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बीमारियों के बोझ से उबरता भारत

 

विविधताओं से भरे देश हिन्दुस्तान के लिए अपने नागरिकों को वैश्विक स्वास्थ्य मानकों के अनुरूप स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना एक बड़ी चुनौती है। आजादी से लेकर अभी तक भारत ने इन चुनौतियों को स्वीकार करते हुए अपने नागरिकों की सेहत को बेहतर रखने एवं करने की हर संभव कोशिश की है। पिछले 20 वर्षों की बात की जाए तो भारत सरकार ने 1999 में राष्ट्रीय एड्स कार्यक्रम, 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, 2008 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना, 2010 में कैंसर, मधुमेह, कार्डियोवास्कुलर बीमारियां एवं स्ट्रोक को रोकने के लिए राष्ट्रीय पहल, 2011 में जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम, 2014 में राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन, स्वच्छ भारत अभियान, 2017 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति एवं 2018 में आयुष्मान भारत जैसे तमाम पहल किए हैं। इन प्रयासों का परिणाम यह रहा है कि भारत ने तमाम तरह के स्वास्थ्य संकेतकों में प्रभावी तरीके से प्रगति की है। जीवन प्रत्याशा दर में ईजाफा हुआ है, शिशु मृत्यु दर एवं मातृ मृत्यु दर में कमी आई है। चेचक, पोलियो, गुनिया कृमि (पेट में पाए जाने वाले कीड़े) एवं कुष्ठ रोग पूरी तरह खत्म होने की कगार पर है। बावजूद इसके वर्तमान समय में बीमारियों के भार के मामले में दुनिया में भारत का हिस्सा कम नहीं है। गैर-संक्रामक बीमारियों का बोझ संक्रामक बीमारियों से कहीं ज्यादा है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आइसीएमआर) की एक हालिया रपट में कहा गया है कि संक्रामक, मातृ, नवजात और पोषण संबंधी बीमारियों  में 1990 की तुलना में 2016  में 28 फीसद की गिरावट आई है। 1990 में 61 फीसद हिस्सा संक्रामक बीमारियों का था जो अब 33 फीसद रह गया है। वहीं दूसरी तरफ गैर-संक्रामक बीमारियों का बोझ बढ़ गया है। इसी अवधि में 30 फीसद से बढ़कर यह 55 फीसद तक आ गया है।

संक्रामक बीमारियों का भार

मलेरिया से भारत के लोग सदियों से जुझते आ रहे हैं। विभिन्न परिस्थितियों के हिसाब से देखा जाए तो मलेरिया के कई प्रकार हैं, जैसे- ग्रामीण मलेरिया, वन मलेरिया, शहरी मलेरिया, औद्योगिक मलेरिया, और प्रवासी मलेरिया। आंकड़ों की बात की जाए तो 2017 में ओडिशा में सबसे ज्यादा 3,52,140 मलेरिया के मामले दर्ज हुए। पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा 29  लोगों की जान मलेरिया ने ली। 2012-13 के मुकाबले 2014 में इसके मामलों में वृद्धि दर्ज की गई है हालांकि 2015 से इन मामलों में कमी आनी शुरू हो चुकी है। मलेरिया के बाद कालाजार ने भी भारतीयों को बहुत परेशान किया है। कालाजार के ज्यादातर मामले बिहार से हैं। 2017 में रिपोर्ट किए गए कुल मामलों में सिर्फ बिहार में 72 फीसद मामले पाए गए हैं। वहीं एडिज मच्छरों द्वारा प्रसारित डेंगू एवं चिकनगुनिया  भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए बड़ी चिंता के सबब बनते जा रहे हैं। हर साल हजारों लोग इन बीमारियों से प्रभावित हो रहे हैं। हालांकि डेंगू 1950 के दशक से ही भारत में विद्यमान है लेकिन इधर दो दशकों से इसकी गंभीरता में वृद्धि हुई है। स्वाइन लू के मामलों की सं या में काफी कमी आई है। 2017 में 38811 स्वाइन लू के मामले दर्ज हुए वहीं चिकनगुनिया के 63,679 मामले दर्ज हुए हैं। 2017 में चिकन पॉक्स के कुल 74,035 मामले दर्ज हुए और इस बीमारी के कारण 92 लोगों ने अपनी जान गवाई। केरल में चिकनपॉक्स के सबसे ज्यादा 30941 मामले दर्ज हुए वहीं पश्चिम बंगाल में इस बीमारी ने सबसे ज्यादा 53 लोगों की जान ली। इसी दौरान इंसेफलाइटिस के कुल 12,485 मामले सामने आए और 626 जानें गई। असम में सबसे ज्यादा 5,525 मामले सामने आए जबकि ओडिसा में सबसे ज्यादा 246 लोगों की मौत का कारण यह इंसेफलाइटिस बना। 2017 में ही मेंजाइटिस वायरल के 7,559 मामले सामने आए एवं 121 जानें गईं। आन्ध्र प्रदेश में सबसे ज्यादा 1493 मामले सामने आए और सबसे ज्यादा मौतें भी यहीं हुईं। ट्यूबरोक्लोसिस या टीबी की बात की जाए तो 2017 में आरएनटीसीपी के तहत 14,44,175 रोगी पंजीकृत हुए थे। भारत के लिहाज से यह बहुत बड़ी संक्रामक बीमारी है। सरकार का लक्ष्य है कि इसे 2030 तक भारत से पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए।

