लोकसभा चुनाव में गैर एनडीए दलों की सबसे बड़ी ख्वाहिश यही है कि वे किसी भी तरह से नरेंद्र मोदी को सत्ता से बाहर करें। लेकिन सिवा मोदी हटाओ, देश बचाओ और चौकीदार चोर है जैसे कुछ नारों को छोड़ दें तो उनके पास कोई ठोस योजना नहीं है। फिर विपक्षी दलों में आपसी सिरफुटौव्वल भी खूब है। विपक्षी दल ऊपरी तौर पर साथ तो नजर आ रहे हैं, लेकिन अंदरूनी हालत यह है कि वे एक-दूसरे की कीमत पर खुद की ताकत बढ़ाने की फिराक में हैं। सबसे पहले शुरूआत करते हैं जनसंख्या और लोकसभा के लिहाज से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से। उत्तर प्रदेश में बुआ यानी मायावती की बहुजन समाज पार्टी और बबुआ यानी अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के साथ ही अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के बीच समझौता हो गया है। इस समझौते में कांग्रेस के लिए रायबरेली और अमेठी की सीट को छोड़ दें तो कोई जगह नहीं है। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जहां 37 और 38 सीटों पर चुनाव लडऩे जा रही हैं, वहीं राष्ट्रीय लोकदल को तीन सीटें मिली हैं। यहां मायावती ने जिस तरह कांग्रेस को गठबंधन से दूर किया है, उससे कांग्रेस बेहद गुस्से में है। याद करने की जरूरत है कि उत्तर प्रदेश ही वह राज्य है, जहां से कांग्रेस ने अपने तुरूफ के पत्ते प्रियंका गांधी को मैदान में उतारा है। प्रियंका भले ही पूर्वी उत्तर प्रदेश की 43 सीटों की प्रभारी हों, लेकिन माना यही जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में उनके ही अधीन कांग्रेस का पूरा चुनाव अभियान रहने वाला है। कांग्रेस मायावती से किस कदर नाराज है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रियंका गांधी ने भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर रावण से मेरठ के अस्पताल में जाकर भेंट की। इस भेंट को भाई-बहन की शिष्टाचार मुलाकात माना गया। लेकिन हकीकत यह है कि प्रियंका गांधी ने इसके जरिए दलित वोट बैंक में सेंध लगाकर मायावती को मात देने की कोशिश की है। लेकिन इस पूरी कवायद में वे भूल गईं कि इससे अगड़े वर्ग के उन मतदाताओं के छिटकने का खतरा कहीं ज्यादा है, जो उनकी या दादी इंदिरा की नाक जैसी उनकी नाक की वजह से उनके साथ आ रहे थे। प्रियंका का अंदाजा कितना गलत था, इस मुलाकात के कुछ ही दिनों बाद चंद्रशेखर ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर भरी हुंकार में साबित कर दिया। जिसमें उन्होंने कहा कि जरूरत पड़ी तो फिर से भीमा-कोरेगांव किया जाएगा। यानी वे हिंसा करने से नहीं हिचकेंगे। हो सकता है कि कुछ उत्साही दलित मतदाता हिंसा का समर्थन करें, लेकिन दलित वर्ग के समझदार मतदाता भी हिंसा का समर्थन नहीं करते और रही बात सवर्ण वर्ग के मतदाताओं की तो वह चंद्रशेखर रावण के बयान के बाद बिदकता नजर आ रहा है।
उत्तर प्रदेश से सटे बिहार में भी विपक्षी दलों के बीच अभी तक सीट बंटवारे पर कोई फैसला नहीं हो पाया है। भारतीय जनता पार्टी ने पिछले चुनाव में यहां से 22 सीटों पर जीत हासिल की थी। लेकिन उसने गठबंधन की खातिर 17 सीटों पर खुद को सिमटा लिया, लेकिन कांग्रेस की हालत यह है कि वह राज्य में 11 सीटें लेने पर अड़ी हुई है। वहीं दिसंबर तक एनडीए का हिस्सा रही राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी पांच सीटें चाहती है। पप्पू यादव भी दो और जीतन राम मांझी भी कम से कम दो सीटों पर दावेदारी जता रहे हैं। इस हिसाब से देखें तो राष्ट्रीय जनता दल के लिए सिर्फ 21 सीटें ही बचती हैं। ऐसे में लगता यह है कि कहीं राज्य में बनने वाला महागठबंधन टूट न जाए। दिलचस्प यह है कि इस गठबंधन को बनाने और जिताने की कोशिश में सबसे ज्यादा मेहनत लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव ने की है। लेकिन अभी वे सोच रहे हैं कि बाकी दलों को कैसे मनाएं। कमोबेश झारखंड में भी ऐसे ही हालात रहे। लेकिन वहां सीटों को लेकर झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस, झारखंड विकास मोर्चा में सहमति बन गई है। विधानसभा चुनावों में जहां झारखंड मुक्ति मोर्चा की अगुवाई पर सहमति बनी है, वहीं कांग्रेस को लोकसभा चुनावों में नेता माना गया है।
