बहुजन समाजवादी पार्टी की एकमात्र नेत्री मायावती ने प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब देखने भी शुरू कर दिए हैं। देखा जाए तो कोई दिन में सपने देखकर खुश होना चाहे तो इसमें कोई बुराई भी नहीं है। वैसे उन्हें ख्वाबों और हकीकत का अंतर तो मालूम ही होगा। विगत दिनों उत्तर प्रदेश में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए बहन जी ने कहा कि देश का अगला प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश से ही होगा। ये जरूरी नहीं है कि मोदी जी वाराणसी से चुनाव जीते। वो एक तरह से साफ संकेत दे रही थीं कि वो स्वयं प्रधानमंत्री बन सकती हैं। मायावती राजनीति की भले ही पुरानी खिलाड़ी हों पर उन्हें यह तो समझना ही चाहिए कि उनके लिए अभी दिल्ली दूर है। उनका प्रधानमंत्री पद को हासिल करना असंभव सा है। दलितों को ही ठगने और छलने वाली नेत्री दलित नेत्री अपने को प्रचारित करके कभी देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सकतीं।
बहन मायावती जी की एक बड़ी कमी यह है कि वह अपने दल में कभी नया नेतृत्व नहीं उभारतीं। दबे-कुचले समाज के लोगों को राजनीतिक भागीदारी जरूरी है, पर उससे भी ज्यादा जरूरी है उनमें योग्य नयी नेतृत्व पैदा करना, जो वह कभी नहीं करतीं। उन्होंने वर्गीय बहुजन राजनीति का मॉडल खड़ा नहीं किया और देश के प्रखर बहुजन बुद्धिजीवियों और आन्दोलन से जुड़े लोगों से संवाद कायम करके उनको अपने साथ भी नहीं लिया। उन्हें बुद्धजीवियों से सख्त परहेज है।
मायावती कम से कम इतना तो बता दें कि उन्होंने उत्तर प्रदेश के दलितों को आरक्षण का मोहताज क्यों बना दिया? उन्होंने दलित नवजवानों के स्वरोजगार के लिए क्या कभी ठोस पहल की? और, उनसे ये भी पूछा जाएगा कि उन्होंने पसमांदा मुसलमानों को सदैव अंधेरे में क्यों रखा?
यह सच है कि अब हजारों पढ़े-लिखे महत्वाकांक्षी दलित नौजवान सरकार से नौकरी की भीख नहीं मांग रहे। वे अपने लिए भी अब बिजनेस की दुनिया में नई इबारत लिखने के ख्वाब देखने और उन्हें साकार करने में जुटे हुए हैं। पर उत्तर प्रदेश के दलितों को बहन जी ने हमेशा छला । मायावती की नजरें हमेशा दलितों के वोट बैंक पर रही। उन्होंने कभी उनके जीवन के स्तर में बदलाव के संबंध में सोचा तक नहीं।
उत्तर प्रदेश के विपरीत महाराष्ट्र दलित तेजी से बदलता जा रहा है। वहां पर हजारों दलित नौजवान अब कारोबारी बन रहे हैं। वे नौकरी के लिए मारामारी नहीं कर रहे। उधर दलितों को कारोबार की दुनिया में सफलता भी मिल रही है। महाराष्ट्र में दलितों ने अपना एक मजबूत संगठन भी बना लिया है। नाम रखा है ”दलित इंडियन चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री” (डिक्की)। महाराष्ट्र के दलित नौजवानों को डिक्की के जरिये पूंजी और तकनीकी सहायता तक मुहैया कराई जा रही है। प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने वाली मायावती जी यह तो बता दें कि कभी उन्होंने उत्तर प्रदेश के मेहनती और ईमानदार दलितों के हक में कोई इस तरह की पहल क्यों नहीं की ताकि वे अपना बिजनेस शुरू कर पाते। वो उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रहीं पर उनका सारा ध्यान तो अपनी मूर्तियों को स्थापित करने में ही लगा रहा।