गैर-संक्रामक बीमारियों का भार

आजादी के 70 वर्षों के दौरान भारत ने अपनी आबादी की स्वास्थ्य स्थिति में उल्लेखनीय प्रगति देखी है। हालांकि, पिछले कुछ दशकों में  देश में बड़े बदलाव हुए हैं। इन बदलावों का देश के स्वास्थ्य पर विशेष प्रभाव पड़ा है। आर्थिक विकास, पोषण की स्थिति, प्रजनन क्षमता और मृत्यु दर में परिवर्तन दिख रहा है और इसके परिणाम स्वरूप, रोग प्रोफाइल में काफी बदलाव आया है। हालांकि संक्रमणीय बीमारियों को नियंत्रित करने में हम बहुत हद तक सफल रहे हैं फिर भी बीमारी भार के मामले में इनका योगदान कम नहीं है। संक्रमणीय बीमारियों से विकृति और मृत्यु दर में गिरावट के साथ धीरे-धीरे बदलाव आया है  और पुरानी गैर-संक्रमणीय बीमारियों (एनसीडी) जैसे कार्डियोवास्कुलर बीमारी (सीवीडी), मधुमेह, पुरानी अवरोधक बीमारी (सीओपीडी) के प्रसार में तीव्र वृद्धि हुई है।  कैंसर, मानसिक स्वास्थ्य विकार और चोट के कारण पनपी बीमारियों की सं या में भी ईजाफा हुआ है।

एनपीसीडीसीएस को मिले साक्ष्यों के अनुसार 3,57,23,660 लोग क्रोनिक नॉन क यूनिकेबल डिजीज क्लिनिक (एनसीडी क्लिनिक) में ईलाज के लिए गए। इन लोगों में 8.41 फीसद मधुमेह, 10.22 फीसद उच्च रक्तचाप, 0.37 फीसद कार्डियोवास्कुलर बीमारी, 0.13 फीसद स्ट्रोक एवं 0.11 फीसद कॉमन कैंसर के मरीज पाए गए। 30-45 आयु वर्ग के लोगों में आत्महत्या करने की दर बढ़ रही है। इस आयु वर्ग में 44,593 मामले सामने आए हैं। वहीं 2011 के जनसं या के आधार पर भारत में दिवयांगजनों की सं या 2,68,14,994 है। 2017 में दर्ज हुए शर्प दंश के कुल मामलों की सं या 1,42,366 है। 948 लोगों को शर्पदंश से अपनी जान गंवानी पड़ी। इस तरह देखा जाए तो गैर-संचारी रोगों का भार बढ़ता ही जा रहा है। इसे रोकने के लिए कारगर कदम उठाने की जरूरत है।

