Ashutosh Kumar Singh
वा अरब आबादी वाले भारत की स्वास्थ्य सेवाओं को सुचारू रुप से चलाने के लिए जिस व्यवस्था की जरूरत आज महसूस की जा रही है, उसको पूरा करने के लिए सरकार राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक-2017 (एनएमसी बिल-2017) ला रही है। संसद के इसी सत्र में इस विधेयक को लोकसभा में प्रस्तुत किया गया था। विधायी प्रक्रिया के अनुरूप यह विधेयक अब स्थाई समिति के पास है। इसी साल के बजट सत्र में इस पर अंतिम निर्णय होने की संभावना है। भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार की दिशा में इस बिल को क्रांतिकारी बताया जा रहा है।
गौरतलब है कि स्वास्थ्य शिक्षा किसी भी देश के स्वास्थ्य व्यवस्था को सुचारू रुप से चलाने के लिए जरूरी घटक होता है। स्वास्थ्य व्यवस्था को गतिमान बनाने के लिए एक ऐसी विधायी व्यवस्था की जरूरत होती है जो समय के साथ-साथ कदम ताल मिलाए। यही सोचकर सरकार ने एनएमसी बिल जल्द से जल्द पास कराना चाहती है। ऐसा नहीं है कि भारत में इस बिल के पहले स्वास्थ्य शिक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं रही है। 6 दशक पहले भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम,1956 के अंतर्गत मेडिकल कॉउंसिल ऑफ इंडिया का गठन किया गया था। इसके ऊपर देश की चिकित्सा सेवा एवं व्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय मानको के अनुरूप रखने की जिम्मेदारी थी। लेकिन कालांतर में यह संस्था भ्रष्टाचार के गिरफ्त में आ गई और मेडिकल कॉलेजों से ऐसे लोग पास होकर निकलने लगे, जिनकी चिकित्सकीय योग्यता कटघरे में रही। हद तो उस समय हुई जब इस संस्था का अध्यक्ष एक मेडिकल कॉलेज को मान्यता देने के बदले घुस लेने के आरोप में सीबीआई के हाथों पकड़ा गया। 23 अप्रैल, 2010 का वह दिन एमसीआई के इतिहास का काला दिन साबित हुआ। उस दिन अध्यक्ष केतन देसाई के संग-संग एमसीआई का ही एक पदाधिकारी जेपी सिंह एवं उक्त मेडिकल कॉलेज का प्रबंधक भी गिरफ्तार हुआ। एमसीआई भ्रष्टाचार की कहानियां मीडिया में खूब सूर्खियों में रही। दूसरी ओर देश के कोने-कोने से एमसीआई को भंग करने की मांग की जाने लगी। आगे चलकर एमसीआई को भंग करना पड़ा। और आज यह कहानी आईएमसी अधिनियम-1956 की जगह एनएमसी बिल,2017 के रूप में अपने अंतिम निष्कर्ष की ओर है।
एमसीआई से एनएमसी तक का सफर
आइएमसी अधिनिमय-1956 के तहत गठित एमसीआई का बुरा दौर उसके अध्यक्ष केतन देसाई के गिरफ्तारी से शुरू हो चुका था। जब इसका गठन किया गया था तब विचार यही था कि यह संस्था देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर करेगी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। एमसीआई की भ्रष्ट स्थिति को देखते हुए 15 मई, 2010 को भारत सरकार को भारतीय चिकित्सा परिषद (संसोधन) अध्यादेश लेकर आना पड़ा। इसके तहत 1 साल के लिए आइएमसी एक्ट,1956 को स्थगित करते हुए बोर्ड ऑफ गवर्नर्स (बीओजी) के हाथों एमसीआई का प्रबंधन दे दिया गया। एमसीआई की प्रबंधकीय बॉडी को नए सिरे से बनाने के लिए 14 मई 2013 तक यानी 3 वर्षोंं का समय इस अध्यादेश के माध्यम से दिया गया। इस दौरान सरकार ने बीओजी की कार्यावधि को 2011-12 में लगातार दो वर्षोंं तक बढ़ाती रही ताकि एमसीआई के लिए नया अधिनियम बनाया जा सके। इस बीच नेशनल कमिशन फॉर ह्यूमन रिसोसर्स फॉर हेल्थ (एनसीएचआरसी), एक ऐसी नियामक संस्था जो एमसीआई सहित देश की पूरी स्वास्थ्य शिक्षा एवं व्यवस्था को नियमन कर सके, बनाने की कोशिश की गई, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी।
