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नव निर्माण के लिए हुआ ध्वंस हॉल ऑफ नेशंस

ओंकारेश्वर पांडेय

दिल्ली की वह मशहूर इमारत जो, राजधानी के प्रगति मैदान को पहचान थी, ढहा दी गयी है. इस हॉल ऑफ नेशंस नामक ऐतिहासिक हॉल में अमिताभ बच्चन और शशि कपूर स्टारर फिल्म त्रिशूल की भी शूटिंग हुई थी।

हाल ही में दिल्ली के प्रगति मैदान में स्थित जिन दो मशहूर इमारतों को ढहाया गया उनमें हॉल ऑफ नेशंस भी एक थी। कभी इसे 20वीं सदी के सबसे मशहूर वास्तुकला ढांचों की एक प्रदर्शनी के लिए चुना गया था। इसे ढहाने का काम काम वाणिज्य मंत्रालय के तहत आने वाले इंडिया ट्रेड प्रमोशन ऑर्गेनाइजेशन के आदेश के बाद हुआ। रात के अंधेरे में चुपचाप हॉल ऑफ नेशंस को ढहाने के पीछे अधिकारियों ने यह ‘अकाट्य’ तर्क दिया कि इसकी जगह पर एक अत्याधुनिक सम्मेलन स्थल बनाया जाएगा। लेकिन इसको लेकर कई सवाल हो रहे हैं।

हॉल ऑफ नेशंस का डिजाइन आर्किटेक्ट रवि रेवाल ने तैयार किया था। प्रगति मैदान में बने इस ‘हॉल ऑफ नेशंस’ का उद्घाटन स्वतंत्रता दिवस के सिल्वर जुबली वर्ष में 3 नवंबर, 1972 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था।

देश-विदेश के बड़े-बड़े वास्तुकारों ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर हॉल ऑफ नेशंस को बचाने की अपील भी की थी। बाजजूद इसके दिल्ली की एक प्रतीक-पहचान बन चुके इस खूबसूरत हॉल ऑफ नेशंस को ढहाने की कार्रवाई इसके बावजूद हुई कि इससे जुड़े एक अदालती मामले पर सुनवाई बाकी थी। लेकिन अधिकारियों को इससे क्या फर्क पड़ता है। उन्हें तो शायद यह दिख रहा हो कि नयी इमारत के निर्माण में कुछ उनका भी उद्धार हो जाएगा।

आप अपने शहर में भी गौर करेंगे तो पाएंगे कि सड़कों के बीच डिवाइडर बार बार तोड़े और बनाये जाते हैं। नये नये रूपों में। आखिर क्यों? ताकि ठेकेदारों और अधिकारियों को उनका हिस्सा मिलता रहे। कभी इसकी सोशल एडिटिंग नहीं होती कि आखिरकार एक बार बना हुआ डिवाइडर कम से कम कितने साल चलना चाहिए था। और कम चला तो इसकी जिम्मेवारी किसकी है। इसी तरह सड़कें, पुल और सरकारी इमारत बिना किसी निश्चित ड्यूरैबिलिटी प्लान के बनाये जाते हैं। ताकि फिर बनाने का मौका मिले। फिर कुछ कमाने का मौका मिले। इस भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए एक नहीं सैकड़ों मोदी चाहिए।

बहरहाल बात हॉल ऑफ नेशंस की हो रही थी। कुछ लोगों का मानना है कि ये इमारत इसलिए ढहा दी गयी, क्योंकि इस इमारत की वास्तुकला शैली एक बहुलतावादी और समावेशी भारत वाले नेहरू के सपने की याद दिलाती थी, जो हो सकता है कि मौजूदा सत्ता को नहीं भाई हो। जिसके बारे में कहा जाता है कि वह एक अलग- कुछ के मुताबिक परेशान करने वाला – तरह का देश देखना चाहती है, जिसमें सब एक जैसे हों। लेकिन दूसरी तरफ भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार के समर्थक भी विरोधी कांग्रेस द्वारा इमरजेंसी के समय किए गए कामों का उदाहरण दे रहे हैं। खासकर तुर्कमान गेट का वह प्रकरण याद दिलाया जा रहा है, जिसमें जबर्दस्ती हटाए जाने का विरोध करते हुए कई लोग मारे गए थे।

हालांकि हॉल ऑफ नेशंस का गिराया जाना दो राजनीतिक दलों के बीच की लड़ाई नहीं है। और न इस द्वंद में अपनी रोटी सेंकने वाले अफसरों-नेताओं की चाल। बहरहाल हमारा आपका हॉल ऑफ नेशंस काल कवलित हो गया।

