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न्याय पंचायत बढ़ेगी, तो मुक़दमें घटेंगे

लंबित मुक़दमें की संख्या और उसके दोषी कारणों को लेकर आये दिन बहस होती है। जजों की कम संख्या, न्यायालयों में पेशकार और वकीलों की मिलीभगत और शासन की ढिलाई जैसे कई कारण इसके लिए ज़िम्मेदार बताये जाते हैं। मीडिया में बहस का मुद्दा यह शायद ही कभी बना हो, कि ऐसा क्या किया जाये कि ऊपर की अदालतों में मुक़दमा दर्ज कराने की नौबत कम से कम आये। गुजरात मुख्यमंत्री के तौर पर श्री नरेन्द्र मोदी ने अवश्य गांव को मुक़दमामुक्त और सद्भावपूर्ण बनाने की दृष्टि से समरस गांव योजना के तहत् ‘पावन गांव और ‘तीर्थ गांव’ का आह्वान तथा सम्मान किया था। राष्ट्रीय मीडिया के लिए ऐसा प्रयास न तब बहस अथवा प्रचार का विषय था और न अब।
 
सक्रिय न्याय पंचायतों का असर 
 
आंकडे़ बताते हैं कि जिन राज्यों में न्याय पंचायत व्यवस्था सक्रिय रूप से अस्तित्व में है, कुल लंबित मुक़दमों की संख्या में उनका हिस्सेदारी प्रतिशत अन्य राज्यों की तुलना काफी कम है। उदाहरण के तौर पर भारत में लंबित मुक़दमों की कुल संख्या में बिहार की हिस्सेदारी मात्र छह प्रतिशत है। इसकी वजह यह है कि बिहार में न्याय पंचायत व्यवस्था काफी सक्रिय हैं। बिहार में न्याय पंचायतों को ’ग्राम कचहरी’ नाम दिया गया है। ग्राम कचहरियों में आने वाले 90 प्रतिशत विवाद आपसी समझौतों के जरिए हल होने का औसत है। शेष 10 प्रतिशत में आर्थिक दण्ड का फैसला सामने आया है। इसमें से भी मात्र दो प्रतिशत विवाद ऐसे होते हैं, जिन्हे वादी-प्रतिवादी ऊपर की अदालतों में ले जाते हैं। सक्रिय न्याय पंचायती व्यवस्था वाला दूसरा राज्य – हिमाचल प्रदेश है। ग्रामीण एवम् औद्योगिक विकास शोध केन्द्र की अध्ययन रिपोर्ट – 2011 खुलासा करती है कि हिमाचल प्रदेश की न्याय पंचायतें में आये विवाद सौ फीसदी न्याय पंचायत स्तर पर ही हल हुए। न्याय पंचायतों के विवाद निपटारे की गति देखिए। अध्ययन कहता है कि 16 प्रतिशत विवादों का निपटारा तत्काल हुआ; 32 प्रतिशत का दो से तीन दिन में और 29 प्रतिशत का निपटारा एक सप्ताह से 15 दिन में हो गया। इस प्रकार मात्र 24 प्रतिशत विवाद ही ऐसे पाये गये, जिनका निपटारा करने में न्याय पंचायतों को 15 दिन से अधिक लगे।
 
न्याय आयोग ने स्वीकारा महत्व
 
ये आंकड़े गवाह हैं कि न्याय पंचायत ही वह व्यवस्था है, जो अदालतों के सिर पर सवार मुक़दमों का बोझ कम सकती है। भारत की ज्यादातर आबादी के ग्रामीण है। मुक़दमें का खर्च और लगने वाली लंबी अवधि गांव की जेब ढीली करने और सद्भाव बिगाड़ने वाले सिद्व हो रहे हैं। इसके विपरीत न्यायपीठ तक याची की आसान पहुंच, शून्य खर्च, त्वरित न्याय, सद्भाव बिगाड़े बगैर न्याय, बिना वकील न्याय की खूबी के कारण न्याय पंचायतें गांव के लिए ज्यादा ज़रूरी और उपयोगी न्याय व्यवस्था साबित हो सकती है। आज न्याय पंचायतों के पास कुछ खास धाराओं के तहत् सिविल और क्रिमिनल… दोनो तरह विवादों पर फैसला सुनाने का हक़ है। अलग-अलग राज्य में न्याय पंचायत के दायरे में शामिल धाराओं की संख्या अलग-अलग है। न्याय पंचायतों की इसी महत्ता को देखते हुए ही भारतीय न्याय आयोग ने अपनी 114वीं रिपोर्ट में ग्राम न्यायालयों की स्थापना की सिफारिश की थी। न्याय पंचायतों की तुलना में ग्राम न्यायालयों को अधिक सक्षम बनाने की दृष्टि से कई प्रावधान भी इस सिफारिश का हिस्सा हैं। तत्कालीन सरकार ने 15 जुलाई 2007 को ग्राम न्यायालय स्थापना बिल को विचार के लिए राज्यसभा में रखा था; किंतु बात आगे नहीं बढ़ सकी। 
 