भारतीय जनता पार्टी जिस राज्य से सबसे ज्यादा उम्मीदें लगाए बैठी है, वह पश्चिम बंगाल है। वहां की सत्ताधारी ममता बनर्जी चाहती तो हैं कि केंद्र से मोदी सरकार उखाड़ फेंकी जाए, लेकिन वे न तो कांग्रेस को भाव दे रही हैं और न ही राज्य की सत्ता पर 33 साल तक कायम रहे वामपंथी दलों को। ऐसे हालात में उम्मीद जताई जा रही थी कि कांग्रेस और वाममोर्चे में गठबंधन बन जाए। लेकिन वाम मोर्चे ने भी गठबंधन को किनारे रख दिया है। उसने ये पंक्तियां लिखे जाते वक्त तक 25 सीटों पर अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। ऐसे में यहां भी गैरभाजपा दलों के बीच एकता होते-होते रह गई है। पश्चिम बंगाल से सटे उड़ीसा में भी भारतीय जनता पार्टी को बहुत उम्मीदें हैं। लेकिन वहां की सत्ताधारी बीजू जनता दल के नेता नवीन पटनायक बाकी गैर बीजेपी दलों के साथ चलने को अभी तक तैयार नजर नहीं आ रहे।
राहुल गांधी और ममता बनर्जी ने जिस गैर बीजेपी मोर्चे की वकालत की, उससे उड़ीसा के पड़ोसी तेलंगाना राज्य के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव अलग ही रहे। वे राज्य में गैरभाजपा, गैर कांग्रेस लाइन पर चल रहे हैं। ऐसा माना जा रहा है कि अगर मौजूदा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो वे भारतीय जनता पार्टी का साथ दे सकते हैं। तेलंगाना के मूल राज्य आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने मोदी विरोध की कमान संभाल रखी है। लेकिन हकीकत यह है कि आंध्र की धरती पर वे भी कांग्रेस के साथ सीट बंटवारा करते नजर नहीं आ रहे। उनके धुर विरोधी वाईएसआर कांग्रेस के जगनमोहन रेड्डी भी कांग्रेस के साथ खड़े भी नहीं होते। वे भूल नहीं पाए हैं कि 2004 में कांग्रेस की वापसी के नायक रहे अपने पिता वाईएस राजशेखर रेड्डी की दुर्घटना में निधन के बाद उन्हें कांग्रेस ने मुख्यमंत्री नहीं बनाया। आंध्र की राजनीति को देखकर ऐसा लगता है कि मानो जगन रेड्डी और एन चंद्रबाबू नायडू ने तय कर लिया है कि आपस में ही लड़ेंगे और खुद ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करेंगे। फिर देखा जाएगा कि केंद्र में किसे समर्थन दिया जाए। आंध्र के पड़ोसी राज्य कर्नाटक में जरूर कांग्रेस और जनता दल एस ने 20 और 8 सीटों पर तालमेल कर लिया है। लेकिन जिस तरह जनता दल एस में देवेगौड़ा का परिवारवाद चल रहा है, उससे चुनावी संभावनाओं पर सवाल उठ सकता है। वैसे भी जनता दल एस के गठन के दिनों से पार्टी के प्रवक्ता और हिंदीभाषी प्रेस के बीच पार्टी का चेहरा रहे कुंवर दानिश अली ने बहुजन समाज पार्टी का दामन थाम लिया है। इसका सांकेतिक महत्व है। इससे पार्टी पर ही सवाल उठ रहे हैं।
तमिलनाडु में न तो अन्नाद्रमुक के पास उसकी चमत्कारिक नेता अम्मा यानी जयललिता रहीं और न ही द्रमुक के पास करूणानिधि। इसलिए दोनों धड़ों के लिए गठबंधन जरूरी हो गया। अन्ना द्रमुक जहां भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाले गठबंधन का हिस्सा बनी है, वहीं द्रमुक ने कांग्रेस की अगुवाई में लडऩे का फैसला किया है। दोनों ही गठबंधन में कई छोटी पार्टियां भी हैं। एनडीए के मुकाबले अगर देखा जाए तो कांग्रेस की अगुवाई वाला गठबंधन यहां ही सही मायने में खड़ा है। केरल में तो पारंपरिक रूप से कांग्रेस की