जखोल साकरी बांध, सुपिन नदी, जिला उत्तरकाशी, उत्तराखंड की 1 मार्च, 2019 को दूसरी पर्यावरणीय जनसुनवाई की घोषणा हुई है। इस बार जनसुनवाई का स्थल परियोजना स्थल क्षेत्र से 40 किलोमीटर दूर है। यह मोरी ब्लॉक में रखी गई ताकि वह जन विरोध से बच जाए। सरकार ने प्रभावितों को उनकी भाषा में आज तक भी जानकारी नहीं दी जो कि वे आसानी से कर सकते थे।
दरअसल 12 जून 2018 को जनता द्वारा सही मुद्दों को लेकर और प्रशासन की सही समझ के कारण जखोल साकरी बांध परियोजना की पर्यावरणीय जनसुनवाई रद्द हुई। ये मामला सिर्फ और सिर्फ लोगो को उनके क्षेत्र में विकास के नाम पर परिवर्तनों की जानकारी सही व पूरी जानकारी मिलना और उनकी सहमति होने का है।
1 मार्च की जनसुनवाई पर्यावरण आकलन अधिसूचना 14 सितंबर 2006 के नियम विरुद्ध है जो यह कहता है कि जनसुनवाई प्रभावित क्षेत्र में ही होनी चाहिए प्रभावित क्षेत्र में धारा, जिस गांव की नीचे सुरंग जाने वाली है वह जखोल गांव, सुनकुंडी आदि में आज की तारीख में बर्फ है।
हमने सरकार से मांग क़ी है कि:-
1- ईआईए अधिसूचना 14 सितंबर 2006 के मानकों का उल्लंघन देखते हुए।
2- जनसुनवाई स्थल 40 किलोमीटर दूर रखने के कारण।
3- मौसम अनुकूल ना होने के कारण।
1 मार्च की जनसुनवाई तुरंत स्थगित की जाए। हमारी पहले से की जा रही मांगे:-
1- ईआईए, एमपी, एसआई हिंदी में अनुवादित करके, लोगों को उनकी भाषा में स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा समझाए जाएं।
2- इस पूरी प्रक्रिया के बाद जनसुनवाई का आयोजन प्रभावित गांवों में हो, जहां अन्य गांवों से लोगों को लाने की व्यवस्था की जाए।
बिना पर्यावरणीय जनसुनवाई के पर्यावरण स्वीकृति नहीं मिल सकती है। इसलिए सरकार किसी भी तरह से जनसुनवाई की कागजी प्रक्रिया पूरी करना चाहती है।
वन अधिकार कानून 2006 की वन अनापत्ति भी प्रभावित गांवो से धोखे से ली गई है । सामाजिक समाघात आकलन रिपोर्ट की जनसुनवाई 28 नवंबर को प्रभावित क्षेत्र से दूर मोरी ब्लॉक में रखा गई । भारी संख्या में पुलिस बल लगाया गया।
जबकि ना तो गांव की कोई समिति बनी, ना गांव के लोगों को परियोजना के बारे में समझाने के लिए कोई बैठक हुई। जो की कानूनी रूप से होना चाहिए था।
लोगों की गैर जानकारी का फायदा उठाकर बांध कंपनी ने पर्यावरणीय जनसुनवाई के अलावा बाकी की वन स्वीकृति और जमीन के मसले को हल करने की कोशिश की है।
सामाजिक समाघात आकलन रिपोर्ट की जनसुनवाई भी सिर्फ एक भ्रम था। वरना कंपनी की पुनर्वास नीति पहले से लगभग तय है। मात्र जमीन का रेट तय करने की बात होगी।
जब लोगों को बांध की जानकारी ही नहीं दी, जब लोगों के वन अधिकार कानून 2006 के अंतर्गत अधिकार ही सुरक्षित नहीं किए गए, जब गोविंद पशु विहार का मुद्दा ही अभी तय नहीं हुआ तो फिर कैसी जनसुनवाई ? कंपनी, प्रशासन व पुलिस के बल पर लोगो से यह झूठी स्वीकृति या झूठी अनापत्ति ली गई हैं।
प्रशासन ने इसको शायद अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया है। प्रशासन ने यहां के पर्यावरण और लोगों के अधिकारों को पूरी तरह उपेक्षित किया है। क्योंकि प्रशासन को लगता है कि लोग कहां तक लड़ेंगे? आखिर उनके और भी मसले प्रशासन के पास होते हैं। ग्राम प्रधान भी एक सीमा से आगे नहीं बोल सकते क्योंकि उन पर भी प्रशासन का दवाब होता है। इन सबके बीच क्षेत्रीय पर्यावरण और जनक दोनों ही नकारे जा रहे हैं।
जखोल गांव के 19 लोगों पर झूठे मुकदमे लगाए गए, ताकि जखोल के लोगों को दबाया जा सके। जो लोग मौजूद नहीं थे उन तक पर भी ये झूठा मुकदमा लगाया गया है। आज जखोल फिर कल और गांव भी होंगे। जो जानकारी मांगेगा उसका यही हाल होगा। माटू जन संगठन लगातार यही बात सरकार से उठाता रहा है। जब यह तर्क दिया जाता है कि बांध लोगों के लिए व प्रदेश के विकास के लिए है तो फिर लोगों और पर्यावरण के हित के नियम कानूनों का उल्लंघन खुद सरकार ही क्यों करती है? सरकार-शासन-प्रशासन लोगों के साथ है या बांध कंपनी के साथ ?
बांध परियोजना की जानकारी लोगो की भाषा मे बिना दिए, प्रतिकूल मौसम में प्रभावित क्षेत्र से दूर पर्यावरणीय जनसुनवाई फिर एक धोखा होगी।
प्रहलाद पवार, रामवीर राणा, केसर सिंह, राजपाल सिंह, विमल भाई