सम्पूर्ण विश्व में नारी के प्रति सम्मान एवं प्रशंसा प्रकट करते हुए 8 मार्च का दिन उनकी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में, उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस दिन से पहले और बाद में हफ्ते भर तक विचार विमर्श और गोष्ठियां होंगी जिनमें महिलाओं से जुड़े मामलों जैसे महिलाओं की स्थिति, कन्या भू्रण हत्या की बढ़ती घटनाएं, लड़कियों की तुलना में लड़कों की बढ़ती संख्या, गांवों में महिला की अशिक्षा एवं शोषण, महिलाओं की सुरक्षा, महिलाओं के साथ होने वाली बलात्कार की घटनाएं, अश्लील हरकतें और विशेष रूप से उनके खिलाफ होने वाले अपराध को एक बार फिर चर्चा में लाकर वाहवाही लूट ली जायेगी। लेकिन इन सबके बावजूद एक टीस से मन में उठती है कि आखिर नारी कब तक भोग की वस्तु बनी रहेगी? उसका जीवन कब तक खतरों से घिरा रहेगा? बलात्कार, छेड़खानी, भूण हत्या और दहेज की धधकती आग में वह कब तक भस्म होती रहेगी? कब तक उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को नौचा जाता रहेगा? कब तक खाप पंचायतें नारी को दोयम दर्जा का मानते हुए तरह-तरह के फरमान जारी करती रहेगी? भरी राजसभा में द्रौपदी को बाल पकड़कर खींचते हुए अंधे सम्राट धृतराष्ट्र के समक्ष उसकी विद्वत मंडली के सामने निर्वस्त्र करने के प्रयास के संस्करण आखिर कब तक शक्ल बदल-बदल कर नारी चरित्र को धुंधलाते रहेंगे? विडम्बनापूर्ण तो यह है कि महिला दिवस जैसे आयोजन भी नारी को उचित सम्मान एवं गौरव दिलाने की बजाय उनका दुरुपयोग करने के माध्यम बनते जा रहे हैं।
‘यस्य पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते देवता’- जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। किंतु आज हम देखते हैं कि नारी का हर जगह अपमान होता चला जा रहा है। उसे ‘भोग की वस्तु’ समझकर आदमी ‘अपने तरीके’ से ‘इस्तेमाल’ कर रहा है, यह बेहद चिंताजनक बात है। आज अनेक शक्लों में नारी के वजूद को धुंधलाने की घटनाएं शक्ल बदल-बदल कर काले अध्याय रच रही है- जिनमें नारी का दुरुपयोग, उसके साथ अश्लील हरकतें, उसका शोषण, उसकी इज्जत लूटना और हत्या कर देना- मानो आम बात हो गई हो। महिलाओं पर हो रहे अन्याय, अत्याचारों की एक लंबी सूची रोज बन सकती है। न मालूम कितनी महिलाएं, कब तक ऐसे जुल्मों का शिकार होती रहेंगी। कब तक अपनी मजबूरी का फायदा उठाने देती रहेंगी। दिन-प्रतिदिन देश के चेहरे पर लगती यह कालिख को कौन पोछेगा? कौन रोकेगा ऐसे लोगों को जो इस तरह के जघन्य अपराध करते हैं, नारी को अपमानित करते हैं।
एक कहावत है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्ट्टर मान्यता वाले औरत को मर्द की खेती समझते हैं। कानून का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई हारती रही है। इसीलिये आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए। पूरे पृष्ठ, जितने पुरुषों को प्राप्त हैं। पर विडम्बना है कि उसके हिस्से के पृष्ठों को धार्मिकता के नाम पर ‘धर्मग्रंथ’ एवं सामाजिकता के नाम पर ‘खाप पंचायते’ घेरे बैठे हैं। पुरुष-समाज को उन आदतों, वृत्तियों, महत्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर वे उस ढ़लान में उतर गये जहां रफ्तार तेज है और विवेक अनियंत्रण हैं जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध और अत्याचार। पुरुष-समाज के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने को विवश होना पड़ता है। पुरुषवर्ग नारी को देह रूप में स्वीकार करता है, लेकिन नारी को उनके सामने मस्तिष्क बनकर अपनी क्षमताओं का परिचय देना होगा, उसे अबला नहीं, सबला बनना होगा, बोझ नहीं शक्ति बनना होगा।
‘मातृदेवो भवः’ यह सूक्त भारतीय संस्कृति का परिचय-पत्र है। ऋषि-महर्षियों की तपः पूत साधना से अभिसिंचित इस धरती के जर्रे-जर्रे में गुरु, अतिथि आदि की तरह नारी भी देवरूप में प्रतिष्ठित रही है। रामायण उद्गार के आदि कवि महर्षि वाल्मीकि की यह पंक्ति-‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ जन-जन के मुख से उच्चारित है। प्रारंभ से ही यहाँ ‘नारीशक्ति’ की पूजा होती आई है फिर क्यों नारी अत्याचार बढ़ रहे हैं?