बीमारियों के भार को कम करने वाले प्रमुख कारक

किसी भी देश के स्वास्थ्य संरचना का मुख्य उद्देश्य यही होता है कि वह अपने नागरिकों को स्वस्थ बनाए रखने में मदद करें। बीमारियों को फैलने से रोके। बीमारियों की रोकथाम के लिए मुख्यत: चार कारकों को समझना अति आवश्यक है। स्वास्थ्य वित्त, मानव संसाधन, स्वास्थ्य ढांचा एवं नागरिकों का सामाजिक आर्थिक परिवेश। इनको समझने के बाद ही हम यह कह पाएंगे कि इस दिशा में सरकार ने क्या किया है? और आगे क्या करने का लक्ष्य है?

भारत में स्वास्थ्य वित्त की स्थिति

भारत में उपचार की लागत बढ़ रही है और इससे स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं तक पहुंच में असमानता आई है। भारत स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय के रूप में अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.02 प्रतिशत खर्च करता है। हालांकि 2015-16 के आंकड़ों के हिसाब से स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति सार्वजनिक व्यय 2009-10 के 621 रुपये से बढ़कर 1112 रुपये हो गया है। 2015-16 में स्वास्थ्य पर कुल सार्वजनिक व्यय में केन्द्र एवं राज्य की हिस्सेदारी 31:69 थी। भारत में स्वास्थ्य बीमा की जरूरत बढ़ती जा रही है। एनएचपी प्रोफाइल 2018 में दर्ज आंकड़ों के अनुसार बीमा के तहत कवर 4,37,457 व्यक्तियों में से 79 प्रतिशत सार्वजनिक बीमा कंपनियों द्वारा कवर किए गए थे जबकि शेष निजी बीमा कंपनियों द्वारा कवर किया गया था। स्वास्थ्य वित्त के हिसाब से देखा जाए तो अभी इस क्षेत्र में और व्यय का मद बढ़ाए जाने की जरूरत है। हालांकि 2025 तक जीडीपी का 2.5 फीसद खर्च करने की तैयारी में सरकार है।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में मानव संसाधन

स्वास्थ्य सेवाओं के लिए मानव संसाधन को किसी भी देश के स्वास्थ्य प्रणाली का दिल के रूप में वर्णित किया गया है।  स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रहे पेशेवरों की सं या देने के लिए भारत में कोई भरोसेमंद स्रोत विकसित नहीं हो पाया है क्योंकि स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों में से आधे से अधिक असंगठित निजी क्षेत्र में काम करते हैं। बावजूद इसके नेशनल हेल्थ प्रोफाइल-2018 में सार्वजनिक क्षेत्र में विस्तृत स्वास्थ्य मानव संसाधन की उपलब्धता को दर्शाया गया है। इसके अनुसार 2017 तक पंजीकृत एलोपैथिक डॉक्टरों की कुल सं या 10,41,395 है। विगत वर्षों में दांतों के सर्जन एवं नर्सों की उपलब्धता प्रति 1 लाख आबादी पर बढ़ी है। 31.12.2017 तक भारत के केंद्रीय/राज्य चिकित्सकीय परिषदों के साथ पंजीकृत चिकित्सकीय डेंटल सर्जनों की सं या 2,51,207 थी। 01.01.2017 तक के आंकड़ों के अनुसार भारत में पंजीकृत आयुष डॉक्टरों की कुल सं या 7,73,668 है। ये आंकड़े यह बताने के लिए पर्याप्त है कि इस क्षेत्र में भारत अपने मानव संसाधन को बढ़ाने के लिए कितनी तेजी से काम कर रहा है। जैसे-जैसे जरूरत के हिसाब से मानव संसाधन की आपूर्ति का अनुपात बेहतर होगा देश से रोगों के भार में तेजी से कमी आएगी।

