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पिता संस्कारदाता ही नहीं, जीवन-निर्माता भी है

पिता संस्कारदाता ही नहीं, जीवन-निर्माता भी है
– ललित गर्ग-

जून महीने के तीसरे रविवार को अंतर्राष्ट्रीय पिता दिवस यानी फादर्स डे मनाया जाता है। इस साल 19 जून 2022 को भारत समेत विश्वभर में यह दिवस मनाया जायेगा। पिता दिवस की शुरुआत बीसवीं सदी के प्रारंभ में पिताधर्म तथा पुरुषों द्वारा परवरिश का सम्मान करने के लिये मातृ-दिवस के पूरक उत्सव के रूप में हुई। यह हमारे पूर्वजों की स्मृति और उनके सम्मान में भी मनाया जाता है। दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग दिन और विविध परंपराओं के कारण उत्साह एवं उमंग से यह दिवस मनाया जाता है। हिन्दू परंपरा के मुताबिक पितृ दिवस भाद्रपद महीने की सर्वपितृ अमावस्या के दिन होता है। पिता एक ऐसा शब्द जिसके बिना किसी के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। एक ऐसा पवित्र रिश्ता जिसकी तुलना किसी और रिश्ते से नहीं हो सकती। बचपन में जब कोई बच्चा चलना सीखता है तो सबसे पहले अपने पिता की उंगली थामता है। नन्हा-सा बच्चा पिता की उँगली थामे और उसकी बाँहों में रहकर बहुत सुकून पाता है। बोलने के साथ ही बच्चे जिद करना शुरू कर देते हैं और पिता उनकी सभी जिदों को पूरा करते हैं। बचपन में चॉकलेट, खिलौने दिलाने से लेकर युवावर्ग तक बाइक, कार, लैपटॉप और उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने तक संतान की सभी माँगों को वो पूरा करते रहते हैं लेकिन एक समय ऐसा आता है जब भागदौड़ भरी इस जिंदगी में बच्चों के पास अपने पिता के लिए समय नहीं मिल पाता है। इसी को ध्यान में रखकर पितृ दिवस मनाने की परंपरा का आरम्भ हुआ।
सोनेरा डोड जब नन्ही-सी थी, तभी उनकी मां का देहांत हो गया। पिता विलियम स्मार्ट ने सोनेरो के जीवन में मां की कमी नहीं महसूस होने दी और उसे मां का भी प्यार दिया। एक दिन यूं ही सोनेरा के दिल में ख्याल आया कि आखिर एक दिन पिता के नाम क्यों नहीं हो सकता? इस तरह 19 जून 1910 को पहली बार फादर्स डे मनाया गया। कई महीने पहले 6 दिसम्बर 1907 को मोनोंगाह, पश्चिम वर्जीनिया में एक खान दुर्घटना में मारे गए 210 पिताओं के सम्मान में इस विशेष दिवस का आयोजन श्रीमती ग्रेस गोल्डन क्लेटन ने किया था। प्रथम फादर्स डे चर्च आज भी सेन्ट्रल यूनाइटेड मेथोडिस्ट चर्च के नाम से फेयरमोंट में मौजूद है।
मानवीय रिश्तों में दुनिया में सबसे बड़ा स्थान मां को दिया जाता है, लेकिन एक बच्चे को बड़ा और सभ्य बनाने में उसके पिता का योगदान कम करके नहीं आंका जा सकता। बच्चे को जब कोई खरोंच लग जाती है तो जितना दर्द एक मां महसूस करती है, वही दर्द एक पिता भी महसूस करते हैं। पिता बेटा की चोट देख कर कठोर इसलिये बना रहता है ताकि वह जीवन की समस्याओं से लड़ने का पाठ सीखे, सख्त एवं निडर बनकर जिंदगी की तकलीफों का सामना करने में सक्षम हो। माँ ममता का सागर है पर पिता उसका किनारा है। माँ से ही बनता घर है पर पिता घर का सहारा है। माँ से स्वर्ग है माँ से बैकुंठ, माँ से ही चारों धाम है पर इन सब का द्वार तो पिता ही है। उन्हीं पिता के सम्मान में पितृ दिवस मनाया जाता है। आधुनिक समाज में पिता-पुत्र के संबंधों की संस्कृति को जीवंत बनाने की अपेक्षा है।
कुछ दशक पूर्व के पिताओं ने अपनी भूमिका में एक क्रांति लाई। इसके साथ ही एकल परिवार, शहरीकरण, रोजगार, आधुनिकता, बदलता साहित्य, सिनेमा ने भी उस पिता के आचरण में एक बदलाव लाया। वर्तमान समय के पिता का रूप काफी बदल गया है। पिता बनना आज सिर्फ एक जैविक क्रिया न होकर एक सामाजिक क्रिया भी हो चुकी है। एकल मां की तरह अब समाज में एकल पिता का भी विचार आ चुका है। अब एकल पिता अपने बच्चों का न केवल ख्याल रखते हैं बल्कि उन्हें मां की कमी महसूस नहीं होने देते हैं। गे पिता भी अब समाज में अपनी जगह बनाने लगे हैं। ये पिता भले जैविक पिता नहीं हो सकते लेकिन भावनाओं की अभिवयक्ति में ये जैविक पिताओं से थोड़े भी उन्नीस नहीं हैं।