प्राचीन काल में भारतीय नारी को विशिष्ट सम्मान दिया जाता था। सीता, सती-सावित्री आदि अगणित भारतीय नारियों ने अपना विशिष्ट स्थान सिद्ध किया है। इसके अलावा अंग्रेजी शासनकाल में भी रानी लक्ष्मीबाई, चाँद बीबी आदि नारियाँ जिन्होंने अपनी सभी परंपराओं आदि से ऊपर उठ कर इतिहास के पन्नों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। लेकिन समय परिवर्तन के साथ साथ देखा गया की देश पर अनेक आक्रमणों के पश्चात् भारतीय नारी की दशा में भी परिवर्तन आने लगे। अंग्रेजी और मुस्लिम शासनकाल के आते-आते भारतीय नारी की दशा अत्यंत चिंतनीय हो गई। दिन-प्रतिदिन उसे उपेक्षा एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ता था। इसके साथ साथ भारतीय समाज में आई सामाजिक कुरीतियाँ जैसे सती प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, बहू पति विवाह और हमारी परंपरागत रूढ़िवादिता ने भी भारतीय नारी को दीन-हीन कमजोर बनाने में अहम भूमिका अदा की ।
वैदिक परंपरा दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी के रूप में, बौद्ध अनुयायी चिरंतन शक्ति प्रज्ञा के रूप में और जैन धर्म में श्रुतदेवी और शासनदेवी के रूप में नारी की आराधना होती है। लोक मान्यता के अनुसार मातृ वंदना से व्यक्ति को आयु, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुण्य, बल, लक्ष्मी पशुधन, सुख, धनधान्य आदि प्राप्त होता है, फिर क्यों नारी की अवमानना होती है?
नारी का दुनिया में सर्वाधिक गौरवपूर्ण सम्मानजनक स्थान है। नारी धरती की धुरा है। स्नेह का स्रोत है। मांगल्य का महामंदिर है। परिवार की पीढ़िका है। पवित्रता का पैगाम है। उसके स्नेहिल साए में जिस सुरक्षा, शाीतलता और शांति की अनुभूति होती है वह हिमालय की हिमशिलाओं पर भी नहीं होती। सुप्रसिद्ध कवयित्रि महादेवी वर्मा ने ठीक कहा था-‘नारी सत्यं, शिवं और सुंदर का प्रतीक है। उसमें नारी का रूप ही सत्य, वात्सल्य ही शिव और ममता ही सुंदर है। इन विलक्षणताओं और आदर्श गुणों को धारण करने वाली नारी फिर क्यों बार-बार छली जाती है, लूटी जाती है?
जहां पांव में पायल, हाथ में कंगन, हो माथे पे बिंदिया… इट हैपन्स ओनली इन इंडिया- जब भी कानों में इस गाने के बोल पड़ते हैं, गर्व से सीना चैड़ा होता है। लेकिन जब उन्हीं कानों में यह पड़ता है कि इन पायल, कंगन और बिंदिया पहनने वाली लड़कियों के साथ इंडिया क्या करता है, तब सिर शर्म से झुकता है। पिछले कुछ दिनों में इंडिया ने कुछ और ऐसे मौके दिए जब अहसास हुआ कि भ्रूण में किसी तरह अस्तित्व बच भी जाए तो दुनिया के पास उसके साथ और भी बहुत कुछ है बुरा करने के लिए। बहशी एवं दरिन्दे लोग ही नारी को नहीं नोचते, समाज के तथाकथित ठेकेदार कहे जाने वाले लोग और पंचायतें भी नारी की स्वतंत्रता एवं अस्मिता को कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है, स्वतंत्र भारत में यह कैसा समाज बन रहा है, जिसमें महिलाओं की आजादी छीनने की कोशिशें और उससे जुड़ी हिंसक एवं त्रासदीपूर्ण घटनाओं ने बार-बार हम सबको शर्मसार किया है। विश्व नारी दिवस का अवसर नारी के साथ नाइंसाफी की स्थितियों पर आत्म-मंथन करने का है, उस अहं के शोधन करने का है जिसमें पुरुष-समाज श्रेष्ठताओं को गुमनामी में धकेलकर अपना अस्तित्व स्थापित करना चाहता है।
