विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस प्रति वर्ष पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने एवं लोगों को जागरूक करने के सन्दर्भ में सकारात्मक कदम उठाने के लिए २६ नवम्बर को मनाया जाता है। यह दिवस संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के द्वारा आयोजित किया जाता है। पिछले करीब तीन दशकों से ऐसा महसूस किया जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या पर्यावरण से जुडी हुई है। इसके संतुलन एवं संरक्षण के सन्दर्भ में पूरा विश्व चिन्तित है।
पर्यावरण चिन्ता की घनघोर निराशाओं के बीच एक बड़ा प्रश्न है कि कहां खो गया वह आदमी जो स्वयं को कटवाकर भी वृक्षों को काटने से रोकता था? गोचरभूमि का एक टुकड़ा भी किसी को हथियाने नहीं देता था। जिसके लिये जल की एक बूंद भी जीवन जितनी कीमती थी। कत्लखानों में कटती गायों की निरीह आहें जिसे बेचैन कर देती थी। जो वन्य पशु-पक्षियों को खदेड़कर अपनी बस्तियां बनाने का बौना स्वार्थ नहीं पालता था। अपने प्रति आदमी की असावधानी, उपेक्षा, संवेदनहीनता और स्वार्थी चेतना को देखकर प्रकृति ने उसके द्वारा किये गये शोषण के विरुद्ध विद्रोह किया है, तभी बार-बार भूकम्प, चक्रावत, बाढ़, सुखा, अकाल जैसे हालात देखने को मिल रहे हैं। आज पृथ्वी विनाशकारी हासिए पर खड़ी है। सचमुच आदमी को जागना होगा। जागकर फिर एक बार अपने भीतर उस खोए हुए आदमी को ढूंढना है जो सच में खोया नहीं है, अपने लक्ष्य से सिर्फ भटक गया है। यह भटकाव पर्यावरण के लिये गंभीर खतरे का कारण बना है।
मानवीय क्रियाकलापों की वजह से पृथ्वी पर बहुत सारे प्राकृतिक संसाधनों का विनाश हुआ है। इसी सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए बहुत सारी सरकारों एवं देशांे नें इनकी रक्षा एवं उचित दोहन के सन्दर्भ में अनेकों समझौते संपन्न किये हैं। इस तरह के समझौते यूरोप, अमेरिका और अफ्रीका के देशों में 1910 के दशक से शुरू हुए हैं। इसी तरह के अनेकों समझौते जैसे- क्योटो प्रोटोकाल,मांट्रियल प्रोटोकाल और रिओ सम्मलेन बहुराष्ट्रीय समझौतों की श्रेणी में आते हैं। वर्तमान में यूरोपीय देशों जैसे जर्मनी में पर्यावरण मुद्दों के सन्दर्भ में नए-नए मानक अपनाए जा रहे हैं जैसे- पारिस्थितिक कर और पर्यावरण की रक्षा के लिए बहुत सारे कार्यकारी कदम एवं उनके विनाश की गतियों को कम करने से जुड़े मानक आदि। लेकिन इन सबके बावजूद पर्यावरण विनाश की स्थितियां विकराल रूप से बढ़ रही है। निरंतर बढ़ रही जनसंख्या के कारण नई कृषि तकनीक, औद्योगिकरण और नगरीयकरण के कारण लोगों के जीवन स्तर में काफी परिर्वतन हो रहें हैं। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिकाधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहा हैं।
मनुष्य प्रकृति के साथ अनेक वर्षाें से छेड़छाड़ कर रहा हैं, जिससे पर्यावरण को काफी नुकसान हो रहा हैं। इसे देखने के लिए हमें ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। धरती पर बढ़ रही बंजर भूमि, फैलते रेगिस्तान, जंगलों का विनाश, लुप्त होते पेड़-पौधे और जीव जंतु, दूषित होता पानी, शहरों में प्रदूषित हवा और हर साल बढ़ते बाढ़ एवं सूखा, ग्लोबल वार्मिंग, वैश्विक तापमान वृद्धि, ग्लेशियर पिघलना, ओजोन का क्षतिग्रस्त होना आदि इस बात का सबूत हैं कि, हम धरती और पर्यावरण की सही तरीकें से देखभाल नहीं कर रहें।