14 मई, 2013 को बीओजी का कार्यकाल खत्म होने के पूर्व मार्च 2013 में सरकार आइएमसी (संसोधन) विधेयक-2013 लेकर आई। लेकिन बजट सेशन के कारण इसे संसद पटल पर नहीं लाया जा सका। और दूसरी तरफ बीओजी का कार्यकाल सरकार ने 6 महीने के लिए और बढ़ा दिया। कुछ बदलाव के साथ 19 अगस्त 2013 को आइएमसी (संसोधन) विधेयक राज्यसभा में पेश किया गया। लेकिन यहां भी इसे पास नहीं करवाया जा सका। 16 सितंबर, 2013 के अध्यादेश के बाद 28 सितंबर 2013 को सरकार ने आईएमसी (संसोधन) अध्यादेश-2 लेकर आई। जिसके बाद 6 नवंबर 2013 को एमसीआई फिर से काम करने लगी। लेकिन एमसीआई पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप एवं मेडिकल शिक्षा की अव्यवस्था की चर्चा मीडिया में हमेशा होती रही।
23 सितंबर 2015 को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मामलो की संसदीय स्थायी समिति ने एमसीआई संबंधित मामले के परिक्षण करने का निर्णय लिया। इस विषय पर सभी पक्षों, हितधारकों की बात सुनने के बाद 8 मार्च 2016 को 92वां राज्यसभा को संबंधित रिपोर्ट प्रस्तुत किया गया। इस रपट में भारत में मेडिकल शिक्षा को लेकर मूल-चूल बदलाव करने का सुझाव दिया गया।
एमसीआई को भंग करने की मांग
7 अगस्त 2016 को नीति आयोग ने भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 की प्रासंगिकता पर अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट में एमसीआई की विफलता की पूरी कहानी बयां की गई। और एमसीआई को भंग करने के लिए कई कारणों को समिति ने सुझाया। जिनमें मुख्य निम्न हैं-
• भारत के जरूरत के हिसाब से उपयुक्त चिकित्सकों का उत्पादन करने वाले पाठ्यक्रम बनाने में विफल रही है एमसीआई।
• स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर पर मेडिकल शिक्षा हेतु समान मानक बनाने विफल रही है एमसीआई।
• निजी मेडिकल संस्थानों में प्रवेश लेने वाले छात्रों की योग्यता में गिरावट दर्ज की गई है। यह भी एमसीआई की विफलता है।
• एक मजबूत गुणवत्ता आश्वासन तंत्र को स्थापित करने में एमसीआई विफल रही है।
• मेडिकल कॉलेज के निरीक्षणों की पारदर्शी प्रणाली बनाने विफल रही है एमसीआई
• निरीक्षण के दौरान अवसंरचना और छोटी-मोटी गड़बडिय़ों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करना, लेकिन कौशलयुक्त शिक्षा, प्रशिक्षण एवं दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान केन्द्रित न करके उसका सही मूल्यांकन करने में विफल रही है एमसीआई।
