भारत की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों में से एक कांग्रेस ने बुधवार दोपहर जब प्रियंका गाँधी वाड्रा को महासचिव बनाने के साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया तो कांग्रेस समर्थको में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी, इसी के साथ इस कथन पर भी मुहर लग गयी कि “भारत की राजनीती में परिवारवाद” हमेशा की तरह हावी रहेगा, फिर चाहे वो किसी भी राजनीतिक दल में ही क्यों न हो.
वंशवाद अथवा परिवारवाद सत्ता के शासन की वह प्रणाली है जिसमे एक ही परिवार, वंश से एक के बाद एक कई शासक बनते जाते है. भाईभतीजावाद का जनक इसका ही एक रूप है. ऐसा माना जाता है कि लोकतंत्र में परिवारवाद के लिए कोई स्थान नही है, परन्तु यह फिर भी हावी है.
भारत में हर चुनाव से पहले लगभग हर राजनीतिक दल का एक दूसरे पर भाषणों के द्वारा किये जाने वाले हमलों का प्रमुख मुद्दा परिवारवाद एवं वंशवाद ही होता है, फिर चाहे वो भारतीय जनता पार्टी हो या समाजवादी पार्टी. एक दूसरे राजनीतिक दलों पर परिवारवाद का लांछन लगाने वाले नेता अपनी ही पार्टी के अन्दर अपने ही बेटे बेटियों का मंत्री, विधायक, सांसद बनना भूल जाते है. परिवारवाद की राजनीती का शिकार निचले स्तर का नेता/कार्यकर्त्ता ही होता है जो पूरे तन मन धन के साथ मिलकर राजनीतिक दल की पूरी निष्ठा से सेवा करता है. लोकतंत्र में परिवार विशेष के वर्चस्व पर सैद्धांतिक आपत्तियाँ उचित ही कही जाती हैं, विरोध की इन भावनाओ को जानते समझते हुए भी सिक्के के दूसरे पहलू को देखने समझने और बहस के लिए रखा जाना आवश्यक लगता है. कांग्रेस पर हमला करने के लिए भाजपा हमेशा परिवारवाद को ही मुद्दा बनाती रही है, लेकिन उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के वक्त हुए टिकट बंटवारे ने इन सभी मुद्दों पर सवालिया निशान लगा दिया था, हालाँकि परिवारवाद को बढ़ावा देने में भाजपा या कांग्रेस ही अकेली पार्टियाँ नही है, समाजवादी पार्टी में परिवारवाद/वंशवाद को हमेशा सर्वसम्मति से आगे बढ़ाया गया.
दरअसल कुछ हद तक तो माना जा सकता है कि परिवारवाद की औपचारिक शुरुआत कांग्रेस से ही हुई, परिवारवाद का आरोप राहुल गाँधी का पीछा कर रहा है, सोनिया गाँधी का भी पीछा करता रहा है. सन 1998 के बाद 2001 में सोनिया गाँधी जब अध्यक्ष बनने वाली थी तब जितेन्द्र प्रसाद ने अपना नामांकन भरा था, उनके साथ तत्कालीन कांग्रेस नेता भी थे, हालाँकि जितेन्द्र प्रसाद चुनाव हार गये थे लेकिन सोनिया गाँधी को पहली बार चुनाव का सामना करना पड़ा था. हमें आज और आजादी की लड़ाई के समय में कूदे परिवारों में अंतर करना होगा, मगर इस अंतर के साथ कि वो लड़ाई में देश की आजादी के लिए कूदे, ये सत्ता पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए मंत्री, विधायक या अध्यक्ष बन रहे है. भारत की राजनीती में परिवारों के दायरे से बाहर एक से एक नेता भी पैदा हुए है जिन्होंने राजनीती बदल दी मगर उनकी बनाई पार्टी भी परिवारवाद की गोद में चली गयी
भारतीय राजनीती में परिवारवाद के विषय पर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से प्रकाशित एक पुस्तक के मुताबिक कांग्रेस के 47 प्रतिशत, एनसीपी के 33 प्रतिशत एवं बीजेपी के 14 प्रतिशत सांसद परिवारवादी है. रिपोर्ट के मुताबिक यही अर्थ निकलता है कि बीजेपी में परिवारवाद तो है लेकिन कई प्रमुख दलों की तुलना में काफी कम है. कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यही है कि क्या पार्टियों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र है ?
अभी हाल ही में समाजवादी पार्टी एवं बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के अगले ही दिन एक कार्यक्रम के दौरान मायावती ने अपने भतीजे आकाश को मीडिया के सामने लाकर बातों ही बातों में जता दिया कि भविष्य में आकाश बहुजन समाज पार्टी का प्रमुख चेहरा हो सकते है. इतना तो तय है कि सामाजिक परिवर्तन के लिए काम करने वाली पार्टियों पर इस तरह के आरोप बड़ी आसानी से चिपक जाते है क्योंकि उनसे उनके समर्थको को अपेक्षायें बहुत रहती हैं. अपने गरीब समाज के लिए बहुत कुछ करने का दायित्व होता है, लेकिन उनके हितों की कसौटी पर खरा न उतर पाना व सामाजिक और आर्थिक दबाब भी उन्हें अपने परिवारों के आर्थिक हितो को सुरक्षित रखने के लिए वे अपने परिवार को राजनीती में उतारते है.
परिवारवाद से जुड़ा एक मुद्दा विश्वसनीयता का भी है. पिछले कई दशको में बड़े बड़े नेताओं को उनके ही सबसे करीबियों ने धोखा दिया, साथ छोड़ा, नया राजनीतिक दल बनाया. कांग्रेस में तो इमरजेंसी में सत्ता का सर्वाधिक दुरूपयोग करने वाले अंतिम दौर में विद्रोही बन गये. ठीक इसी तरह बीजेपी के प्रमुख नेता स्व० श्री अटल जी को अपने ही सहयोगियों से ही गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ा, फिर भी उन्हें भी सर्वाधिक विश्वास अपने परिजनों पर ही रहा. इसलिए परिवार के सदस्यों की सहायता ले अथवा उन सदस्यों के राजनीती में पूर्ण रूप से सक्रिय होने का फैसला नेता स्वयं कर सकते है और परिणाम जनता के हाथों में छोड़ सकते है. दुनिया के कई देशों में परिवारवाद की राजनीती चलती रही है, यह सिलसिला चलने वाला है, जनता को मज़बूरी में ही सही पर तय करना है कि उन्हें स्वीकारो या ठुकरा दो.
अपूर्व बाजपेयी