मायावती को बताना होगा कि उन्होंने उत्तर प्रदेश के दलितों को स्वावलंबी बनाने की दिशा में कब और कौन सी पहल की?मायावती समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव के साथ मिलकर मुसलमानों के वोट मांग रही है। वो दावा कर रही हैं कि मुसलमानों के वोट तो उन्हें ही मिलेंगे। हालांकि उनके दावे का आधार क्या है यह तो कोई नहीं बता सकता। मायावती कभी मुसलमानों के साथ खड़ी भी नहीं हुईं। विगत फरवरी, 2017 में उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव में मायावती ने मुसलामानों के वोट प्राप्त करने के लिए उन्हें 97 टिकट दिए थे। उन्होंने तबीयत से दलित-मुस्लिम कार्ड खेला था। यह देखना ज़रूरी है कि मायावती ने अपने चार बार के मुख्य मंत्री काल में मुसलमानों का कितना कल्याण किया। यह भी बताना जरूरी है कि मायावती ने तीन बार भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन करके उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई। उन्होंनें2002 में गुजरात जाकर नरेन्द्र मोदी के पक्ष में चुनाव प्रचार भी किया था। उत्तर प्रदेश के दलित चिंतक और पूर्व आईपीएस अफसर जी.एस.दारापुरी तो दावा करते हैं कि मायावती के 2007 वाले मुख्यमंत्री काल में अनेकों निर्दोष मुसलमानों को बम विस्फोटों के मामलों में गलत ढंग से फंसाया गया था। अब मायावती जी जरा यह भी बता दें कि उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए पसमांदा मुसलमानों के लिए कौन सी बड़ी योजना को लागू की? मुसलमानों की आबादी के ८७% पसमांदा मुसलमानों की स्थिति तो जस की तस ही रही। कहने को तो इस्लाम में जाति व्यवस्था नहीं है। लेकिन, पसमांदा मुसलमानों की स्थिति दलित और पिछड़ी- जातियों के हिन्दुओं से कहीं बदतर है।
हां, यह अवश्य है कि अपने को गरीब दलितों को रहनुमा बताने वाली मायावती का अपना और उनके भाई-बंधुओं का जीवन सफल हो चुका है। उनकी कुल सम्पत्ति 2012 के राज्यसभा चुनावों के लिए नामांकन भरते हुए 111.64 करोड़ रुपये हो गई थी। यह अब और बढ़ गई होगी। मायावती क्यों कभी विस्तार से नहीं बताती कि उनकी चल-अचल संपति में इतनी तेजी से इजाफा कैसे हो रहा है? वे कौन सा कारोबार कर रही हैं? उनके भाई की संपत्ति तो पूछिए ही मत? सैकड़ों करोड़ तो उन्होंने नोटबंदी के बाद जमा कराये जिसकी जाँच चल रही है।
मायावती पहले की तरह इस बार भी अपनी चुनावी सभाओं में जनहित के किसी मुद्दे पर फोकस नहीं कर रहीं। वो आज भी लिखा हुआ भाषण ही पढ़ती हैं। जनता से सीधे संवाद करने का जो जरूरी गुण एक नेता में होना चाहिए, वो उनमें तो कभी रहा ही नहीं। हारने के बाद भी उन्होंने अपनी कमियां नहीं देखीं, बल्कि अपनी हार का ठीकरा वोटिंग मशीन पर फोड़ दिया। यकीन मानिए कि इस बार भी वो 23 मई को अपनी पार्टी के जनता द्वारा खारिज किए जाने के बाद हार के लिए ईवीएम मशीन को ही दोष देंगी। अपनी नाकामी का ठीकरा दूसरों पर फोड़ना आसान है, पर अपनी कमियों को पहचानना तो उतना ही मुश्किल है । यह बात समझ से परे है कि उन्हें दलितों का नायक क्यों माना जाता है। केवल बहुजन नाम रख देने से बहुजन राजनीति नहीं हो जाती। उनके गुरु कांशीराम ने बहुजन के नाम पर जाति की राजनीति का मॉडल खड़ा किया। कांशीराम भी बाबा साहेब की उस चेतावनी को भूल गए कि जाति के आधार पर कोई भी निर्माण ज्यादा दिनों तक टिका नहीं रह सकता। बसपा की राजनीति कभी भी बहुजन की राजनीति नहीं रही। बहुजन की राजनीति के केन्द्र में शोषित समाज होता है, उसकी सामाजिक और आर्थिक नीतियां समाजवादी होती हैं, पर, मायावती ने मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए सार्वजानिक क्षेत्र की इकाइयों को बेचा और निजी इकाइयों को प्रोत्साहित किया। गरीबों की असली चिंता तो 2014 के बाद मोदी जी ने किया।उनकी सारी कल्याणकारी योजनायें गरीबों को फोकस करते हुए ही लागू हुईं।तो दलितों का नेता मोदी जी को क्यों न मान लिया जाये।
बहरहाल, मायावती को मुगालते में रहने से कोई नहीं रोक सकता। वो ख्वाब देखने के लिए स्वतंत्र हैं। पर क्या कभी उन्हें अपराधबोध नहीं कचोटता है कि उन्होंने बहुजन समाज को कितना धोखा दिया है?
आर. के. सिन्हा
(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)