इतना ही नहीं संसदीय स्थाई समिति को भेजे अपने रिपोर्ट में कमिटि ने कहा कि वर्तमान परिस्थिति में आईएमसी एक्ट, 1956 के अधिन चल रही एमसीआई स्वास्थ्य शिक्षा की मौजूदा चुनौतियों का सामना करने में असमर्थ हो चुकी है। आउटडेटेड हो गई है। इसमें संसोधन कर के भी बहुत कुछ हासिल नहीं किया जा सकता है। इसे मूल रुप से ही बदलने की जरूरत है।
सर्वोच्च न्यायालय का एमसीआई मामले में फैसला
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 2 मई, 2016 के सिविल अपील संख्या-4060 (मोडर्न डेंटल कॉलेज एंड रिसर्च सेंटर एवं अन्य बनाम मध्यप्रदेश एवं अन्य) के मामले में निर्देश दिया कि रंजीत रॉय चौधरी समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए जरूरी कदम सरकार उठाए। संविधान के अनुच्छेद 142 में निहित शक्ति का प्रयोग करते हुए न्यायालय ने एक अंतरिम निगरानी समिति का गठन किया और कहा कि यह समिति एमसीआई की कार्य-प्रणाली का निरीक्षण करेगी और अंतिम निर्णय विधायी स्तर पर होगा।
इस संदर्भ में सरकार ने पहले ही नीति आयोग के वाइस चेयरमैन अरविंद पनगढिय़ा की देखरेख में 28 मार्च, 2016 को एक कमिटि का गठन कर दिया था, जिसे इंडियन मेडिकल काउंसिल एक्ट, 1956 के सभी आयामों की समीक्षा कर अपना सुझाव देनी थी। इस समिति में प्रधानमंत्री के अतिरिक्त मुख्य सचिव पी.के. मिश्रा, नीति आयोग के सीइओ अमिताभ कांत, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के सचिव बीपी शर्मा को शामिल किया गया था। इस कमिटि ने भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम-1956, आइएमसी (संसोधन) बिल-2013, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मामलों का संसदीय स्थाई समिति का 60वां एवं 92वां रिपोर्ट, एनसीएचआरएच बिल-2011, स्व.रंजीत रॉय चौधरी की अध्यक्षता में बनी एक्सपर्ट समूह की रिपोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट का सिविल अपील संख्या 4060 पर दिए गए निर्णय को पढऩे-समझने के बाद अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी।
एक्सपर्ट समिति एवं हितधारकों के विचार
एमसीआई की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए प्रो. रंजीत रॉय चौधरी की अध्यक्षता में एक कमेटि बनी थी। उस कमेटी के सदस्यों एवं सभी हितधारकों ने मुख्यत: जो बाते कहीं उसे संक्षेप आप भी जानें-
• वर्तमान चिकित्सा शिक्षा स्वास्थ्य सेवा देने में असफल हो चुकी है। पाठ्यक्रम को और बेहतर बनाने की जरुरत है।
• मेडिकल सिटों के बढ़ाए जाने की जरूरत है। साथ ही ऐसी व्यवस्था बने की गरीब परिवार का बच्चा भी मेडिकल शिक्षा प्राप्त कर सके।
• जिला अस्पतालों को मेडिकल कॉलेज के रूप में बदला जाना चाहिए। निजी क्षेत्र के बड़े अस्पतालों को भी स्नातकोत्तर स्तर की चिकित्सा शिक्षा देने का अधिकार दिया जाना चाहिए। इससे ढांचागत विकास पर खर्च किए बिना पीजी सीटों में इजाफा हो सकेगा। पीजी डिग्री लेने के लिए दिए जाने वाले कैपीटेशन फी में कटौती हो सकेगी।
• संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रैक्टिस कर रहे चिकित्सकों को फैकल्टी के रूप में छात्रों को प्रशिक्षण देने का अधिकार है लेकिन भारत में जाने-माने सर्जन एवं फिजिशियन को फैकल्टी के रुप में नहीं स्वीकार किया जाता है।