अगुवा में यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट और वाममोर्चे का लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट चुनावी मैदान में रहे हैं। चूंकि दोनों ही मोदी विरोधी हैं, इसलिए उम्मीद किया जाना कि मोदी विरोधी गठबंधन बनाएंगे, गलत नहीं था। लेकिन केरल की धरती पर यदि ऐसा वे करते तो दोनों को ही नुकसान होता। वैसे भी भारतीय जनता पार्टी यहां तेजी से उभरी है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी एक ध्रुव बन जाती। बहरहाल यह तय है कि वे यहां आपस में लड़ेंगे और आम चुनाव बाद एक साथ मोदी को चुनौती देंगे।
जम्मू-कश्मीर में भी मोदी विरोधी दल बिखरे हुए हैं। नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और कांग्रेस तीनों भाजपा के विरोध में हैं। लेकिन यहां भी तीनों के बीच कोई समझौता नहीं हो पाया है। वैसे भी जम्मू और लद्दाख क्षेत्र में भाजपा को कोई चुनौती नहीं है। इसलिए गठबंधन का असर सिर्फ कश्मीर घाटी की सीटों पर ही पडऩा है। इसलिए यहां गठबंधन का कोई मायने भी नहीं है, क्योंकि कश्मीर घाटी में भाजपा इन दलों के लिए कोई चुनौती नहीं है। अब बात करते हैं पंजाब और दिल्ली की। पंजाब और दिल्ली में आम आदमी पार्टी उस कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने को आतुर है, जिसके भ्रष्टाचार के खिलाफ उसका जन्म हुआ। वहीं दोनों ही जगहों का कांग्रेस नेतृत्व इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया तो दिल्ली कांग्रेस की अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी इसे नामंजूर कर चुकी हैं। यह बात और है कि पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन और राज्य कांग्रेस प्रभारी पीसी चाको आम आदमी पार्टी के साथ कांग्रेस के गठबंधन के समर्थन में हैं। महाराष्ट्र में जरूर कांग्रेस का राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ गठबंधन हो गया है। लेकिन राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार का बयान इस गठबंधन पर भारी पड़ता नजर आ रहा है जिसमें उन्होंने मौजूदा चुनाव में एक बार फिर नरेंद्र मोदी की जीत की उम्मीद जताई है। रही बात उत्तर पूर्व के राज्यों की तो वहां भी कांग्रेस छोटे दलों के संपर्क में है। वहां उसे चुनौती भी नहीं है। लेकिन इन राज्यों में कांग्रेस के साथ दलों का आना-जाना लगा रहता है। हरियाणा में कांग्रेस भले ही विपक्षी भूमिका निभाने की हैसियत में है। लेकिन राज्य के दूसरे बड़े दल इंडियन नेशनल लोकदल में बंटवारा हो चुका है। इससे टूटकर हरियाणा जनहित जनता पार्टी बन चुकी है। कांग्रेस के साथ न तो इंडियन नेशनल लोकदल का कोई समझौता है और न ही हरियाणा जनहित जनता पार्टी का। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी को यहां गैरभाजपा दल कैसे रोकेंगे, यह सवाल बड़ा है।
गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड और हिमाचल में चूंकि कांग्रेस का सीधे भारतीय जनता पार्टी से मुकाबला है। इसलिए इन राज्यों में कह सकते हैं कि कांग्रेस को किसी और दल की जरूरत नहीं है। लेकिन कह सकते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ समूचा विपक्ष बिखरा नजर आ रहा है। उसके पास ठोस रणनीति नहीं है। वे बस अपना-अपना स्थानीय वोटबैंक और आधार बचाने में जुटे हुए हैं। वे इस रणनीति पर काम कर रहे हैं कि एक बार वे अपने आधार इलाके में ज्यादा से ज्यादा सीटें झटक लें। फिर वे केंद्र में मोदी सरकार को चुनौती देंगे या फिर उसे सरकार से हटाने की कोशिश करेंगे। इसके बरक्स भारतीय जनता पार्टी और उसका गठबंधन कहीं ज्यादा तैयार और जमीनी हथियार से लैस है। ऐसे में देखना होगा कि गैरभाजपा दल किस तरह मोदी को चुनौती दे पाते हैं?
उमेश चतुर्वेदी