आज पुरे भारत वर्ष में पर्यावरण के सम्मुख गंभीर स्थितियां बनी हुई है। प्लास्टिक का उपयोग बहुत ज्यादा बढ़ रहा है। प्लास्टिक के उपयोग से पर्यावरण को बहुत अधिक नुकसान हो रहा हैं, क्योंकि प्लास्टिक न तो नष्ट होती है और न ही सड़ती है। एक शोध के मुताबिक प्लास्टिक 500 से 700 सालों के बाद नष्ट होना प्रारम्भ होता है। प्लास्टिक को पूरी तरह से नष्ट होने में 1000 साल लग जाते हैं। इसका अर्थ ये हैं कि, अभी तक जितना भी प्लास्टिक बना वो आज तक नष्ट नहीं हुआ है।
मनुष्य जब प्रकृति का स्वामी बन जाता है तो वह उसके साथ कसाई जैसा व्यवहार करने लग जाता है। पश्चिम की सभ्यता की उपलब्धियां और उसके आधार पर दुनिया पर उसका आर्थिक साम्राज्य उन देशों के लिए भी अनुकरणीय बन गया जिनकी लूट-खसोट से वे वैभवशाली बने। प्रकृति के भण्डार सीमित हैं और यदि उनका दोहन पुनर्जनन की क्षमता से अधिकमात्रा में किया जाए तो ये भण्डार खाली हो जाएंगे। जल, जंगल और जमीन का एक-दूसरे के घनिष्ट संबंध है। भोगवादी सभ्यता जंगलों को उद्योग व निर्माण सामग्री का भण्डार मानती है। वास्तव में वन तो जिंदा प्राणियों का एक समुदाय है जिसमें पेड़, पौधे, लताएं, कन्द-मूल, पशु-पक्षी और कई जीवधारी शामिल हैं। इनका अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर है। औद्योगिक सभ्यता ने इस समुदाय को नष्ट कर दिया, वन लुप्त हो गए। इसका प्रभाव जल स्त्रोतों पर पड़ा। वन वर्षा की बूंदों की मार अपने हरित कवच के ऊपर झेलकर एक ओर तो मिट्टी का कटाव रोकते हैं और उसका संरक्षण करते हैं। पत्तियों को सड़ाकर नई मिट्टी का निर्माण करते हैं और दूसरी ओर स्पंज की तरह पानी को चूसकर जड़ों में पहुंचाते हैं, वहीं पानी का शुद्धिकरण और संचय करते हैं, फिर धीरे-धीरे इस पानी को छोड़कर नदियों के प्रवाह को सुस्थिर रखते हैं। इसीलिए मुहावरा बना है कि ‘जंगल नदियों की मां है।’
हमारे शास्त्रों में ‘संतोषं परमं सुखं’ का मुहावरा आया है। इसलिए विकास की परिभाषा यह है कि विकास वह स्थिति है, जिसमें व्यक्ति और समाज स्थायी सुख, शांति और संतोष का उपयोग करते हैं। वहां प्राकृतिक संसाधनों को क्षरण नहीं होता बल्कि उनकी वृद्धि होती रहती है। दूसरा, जिससे एक व्यक्ति या समूह का लाभ होता है, उसे दूसरों की क्षति न हो, विकास के कारण समाज में असंतुलन पैदा नहीं होना चाहिएा। असंतुलन असंतोष की जननी है। इन स्थितियों में आज की भोगवादी सभ्यता को प्राथमिकताओं-बाहुल्य के स्थान पर सादगी और संयम को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। सौभाग्य से भारतीय संस्कृति में सादगी और संयम का पालन करने वाले ही समाज में पूज्य और सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते रहे हैं। महात्मा गांधी ने भारतीय संस्कृति के इस संदर्भ को स्वयं अपने आचरण द्वारा पुनः जीवित कर सारी दुनिया को राह बता दी। उन्होंने कहा-‘प्रकृति के पास हर एक की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त है लेकिन किसी एक के भी लोभ लालच को संतुष्ट करने के लिए कुछ नहीं हैं।’ निश्चित रूप से कई वस्तुएं ऐसी होगी जिनके बिना हमारा काम नहीं चल सकता इसके विकल्प ढूंढने होंगे।