• वर्तमान में समानान्तर दो पोर्ट ग्रेजुएट कोर्स (एमडी/एमएस) एमसीआई द्वारा एवं डिप्लोमा इन नेशनल बोर्ड (डीएनबी) नेशनल बोर्ड ऑफ इक्जामिनेशन द्वारा चलाए जा रहे हैं। इन दोनों पीजी के कोर्स को एक में सम्मिलित कर देना चाहिए और नेशनल बोर्ड ऑफ इक्जामिनेशन द्वारा परीक्षा कराया जाना चाहिए। इसका फायदा यह होगा कि पीजी का प्रशिक्षण पूरी तरह से नि:शुल्क हो सकेगा और अस्पताल सभी पीजी छात्रों को प्रशिक्षण के दौरान सैलरी भी देंगे। सेलेक्शन प्रक्रिया में अस्पतालों की कोई भूमिका नहीं रहेगी। पूरी तरह से मेधा के आधार पर चिकित्सकों का चयन होगा।
• इसके लिए कोई मैनेजमेंट कोटा नहीं होगा और न ही कोई कैपीटेशन फी देने की जरूरत होगी।
• राष्ट्रीय मेडिकल रजिस्टर में रजिस्टर होने के पूर्व एक इक्जिट परीक्षा कराया जाना चाहिए। जो पास करेगा उसी को चिकित्सा करने की अनुमति होगी।
• विदेशों में पढ़े हुए छात्रों को भी भारत में प्रैक्टिस करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। इसके लिए जनरल मेडिकल काउंसिल बनाया जा सकता है। इस संबंध में यूके की व्यवस्था को अध्ययन करने की जरूरत है।
• एमसीआई अधिनियम पुराना हो चुका है इसे नए अधिनियम से बदलने की जरूरत है।
• एक राष्ट्रीय स्तर पर अपिलीय प्राधिकरण बनाने की जरूरत है, जो राज्य स्तरीय नियामकों से संबंधित शिकायतों का निस्तातरण कर सके।
राष्ट्रीय मेडिकल आयोग पर विचार
एमसीआई मसले पर अपनी राय देने के लिए जुलाई 2014 में (स्व.) प्रो. रंजीत रॉय चौधरी की अध्यक्षता में एक एक्सपर्ट कमिटि का गठन किया गया था। इस कमिटि ने संसदीय स्थाई समिति को फरवरी 2015 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस रिपोर्ट में एक्सपर्ट कमिटि ने नेशनल मेडिकल कमिशन (एनएमसी) को नए अधिनियम के तहत बनाने का सुझाव दिया था। इस कमिशन को कार्यकरण के हिसाब से चार भागों में बांटने का सुझाव भी समिति ने दिया। इसी सुझाव को मानते हुए सरकार ने एनएमसी बिल-2017 को संसद में प्रस्तुत भी किया है। केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री जे.पी. नड्डा ने एनएमसी-बिल के प्रावधानों के बारे में चर्चा करते हुए 22 दिसंबर, 2017 को लिखे अपने पत्र कहा कि सरकार राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक, 2017 को पेश करने जा रही है। इसके तहत सरकार एक राष्ट्रीय चिकित्सा परिषद का गठन करेगी, जो चिकित्सा सेवा, चिकित्सा शिक्षा, चिकित्सा व्यवसाय एवं संबंधित सभी पहलुओं पर काम करेगा। इसमें चार स्वायत बोर्ड होगा। एक सलाहकार परिषद होगी। सभी पैथियों के चिकित्सकों के लिए एक राष्ट्रीय रजिस्टर होगा। निम्न चार स्वायत्त बोर्डों का गठन किया जायेगा।
• स्नातक स्तर पर शिक्षा और मानकों का निर्धारण करने के लिए एवं चिकित्सा को नियंत्रित करने के लिए अंडर-ग्रेजुएट मेडिकल शिक्षा बोर्ड होगा।
• स्नातकोत्तर स्तर पर शिक्षा और मानकों का निर्धारण करने के लिए एवं मेडिकल को विनियमित करने के लिए स्नातकोत्तर मेडिकल शिक्षा बोर्ड होगा।
• चिकित्सा संस्थानों का मूल्यांकन और निरीक्षण करने के लिए मेडिकल आकलन और रेटिंग बोर्ड होगा।