भारत में स्वास्थ्य ढांचा की स्थिति

किसी भी देश के स्वास्थ्य की स्थिति को समझने के लिए वहां के स्वास्थ्य ढांचा को समझना जरूरी होता है। ढांचागत स्थिति से यह अनुमान लगाया जाता है कि बीमारियों के भार से उबरने के लिए कोई देश किस स्तर तक तैयार है। विगत 20 वर्षों में भारत में सेहत के क्षेत्र में ढांचागत विस्तार तेजी से हुआ है। एनएचपी-2018 के आंकड़ों के अनुसार देश में 476 मेडिकल कॉलेज हैं, बीडीएस पाठ्यक्रमों के लिए 313 कॉलेज और 249 कॉलेज एमडीएस पाठ्यक्रमों के लिए हैं। 2017-18 के दौरान 477 मेडिकल कॉलेजों में 52,646 छात्रों को प्रवेश मिला, बीडीएस में 27,060 और एमडीएस पाठ्यक्रम में 6233 छात्रों को प्रवेश दिया गया है। एनएचपी-2018 में दिए गए 31.10.2017 तक के आंकड़ों के अनुसार जेएनएम के लिए 3215 संस्थानों में 1,29,926 सीट है वहीं दूसरी ओर 777 फार्मेसी कॉलेजों में 46,795 सीट है। 710,761 बिस्तरों के साथ 23,582 सरकारी अस्पताल हैं। जिसमें 2,79,588 बिस्तरों के साथ 19,810 अस्पताल ग्रामीण भारत में हैं जबकि शहरी क्षेत्र में 4,31,173 बिस्तरों के साथ 3,772 अस्पताल काम कर रहे हैं। भारत के लगभग 70 फीसद लोग ग्रामीण भारत में निवास करते हैं। इनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए 1,56,231 उप स्वास्थ्य केन्द्र, 25,650 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र एवं 5,624 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र बनाए गए हैं। 2018-19 के बजट में सरकार ने सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को वेलनेस सेंटर में बदलना शुरू कर दिया है।

इस ढांचागत विकास को देखने के बाद यह तो कहा ही जा सकता है कि भारत स्वास्थ्य के क्षेत्र में खुद को वैश्विक मानकों पर खड़ा करने के लिए कटिबद्ध है और जल्द ही भारत अपने बीमारियों के भार को कम करने में सफल रहेगा।

सामाजिक-आर्थिक संकेतक की कसौटी पर भारत

किसी भी देश का सामाजिक-आर्थिक संकेतक उस देश के स्वास्थ्य लक्ष्यों की उपलब्धि के बीच संबंधों को पहचान करने में मदद करता है। शिक्षा, लिंग, गरीबी, आवास, सुविधाएं, रोजगार और अन्य आर्थिक संकेतकों के आधार पर यह जानने की कोशिश की जाती है कि वह देश अपने बीमारी भार को निपटने के लिए कितना तैयार है। भारत की बात की जाए तो 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की कुल साक्षरता दर 73 फीसद है। पिछले कुछ वर्षों में साक्षरता दर बढ़ी है। केरल एवं मिजोरम जैसे राज्य क्रमश: 94 फीसद और 91.3 फीसद साक्षरता दर के साथ राष्ट्रीय औसत से भी काफी ऊपर निकल चुके हैं। जबकि बिहार जैसे राज्यों में यह दर 61.8 फीसद है। महिला साक्षरता दर 64.6 फीसद चिंता का विषय है जो कि पुरुष साक्षरता दर 80.9 फीसद से काफी कम है। समग्र साक्षरता दर में सुधार करने की जरूरत इसलिए होती है क्योंकि इससे देश की आर्थिक विकास दर में वृद्धि होती है साथ ही जनसं या वृद्धि दर को नियंत्रित करने में सहयोग मिलता है। राष्ट्रीय स्तर वर्ष 2016 में महिलाओं के लिए विवाह की औसत आयु 22.2 वर्ष थी। ग्रामीण क्षेत्रों में 21.7 वर्ष तो शहरी क्षेत्रों में 23.1 वर्ष था। सामाजिक-आर्थकि संकेतक मजबूत होने का फायदा यह होता है कि व्यक्ति खुद भी अपनी बीमारी का ईलाज सही समय पर करा पाता है। ईलाज के लिए उसे आर्थिक संकट से नहीं गुजरना पड़ता है। सामाजिक परिवेश सही रहने का मतलब है यह है कि स्वास्थ्य के बचावात्मक उपायों को वो बेहतर तरीके से स्वीकार कर पाता है।