इधर भारत सरकार का नारा है ‘सबका साथ, सबका विकास’, यह नारा जितना लुभावना है उतना ही भ्रामक एवं विडम्बनापूर्ण भी है। यह सही है कि आम आदमी की जरूरतें चरम अवस्था में पहुंच चुकी हैं। हम उन जरूरतों को पूरा करने के लिए विकास की कीमत पर्यावरण के विनाश से चुकाने जा रहे हैं। पर्यावरण का बढ़ता संकट कितना गंभीर हो सकता है, इसको नजरअंदाज करते हुए सरकार राजनीतिक लाभ के लिये कोरे विकास की बात कर रही है, जिसमें विनाश की आशंकाएं ज्यादा हंै। विकास और पर्यावरण साथ-साथ चलने चाहिएं लेकिन यह चल ही नहीं रहे हैं, इसमें सरकारों के नकारापन के ही संकेत दिखाई देते हैं।
जिस तरीके से देश को विकास की ऊंचाई पर खड़ा करने की बात कही जा रही है और इसके लिए औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, उससे तो लगता है कि प्रकृति, प्राकृतिक संसाधनों एवं विविधतापूर्ण जीवन का अक्षयकोष कहलाने वाला देश भविष्य में राख का कटोरा बन जाएगा। हरियाली उजड़ती जा रही है और पहाड़ नग्न हो चुके हैं। नदियों का जल सूख रहा है, कृषि भूमि लोहे एवं सीमेन्ट, कंकरीट का जंगल बनता जा रहा है। महानगरों के इर्द-गिर्द बहुमंजिले इमारतों एवं शॉपिंग मॉल के अम्बार लग रहे हैं। उद्योगों को जमीन देने से कृषि भूमि लगातार घटती जा रही है। नये-नये उद्योगों की स्थापना से नदियों का जल दूषित हो रहा है, निर्धारित सीमा-रेखाओं का अतिक्रमण धरती पर जीवन के लिये घातक साबित हो रहा है। महानगरों का हश्र आप देख चुके हैं। अगर अनियोजित विकास ऐसे ही होता रहा तो दिल्ली, मुम्बई, कोलकता में सांस लेना जटिल हो जायेगा।
इस देश में विकास के नाम पर वनवासियों, आदिवासियों के हितों की बलि देकर व्यावसायिक हितों को बढ़ावा दिया गया। खनन के नाम पर जगह-जगह आदिवासियों से जल, जंगल और जमीन को छीना गया। कौन नहीं जानता कि ओडिशा का नियमागिरी पर्वत उजाड़ने का प्रयास किया गया। आदिवासियों के प्रति सरकार तथा मुख्यधारा के समाज के लोगों का नजरिया कभी संतोषजनक नहीं रहा। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी अक्सर आदिवासी उत्थान और उन्नयन की चर्चाएं करते हैं और वे इस समुदाय के विकास के लिए तत्पर भी हैं। क्योंकि वे समझते हैं कि आदिवासियों का हित केवल आदिवासी समुदाय का हित नहीं है प्रत्युतः सम्पूर्ण देश, पर्यावरण व समाज के कल्याण का मुद्दा है जिस पर व्यवस्था से जुड़े तथा स्वतन्त्र नागरिकों को बहुत गम्भीरता से सोचना चाहिए।
विकास के लिये पर्यावरण की उपेक्षा गंभीर स्थिति है। सरकार की नीतियां एवं मनुष्य की वर्तमान जीवन-पद्धति के अनेक तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल रहे हैं कि वहां जीवन का अस्तित्व ही कठिन हो जायेगा। प्रकृति एवं पर्यावरण की तबाही को रोकने के लिये बुनियादी बदलाव जरूरी है और वह बदलाव सरकार की नीतियों के साथ जीवनशैली में भी आना जरूरी है।
(ललित गर्ग)