• चिकित्सा, चिकित्सकों और चिकित्सा के बीच चिकित्सकीय नैतिकता के अनुपालन के लिए नैतिकता और चिकित्सा पंजीकरण बोर्ड का गठन किया जायेगा।
इस बिल में उपरोक्त सभी प्रावधान वैसे ही हैं जैसा कि (स्व.) प्रो. रंजीत रॉय चौधरी समिति ने अपनी रपट में सुझाया था।
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग का गठन
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग 25 सदस्यों का एक समूह होगा जिसमें में एक अध्यक्ष, बारह पदेन सदस्य, ग्यारह अंशकालिक सदस्य तथा एक पूर्व सदस्य सचिव होंगे। एनएमसी का स्थाई सचिवालय होगा जो कि बेहतरीन पेशेवर कर्मियों से सुसज्जित होगा। इस सचिवालय में एमसीआई का कोई भी पुराना कर्मचारी नहीं होगा।
राष्ट्रीय प्रवेश और निकास परीक्षा
श्री रंजित रॉय चौधरी कमिटि की रिपोर्ट के आधार पर संसद में पेश किए गये एनएमसी बिल में कहा गया है कि मेडिकल संस्थानों में अंडर-ग्रेजुएट और पोस्ट-ग्रेजुएट कोर्स के प्रवेश के लिए सामान्य प्रवेश परीक्षा को एक वैधानिक आधार प्रदान किया जायेगा। अंडर ग्रेजुएट मेडिकल डिग्री के पूरा होने के बाद भी चिकित्सा पेशेवरों द्वारा अभ्यास के लिए एक आम निकास परीक्षा ली जायेगी।
शुल्क नियमन
एनएमसी निजी मेडिकल कॉलेजों के शुल्क नियंत्रण में ज्यादा दखल नहीं देगी। जरूरत पड़ी तो वो 40 फीसद तक सिटों की फी रेगुलेट कर सकती है।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का विरोध
एनएमसी बिल जब संसद में पेश किया जा रहा था तब इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के आह्वान पर पूरे देश के एलोपैथिक चिकित्सक हड़ताल पर चले गए थे।12 घंटे तक यह हड़ताल रही। जब सरकार ने इस बिल को संसद के स्थाई समिति के पास भेज दिया जो कि एक स्वाभाविक विधायी प्रक्रिया है, तब जाकर चिकित्सकों ने अपनी हड़ताल को वापस लिया। इस बावत आइएमए के पूर्व अध्यक्ष डॉ. के.के अग्रवाल ने एनएमसी बिल पर अपना विरोध दर्ज कराते हुए अपने फेसबुक वाल पर 15 मिनट का एक वीडियो संदेश प्रसारित किया है। उसमें उन्होंने कहा है कि इस बिल में मनोनित सदस्य 80 फीसद और चयनित सदस्यों की संख्या 20 फीसद है, यह लोकतंत्र के मूल आत्मा के खिलाफ है। एनएमसी में प्रस्तावित चारों बोर्ड में कोई भी चयनित पदाधिकारी नहीं है। एमसीआई को मरीज एवं डाक्टर कोई भी अपनी शिकायत कर सकता था लेकिन एनएमसी में केवल मेडिकल प्रोफेशनल ही अपनी शिकायत दर्ज करा सकते हैं। स्वास्थ्य राज्य का मुद्दा है, लेकिन इस बिल में एक सेंट्रल रजिस्टर बनाने का प्रस्ताव है। साथ ही सरकार ब्रिज कोर्स कराकर आयुष चिकित्सकों को मॉडर्न पैथी का इस्तेमाल करने की छूट देने जा रही है। इसका विरोध हम करते हैं। विदेशी चिकित्सकों को भारत में प्रैक्टिस करने की इजाजत दी जा रही है। यदि उन्हें इजाजत देना है तो प्रोपर स्क्रीनिंग टेस्ट होना चाहिए, लेकिन ऐसा प्रावधान मौजूदा बिल में नहीं है। जहां तक मेडिकल कॉलेजों पर पेनाल्टी लगाने का प्रश्न है तो इसमें भी भ्रष्टाचार का पूरा स्कोप है। निजी मेडिकल कॉलेजों के फी को सरकार (अपटू) 40 फीसद तक कैप कर सकती है। 40 फीसद रहता तो भी हमें कोई आपत्ति नहीं होती लेकिन यहां पर अपटू 40 फीसद का मतलब 1 फीसद भी हो सकता है, 10 फीसद भी हो सकता है। इन तमाम मुद्दों पर हमारा विरोध है। इस बिल में बहुत सी अच्छी बाते भी हैं लेकिन फिलहाल जिन बिन्दुओं पर सुधार की जरुरत है, उसे हम स्टैंडिंग कमेटि के सामने रखेंगे।