एक वक्त था जब आयातुल्ला खुमैनी का आदेश था कि ‘जिस औरत को बिना बुर्के देखो- उसके चेहरे पर तेजाब फैंक दो’। जिसके होंठो पर लिपस्टिक लगी हो, उन्हें यह कहो कि हमें साफ करने दो और उस रूमाल में छुपे उस्तरे से उसके होंठ काट दो। ऐसा करने वाले को आलीशान मकान व सुविधा दी जाएगी। खुमैनी ने इस्लाम धर्म की आड में और इस्लामी कट्टरता के नाम पर अपने देश में नारी को जिस बेरहमी से कुचला उसी देश में आज महिलाएं खुमैनी के मकबरे पर खुले मुंह और जीन्स पहने देखी जाती हैं। वे कहती हैं कि हम नहीं समझतीं हमारा खुदा इससे नाराज हो जाएगा। उनकी यह समझ कि कट्ट्टरता के परिधान हमें सुरक्षा नहीं दे सकते, इसके लिए हमें अपने में आत्मविश्वास जगाना होगा। वही हमारा असली बुर्का होगा।
नारी को अपने आप से रूबरू होना होगा, जब तक ऐसा नहीं होता लक्ष्य की तलाश और तैयारी दोनों अधूरी रह जाती है। स्वयं की शक्ति और ईश्वर की भक्ति भी नाकाम सिद्ध होती है और यही कारण है कि जीने की हर दिशा में नारी औरों की मुहताज बनती हैं, औरों का हाथ थामती हैं, उनके पदचिन्ह खोजती हैं। कब तक नारी औरों से मांगकर उधार के सपने जीती रहेंगी। कब तक औरों के साथ स्वयं को तौलती रहेंगी और कब तक बैशाखियों के सहारे मिलों की दूरी तय करती रहेंगी यह जानते हुए भी कि बैशाखियां सिर्फ सहारा दे सकती है, गति नहीं? हम बदलना शुरू करें अपना चिंतन, विचार, व्यवहार, कर्म और भाव। मौलिकता को, स्वयं को एवं स्वतंत्र होकर जीने वालों को ही दुनिया सर-आंखों पर बिठाती है।
नारी अनेक रूपों जीवित है। वह माँ, पत्नी, बहन, भाभी, सास, ननद, शिक्षिका आदि अनेक दायरों से जुड़कर सम्बधों के बीच अपनी विशेष पहचान बनाती है। उसका हर दायित्व, कर्तव्य, निष्ठा और आत्म धर्म से जुड़ा होता है। इसीलिए उसकी सोच, समझ, विचार, व्यवहार और कर्म सभी पर उसके चरित्रगत विशेषताओं की रोशनी पड़ती रहती है। वह सबके लिए आदर्श बन जाती है। नारी अपने घर में अपने आदर्शों, परंपराओ, सिद्धांतो, विचारों एवं अनुशासन को सुदृढ़ता दे सकें, इसके लिए उसे कुछेक बातों पर विशेष ध्यान देना होगा।
बदलते परिवेश में आधुनिक महिलाओं के लिए यह आवश्यक है कि मैथिलीशरण गुप्त के इस वाक्य-“आँचल में है दूध” को सदा याद रखें। उसकी लाज को बचाएँ रखें और भ्रूणहत्या जैसा घिनौना कृत्य कर मातृत्व पर कलंक न लगाएँ। बल्कि एक ऐसा सेतु बने जो टूटते हुए को जोड़ सके, रुकते हुए को मोड़ सके और गिरते हुए को उठा सके। नन्हे उगते अंकुरों और पौधों में आदर्श जीवनशैली का अभिसिंचन दें ताकि वे शतशाखी वृक्ष बनकर अपनी उपयोगिता साबित कर सकें।
जननी एक ऐसे घर का निर्माण करे जिसमें प्यार की छत हो, विश्वास की दीवारें हों, सहयोग के दरवाजे हों, अनुशासन की खिड़कियाँ हों और समता की फुलवारी हो। तथा उसका पवित्र आँचल सबके लिए स्नेह, सुरक्षा, सुविधा, स्वतंत्रता, सुख और शांति का आश्रय स्थल बने, ताकि इस सृष्टि में बलात्कार, गैंगरेप, नारी उत्पीड़न जैसे शब्दों का अस्तित्व ही समाज हो जाए।
ललित गर्ग