यह बात तो सही है कि जो देश, जो समाज अपने प्राचीन और आधुनिक धरोहरों की कद्र नहीं करता, इतिहास उसकी कद्र नहीं करता। और फिर ऐसे समाजों को इसकी कीमत अपनी संस्कृति के विनाश के रूप में चुकानी पड़ती है। सार्वजनिक स्मारक वैचारिक प्रतियोगिताओं के प्रतीक होते हैं। उनका बनना और मिटना एक ऐसे संघर्ष को जाहिर करता है, जिसकी अक्सर उपेक्षा की जाती है। वैसे तो भारतीय पुरातत्व विभाग भी मान चुका है कि हमारे देश की अनेक संरक्षित धरोहरें तक गायब होती जा रही हैं। और इसके लिए हम सिर्फ लोगों की उपेक्षा को ही जिम्मेदार मानकर अपनी जिम्मेवारी से नहीं बच सकते। सच तो ये है कि इसके लिए नेताओं-अफसरों की भ्रष्ट मिलीभगत भी जिम्मेदार है।

लेकिन हॉल ऑफ नेशंस का ध्वंस एक नये निर्माण के लिए किया गया है। चार दशक पुरानी यह धरोहर कानूनन संरक्षित होने योग्य विरासत व इमारत की श्रेणी में आने से पहले ही काल कवलित हो गयी। यह कुछ हमें भी सालता है।

हॉल ऑफ नेशंस कोई विवादास्पद बाबरी ढांचा तो था नहीं, जिसे भाजपा ने बाकायदा निशाने पर लेकर ढहाया हो। इस इमारत का दुश्मन कोई राजनीतिक दल हो, ऐसा भी नहीं लगता। नये निर्माण की जरूरत, और सरकारी अधिकारियों की अनुशंसा पर हॉल ऑफ नेशंस को दिल्ली हाई कोर्ट के ऑर्डर के बाद गिराया गया। अदालत ने यह फैसला धरोहर इमारतों की रक्षा के लिए गठित हेरिटेज कंजर्वेशन कमिटी की सिफारिश पर दिया था। कमिटी ने कहा था कि सिर्फ 60 साल या उससे अधिक पुरानी इमारतों पर धरोहर के दर्जे के लिए विचार किया जाएगा। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि हॉल ऑफ नेशंस सिर्फ 45 साल पुराना है और कमिटी के दिशा-निर्देशों के अनुसार यह विरासती ढांचे के तौर पर विचार किए जाने का हकदार नहीं है। बिल्डिंग न ढहाने के लिए इसके आर्किटेक्ट राज रेवल ने याचिका भी दायर की थी। लेकिन उनकी याचिका को भी अदालत ने खारिज कर दिया था।

हॉल ऑफ नेशंस को ढहाने के पीछे उद्धेश्य दरअसल प्रगति मैदान का मेकओ‌वर करना है। इसके पुनर्विकास प्रस्ताव को मंजूरी साल 2006 में आर्थिक मामलों की संसदीय समिति ने दी थी। समिति की अनुशंसा के तहत प्रगति मैदान में एक होटल बनाए जाने का प्रस्ताव भी है।

इसके तहत सन 2019 तक प्रगति मैदान में एक बड़ा कन्वेशन सेंटर, एक अंडरग्राउंड पार्किंग लॉट, नई ऐक्सेस सड़कें और एग्जिबिशन हॉल्स होंगे। 2,254 करोड़ रुपये की लागत वाले इस प्रॉजेक्ट को फास्ट ट्रैक पर रखा जा रहा है। प्रगति मैदान राजधानी दिल्ली के बीच में स्थित है और 115 एकड़ में फैला हुआ है। नवनिर्माण का कार्य दो फेज में हो रहा है। पहले फेज में 25 हजार वर्ग मीटर के बिल्ट-अप एरिया को हटाकर 1।2 लाख वर्ग मीटर का बनाया जाएगा। फेज-2 में 88,000 वर्ग मीटर की अतिरिक्त क्षमता बढ़ाई जाएगी। सभी नई इमारतें दो फ्लोर ऊंची होंगी और हर फ्लोर का क्षेत्रफल 10 हजार वर्ग मीटर होगा। आने वाले दिनों में प्रगति मैदान का रूप-रंग पूरी तरह से बदल जाएगा। दिल्ली के प्रगति मैदान में अब आप आएंगे, तो कुछ नया नया सा लगेगा। पर जिनने इस इमारत को देखा था, जिया था, महसूस किया था, इसके नीचे बैठकर चाट खाये थे, वे इसको जरूर मिस करेंगे।

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