आइएमए के विरोध को निराधार बताते हुए वरिष्ठ स्वास्थ्य पत्रकार धनन्जय कहते हैं कि, नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) बिल देश की चिकित्सा शिक्षा के सुधार की दिशा में उठाया गया एक बेहद प्रगतिशील कदम है। मरीजों के हितों की रक्षा के लिए एक ईमानदार एवं पारदर्शी चिकित्सा नियंत्रक का होना सबसे पहली जरुरत है। मौजूदा मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया (एमसीआई) कितनी सड़ गल गई है यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है। गांव में ऐसे चिकित्सकों की जरूरत हैं जो जिला अस्पतालों पर पडऩे वाले कार्य-बोझ को कम कर सकें। बीएएमस करने वाले छात्र की आक्यू एमबीबीएस का कोर्स करने वाले छात्र से कमजोर होगी, ऐसा मानना न्यायसंगत नहीं है। एनएमसी की एक अच्छी बात यह है कि इसके प्रबंधन में इलेक्टेड कम लोग होंगे। इससे इलेक्शन के नाम पर जो गंध मचती थी, वो रुक जायेगी। एमसीआई आज अपने कारण ध्वस्त होने जा रही है, इसे हो भी जाना चाहिए। जरुरत है देश को बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था की। इसकी पूरी कोशिश सरकार ने इस बिल में की है। जो कमी होगी उसे आगे दूर किया जा सकता है।
इस बिल में प्रस्तावित ब्रिज कोर्स और राष्ट्रीय रजिस्टर को लेकर सबसे ज्यादा विरोध हो रहा है। आयुर्वेद की चिकित्सक दिब्या श्रीवास्तव जो कि आयुष चिकित्सकों की ओर से आवाज बुलंद कर रही हैं उनका कहना हैं कि, मैं ब्रिज कोर्स के पक्ष में हूँ। आयुष के अंतर्गत आने वाले डॉक्टर्स को भी एलोपैथ के डॉक्टर्स के समकक्ष अवसर मिलनी चाहिए। विशेषकर सर्जरी की, क्योंकि आयुर्वेद ही शल्य चिकित्सा का जनक है। और आयुष चिकित्सक सर्जरी करने में सक्षम हैं। उन्हें किसी भी सुविधा, साधन, सर्जरी, नौकरी से वंचित न किया जाए।वहीं दूसरी ओर जोधपुर के चिकित्सक डॉ. दिनेश शर्मा कहना हैं कि, यह बिल भिन्न-भिन्न चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों को सड़क पर लड़वाने और एक दूसरे को नीचा दिखाने में सफल हो रही है। देश का स्वास्थ्य किसी भी रूप में इससे नहीं सुधरने वाला हैं जबकि सरकार के पास अभी इससे बेहतर कोई तत्कालीन योजना नहीं हैं यह दु:खद पहलू हैं।
निष्कर्ष
राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अधिनियम-2017 को जिसने ठीक से पढ़ा है, वह कह सकता हैं कि यह बिल स्वास्थ्य शिक्षा में बदलाव की दिशा में लाया गया एक सार्थक कदम है। इसमें कुछ कमियां निश्चित रुप से हैं लेकिन उसे भी समय के साथ-साथ दूर तो किया ही जा सकता हैं। बेहतर यह होता कि सरकार यह बताती की किस रोग का ईलाज किस पैथी में बेहतर है। उसके हिसाब से रोगों को पैथियों के हिसाब से वर्गीकृत कर देती। इससे सभी पैथियों को आगे बढऩे का भी मौका मिलता और लोगों को सही ईलाज भी।