकी एक ठोस वजह तो यही हो सकती है कि बाक़ायदा सकारात्मक सोच और सियासी अनुभव रखने वाले कांग्रेस के बहुत से वरिष्ठ नेता भी अब वंशवाद की परंपरा से ऊब चुके हैं और उन्होंने राहुल गांधी को समझाना, उन्हें सलाह देना छोड़ दिया है। यही वजह है कि जब राहुल गांधी बयान देते समय उग्र और व्यग्र हो जाते हैं, आंकड़ों की गड़बड़ी करते हैं, दिन को रात बताने लगते हैं, वाणी की सौम्यता खो देते हैं, भाषाई शिष्टता-सभ्यता के दायरे लांघ जाते हैं, तब कांग्रेस के बहुत से नेता भी मन ही मन प्रसन्न होते होंगे।
जिस कथित अपरिपक्व नेता को देश का मुखिया होने का सपना देखने के लिए बाध्य कर दिया गया हो, उसे हर आधार पर दृढ़ वक्तित्व का स्वामी होना चाहिए। राहुल गांधी मूल रूप से ऐसे नहीं नजऱ आते। न तो वे भारतीय परंपराओं में रचे-बसे हैं, न ही उनका प्रकट व्यवहार किसी भी तरह इसकी पुष्टि करता है। राहुल गांधी देश के अधिसंख्य लोगों की आत्मा में बसी हिंदी भाषा के भी अच्छे जानकार नहीं हैं, उनके कुछ बयान तो उन्हें बेहद हास्यास्पद साबित करते हैं। वे अध्ययनशील भी नहीं हैं। उनके किसी भी वक्तव्य से ऐसा ज़ाहिर नहीं होता कि अच्छी तरह से पढ़े-लिखे हैं। कहीं से ऐसा नहीं लगता कि वे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के ख़ानदान से ताल्लुक रखते हैं। आप नेहरू की सिसायी सोच के विरोधी हो सकते हैं, उनके कुछ फ़ैसलों के विरोधी हो सकते हैं, लेकिन उन्हें विद्वान भारतीय ज़रूर मानेंगे। राहुल गांधी और जवाहर लाल नेहरू को दो पलड़ों में रख कर उनकी तुलना करने की बात सोची भी नहीं जा सकती।
कुल मिला कर कांग्रेस को अपनी गरिमा, अपने अतीत का ध्यान तो रखना ही चाहिए। नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी के बाद सोनिया और राहुल के नेतृत्व के रूप में कांग्रेस वंशवाद के दो-दो अपरिपक्व अध्याय लिख चुकी है। राहुल गांधी की माता जी सोनिया गांधी के बारे में तो यह कहा जाता था कि वे अपने सिपहसालारों, सलाहकारों की बात मान कर ही कोई क़दम उठाती हैं, लेकिन राहुल गांधी के बारे में देश के नागरिकों के मन में क्या यह बात दूर-दूर तक भी है? जवाब है नहीं। यह सही है कि राहुल गांधी जब तक चाहेंगे, तब तक वे कांग्रेस के अध्यक्ष बने रहेंगे। ऐसे में प्रधानमंत्री बनना तो बहुत दूर की बात है, अगर उन्हें अच्छे और परिपक्व विपक्ष का नेतृत्व भी करना है, तो बहुत कड़ी मेहनत बहुत से मोर्चों पर करनी पड़ेगी।
रवि पराशर