सभी राज्यों में न्याय पंचायत स्थापना की मांग
 
उल्लेखनीय है कि भारत में न्याय पंचायतों का इतिहास बहुत पुराना है। भारत की पारम्परिक पंचायतों का कोई औपचारिक ढांचा नहीं था। उनकी असल भूमिका तो न्याय करने की ही थी। संविधान की धारा 40 ने एक अलग प्रावधान कर राज्यों को मौका दिया कि वे चाहें, तो न्याय पंचायतों का औपचारिक गठन कर सकते हैं। धारा 39 ए ने इसे और स्पष्ट किया। भारत के आठ राज्यों ने अपने राज्य पंचायतीराज अधिनियम में न्याय पंचायतों का प्रावधान किया, किंतु शेष ने इसमें रुचि नहीं दिखाई। ’तीसरी सरकार अभियान’ ने इस रुचि को जगाने की पहल की है। अभियान के संचालक डाॅ. चन्द्रशेखर प्राण ग्रामसभा को गांव की संसद, पंचायत को मंत्रिमण्डल और न्याय पंचायत को गांव की न्यायपालिका कहते है। वह सवाल करते हैं कि तीसरे स्तर की इस सरकार को इसकी न्यायपालिका से वंचित क्यों रखा जा रहा है ? डाॅ. प्राण ने प्रधानमंत्री को चिटठ़ी लिखते हुए भारत के सभी राज्यों में न्याय पंचायतों की स्थापना का अनुरोध किया है। 
 
असंवैधानिक ढर्रे पर उ. प्र.
 
गौर कीजिए कि भारत के जिन आठ राज्यों के पंचायतीराज अधिनियम में न्याय पंचायत का प्रावधान है, उनमें उत्तर प्रदेश भी एक है। उत्तर प्रदेश पंचायतीराज अधिनियम 1947 के अध्याय छह की धारा 42, 43 और 44 में इसके बाबत् स्पष्ट निर्देश हैं; बावजूद इसके भारत में कुल लंबित मुक़दमों में उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी 24 प्रतिशत है। इसकी क्या वजह है ? इसकी वजह यह है आज भी प्रावधान होने के बावजूद गत् 40 वर्षों से उत्तर प्रदेश में न्याय पंचायतों का गठन नहीं किया गया है। उत्तर प्रदेश में अंतिम बार वर्ष 1972 में न्याय पंचायतों का गठन हुआ था। उत्तर प्रदेश में ग्राम पंचायतों के गठन के तुरन्त बाद वार्ड सदस्यों के बीच ये पंच नामित कर न्याय पंचायतें गठित किए जाने का प्रावधान है। पंचायत के चुनाव तो कई बार हुए, लेकिन न्याय पंचायत के नाम पर आज भी चुप्पी है। 1998 में मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने न्याय पंचायतों की पुनर्गठन प्रक्रिया को शुरु करने की कोशिश ज़रूर की। किंतु सरकार चले जाने के कारण प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी। संवैधानिक प्रावधान को लागू न करना, एक असंवैधानिक कार्य है। ताज्जुब है उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा खुद अपने बनाये संविधान के उल्लंघन का कार्य गत् 40 साल से जारी है। न कभी न्यायालय ने इसका संज्ञान लिया और न ही शासन-प्रशासन ने। इसका उल्लेख करते हुए डाॅ. प्राण ने उत्तर प्रदेश के नये मुख्यमंत्री से पहल की अपेक्षा की है। 
 
योगी जी करें न्याय पंचायत पुनर्गठन की पहल
 
भारत सरकार हर वर्ष पंचायतीराज दिवस का आयोजन दिल्ली में करती थी। इस बार लीक टूटी है। भारत सरकार ने इसका आयोजन लखनऊ में किया। बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी ने गत् एक माह में लीकें तोड़ने का नया रिकाॅर्ड बनाया है। अच्छा हो कि वह एक लीक और तोडे़ं। उत्तर प्रदेश में न्याय पंचायतों के पुर्नगठन की प्रक्रिया तत्काल प्रभाव से शुरु करने का शासकीय आदेश जारी करें। केन्द्रीय पंचायतीराज मंत्री संसद में प्रस्ताव लाकर सभी राज्यों में न्याय पंचायत स्थापना का कानून बनवाने की पहल करें। सभी सांसद सहयोगी बनें। भारतीय अदालतों के इतिहास में यह एक और ऐतिहासिक कदम होगा। क्या हमारे माननीय यह करेंगे ?

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