बीमारियों को उन्मूलित करने के लिए निर्धारित लक्ष्य

भारत सरकार ने भारतीयों की स्वास्थ्य को वैश्विक मानको तक ले जाने के लिए 2017 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनाई है। इस नीति के अंतर्गत उन सभी बिन्दुओं को शामिल किया गया है जिनका संबंध भारतीयों के स्वास्थ्य से है। इस नीति के अंतर्गत सरकार ने कुछ लक्ष्य तय किए हैं। उन्हें नि न बिन्दुओं से समझा जा सकता है:-

–    2025 तक जीवन प्रत्याशा दर 67.5 से बढ़ाकर 70 करना।

–    2022 तक विभिन्न बीमारियों का डाटा बेस तैयार करना।

–    2025 तक टीएफआर को 2.1 फीसद तक कम करना।

–    2025 तक 5 वर्ष से कम उम्र के मृत्यु दर को 23 तक लाना।

–    2019 तक शिशु मृत्यु दर को 28 तक लेकर आना।

–    2025 तक नव-प्रसव मृत्यु दर को एकल अंक में लाना।

–    2018 तक कुष्ठ रोग उन्मूलन।

–    2025 तक टीबी के 85 फीसद मरीजों को टीबी से मुक्ति दिलाना एवं टीबी के मामलों में कमी लाना एवं टीबी उन्मूलन की स्थिति में आना।

–    2025 तक अंधेपन को 0.25 तक लाना एवं इस बीमारी संबंधित बोझ को वर्तमान से एक तिहाई करना।

–    2025 तक कैंसर, मधुमेह, कार्डियोवास्कुलर बीमारियों से होने वाले समय पूर्व मृत्यु दर को 25 फीसद तक कम करना।

–    2025 तक सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के उपयोग को वर्तमान से 50 फीसद तक बढ़ाना।

–    2025 तक एक साल तक नवजात को टीकाकरण से सुरक्षित करना।

–    2020 तक वर्तमान तंबाकू प्रयोग को 2020 तक 15 फीसद एवं 2025 तक 30 फीसद कम करना।

–    2020 तक सभी को स्वच्छ जल एवं शौचालय उपलब्ध कराना।

–    2025 तक स्वास्थ्य पर जीडीपी का 2.5 खर्च करने का लक्ष्य है।

–     2025 तक नेशनल हेल्थ इनफॉर्मेशन नेटवर्क विकसित करना।

निष्कर्ष

2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी 17.7 फीसद की दशकीय वृद्धि दर के साथ एक अरब 21 करोड़ है। 31.14 फीसद लोग शहरी इलाकों में एवं शेष ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। इस आधार पर देखा जाए तो रोगों का भार ग्रामीण क्षेत्रों पर ज्यादा है। ऐसे में ग्रामीण भारत पर विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत है। 2018 में आयुष्मान भारत योजना शुरू होने से ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य की पहुंच और बेहतर हो सकेगी ऐसी आशा की जानी चाहिए। फिलहाल इस बात पर विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि गैर-संचारी रोगों की रोकथाम हो एवं इसके बारे में जन-जागरूकता के लिए विशेष अभियान चलाए जाएं। संभव हो तो विद्यालयी पाठ्यक्रमों में स्वास्थ्य को एक विषय के रूप में पढ़ाए जाने की शुरूआत स्वास्थ्य जागरूकता की दिशा में एक सार्थक कदम हो सकता है।

 

आशुतोष कुमार सिंह

 

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