आधुनिक पिताओं की भूमिका में काफी बदलाव आया है, अब वे अपने बच्चों को दूध पिलाने से लेकर उसके डायपर, नैपी तक बदल रहे हैं वो भी पूरी खुशी, प्रतिष्ठा और सम्मान के साथ। कुछ तो समाज की नई बयार ने भी मदद की है जिसमें पति पत्नी दोनों कामकाजी हैं। आज बच्चे अपने पिताओं से भी बहुत दोस्ताना संबंध बनाने लगे हैं क्योकि ये आधुनिक पिता बहुत लोकतान्त्रिक एवं संवेदनात्मक व्यवहार वाले हैं। यह बच्चों पर दबाव नहीं बनाते। बच्चों का भविष्य अच्छा वही सोच सकते हैं, इस बात पर बच्चों का शोषण नहीं करते। यदि बेटियों ने भी खुद की मर्जी से विवाह, शिक्षा या व्यवसाय चुनने की बात की तो गंभीरता से विचार करते हैं न कि उनका ऑनर कीलिंग कर देते हैं। सबसे ध्यान देने की बात कि आज के कई पिता एकल बालिका शिशु के अभिभावक बनने में भी गर्व महसूस करते हैं। उन्हें वंश बनाने और बढ़ाने के लिए बालक शिशु को प्रधानता देने का कोई कारण नजर नहीं आता।
एक शिल्पकार प्रतिमा बनाने के लिए जैसे पत्थर को कहीं काटता है, कहीं छांटता है, कहीं तल को चिकना करता है, कहीं तराशता है तथा कहीं आवृत को अनावृत करता है, वैसे ही मेरे पूज्य पिताश्री रामस्वरूपजी गर्ग ने मेरे व्यक्तित्व को तराशकर उसे महनीय और सुघड़ रूप प्रदान किया। आज वे देह से विदेह होकर भी हर पल मेरे साथ प्रेरणा के रूप में, शक्ति के रूप में, संस्कार के रूप में रहते हैं। हर पिता अपने पुत्र की निषेधात्मक और दुष्प्रवृत्तियों को समाप्त करके  नया जीवन प्रदान करता है। पिता हर संतान के लिए एक प्रेरणा हैं, एक प्रकाश हैं और संवेदनाओं के पुंज हैं। मेरे लिये मेरे पिता देवतुल्य एवं गहन आध्यात्मिक-धार्मिक जीवट वाले व्यक्तित्व थे। उनकी जैसी सादगी, उनकी जैसी सरलता, उनकी जैसा समर्पण, उनकी जैसी धार्मिकता, उनकी जैसी पारिवारिक नेतृत्वशीलता और उनकी जैसी संवेदनशीलता को जीना दुर्लभ है। उन्होंने परिवार एवं समाज को समृद्धशाली और शक्तिशाली बनाने की दृष्टि से उल्लेखनीय कार्य किया। मेरे लिये तो वे आज भी दिव्य ऊर्जा के केन्द्र हैं।
पिता आंसुओं और मुस्कान का एक समुच्चय है, जो बेटे के दुख में रोता तो सुख में हंसता है। उसे आसमान छूता देख अपने को कद्दावर मानता है तो राह भटकते देख अपनी किस्मत की बुरी लकीरों को कोसता है। पिता गंगोत्री की वह बूंद है जो गंगा सागर तक एक-एक तट, एक-एक घाट को पवित्र करने के लिए धोता रहता है। पिता वह आग है जो घड़े को पकाता है, लेकिन जलाता नहीं जरा भी। वह ऐसी चिंगारी है जो जरूरत के वक्त बेटे को शोले में तब्दील करता है। वह ऐसा सूरज है, जो सुबह पक्षियों के कलरव के साथ धरती पर हलचल शुरू करता है, दोपहर में तपता है और शाम को धीरे से चांद को लिए रास्ता छोड़ देता है। पिता वह पूनम का चांद है जो बच्चे के बचपने में रहता है, तो धीरे-धीरे घटता हुआ क्रमशः अमावस का हो जाता है। पिता समंदर के जैसा भी है, जिसकी सतह पर असंख्य लहरें खेलती हैं, तो जिसकी गहराई में खामोशी ही खामोशी है। वह चखने में भले खारा लगे, लेकिन जब बारिश बन खेतों में आता है तो मीठे से मीठा हो जाता है ।
‘पिता!’ का स्नेह और अपनापन के तेज और स्पर्श को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। वह विलक्षण, साहस और संस्कारदाता होता है। जो समस्त परिवार को आदर्श संस्कार ही नहीं देता, बल्कि जीवन निर्वाह के साधन उपलब्ध कराता है। उनके दिए गए संस्कार ही संतान की मूल थाती होती है। इसीलिये पिता के चरणों में भी स्वर्ग एवं सर्व कहा गया है। क्योंकि वे हर क्षण परिवार एवं संतान के लिए छाया की भांति एक बड़ा सहारा बनते हैं और उनका रक्षा कवच परिवारजनों के जीवन को अनेक संकटों से बचाता है। आज हमें ऐसे पिताओं की जरूरत नहीं जो वर्चस्व स्थापित करके पत्नी एवं बच्चों पर आधिपत्य जमाते हैं बल्कि ऐसे पिताओं की आवश्यकता है जो उनके विचारों और इच्छाओं को न केवल प्रमुखता देते हैं बल्कि उनके सपनों को उड़ान भरने की ताकत भी देते हैं। जीवन में जब भी निर्माण की आवाज उठेगी, पौरुष की मशाल जगेगी, सत्य की आंख खुलेगी तब हम, हमारा वो सब कुछ जिससे हम जुड़े होंगे, वो सब पिता का कीमती तौहफा होगा, इस अहसास को जीवंत करके ही हमें पिता-दिवस को मनाने की सार्थकता पा सकेंगे।

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